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परमात्मा की वाणी प्राणीमात्र के लिये होती है। वे उसी भाषा का उपयोग करते हैं, जिसे अल्पबुद्धि भी समझ सके। साधना के आकांक्षी, आबाल, वृद्ध, महिलाएँ भी जिस भाषा को सुगमता से समझ सकते थे, वह प्राकृत भाषा ही थी, अत: परमात्मा इसी भाषा में देशना देते थे।-चूँकि देव इसी भाषा में बोलते हैं, अत: यह देववाणी भी है।
जिनदास गणि अर्धमागधी शब्द का अर्थ दो प्रकार से करते हैं - 1. यह भाषा चूँकि मगध के एक भाग में बोली जाती थी, अत: अर्धमागधी
कहलाती है। 2. इस भाषा में अठारह देशों की भाषा का मिश्रण है। इसे यों भी यह
सकते हैं कि इस भाषा में मगध और देशज शब्दों का मिश्रित प्रयोग है। मागधी और अर्धमागधी में यह अन्तर है कि मागधी में तीनों ऊष्म व्यंजनों के स्थान पर एकमात्र 'श' का प्रयोग होता है, जबकि अर्धमागधी में श और ष के स्थान पर 'स' ही प्रयोग में आता है। उसमें शकार नहीं मिलता है। हो सकता है, बोलने में श बोला जाता हो, परन्तु लिखने में सही लिखा जाता है। चूँकि महात्मा बुद्ध का विचरण क्षेत्र भी वही था, जो भगवान महावीर का था, अत: उनके त्रिपिटक की पाली भाषा में भी श नहीं मिलता बल्कि श और ष के स्थान पर सर्वत्र स ही मिलता है। इन्हीं विशेषताओं के कारण भगवान महावीर के आगमों की भाषा को अर्धमागधी भाषा कहते हैं।
यद्यपि समस्त आगम एक ही काल की रचनाएँ नहीं हैं परन्तु कतिपय रचनाओं में जो भी प्राचीन अंश मिलते हैं, उनकी भाषा का स्वरूप पाली भाषा के समान ही होना चाहिये था, परन्तु ऐसा नहीं है। जैसे आचारांग का प्रथम श्रुतस्कन्ध भाषा, विषयवस्तु और शैली के कारण सबसे प्राचीन है, परन्तु इसकी भाषा भी अल्पांश में अन्य आगमों की तरह महाराष्ट्री प्राकृत से प्रभावित हुई है। मौखिक परम्परा और जैन धर्म के प्रचार के दौरान उन-उन क्षेत्रों की भाषा का मिश्रण भी होता गया है और इस अपेक्षा से आगमों का एक भी ग्रन्थ शुद्ध अर्धमागधी भाषा में उलपब्ध नहीं है। सारे आगम महाराष्ट्री प्राकृत से बहुत अधिक प्रभावित हुए है। इसी कारण आगम प्रभाकर मुनि श्री पुण्यविजयजी म. को यह कहना पड़ा कि मूल भाषा परिवर्तन के कारण खिचड़ी हो गयी है।
अर्धमागधी प्राकृत शौरसेनी और महाराष्ट्री प्राकृत भाषा से सर्वथा भिन्न 54 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन
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