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लिए साधन रूप से उपादेय अभ्यास के विषय में कही है। अध्यात्मयोगी के लिए ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वैराग्य, ये पाँच विषय भावना के हैं। इनकी भावना से वैभाविक संस्कारों का विलय, अध्यात्मतत्त्व की स्थिरता और आत्मगुणों का उदय होता है। इसके अतिरिक्त भावनायोग के प्रसंग में यद्यपि (1) अनित्य, (2) अशरण, (3) संसार, (4) एकत्व, (5) अन्यत्व, (6) अशुचि, (7) आस्रव, (8) संवर, (9) निर्जरा, (10) लोक, (11) बोधिदुर्लभ और (12) धर्म, इन बारह भावनाओं का वर्णन भी प्रसंगतः प्राप्त हो जाता है, परन्तु विस्तारभय से उसका वर्णन यहाँ स्थगित कर दिया गया है। ___3. ध्यानयोग-अब तीसरे ध्यानयोग का कुछ स्वरूप वर्णन किया जाता है:
(क) स्थिर दीपशिक्षा के समान निश्चल और अन्य विषय के संचार से रहित केवल एक ही विषय का धारावाही प्रशस्त सूक्ष्म बोध जिसमें हो उसको ध्यान कहते
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(ख) अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त एक ही विषय पर चित्त की सर्वथा एकाग्रता अर्थात् ध्येय विषय में एकाकारवृत्ति का प्रवाहित होना, उसका नाम ध्यान है।
. शीलांकाचार्य ने 'ज्झाणजोगं समाहटु'' इस गाथा की व्याख्या करते हुए चित्तनिरोधलक्षण धर्मध्यानादि में मन, वचन, काया के विशिष्ट व्यापार को ही ध्यानयोग कहा है। (ध्यानम्-चित्तनिरोधलक्षणं धर्मध्यानादिकं तत्र योगो विशिष्टमनोवाक्कायव्यापारस्तं ध्यानयोगम्)।
इस साधनयोग में ध्येयवस्तुविषयक एकाग्रता इतनी बढ़ जाती है कि साधक को उस समय ध्येय के अतिरिक्त अन्य का आंशिक विचार भी उद्भव नहीं होता। यह ध्यानरूप योगाग्नि जिस आत्मा में प्रज्वलित होती है उसका कर्मरूप मल (जो आत्मा
1. 'स तु दीर्घकालनैरन्तर्यसत्कारासेवितो दृढभूमिः'। (पातं. योग 1-14)
'बहुकालनैरन्तर्येण आदरातिशयेन च सेव्यमानो दृढभूमिः-स्थिरीभवति'। (भोजवृत्तिः)। 2. इसका अधिक बिवेचन 'भावनायोग' नामक पुस्तक में देखना चाहिये। 3. 'निवायसरणप्पदीपज्झाणमिव निप्पकंपे'। (प्रश्नव्या. संवरद्वार 5) 4. यह समग्र गाथा इस प्रकार है
'ज्झाणजोगं समाहटु, कायं विउसेज्ज सव्वसो। तितिक्खं परमं नच्चा, आमोक्खाए परिवएज्जास'। (सूयगडंग अ. 8, गा. 26) छा.-ध्यानयोगं समाहृत्य, कायं व्युत्सृजेत् सर्वशः।
तितिक्षां परमां ज्ञात्वा, आमोक्षाय परिव्रजेत्।।