Book Title: Adhyatma Amrut
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Bramhanand Ashram

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Page 38
________________ ६३] [अध्यात्म अमृत [६४ ३३. बारह भावना आतम ही तो परमातम है, सब धर्मों का सार है। निज स्वरूप का बोध जगा लो, ब्रम्ह सदा अविकार है। निज अज्ञान मोह के कारण, सह रहे कर्म की मार है। बारह भावना भाने से होता आतम उद्धार है ॥ वैराग्य की जननी बारह भावना, वस्तु स्वरूप बताती है। स्व पर का यथार्थ निर्णय यह, अपने आप कराती है | इनका चिन्तन मनन ध्यावना, नरभव का ही सार है। बारह भावना भाने से, होता आतम उद्धार है ॥ १.अनित्य भावना जो जन्मा है अवश्य मरेगा, ये ही जगत विधान है। मर करके जो जन्म न लेता, वह बनता भगवान है ॥ आतम अजर अमर अविनाशी, अज्ञान से बना गंवार है। अनित्य भावना भाने से, होता आतम उद्धार है । संयोगी पर्याय बिछुड़ना, यह मरना कहलाता है । वस्तु स्वरूप विचार करो तो, सब अज्ञान नसाता है | पर्यायी परिणमन क्षणिक है, अपनी रखो सम्हार है। अनित्य भावना भाने से, होता आतम उद्धार है । २.अशरण भावना शरण नहीं है जग में कोई, झूठे सब रिश्ते नाते । स्वारथ लाग करें सब प्रीति, जरा काम में नहीं आते ॥ जन्मो मरो, स्वयं ही भुगतो, यही तो सब संसार है। अशरण भावना भाने से, होता आतम उद्धार है ॥ देख लिया जग का स्वरूप सब,अब किसको क्या कहना है। ज्ञानी हो, तो अभी चेत लो, ज्ञानानंद में रहना है ॥ बारह भावना धर्म कर्म में कोई न साथी, झूठा सब व्यवहार है। अशरण भावना भाने से, होता आतम उद्धार है ।। ३. संसार भावना कोई नहीं किसी का साथी, न कोई सुख दुःख दाता। अपना अपना भाग्य साथ ले, जग में जीव आता जाता ।। फिर किसको अपना कहते हो, सब जग ही निस्सार है। संसार भावना भाने से, होता आतम उद्धार है ।। धन वैभव सब कर्म उदय से, मिलता और बिछुड़ता है। कर्ता बनकर मरने से ही, जीव अनादि पिटता है । देख लिया सब जान लिया फिर, अब क्यों बना लवार है। संसार भावना भाने से, होता आतम उद्धार है । ४. एकत्व भावना आप अकेला आया जग में, आप अकेला जायेगा। जैसी करनी यहाँ कर रहा, उसका ही फल पायेगा । चेत जाओ अब भी जल्दी से, रहना दिन दो चार है। एकत्व भावना भाने से, होता आतम उद्धार है ।। माया का यह खेल जगत है, जीव तो ज्ञान स्वभावी है। चिदानन्द चैतन्य आत्मा, ममलह ममल स्वभावी है । निज सत्ता शक्ति पहिचानो, मौका मिला अपार है । एकत्व भावना भाने से, होता आतम उद्धार है ॥ ५.अन्यत्व भावना इस शरीर से सब संबंध है, जीव से न कोई नाता। सारा खेल खत्म हो जाता, जब यह जीव निकल जाता | धन वैभव सब पड़ा ही रहता, साथी न परिवार है। अन्यत्व भावना भाने से, होता आतम उद्धार है । देखलो सब प्रत्यक्ष सामने, कैसी है दुनियादारी । नाते रिश्ते छूट गये सब, छूट गई सब हुश्यारी ।।

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