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* वन्दे श्री गुरू तारणम् *
अध्यात्म अमृत
(जयमाल एवं भजन)
halka
रचयिता स्वामी ज्ञानानन्द
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* वन्दे श्री गुरू तारणम् *
४००० ३०००
बह्मानंद आश्रमका
आठवांपुष्प अध्यात्म अमूत
(जयमाल एवं भजन)
प्रथमावृत्ति द्वितीयावृत्ति तृतीयावृत्ति चतुर्थावृत्ति
वत्ति
२०००
अमरवाड़ा समाज जबलपुर समाज ब्रह्मानंद आश्रम ब्रह्मानंद आश्रम
३०००
सन् १९९९ ©सर्वाधिकार सुरक्षित
रचयिता स्वामी ज्ञानानन्द
( मूल्य - दस रूपया )
Ay
प्राप्ति स्थल - १. ब्रम्हानंद आश्रम, पिपरिया,
जिला-होशंगाबाद (म.प्र.)-४६१७७५ २. श्री तारण तरण अध्यात्म प्रचार योजना केन्द्र,
६१, मंगलवारा, भोपाल (म.प्र.)- ४६२००१ ३. यह कृति गंजबासौदा, इटारसी और छिन्दवाड़ा
से भी प्राप्त की जा सकती है।
सम्पादक ब्रह्मचारी बसन्त
प्रकाशक ब्रह्मानन्द आश्रम
संत तारण तरण मार्ग पिपरिया (होशंगाबाद) म.प्र.
अक्षर संयोजन एवं अभिकल्पन:- एडवांस्ड लाईन, नानक अपार्टमेंट, कस्तूरबा नगर, भोपाल. फोन: २७४२८६ मुद्रक :- एम.के. ऑफसेट,ए-१२१, कस्तूरबा नगर, भोपाल.
फोन: ५८८५७९, ९८२७०५८८५७
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प्रकाशकीय अध्यात्म अमृत जयमाल का दूसरी बार प्रकाशन करते हुये हमें अत्यंत प्रसन्नता हो रही है। यह अमूल्य निधि, जिसका लाभ सभी अध्यात्म प्रेमी भव्य जीव ले सकेंगे। यह पूज्य श्री स्वामी ज्ञानानंद जी महाराज की आत्म साधना की विशेष उपलब्धि है, जो सहज में लिखने में आ गई है। इतनी सरल सहज सुबोध अपनी भाषा में अध्यात्म के गूढतम रहस्यों को इस प्रकार छंदबद्ध करना बहुत ही गहन साधना का परिणाम है। इसमें श्री गुरू तारण तरण मंडलाचार्य जी महाराज के चौदह ग्रंथों की जयमाल, आचार्य कुन्द कुन्द देव के पांच ग्रंथों की जयमाल, अमृत कलश, छहढाला आदि तथा अन्य स्वतंत्र मौलिक जयमाल, वैराग्य वर्धक भजन संग्रहीत किये गये हैं। वैसे तो पूज्य श्री द्वारा लिखित कई ग्रंथों की टीकाएं हैं, तारण की जीवन ज्योति और अन्य रचनाएँ हैं जो सब प्रकाशित होना है। जिनसे अध्यात्म प्रेमी भव्य जीवों को बहुत लाभ होगा। यह अध्यात्म अमृत जयमाल तो सहज में ही उपलब्ध हो गई जिसे दूसरी बार प्रकाशित करने का हमें सौभाग्य मिला है। इसका स्वाध्याय चिंतन मनन कर आप भी अपने जीवन में अध्यात्म अमृत को उपलब्ध होवें तभी इसकी सार्थकता है। भविष्य में और कई प्रकाशन करने की योजना है, आपका सहयोग मार्गदर्शन हमें आत्मबल प्रदान करेगा।
श्रीगुरू महाराज की वाणी के प्रचार-प्रसार हेतु "ब्रह्मानंद आश्रम"पिपरिया सदैव कटिबद्ध है । इसी कटिबद्धता अनुसार सभी साधकजन गांव-गांव, शहर-शहर में अध्यात्म की गंगा प्रवाहित कर रहे हैं। सन् १९९० में पिपरिया समाज को आत्मनिष्ठ साधक पूज्यश्री स्वामी ज्ञानानंद जी महाराज के "वर्षावास" का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। तभी से समाज में धार्मिक चेतना की विशेष किरणें प्रस्फुटित हुई। पूज्य श्री के मंगलमय सानिध्य में ही ब्रह्मानंद आश्रम के तीन पुष्प -१. अध्यात्म उद्यान की सुरभित कलियां, २. तारण गुरू की वाणी अमोलक (विमल श्री भजन संग्रह) एवं ३. जीवन जीने के सूत्र, प्रकाशित हो चुके थे तथा विगत सन् १९९६ में अध्यात्म रत्न श्रद्धेय बा. ब्र. श्री वसंतजी महाराज द्वारा अथक परिश्रम से तैयार किया गया पाठशालाओं हेतु पाठ्यक्रम "ज्ञान दीपिका" भाग-१,२,३ का सुंदर प्रकाशन चतुर्थ पुष्प के रूप में हुआ जिससे समाज की बहुत बड़ी कमी दूर हुई। इसके पश्चात् अध्यात्म अमृत का पांचवें पुष्प के रूप में प्रथम बार प्रकाशन हुआ। अध्यात्म प्रकाश (संस्कार शिविर स्मारिका) छठवां पुष्प, पूज्य श्री द्वारा की गई श्री मालारोहण जी ग्रंथ की अध्यात्म दर्शन
टीका - सातवां पुष्प और अध्यात्म अमृत का दूसरी बार प्रकाशन कर आठवें पुष्प के रूप में यह कृति आपके कर कमलों में समर्पित कर रहे हैं।
पज्य श्री स्वामी ज्ञानानंद जी महाराज द्वारा लिखे गए आध्यात्मिक टीका ग्रंथ श्री मालारोहण,पंडित पूजा और अध्यात्म किरण (प्रश्नोत्तर) का प्रकाशन हो चुका है। श्री कमल बत्तीसी (अध्यात्म कमल टीका) के प्रकाशन का कार्य भी चल रहा है। पूज्य श्री ने इन कृतियों में अध्यात्म और आगम के परिप्रेक्ष्य में ग्रंथों के हार्द को व्यक्त किया है। पूज्य श्री द्वारा की गई श्री श्रावकाचार, उपदेश शुद्ध सार, त्रिभंगी सार जी की अनुपम टीकायें शीघ्र ही आपको उपलब्ध कराने का प्रयास है, साथ ही पूज्य श्री की एक बड़ी अद्भुत मौलिक रचना है "तारण की जीवन ज्योति" उसके भी प्रकाशन की चर्चा है जो समय पर उपलब्ध हो सकेगी। इसके साथ ही पूज्य ब. श्री बसंत जी महाराज के मधुर कैसेट तथा अन्य तारण साहित्य का प्रकाशन कर धर्म प्रभावना करना हमारा प्रमुख उद्देश्य है। यह हमारा सौभाग्य है कि ब्रह्मानंद आश्रम पिपरिया को श्री गुरूवाणी के प्रचार-प्रसार करने का सौभाग्य मिला है। ब्रह्मानंद आश्रम से संचालित होने वाली गतिविधियों को मूर्त रूप देने वाले हमारे दानी महानुभावों के नाम इस प्रकार हैं- १. पूज्य ब्र.श्री सुशीला बहिन जी बीना, २. श्रीमती प्रभा देवी जैन कलकत्ता, ३.श्री रमेशचन्द जी जैन, सरधना, ४.समाज श्री गुलाबचंद जी प्रेमी पिपरिया,५.श्री कन्हैयालाल जी हितैषी पिपरिया, ६. श्री अशोक कुमार जी नागपुर, ७. श्री सियाबाई, जयंतीबाई शाहनगर, इन सभी महानुभावों के हम आभारी हैं, जिन्होंने हमें धर्म प्रभावना के कार्य हेतु उत्साहित किया है।
आशा है निश्चित ही यह अनमोल निधि पाकर आपका जीवन भी अध्यात्म से सराबोर होगा। इस आठवें पुष्प के प्रकाशन में यदि कोई त्रुटि, कमी रह गई हो तो विद्वत्जन हमारी अल्पज्ञता को क्षमा करते हुए हमें मार्गदर्शन प्रदान करने की कृपा करेंगे तथा श्री जिनवाणी के प्रचार-प्रसार में सदैव सहयोग देते रहेंगे। इसी भावना सहित प्रस्तुत अध्यात्म अमृत जयमाल, आठवौं पुष्प आपके कर कमलों में भेंट करते हुये.....
