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का ही घात नहीं होता अपितु उस प्राणी के आश्रित रहे हुए खून, माँस, चर्बी आदि में उत्पन्न स्थावर एवं जंगम प्राणियों का भी घात होता है । अत: तुम हिंसा के दोष से कदापि नहीं बच सकते। श्रमणधर्म में प्रव्रजित पुरुष 42 भिक्षा दोषों से रहित आहार को ही ग्रहण करते है । उनके द्वारा चींटी का घात भी सम्भव नहीं है। तुम पंचेन्द्रिय प्राणी के घातक होने से घोर हिंसक हो । जो पंचेन्द्रिय जीव की हत्या करता है, वह नरकगामी होता है । अहिंसा की उपासना तो माधुकरी वृत्ति (गोचरी) से ही सम्भव है। ऐसी हिंसक प्रवृत्ति करने वाले अनार्य लोगों को सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती ।
जो मनसा, वाचा, कर्मणा अहिंसा का पालन करता है, जो समाधि भाव में स्थित है तथा ज्ञान-दर्शन - चारित्र से सम्पन्न है, वही मुनि केवलज्ञान को प्राप्त कर संसार समुद्र से तैरने का यथार्थ उपदेश देता है । 32
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सन्दर्भ एवं टिप्पणी
184-186
सूत्रकृतांग नियुक्ति गाथा
सूत्रकृतांग नियुक्ति गाथा
187
जैन साहित्य का बृहद इतिहास भाग - 1 पृष्ठ - 164
(अ). सूत्रकृतांग नियुक्ति गाथा
191-197
(ब). सू. चूर्णि पृ.
414
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(स). सूत्रकृतांग वृत्ति पत्र (अ) सूत्रकृतांग नियुक्ति गाथा
रहमि गया ।'
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387-388
193 : तेणावि सम्मद्दिट्ठित्ति, होज्ज पडिमा
(ब) सूत्रकृतांग वृत्ति पत्र - 387 : 'यदादि तीर्थंकरप्रतिमा संदर्शनेन तस्यानुग्रहः क्रियत ।'
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सूत्रकृतांग सूत्र, द्वि. श्रु. ( मधुकर मुनि) पृ.
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164
सूत्रकृतांग सूत्र, द्वि. श्रु. अमरसुख बोधिनी व्याख्या पृ.
सूत्रकृतांग नियुक्ति गाथा
200
दुक्करं वा णरपासमोयणं, गयस्स मत्तस्स वणम्मि राय ! जहा 'उवत्तावलिएण' तंतुणा, सुदुक्करं मे पडिभाति मोयणं ॥
सूत्रकृतांग वृत्ति पत्र - 387/388
सूत्रकृतांग सूत्र - 2/6/7
सूत्रकृतांग वृत्ति पत्र 392
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342
सूत्रकृतांग सूत्र का सर्वांगीण अध्ययन / 213
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