Book Title: Adhyatma Amrut
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Bramhanand Ashram

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Page 11
________________ [अध्यात्म अमृत जयमाल [१० ज्ञान विराग के बल से इनका, मिटता नाम निशान है। कमल बत्तीसी जिसकी खिल गई, बनता वह भगवान है । ४. श्री श्रावकाचार जयमाल १. ७. नन्द आनंदह चिदानंद जिन, परमानंद स्वभावी हूं। पर पर्याय से भिन्न सदा मैं, ममलह ममल स्वभावी हूं। ममल स्वभाव में लीन रहे जो, वह नर श्रेष्ठ महान है । कमल बत्तीसी जिसकी खिल गई, बनता वह भगवान है। रत्नत्रय की शुद्धि करके, पंच महाव्रत धारी है । पंचज्ञान पंचार्थ पंचपद, पंचाचार बिहारी है ॥ ज्ञान-ध्यान में लीन सदा जो, साधु सिद्ध समान है। कमल बत्तीसी जिसकी खिल गई, बनता वह भगवान है। देवों के जो देव परम जिन, परमातम कहलाते हैं। नमन सदा हम करते उनको, जो सत्मार्ग बताते हैं। सम्यग्दर्शन ज्ञान चरण ही, मुक्ति का आधार है । सावधान अपने में रहना, यही श्रावकाचार है ॥ भेदज्ञान से स्व-पर जाना, वह अव्रत सम दृष्टि है। पाप विषय कषाय में रत है, अभी जगत में गृहस्थी है ॥ अन्याय अनीति अभक्ष्य का त्यागी, वह नर जग सरदार है। सावधान अपने में रहना, यही श्रावकाचार है ॥ ज्ञानानंद निजानंद रहता, सब प्रपंच से दूर है । वस्तु स्वरूप सामने दिखता, ब्रह्मानंद भरपूर है ॥ आर्त-रौद्र ध्यानों का त्यागी, धर्म शुक्ल ही ध्यान है। कमल बत्तीसी जिसकी खिल गई, बनता वह भगवान है। ३. जो पच्चीस मलों का त्यागी, शद्ध सम्यक्त्वी होता है। अठदश क्रिया का पालन करता, विषय-कर्ममल धोता है। सप्त भयों से मुक्त हो गया, नि:शंकित सदा उदार है। सावधान अपने में रहना, यही श्रावकाचार है ॥ १०. जिनवर कथित सप्त-तत्वों का, जो निश्चय श्रद्धानी है। सब संसार चक्र छोड़कर, शरण गही जिनवाणी है । के वलज्ञान प्रगट करके वह, पाता पद निर्वाण है । कमल बत्तीसी जिसकी खिल गई, बनता वह भगवान है॥ ४. श्रद्धा विवेक क्रिया का पालक, वह श्रावक कहलाता है । द्वादशांग का सार जानता, धर्म-कर्म बतलाता है । उपाध्याय पदवी का धारी, रहा न मायाचार है । सावधान अपने में रहना, यही श्रावकाचार है ॥ (दोहा) सम्यग्चारित्र आत्मा, निज स्वभाव में लीन । अन्तर रत्नत्रय धरें, बाह्य-चारित्र दश तीन ।। कमल बत्तीसी प्रगटकर, बनता खुद भगवान । साधु पद से सिद्ध पद, पाता पद निर्वाण ॥ धर्मध्यान व्रत संयम करता, मुक्ति का अभिलाषी है। दृष्टि में शुद्धातम दिखता, अभी जगत का वासी है । परमारथ में रूचि लगी है, खलता अब घरद्वार है । सावधान अपने में रहना, यही श्रावकाचार है ॥ ६. षट् आवश्यक शुद्ध पालता, मुक्ति के जो कारण हैं। व्यर्थ आडम्बर छूट गया सब, उसके सद्गुरू तारण हैं |

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