(विनीत कन्हैया लाल हितैषी
विजय मोही अध्यक्ष
मंत्री ब्रह्मानंद आश्रम, पिपरिया
ब्रह्मानंद आश्रम, पिपरिया दिनांक- १२ मई १९९९
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अध्यात्म अमृत
अध्यात्म का अर्थ है अपने आत्म स्वरूप को जानना।
अध्यात्म मनुष्य को पलायनवादी नहीं बनाता बल्कि उसके जीवन को और अंतर जगत को व्यवस्थित कर स्थायी सुख शान्ति आनंदमय रहने का पथ प्रशस्त करता है।
अध्यात्म एक विज्ञान, कला और दर्शन है, जो मनुष्य के जीवन में जीने की कला का मूल रहस्य उद्घाटित कर देता है। यही अध्यात्म, अमृत है जो अजर अमर बनाने वाला है। अध्यात्म में जाति - पांति का कोई भेद नहीं होता, इस मार्ग में जैन-अजैन मनुष्य ही नहीं बल्कि संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच गति के जीव भी इस तथ्य को समझने की पात्रता रखते हैं।
वर्तमान समय में भौतिक वस्तुओं के संग्रह और भोगाकांक्षा की जन मानस में प्रतिस्पर्धा सी चल रही है किन्तु इसका परिणाम सामाजिक और राष्ट्रीय स्तर पर भी विकृति के अलावा कुछ नहीं मिल रहा है। हमारे देश में हुए संतों, भगवन्तों ने जो अध्यात्म का मार्ग हमें दिया है, वही जन-जन के लिये कल्याणकारी शांति स्वरूप है।
वीतरागी भगवान महावीर स्वामी की परंपरा में हुए सोलहवीं सदी के महान संत श्री गुरू तारण तरण मण्डलाचार्य जी महाराज, जो अपने समय के अनूठे आध्यात्मिक क्रांतिकारी, वीतरागी संत थे, उन्होंने जाति-पांति से परे अध्यात्म की साधना, सत्य धर्म की प्रभावना द्वारा, धर्म और परमात्मा के नाम पर फैल रहे जड़वाद, आडम्बर और पाखंडों के प्रपंचों का अवसान करते हुए अपनी ओजस्वी आध्यात्मिक देशना से देश की जनता को झकझोर कर जगा दिया था, जिसके फलस्वरूप लाखों जैन-अजैन उनके अनुयायी बने और रत्नत्रय की एकता रूप संसार से तरने का मार्ग जो तारण पंथ है उसका बोध हुआ।
श्री गुरुदेव आचार्य श्री जिन तारण स्वामी जी महाराज के संघ में ७ निर्ग्रन्थ मुनिराज,३६ आर्यिका माता जी,२३१ ब्रह्मचारिणी बहिनें, ६० व्रती ब्रह्मचारी श्रावक तथा लाखों की संख्या में १८ क्रियाओं का पालन करने वाले श्रावक थे । ज्ञान, ध्यान और साधना की अनुभूतियों से पूर्ण उन्होंने चौदह
ग्रंथों की रचना की। मध्यम पद प्रमाण से चौदह ग्रंथ १०,००० श्लोक प्रमाण सिद्ध होते हैं, जो अध्यात्म साहित्य का एक अकूत भंडार है और अपने आपमें अपने आप जैसा ही अनुपमेय है।
इन ग्रन्थों में क्या है ? यह जिज्ञासा हर भव्य जीव की होती है। इसी जिज्ञासा को पूर्ण करने के लिये- हमारे सन्मार्ग दर्शक, दशम प्रतिमाधारी आत्मनिष्ठ साधक पूज्य श्री स्वामी ज्ञानानंद जी महाराज ने यह अध्यात्म अमृत जयमाल अत्यंत करूणा कर हम सभी भव्यात्माओं को दी है। पूज्य श्री साधना काल में छह-छह माह की मौन साधना में रत रहे, उस समय स्वयं की आत्म साधना के अन्तर्गत यह जयमाल और भजन सहजता से प्रस्फुटित हुए हैं। पूज्य श्री की जीवन शैली अपूर्व आनन्दमयी है। उनने यह कुछ लिखा नहीं, यह सब सहज ही लिखाता गया है और आज हमारे लिये एक अनमोल निधि बन गई है। पूज्य श्री महाराज जी ने चौदह ग्रंथ जयमाल में प्रत्येक ग्रंथ का सार अपनी सरल सुबोध भाषा में पिरो दिया है। जो जन सामान्य के लिये भी सहजता से ग्राह्य है। इसके साथ ही पूज्य श्री ने जैनागम संबंधी जयमाल भी सृजित की है, जिसमें कुन्दकुन्दाचार्य के पाँच परमागम का सार निकालकर अमृत कुंड में डूबने का मार्ग प्रशस्त किया है। अमृतचन्द्राचार्य के अमृत कलश का दोहन किया है तथा छहढाला,शुद्ध दृष्टि,ज्ञानी, मुनिराज,साधक, धुव धाम, ममल स्वभाव, तारण पंथ, अमृत कलश, सम्यक्ज्ञान, मोक्षमार्ग आदि की अनुभव पूर्ण मौलिक जयमाल भी इस कृति में संयुक्त हैं । अन्त में पूज्य श्री महाराज जी द्वारा रचित बारह भावना एवं साधना परक, वैराग्य वर्द्धक, प्रेरणाप्रद आध्यात्मिक भजन भी दिये गये हैं,जो हमारी अंतरात्मा को जागृत करने वाले हैं।
प्रतिदिन आप इसका व्यक्तिगत रूप से स्वाध्याय पाठ तो करें ही, साथ ही प्रतिदिन के स्वाध्याय के पश्चात् सामूहिक रूप से इसका वांचन सबके लिये मंगलकारी होगा।
यह अध्यात्म अमृत जयमाल आपके जीवन में अध्यात्म अमृत के निर्झर बहाये और अमृत मय मंगल मय जीवन बने यही मंगल भावना है। ब्रह्मानंद आश्रम पिपरिया
ब्र. बसन्त दिनांक - १.५.९९
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जय-जयमाल
श्री गुरू तारण तरण मंडलाचार्य जी महाराज ने जंगल में रहकर आत्म स्वभाव का अमृत रस बरसाया है। सद्गुरू तो धर्म के स्तम्भ थे, जिन्होंने सत्य धर्म को जीवन्त रखने के लिए कितने उपसर्ग सहन किये । परम सत्य स्वरूप श्री भगवान महावीर स्वामी की दिव्य देशना को अक्षुण्ण रूप से जीवन्त रखा, धर्म के नाम पर होने वाले बाह्य आडम्बर को सामने खोलकर रख दिया, गुरूदेव की वाणी में तो केवलज्ञान की झंकार गूंजती है, उन्होंने महान अध्यात्म वाद के चौदह ग्रंथों की रचना कर बहुत जीवों पर महान उपकार किया है।
