Book Title: Adhyatma Amrut
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Bramhanand Ashram

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Page 23
________________ ३३] जयमाल [३४ [अध्यात्म अमृत पक्षातीत स्वयं का अनुभव, भव से तारण हार है। द्रव्य दृष्टि का हो जाना ही, समयसार का सार है । १६. श्री नियम सार जयमाल ७. १. जो दिखता है भ्रांति स्वयं की, यही तो भ्रम अज्ञान है। पर पर्याय से भिन्न जो देखे, वही तो सम्यग्ज्ञान है ॥ निज शुद्धात्मानुभूति होते ही, मिटता भ्रम संसार है। द्रव्य दृष्टि का हो जाना ही, समयसार का सार है ।। आतम ही परमातम है, शुद्धातम सिद्ध समान है । चिदानंद चैतन्य ज्योति यह, खुद आतम भगवान है । भेदज्ञान तत्व निर्णय द्वारा, निज में इतनी दृढ़ता धरो। नियमसार का सार यही है, मुक्ति श्री का वरण करो ॥ आसव बन्ध पुण्य-पाप सब, कर्म बन्ध कहलाते हैं। संवर निर्जर तत्व के द्वारा, जीव मोक्ष को जाते हैं । सर्व विशुद्ध ज्ञान से होता, आतम का उद्घार है । द्रव्य दृष्टि का हो जाना ही, समयसार का सार है ।। मार्ग मार्ग फल सामने देखो, दोनों तरफ का ज्ञान है। एक तरफ संसार चतुर्गति, सामने मोक्ष महान है ॥ छोड़ो अब संसार चक्र को, मोह राग में मती मरो। नियमसार का सार यही है, मुक्ति श्री का वरण करो ॥ जीव आत्मा सिद्ध स्वरूपी, अजर अमर अविकार है। पुद्गल द्रव्य शुद्ध परमाणु, अनंतानंत अपार हैं ॥ धर्म अधर्म आकाश काल सब, अपने में निर्विकार है। द्रव्य दृष्टि का हो जाना ही, समयसार का सार है ।। सम्यक्दर्शन ज्ञान सहित ही, द्रव्य दृष्टि यह होती है। कर्म कषायें मन पर्यायें, सारा भ्रम भय खोती हैं । निज सत्ता स्वरूप पहिचाना, कर्मोदय से नहीं डरो। नियमसार का सार यही है, मुक्ति श्री का वरण करो ॥ १०. छह द्रव्यों का समूह जगत यह, भ्रम अज्ञान का जाल है। द्रव्य दृष्टि से देखो इसको, मिटता जग जंजाल है ।। ज्ञानानंद स्वभाव रहो तो, मचती जय जयकार है। द्रव्य दृष्टि का हो जाना ही, समयसार का सार है ।। ४. निज स्वभाव में स्थित रहना, सम्यग्चारित्र कहाता है। शुद्धोपयोग की सतत साधना, जैनागम बतलाता है । वीतराग निर्ग्रन्थ दिगम्बर, साधु पद रत्नत्रय धरो । नियमसार का सार यही है, मुक्ति श्री का वरण करो ॥ (दोहा) मोह राग अज्ञान के कारण, काल अनादि भटके हो। चारों गति के दु:ख भोगे हैं, भव संसार में लटके हो ॥ नरभव यह पुरूषार्थ योनि है, जन्म मरण के दुःख को हरो। नियमसार का सार यही है, मुक्ति श्री का वरण करो ॥ कुन्द कुन्द आचार्य का, अध्यात्मवाद का सार। सत्य धर्म की देशना, जिनवाणी अनुसार ।। आतम शुद्धातम प्रभु, निज स्वरूप अविकार। मुमुक्षु जीव बन कर सभी, करो इसे स्वीकार ।। ६. ध्रुव तत्व टंकोत्कीर्ण अप्पा, केवलज्ञान स्वभावी हो । तीन लोक के नाथ स्वयं तुम, लोकालोक प्रकाशी हो ।

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