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भी सापेक्ष रूप से स्वीकारना अर्थात् कथंचित अज्ञान, अक्रिया तथा विनय का अस्तित्व मानना सम्यक है, परन्तु अन्य अपेक्षा से उनका नास्तित्व मानना उचित है। इस अनेकान्त दृष्टि से मानने पर ये तीनों वाद भी सम्यक् हो सकते है।'
प्रस्तुत अध्ययन उद्देशक रहित 22 गाथाओं में गुंफित है, जिसमें इन्हीं वादों की विवक्षा तथा समीक्षा की गयी है। इसका विस्तृत विश्लेषण आगे किया जायेगा।
इन चारों वादों का निरसन करते हुये शास्त्रकार ने अन्तिम गाथाओं में सम्यक् क्रियावाद की स्थापना की है, जो अनेकान्तवाद का ही स्वरूप है। इस प्रकार एकान्त आग्रह के खण्डन स्वरूप जो निष्कर्ष निकलता है, वही अनेकान्तवाद या स्याद्वाद का सिद्धान्त है, वही जैन दर्शन का हार्द है। . उपान्त्य की गाथा द्वय में बताया गया है कि जो आत्मा तथा लोक को जानता है, जो जीवों की गति-आगति को जानता है, इसी प्रकार जो शाश्वत (मोक्ष) अशाश्वत (संसार) को एवं प्राणियों के नानाविध गतियों के गमन को जानता है, जो नरक की विविध प्रकार की पीड़ाओं को, आश्रव तथा संवर, निर्जरा एवंदु:ख को जानता है, वस्तुत: वही सम्यक् क्रियावादी क्रियावाद को सम्यक्तया बता सकता है। इन गाथाओं में नव तत्त्वों की भी प्ररूपणा की गयी है। जो नौ तत्त्वों को ठीक-ठीक जानता है, वही सम्यक्रियावादी है।
भगवती सूत्र के तीसवें शतक का नाम भी 'समवसरण' है। इसमें भी क्रियावादी, अक्रियावादी, विनयवादी तथा अज्ञानवादी की अपेक्षा से समस्त जीवों का विचार किया गया है। जो जीव शुक्ललेश्या वाले है, वे चार प्रकार के है। लेश्यारहित जीव केवल क्रियावादी है। कृष्णलेश्या वाले जीव क्रियावादी के अतिरिक्त तीनों प्रकार के है। नारकी चारों प्रकार के जीव है। पृथ्वीकायिक केवल अक्रियावादी तथा अज्ञानवादी है। इसी प्रकार समस्त एकेन्द्रिय तथा विकलेन्द्रिय के विषय में समझना चाहिए। मनुष्य एवं देव चार प्रकार के है। ये चारों भवसिद्धिक है या अभवसिद्धिक, इसकी भी चर्चा की गयी है। इस शतक में ग्यारह उद्देशक है।
सन्दर्भ एवं टिप्पणी 1. पाइअसद्दमहण्णवो - पृ. - 876 2. (अ). सूत्रकृतांग नियुक्ति गाथा - 120
(ब). सूत्रकृतांग वृत्ति पत्र - 209 ,
160 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन
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