वर्तमान में पूज्य श्री स्वामी ज्ञानानंद जी महाराज ने इन चौदह ग्रंथों की जयमाल लिखकर इन ग्रंथों का हार्द खोल दिया है तथा पूज्य आचार्य श्री कुन्द कुन्द के परमागम एवं अन्य जयमाल भजन लिखकर हम जीवों पर महान उपकार किया है। आज तारण पंथ की जो प्रभावना हो रही है इसका श्रेय पूज्य श्री अध्यात्म रत्न बाल ब्र. श्री बसन्त जी महाराज को है, जिन्होंने हम जैसे जीवों को धर्म मार्ग पर लगाया तथा श्री संघ के माध्यम से पूरे देश में अध्यात्मवाद का शंखनाद हो रहा है । सामाजिक संगठन, धार्मिक आयोजन, जीवों का जागरण सत्य धर्म को समझने का अनुष्ठान चल रहा है।
हमारे सामने जगह-जगह प्रश्न आते हैं, उनका समाधान निष्पक्ष भाव से समझने का प्रयास करें, स्वयं भी सत्य धर्म को समझें, अपनी श्रद्धा को दृढ़ रखें एवं सभी धर्म बन्धुओं को इसका यथार्थ बोध करायें। १.प्रश्न-ॐनमः सिद्ध और ॐ नमः सिद्धेभ्य: में क्या अन्तर है और
इसका अर्थ क्या है? समाधान- ॐ नमः सिद्धेभ्यः, सिद्ध भगवन्तों को नमस्कार हो।
ॐ नम: सिद्धं - सिद्ध स्वरूप को नमस्कार हो। "सिद्धेभ्यः" बहुवचन है इसमें सिद्ध भगवन्तों को नमस्कार है, जो श्रद्धा की अपेक्षा पुण्य बन्ध का कारण है, दृष्टि की अपेक्षा परोन्मुखी दृष्टि है। "सिद्धं" एकवचन है इससे सिद्ध स्वरूप को नमस्कार होता है, इसमें श्रद्धा अपेक्षा सिद्ध परमात्मा भी आ गये और अपना सिद्ध स्वरूप भी आ गया तथा दृष्टिकी अपेक्षा स्वोन्मुखी दृष्टि है, जो सम्यग्दर्शन धर्म का हेतु है। श्री गुरू महाराज का यह सिद्ध मंत्र है जो कई ग्रंथों में दिया गया है।
२. प्रश्न- जय तारण तरण का क्या अर्थ है? समाधान- तारण तरण एक सार्वभौम शब्द है, जिसमें जिनेन्द्र परमात्मा
और सभी भगवन्त आ जाते हैं, क्योंकि यह सब तारण तरण कहलाते हैं। वीतरागी सद्गुरू साधु भी तारण तरण होते हैं, धर्म भी तारण तरण होता है और निज आत्मा भी तारण तरण है। जय तारण तरण में सबका अभिवादन हो जाता है। विशेषहाथ जोड़कर सबको जय तारण तरण कहें, जय जिनेन्द्र कहें, जय राम जी कहें, नमस्कार कहें- प्रयोजन हमारा सबसे प्रेम
मैत्री भाव हो, कषाय की मन्दता हो। ३. प्रश्न- तारण पंथ में देव दर्शन का क्या विधान है? समाधान - अध्यात्म में निश्चय से निज शुद्धात्मा ही देव होता है, जो इस
देहालय में विराजमान है। तारण पंथी आंख बन्द करके अपने शुद्धात्म देव का दर्शन करता है और देव के स्वरूप को बताने
वाली जिनवाणी को नमन करता है। ४. प्रश्न- आरती, प्रसाद, चन्दन का क्या प्रयोजन है? समाधान - आरती - श्रद्धा, बहुमान और भक्ति का प्रतीक है। प्रसाद -
चार दान की प्रभावना स्वरूप है क्योंकि प्रसाद के साथ व्रत भण्डार भी दिया जाता है । चन्दन - अपनी मान्यता, परम्परा
और सौभाग्य का सूचक है, धर्मात्मा की पहिचान कराता है। विशेष-यह सामाजिक व्यवस्था है इससे धर्म का कोई सम्बन्ध
नहीं है, परंतु ग्रहस्थ के षट्आवश्यक में आता है। ५. प्रश्न - तारण पंथ का मूल आचार क्या है? समाधान- सात व्यसन का त्याग और अठारह क्रियाओं का पालन करना।
सात व्यसन - जुआं खेलना, मांस खाना, शराब पीना, चोरी करना, शिकार खेलना, परस्त्री गमन, वेश्या रमण इनका त्याग करना आवश्यक है। अठारह क्रिया - १ - धर्म की श्रद्धा, २- अष्ट मूल गुण का पालन, ३-चार दान देना, ४-रत्नत्रय की साधना, ५- रात्रि
भोजन का त्याग,६-पानी छान कर पीना। ६. प्रश्न- आप लोगों ने व्रत संयम प्रतिमा की दीक्षा ले ली, आपको
सम्यग्दर्शन हुआ या नहीं ? क्योंकि सम्यग्दर्शन के बिना
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यह सब व्यर्थ है? ऐसा तारणस्वामी जी ने अपने ग्रंथों में
कहा? समाधान - जो श्री गुरू तारण स्वामी जी ने कहा है, वह सत्य है, ध्रुव है,
प्रमाण है परंतु सम्यग्दर्शन बाहर से बताने की वस्तु नहीं है, वह तो अपनी आत्मानुभूति की बात है तथा सदाचार संयम का किसी ने विरोध नहीं किया। बाह्य क्रिया को धर्म मानना मिथ्यात्व है। हम लोग श्री गुरू महाराज की वाणी को लेकर सत्य धर्म की प्रभावना प्रचार कर रहे हैं वह किसी पर को बताने के लिए नहीं है, स्वयं की साधना के लिए है। आप लोग अपनी मनमानी कर रहे हैं, जिससे सामाजिक संगठन बिगड़ रहा है, सामाजिक-धार्मिक विरोध पैदा हो रहा है,क्षेत्रों का विकास रुक रहा है,क्या यही धर्म प्रभावना
और साधना का मतलब है? समाधान - भाई सा.,मनमानी हम कर रहे हैं या आप कर रहे हैं? सामाजिक
