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लेकर सबसे बड़े शरीर वाले स्वयम्भूरमण समुद्र के महामच्छ जीव तक जीव घटताबढ़ता है। मुक्त अवस्था में हानि-वृद्धि का कारण जो नामकर्म है, उसका अभाव होने से जीव के प्रदेश न तो संकोचते और न ही विस्तार को प्राप्त होते हैं, किन्तु विगत शरीर-प्रमाण रहते हैं। (७) संसारी जीवों के भेद
संसारी जीव त्रस और स्थावर के भेद से दो प्रकार के होते हैं।
स्थावर नामकर्म के उदय से प्राप्त हुई जीव की अवस्था-विशेष अर्थात पर्याय को स्थावर जीव कहते हैं। पृथ्वी, जल, अग्नि और वायुकायिक जीवों के शरीर की अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण होती है, इसलिए ये दिखाई नहीं देते। पृथ्वीकायिक का शरीर मसूर के दाने के समान गोल, जलकायिक का शरीर पानी की बूंद के समान गोल, अग्निकायिक का शरीर सुइयों के समूह के समान और वायुकायिक का शरीर ध्वजा के समान लम्बा-तिरछा होता है। वनस्पतिकाधिक जीवों का शरीर अनेक प्रकार का एवम् अनेक अवगाहनाओं का होता है। ये एकेन्द्रिय जीव बादर और सूक्ष्म के भेद से दो प्रकार के होते हैं।
उस नामकर्म के उदय से प्राप्त हुई जीव की अवस्था-विशेष को जस कहते हैं। दो इन्द्रिय से लेकर चार इन्द्रिय तक के जीव विकलत्रय कहलाते हैं। दो इन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीव त्रस कहलाते हैं। बस जीव तीनों लोकों के मध्य में स्थित एक राजू चौड़ी और चौदह राजू ऊँची त्रस नाड़ी है, उसमें कुछ कम तेरह राजू प्रमाण क्षेत्र में रहते हैं। पंचेन्द्रिय जीव संज्ञी (जिनके मन हो) और असंज्ञी (जिनके मन न हो) के भेद से दो प्रकार के होते हैं | (E) अस्तिकाय और जीव
अस्तिकाय में दो शब्द हैं- अस्ति और काय। जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश ये सदा रहने वाले हैं। इसलिए इनको 'अस्ति' कहा है और शरीर के समान बहुप्रदेशी हैं, अत: काय कहा है, दोनों मिलकर अस्तिकाय कहलाते हैं। इन सबको मिलाकर इनको पंचास्तिकाय कहा गया गया है। किन्तु कालाणु अस्ति रूप तो है, किन्तु एक प्रदेशी है, अतः उसको बहुप्रदेशी अर्थात् कायवान् नहीं कहा गया है।