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पर जैन धर्म के अनन्य उपासक सम्राट खारवेल की साक्षी में द्वितीय वाचना हुई। यद्यपि इस वाचना के संबंध में विस्तार से कुछ उपलब्ध नहीं होता। मात्र इतनी ही जानकारी मिलती है कि अनेकों विद्वान् स्थविरों की निश्रा में यह वाचना सम्पन्न हुई थी, जिसमें श्रुतसंरक्षण का प्रयास किया गया।" ___ चूंकि उस युग में आगमों के अध्ययन की गुरु-शिष्य परम्परा से मौखिक अध्ययन की व्यवस्था होने से देशकाल के अनुसार धीरे-धीरे विस्मृति दोष के कारण आगम पाठों में भिन्नता आना स्वाभाविक था। अत: भाषायी स्वरूप को स्थिरता देने के लिये एवं अनेक अन्य विद्वान् मुनियों के द्वारा जो भी नयी रचनाएँ होती थी, उन्हें मान्यता देने के लिये यह सामूहिक वाचना का कार्यक्रम आयोजित किया गया। आचार नियमों में एवं आगमिक व्याख्याओं में परिस्थिति वश जो अन्तर आ जाता था, उनका निरूपण भी ऐसे उपक्रमों में किया जाता था। तृतीय वाचना . यह महावीर स्वामी के निर्वाण के 827 वर्ष पश्चात् मथुरा में आर्य स्कंदिल के नेतृत्व में सम्पन्न हुई। माथुरी वाचना के दो प्रकार की मान्यताएँ नन्दीचूर्णि में है। एक मान्यता के अनुसार तो बारह वर्षीय भयंकर दुष्काल के कारण श्रमण संघ की स्थिति अत्यन्त विकट हो गयी। युवा मुनि दूर-सुदूर प्रदेशों में चले गये। अनेक मुनि क्रुर काल के मुँह में समा गये। क्षुधा परिषह से व्याकुल मुनि स्वाध्याय, अध्यापन और धारणा में एकाग्र नहीं हो पाये। धीरे-धीरे ज्ञान विस्मृत होने लगा। अतिशययुक्त श्रुत विनष्ट हुआ। अंग और उपांग साहित्य का भी अर्थ की अपेक्षा से बहुत भाग नष्ट हो गया। दुष्काल समाप्त होने पर आचार्य स्कंदिल के आह्वान पर श्रमण संघ मथुरा में एकत्र हुआ। जिन-जिन श्रमणों को जितनाजितना स्मरण था, उसका अनुसंधान कर कालिक एवं पूर्वगत कुछ श्रुत को व्यवस्थित किया गया। चूँकि यह वाचना मथुरा में सम्पन्न हुई, अत: माथुरी एवं स्कंदिलाचार्य के नेतृत्व में हुई, अत: इसे स्कंदिली वाचना की संज्ञा मिली। दूसरी मान्यता यह है कि सूत्र नष्ट नहीं हुए थे, परन्तु अनुयोगधारी स्वर्गवासी हो गये थे। एतदर्थ अनुयोगधारी स्कंदिल ने अनुयोग का पुन: प्रवर्तन किया अतः इस वाचना को माथुरी वाचना कहा गया । चतुर्थ वाचना जिस समय उत्तर पूर्व और मध्य भारत में विचरण करने वाले श्रमणों का
जैन आगम साहित्य : एक अनुशीलन / 57
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