धार्मिक वातावरण हमारे कारण बिगड़ रहा है या आपके कारण, जरा विचार करो। आज बीस वर्षों से साधक संघ के माध्यम से गांव-गांव जाकर सामाजिक संगठन, धर्म प्रभावना और जीवों का जागरण होना, कौन ने किया ? इतने निस्वार्थ भाव से, निस्पृह वृत्ति से अपनी साधना करते हुए यह सब हो रहा है, अगर आपको यह अच्छा नहीं लग रहा है, आप प्रतिबन्ध लगा
दें, हम सब बन्द कर देंगे। विशेष - १००८ प्रश्नोत्तर का संकलन अध्यात्म किरण में है, वहां से देख लें। यह पर को बताने या पर को देखने की बात ही नहीं है,न उससे कोई लाभ है। यह तो स्वयं की स्वयं में ही समझने की बात है क्योंकि इसका यथार्थ निर्णय हुये बगैर अपना आगे का मार्ग बनेगा ही नहीं। अहंकार और स्वच्छन्दीपना तो अज्ञानी मिथ्यादृष्टि को होते हैं, सम्यग्दृष्टि ज्ञानी को यह नहीं होते।
सभी भव्य जीव अध्यात्म अमृत से अपने जीवन को अमृतमय बनायें, निरंतर जयमाल, भजन का चिंतन मनन कर आनन्द में रहें यही मंगल भावना है। भोपाल दिनांक ४.५.९९
ब्र शान्तिानन्द
. अनुक्रम . विषय
पृष्ठ क्रमांक | आध्यात्मिकभजन पृष्ठ क्रमांक तत्व मंगल
१. जय जय हे जिनवाणी मंगलाचरण
२. प्रभु नाम सुमर मनुवा
३. करले रे श्रद्धान गुरू भक्ति
४. मतकर मतकर रेतू जयमाल की महिमा
५. निज हेर देखो चेतनालक्षणं
बोलो तारण तरण १. श्री मालारोहण
चल छोड़ देरे २. श्री पण्डित पूजा
उद्धार तेरा होगा
७२ ३. श्री कमल बत्तीसी
९. विचारो विचारो विचार
१०. अरी ओ आत्मा सुनरी ४. श्रीश्रावकाचार
११. रहो रहो रेशुद्धात्मा ५. श्री ज्ञानसमुच्चय सार
१२. परभावों में न जाना ६. श्री उपदेश शुद्धसार
१३. मत करो रे सोच विचार ७. श्री त्रिभंगी सार
१४. मैं तारण तरण तुम ८. श्री चौबीस ठाणा
१५. ले जायेंगे ले जायेंगे ९. श्री ममल पाहुड
१६. देखो रे भैया जा है १०. श्री खातिका विशेष
१७. तुमको जगा रहे गुरू
१८. अरी ओ आत्मा जग जाओ ११. श्री सिद्धस्वभाव
१९. अरे आतम वैरागी बन १२. श्री सुन्न स्वभाव
२०. चेतन अपने भाव सम्भाल १३. श्री छद्मस्थ वाणी
२१. करले करले तू निर्णय १४. श्री नाममाला
२२. नहिं है नहि है रे सहाई जैनागमजयमाल
२३. दे दी हमें मुक्ति ये बिना
२४. यह तारण तरण की वाणी १५. श्री समयसार
२५. हंस हंस के कर्म बंधाये १६. श्री नियमसार
२६. सोचो समझोरे सयाने १७. श्री प्रवचनसार
२७. निज को ही देखना और १८. श्री पंचास्तिकाय
२८. होजा होजा रे निर्मोही १९. श्री अष्टपाहुड
२९. गुरू तारण तरण आये २०. श्री अमृतकलश
३०. दृढता धरलो इसी में
३१. अब चेत सम्भल उठ २१. श्री तारण पंथ
३२. धन के चक्कर में भुलाने २२. श्री छहढाला
३३. नहीं जानी भैया नहीं जानी २३. ज्ञानीज्ञायक
३४. प्रभु नाम सुमर दिन रैन २४. ध्रुवधाम
३५. नर भव मिला है विचार २५. ममल स्वभाव
३६. मेरी आतम दौरानी है २६. मुनिराज
३७. जग अंधियारों का २७. सम्यग्ज्ञान
३८. तन गोरो कारो
३९. करले तू दीदार २८. साधक
४०. ध्रुव से लागी नजरिया २९. मोक्षमार्ग
४१. श्री गुरू को हमारा है ३०. शुद्ध दृष्टि
४२. शुद्धातम को तरसे ३१. भाव विशुद्ध
४३. तारण स्वामी ने जगाया ३२. कल्याण
४४. गुरू तारण लगा रहे टेर ३३. बारह भावना
४५ मेरी अंखियों के सामने
। ४६. हे भव्यो, भेद विज्ञान करो ३४. सतत प्रणाम
| ४७. जय तारण सदा सबसे ही
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जयमाल
* तत्व मंगल *
देव को नमस्कार तत्वं च नंद आनंद मउ, चेयननंद सहाउ । परम तत्व पद विंद पउ, नमियो सिद्ध सुभाउ ॥
गुरू को नमस्कार गुरू उवएसिउ गुपित रूइ. गुपित न्यान सहकार । तारण तरण समर्थ मुनि, गुरू संसार निवार ।
धर्म को नमस्कार धम्मु जु उत्तउ जिनवरहिं, अर्थति अर्थह जोउ। भय विनास भवु जु मुनहु, ममल न्यान परलोउ ॥
देव को, गुरू को, धर्म को नमस्कार हो।
त्रिलोकं भुवनार्थं ज्योति:, उवंकारं च विन्दते॥ अज्ञान तिमिरान्धानां, ज्ञानांजन श्लाकया।
चक्षुरून्मीलितं येन, तस्मै श्री गुरवे नमः।। श्री परम गुरवे नमः, परम्पराचार्येभ्यो नमः।।
भगवान महावीर स्वामी की जय ॥
जिनवाणी मातेश्वरी की जय ॥ श्री गुरू तारण तरण मण्डलाचार्य महाराज की जय ॥
* मंगलाचरण * मैं ध्रुवतत्व शुद्धातम हूँ, मैं ध्रुवतत्व शुद्धातम हूँ ॥ मैं अशरीरी अविकारी हूँ, मैं अनन्त चतुष्टयधारी हूँ। मैं सहजानंद बिहारी हूँ, मैं शिवसत्ता अधिकारी हूँ ॥ मैं परम ब्रह्म परमातम हूँ, मैं धुवतत्व शुद्धातम हूँ ... मैं ज्ञेय मात्र से भिन्न सदा, मैं ज्ञायक ज्ञान स्वभावी हूँ। मैं अलख निरंजन परम तत्व,मैं ममलह ममल स्वभावी हूँ। मैं परम तत्व परमातम हूँ, मैं धुवतत्व शुद्धातम हूँ.... मैं निरावरण चैतन्य ज्योति, मैं शाश्वत सिद्ध स्वरूपी हैं। मैं एक अखंड अभेद शुद्ध, मैं केवलज्ञान अरूपी हूँ ॥ मैं ज्ञानानंद सिद्धातम हूँ, मैं धुवतत्व शुद्धातम हूँ.... ॐ नमः सिद्धं...ॐ नम: सिद्धं... ॐ नमः सिद्धं....
देव देवं नमस्कृतं, लोकालोक प्रकाशकं ।
* गुरू - भक्ति * आओ हम सब मिलकर गायें, गुरूवाणी की गाथायें। है अनन्त उपकार गुरू का, किस विधि उसे चुका पायें ।
वन्दे तारणम् जय जय वन्दे तारणम्॥ चौदह ग्रंथ महासागर हैं, स्वानुभूति से भरे हुए। उन्हें समझना लक्ष्य हमारा, हम भक्ति से भरे हुए ॥ गुरू वाणी का आश्रय लेकर, हम शुद्धातम को ध्यायें,
है अनन्त ........ कैसा विषम समय आया था,जब गुरूवर ने जन्म लिया। आडम्बर के तूफानों ने, सत्य धर्म को भुला दिया । तब गुरुवर ने दीप जलाया, जिससे जीव संभल जायें,
है अनन्त........ अमृतमय गुरू की वाणी है, हम सब अमृत पान करें। जन्म जरा भव रोग निवारें, सदा धर्म का ध्यान धरें। हम अरिहंत सिद्ध बन जायें, यही भावना नित भायें,
है अनन्त........ शुद्ध स्वभाव धर्म है अपना, पहले यही समझना है। क्रियाकाण्ड में धर्म नहीं है, ब्रह्मानंद में रहना है। जागो जागो हे जग जीवो, सत्य सभी को बतलायें,
है अनन्त........
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[अध्यात्म अमृत
जयमाल
१.श्री मालारोहण
जयमाल
१.
शुद्धात्म तत्व अविकार निरंजन, चेतन लक्षण वाला है। धु वतत्व है सिद्ध स्वरूपी, रत्नत्रय की माला है ।। मन शरीर से भिन्न सदा, भव्यों का अन्तर शोधन है। भेदज्ञान युत सम्यक् दर्शन, यही तो मालारोहण है ॥
* श्री जयमाल की महिमा * श्री जयमाला का पाठ, करो दिन आठ. ठाठ से भाई।
सब संकट जाये नसाई॥ १.शुद्धात्म प्रकाश यह होवेगा ।
सब दु:ख चिंता भय खोवेगा ॥
समताशान्ति जीवन में आ जाई...सब.... २. आतम-परमातम जाग उठे ।
अज्ञान मिथ्यात्व सब भाग उठे॥ इससे सम्यग्दर्शन हो जाई ... सब.... ३. श्री गुरू तारण की वाणी है।
चौदह ग्रंथों में बखानी है ॥ जिनवाणी प्रमाण बताई ... सब.... ४. ज्ञानानंद स्वभाव को पहिचानो।
स्व-पर का भेदज्ञान जानो ॥ मुक्ति श्री की जय जयकार मचाई...सब....
सम्यक् दर्शन ज्ञान चरण ही, मोक्षमार्ग कहलाता है । महावीर की दिव्य देशना, जैनागम बतलाता है | सम्यकदर्शन बिना कभी भी, हुआ न भव का मोचन है। भेदज्ञान युत सम्यक् दर्शन, यही तो मालारोहण है ॥
३. मालारोहण मुक्ति देती, भव से पार लगाती है ।
अनादि निधन निज सत्स्वरूप का, सम्यक् बोध कराती है। इसको धारण करने वाला, बन जाता मन मोहन है। भेदज्ञान युत सम्यक् दर्शन, यही तो मालारोहण है ॥
४. सम्यग्दर्शन सहित प्रथम यह, सम्यग्ज्ञान कराती है।
भेदज्ञान तत्व निर्णय द्वारा, वस्तु स्वरूप बताती है । समयसार का सार यही है, मुक्ति का सुख सोहन है। भेदज्ञान युत सम्यक् दर्शन, यही तो मालारोहण है ।।
* मंगलाचरण * चेतना लक्षणं आनंद कंदनं, वंदनं वंदनं वंदनं वंदनं ॥
शुद्धातम हो सिद्ध स्वरूपी,
ज्ञान दर्शन मयी हो अरूपी। शुद्ध ज्ञानं मयं चेयानंदनं, वंदनं वंदनं वंदनं वंदनं ।।
द्रव्य नो भाव कर्मों से न्यारे,
मात्र ज्ञायक हो इष्ट हमारे । सुसमय चिन्मयं निर्मलानंदन, वंदनं वंदनं वंदनं वंदनं ॥
पंच परमेष्ठी तुमको ही ध्याते,
तुम ही तारण तरण हो कहाते। शाश्वतं जिनवरं ब्रह्मानंदन, वंदनं वंदनं वंदनं वंदनं ।।
निज स्वरूप का सत्श्रद्धान ही, मोक्षमार्ग का कारण है। आतम ही तो परमातम है, बतलाते गुरू तारण हैं | जब तक सम्यक् ज्ञान न होवे, जग में करता रोदन है। भेदज्ञान युत सम्यक् दर्शन, यही तो मालारोहण है ॥
६. सभी जीव भगवान आत्मा, सब स्वतंत्र सत्ताधारी ।
अपने मोह अज्ञान के कारण, बने हुये हैं संसारी ॥
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[अध्यात्म अमृत
जयमाल
जिनने निज स्वरूप पहिचाना, करते सिद्धारोहण हैं। भेदज्ञान युत सम्यक् दर्शन, यही तो मालारोहण है ।
२. श्री पंडित पूजा
जयमाल
१
७. निश्चय सम्यग्दर्शन होना, एक मात्र हितकारी है ।
पर-पर्याय से दृष्टि हटना, मुक्ति की तैयारी है ॥ ज्ञानानंद स्वभाव ही अपना, जिनवाणी का दोहन है। भेदज्ञान युत सम्यक् दर्शन, यही तो मालारोहण है ॥
परम तत्व ओंकारमयी है, चिदानन्द ध्रुव अविकारी । जिन शिव ईश्वर परम ब्रह्म है, अनन्त चतुष्टय का धारी ॥ निश्चय सत्श्रद्धान किया, वे बने स्वयं भगवान है। पूज्य समान आचरण ही, पूजा का सही विधान है।
८. सम्यग्दर्शन सहज साध्य है, करण लब्धि से होता है।
जीवन में सुख शांति आती, सारा भय गम खोता है । दृढ संकल्प रूचि हो अपनी, बंध जाता यह तोरण है। भेदज्ञान युत सम्यक् दर्शन, यही तो मालारोहण है ।
मैं आतम शुद्धातम हूं, परमातम सिद्ध समान हूं। ज्ञेय मात्र से भिन्न सदा, मैं ज्ञायक ज्ञान महान हूं। ज्ञानी पंडित उसी को कहते, जिसको सम्यग्ज्ञान है। पूज्य समान आचरण ही, पूजा का सही विधान है ।
जांति पांति का भेद नहीं है, न पर्याय का बंधन है। सभी जीव स्वतंत्र हैं इसमें, निज स्वभाव आलम्बन है। राजा श्रेणिक प्रश्न किये, यह महावीर उद्बोधन है। भेदज्ञान युत सम्यक् दर्शन, यही तो मालारोहण है ।।
निश्चय व व्यवहार शाश्वत, जिसका एक सा चलता है। कथनी करनी भिन्न जहाँ है, वह तो सबको खलता है। ज्ञानी सम्यग्दृष्टि ही नित, करता ज्ञान स्नान है। पूज्य समान आचरण ही, पूजा का सही विधान है।
१०. जो भी मुक्ति गये अभी तक, जा रहे हैं या जावेंगे।
शुद्ध स्वभाव की करके साधना, वे मुक्ति को पावेंगे । जिनवर कथित धर्म यह सच्चा, दिव्य अलौकिक लोचन है। भेदज्ञान युत सम्यक् दर्शन, यही तो मालारोहण है ।।
४. विषय कषाय अशुभ कर्मों का, करते हैं जो प्रक्षालन ।
पुण्य पाप से दृष्टि हटाकर, करते सदा धर्म साधन ।। आर्त रौद्र ध्यानों को तजकर.धरते आतम ध्यान हैं। पूज्य समान आचरण ही, पूजा का सही विधान है ।
(दोहा) सम्यग्दर्शन से सिंह बना, महावीर भगवान । निज आतम अनुभव करो, जो चाहो कल्याण ।। तारण तरण की देशना, जिनवाणी प्रमाण । मालारोहण से मिले, ज्ञानानंद निर्वाण ||
रत्नत्रय के वस्त्र पहिनते, जिन मुद्रा धारण करते । वीतराग साधु बन करके, मुक्तिश्री को वे वरते ।। मिथ्यात्वादि त्रय शल्यों का, हुआ जहाँ अवसान है। पूज्य समान आचरण ही, पूजा का सही विधान है।
६. पूजा का अभिप्राय पूज्य सम, स्वयं पूज्य बन जाना है।
जो भी अपना इष्ट मानते, उसी इष्ट को पाना है ।।
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[अध्यात्म अमृत
जयमाल]
जड़ अदेव की पूजा करना, यही महा अज्ञान है । पूज्य समान आचरण ही, पूजा का सही विधान है।
३. श्री कमल बत्तीसी
जयमाल
७. लोक मूढता, देवमूढता, यह संसार का कारण है।
इनसे कभी भला न होता, बतलाते गुरू तारण हैं । क्रिया कांड को छोड़ा जिसने, पाता पद निर्वाण है। पूज्य समान आचरण ही, पूजा का सही विधान है।
१. परमदेव परमात्म तत्व का, निज में दर्शन करता है।
पंचज्ञान परमेष्ठी पद की, जो श्रद्धा उर धरता है ।। सरल शान्त निर्विकल्प हो गया, वह ज्ञानी गुणवान है। कमल बत्तीसी जिसकी खिल गई, बनता वह भगवान है॥
जो चेतन भगवान पूजता, ज्ञानानंद में रहता है । स्वयं सिद्ध परमातम बनता, यह जिन आगम कहता है । जिनवाणी का सार यही है, बनना खुद भगवान है। पूज्य समान आचरण ही, पूजा का सही विधान है ।
सभी जीव परमात्म तत्व हैं, अनन्त चतुष्टय धारी हैं। जड शरीर कर्मादि पुद्गल, इनकी सत्ता न्यारी है । निमित्त नैमित्तिक संबंध पर्यायी, इसका जिसको ज्ञान है। कमल बत्तीसी जिसकी खिल गई, बनता वह भगवान है ॥
ज्ञान मार्ग ही मुक्ति देता, भव से पार लगाता है । निज अज्ञान के कारण प्राणी, जग में चक्कर खाता है । तारण पंथ का पालन करता, बनता वीर महान है । पूज्य समान आचरण ही, पूजा का सही विधान है ।
कर्मों का नश्वर स्वभाव है, अपने आप सब झड़ते हैं। जीव शुभाशुभ भाव के द्वारा, पुण्य-पाप से बंधते हैं। शुद्ध स्वभाव में लीन जीव के, कर्मों का श्मशान है। कमल बत्तीसी जिसकी खिल गई, बनता वह भगवान है ।
१०. निश्चय दृष्टि निज में रहती, व्यवहार में व्यवहार है।
पर पर्याय का लक्ष्य न रहता, वह तो सब संसार है ॥ पंडित की यह पूजा सच्ची, करती निज कल्याण है। पूज्य समान आचरण ही, पूजा का सही विधान है।
४. स्व सत्ता पर के स्वरूप का, जिसको सम्यग्ज्ञान जगा ।
मिथ्यात्व शल्य आदि का, भ्रम-भय सब अज्ञान भगा । सारे कर्म विला जाते हैं, धरता आतम ध्यान है । कमल बत्तीसी जिसकी खिल गई, बनता वह भगवान है ॥
(दोहा) सम्यग्ज्ञान स्व-पर निर्णय, शान्ति का दातार। ज्ञानानंद स्वभाव से, मचती जय जयकार ।। पंडित पूजा से बने, खुद आतम भगवान । स्वयं-स्वयं में लीन हो, पाता पद निर्वाण ॥
मन मनुष्य की जाग्रत शक्ति, बंध मोक्ष का कारण है। इसके भेद को जानने वाला, कहलाता गुरू तारण है। आतम शक्ति जाग्रत होती, मन होता अवसान है । कमल बत्तीसी जिसकी खिल गई, बनता वह भगवान है ॥
जनरंजन मनरंजन गारव, कलरंजन भी दोष है । आतम के यह महाशत्रु हैं, यही तो राग और रोष हैं।
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[अध्यात्म अमृत
जयमाल
[१०
ज्ञान विराग के बल से इनका, मिटता नाम निशान है। कमल बत्तीसी जिसकी खिल गई, बनता वह भगवान है ।
४. श्री श्रावकाचार
जयमाल
१.
७. नन्द आनंदह चिदानंद जिन, परमानंद स्वभावी हूं।
पर पर्याय से भिन्न सदा मैं, ममलह ममल स्वभावी हूं। ममल स्वभाव में लीन रहे जो, वह नर श्रेष्ठ महान है । कमल बत्तीसी जिसकी खिल गई, बनता वह भगवान है। रत्नत्रय की शुद्धि करके, पंच महाव्रत धारी है । पंचज्ञान पंचार्थ पंचपद, पंचाचार बिहारी है ॥ ज्ञान-ध्यान में लीन सदा जो, साधु सिद्ध समान है। कमल बत्तीसी जिसकी खिल गई, बनता वह भगवान है।
देवों के जो देव परम जिन, परमातम कहलाते हैं। नमन सदा हम करते उनको, जो सत्मार्ग बताते हैं। सम्यग्दर्शन ज्ञान चरण ही, मुक्ति का आधार है । सावधान अपने में रहना, यही श्रावकाचार है ॥ भेदज्ञान से स्व-पर जाना, वह अव्रत सम दृष्टि है। पाप विषय कषाय में रत है, अभी जगत में गृहस्थी है ॥ अन्याय अनीति अभक्ष्य का त्यागी, वह नर जग सरदार है। सावधान अपने में रहना, यही श्रावकाचार है ॥
ज्ञानानंद निजानंद रहता, सब प्रपंच से दूर है । वस्तु स्वरूप सामने दिखता, ब्रह्मानंद भरपूर है ॥ आर्त-रौद्र ध्यानों का त्यागी, धर्म शुक्ल ही ध्यान है। कमल बत्तीसी जिसकी खिल गई, बनता वह भगवान है।
३. जो पच्चीस मलों का त्यागी, शद्ध सम्यक्त्वी होता है।
अठदश क्रिया का पालन करता, विषय-कर्ममल धोता है। सप्त भयों से मुक्त हो गया, नि:शंकित सदा उदार है। सावधान अपने में रहना, यही श्रावकाचार है ॥
१०. जिनवर कथित सप्त-तत्वों का, जो निश्चय श्रद्धानी है।
सब संसार चक्र छोड़कर, शरण गही जिनवाणी है । के वलज्ञान प्रगट करके वह, पाता पद निर्वाण है । कमल बत्तीसी जिसकी खिल गई, बनता वह भगवान है॥
४. श्रद्धा विवेक क्रिया का पालक, वह श्रावक कहलाता है ।
द्वादशांग का सार जानता, धर्म-कर्म बतलाता है । उपाध्याय पदवी का धारी, रहा न मायाचार है । सावधान अपने में रहना, यही श्रावकाचार है ॥
(दोहा) सम्यग्चारित्र आत्मा, निज स्वभाव में लीन । अन्तर रत्नत्रय धरें, बाह्य-चारित्र दश तीन ।। कमल बत्तीसी प्रगटकर, बनता खुद भगवान । साधु पद से सिद्ध पद, पाता पद निर्वाण ॥
धर्मध्यान व्रत संयम करता, मुक्ति का अभिलाषी है। दृष्टि में शुद्धातम दिखता, अभी जगत का वासी है । परमारथ में रूचि लगी है, खलता अब घरद्वार है । सावधान अपने में रहना, यही श्रावकाचार है ॥
६. षट् आवश्यक शुद्ध पालता, मुक्ति के जो कारण हैं।
व्यर्थ आडम्बर छूट गया सब, उसके सद्गुरू तारण हैं |
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११]
[अध्यात्म अमृत
जयमाल]
[१२
सहजानंद में रत रहता है, शुद्ध आचार-विचार हैं । सावधान अपने में रहना, यही श्रावकाचार है |
५. श्री ज्ञान समुच्चय सार
जयमाल
७. ज्ञानानंद स्वभाव का रुचिया, अब व्रत प्रतिमा धरता है।
पंच अणुव्रत ग्यारह प्रतिमा, निजहित पालन करता है । ख्याति लाभ पूजादि चाह का, जहाँ न अंश विकार है। सावधान अपने में रहना, यही श्रावकाचार है ॥
शक्ति अनुसार मार्ग पर चलता, निस्पृह जगत उदासी है। अपने में आनन्दित रहता, वह शिवपुर का वासी है । ब्रह्मचर्य रत रहता हरदम, सम्यक् ही व्यवहार है । सावधान अपने में रहना, यही श्रावकाचार है ॥
१. द्रव्य भाव नो कर्मों से, यह न्यारा आतमराम है ।
धु वतत्व है सिद्ध स्वरूपी, पूर्ण शुद्ध निष्काम है ।। अपने भ्रम अज्ञान के कारण, भटक रहा संसार है। भेदज्ञान तत्वनिर्णय करना, ज्ञान समुच्चय सार है । जिनवर की वाणी में आया, आतम ही परमातम है। सद्गुरूओं ने यही बताया, आतम ही शुद्धातम है | जिनवाणी मां बता रही है, सब संसार असार है । भेदज्ञान तत्वनिर्णय करना, ज्ञान समुच्चय सार है ।
निश्चय व व्यवहार शाश्वत, दोनों का ही ज्ञाता है । त्रेपन क्रियाओं का पालक, आचार्य पदवी पाता है | निश्चय धर्म शुद्ध आतम ही, जिसका एक आधार है। सावधान अपने में रहना, यही श्रावकाचार है |
३. द्वादशांग का सार यही है, निज स्वरूप स्वीकार करो।
मोह -राग अज्ञान को छोड़ो, संयम - तप व्रतादि धरो । व्यर्थ समय अब नहीं गंवाओ, अब भ्रमना बेकार है। भेदज्ञान तत्वनिर्णय करना, ज्ञान समुच्चय सार है |
१०. धर्म ध्यान में रत रहता है, अनुमति उद्दिष्ट का त्यागी है।
निश्चय नय की साधना करता, शुद्धातम अनुरागी है ॥ साधू पद धारण करने को, अन्तर में तैयार है । सावधान अपने में रहना, यही श्रावकाचार है ॥
४. भेद ज्ञान तत्व निर्णय करना, बुद्धि का यह काम है।
जीवन में सुख शान्ति आती, मिलता पूर्ण विराम है ॥ बिना ज्ञान के इस जग में तो, जीना भी दुश्वार है। भेदज्ञान तत्वनिर्णय करना, ज्ञान समुच्चय सार है ॥
(दोहा) सम्यग्दृष्टि ज्ञानी का, सम्यक् हो व्यवहार । कथनी करनी एक सी, जिनवाणी अनुसार ।। तारण स्वामी रचित यह, ग्रन्थ श्रावकाचार। सही सही पालन करो, हो जाओ भव पार ॥
भेद ज्ञान से सम्यग्दर्शन, तत्व निर्णय से ज्ञान हो । ज्ञानी सम्यग्दृष्टि का फिर, जीवन सदा महान हो ।। कर्मबन्ध होना मिट जाते, पाता सुख अपार है । भेदज्ञान तत्वनिर्णय करना, ज्ञान समुच्चय सार है |
६.
आत्मध्यान करने से होता, कर्मों का विध्वंस है। सारे कर्म विला जाते हैं, शेष न रहता अंश है ॥
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१३]
[अध्यात्म अमृत
जयमाल]
ज्ञान समान न आन जगत में, मुक्ति का दातार है। भेदज्ञान तत्वनिर्णय करना, ज्ञान समुच्चय सार है ।
६. श्री उपदेश शुद्ध सार
जयमाल
७. ज्ञेय मात्र से भिन्न सदा है, ज्ञान मात्र चेतन सत्ता ।
ऐसा दृढ श्रद्धान हो अपना, कर्मों का कटता पत्ता ।। आनंद परमानंद बरसता, मचती जय-जयकार है। भेदज्ञान तत्वनिर्णय करना, ज्ञान समुच्चय सार है ।
१. मैं आतम शुद्धातम हूं, परमातम सिद्ध समान हूं।
ज्ञायक ज्ञान स्वभावी चेतन, चिदानंद भगवान हूं। अपना भ्रम अज्ञान ही अब तक, बना हुआ संसार है। सिद्ध परम पद पाना ही, उपदेश शुद्ध का सार है ॥
शरीरादि से भिन्न सदा मैं, चेतना सत्ता वाला हूं। धन शरीर जड़ नाशवान, मैं एक अखंड निराला हूं। भेदज्ञान करके यह जाना, निज सत्ता स्वीकार है। भेदज्ञान तत्वनिर्णय करना, ज्ञान समुच्चय सार है ।।
सद्गुरू तारण-तरण के द्वारा, वस्तु स्वरूप को जाना है। भेदज्ञान तत्वनिर्णय करके, निज स्वरूप पहिचाना है । भूल स्वयं को भटक रहा था, अब भ्रमना बेकार है। सिद्ध परम पद पाना ही, उपदेश शुद्ध का सार है ।
सब जीवों का सब द्रव्यों का, जब जैसा जो होना है। क्रमबद्ध सब ही निश्चित है, आना जाना खोना है । टाले से कुछ भी न टलता, देवादि जिनेंद्र लाचार हैं। भेदज्ञान तत्वनिर्णय करना, ज्ञान समुच्चय सार है ॥
खुद के मोह राग के कारण, कर्म बंध यह होते हैं। निज स्वभाव में लीन रहो तो, सारे कर्म यह खोते हैं। धर्म कर्म का मर्म अब जाना, जाना क्या हितकार है। सिद्ध परम पद पाना ही, उपदेश शुद्ध का सार है ॥
४.
१०. वस्तु स्वरूप सामने देखो, अब तो सत्पुरूषार्थ करो।
निज स्वभाव की करो साधना, साधु पद महाव्रत धरो । ज्ञानानंद स्वभावी हो तुम, यही समय का सार है । भेदज्ञान तत्वनिर्णय करना, ज्ञान समुच्चय सार है ॥
जन्मे मरे बहुत दु:ख भोगे, चारों गति में भ्रमण किया। जिनको हमने अपना माना, किसी ने कुछ न साथ दिया । सबको तजकर निज को भजना.यही मक्ति का द्वार है। सिद्ध परम पद पाना ही, उपदेश शुद्ध का सार है ।
(दोहा) भेदज्ञान तत्व निर्णय का, निश्चय हो श्रद्धान । मैं ध्रुव तत्व शुद्धात्मा, ज्ञायक ज्ञान प्रमाण ।। क्रमबद्ध सब परिणमन, असत् अनृत पर्याय । ज्ञान समुच्चय सार से, ज्ञानानंद मच जाय ॥
धन शरीर परिवार सभी यह, मोह-माया का जाल है। कर्ता बनकर मरना ही तो, खुद जी का जंजाल है । धूल का ढेर जगत यह सारा, सब ही तो निस्सार है। सिद्ध परम पद पाना ही, उपदेश शुद्ध का सार है ॥
६. मति श्रुतज्ञान की शुद्धि करना, बुद्धि का यह काम है।
अब संसार में नहीं रहना है, चलना निज ध्रुव धाम है ॥
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१५]
[अध्यात्म अमृत
जयमाल
ध्रुव तत्व की धूम मचाना, करना जय जयकार है। सिद्ध परम पद पाना ही, उपदेश शुद्ध का सार है ॥
७. श्री त्रिभंगीसार
जयमाल
७. द्रव्य भाव नो कर्मों से यह, चेतन सदा न्यारा है।
टंकोत्कीर्ण अप्पा ममल स्वभावी, परमब्रम्ह प्रभु प्यारा है। एक अखंड अभेद आत्मा, निज सत्ता स्वीकार है। सिद्ध परम पद पाना ही, उपदेश शुद्ध का सार है ॥
आसव बंध तत्व का होना, अपना स्वयं विभाव है। संवर-निर्जर तत्व का होना, अपना शुद्ध स्वभाव है। सम्यग्दर्शन ज्ञान चरण ही, तीन लोक में सार है। पाप विषय कषाय से हटना, यही त्रिभंगी सार है ।
निज को जान लिया अब हमने, पर का भ्रम सब टूट गया। धर्म कर्म में कोई न साथी, मोह-राग सब छूट गया । ज्ञानानंद निजानंद रहना, सहजानंद सुखसार है । सिद्ध परम पद पाना ही, उपदेश शुद्ध का सार है ।
आसव बंध का रुकना ही तो, मोक्षमार्ग कहलाता है । सम्यग्दर्शन होने पर ही, निज स्वभाव दिखलाता है । ज्ञानी सम्यग्दृष्टि को ही, सब संसार असार है । पाप विषय कषाय से हटना, यही त्रिभंगी सार है ।।
जिनवाणी मां जगा रही है, अब तो हम भी जाग गये । निज सत्ता स्वरूप पहिचाना, भ्रम अज्ञान भी भाग गये । दृढ निश्चय श्रद्धान यही है, अब न मायाचार है। सिद्ध परम पद पाना ही, उपदेश शुद्ध का सार है ॥
मोह अज्ञान के कारण प्राणी, काल अनादि भटक रहा। भाव शुभाशुभ कर करके ही, चारों गति में लटक रहा ॥ अपना शुद्ध स्वभाव न जाना, भटक रहा संसार है। पाप विषय कषाय से हटना, यही त्रिभंगी सार है ।
१०. वीतराग साधु बन करके, आतम ध्यान लगायेंगे ।
चिदानंद चैतन्य प्रभु की, जय जयकार मचायेंगे ।। मुक्ति श्री का वरण करेंगे, कहते यह शतबार है । सिद्ध परम पद पाना ही, उपदेश शुद्ध का सार है ।
४. शुभ भावों से पुण्य बन्ध हो, अशुभ भाव से पाप हो।
भाव कर्म से द्रव्य कर्म हो, द्रव्य कर्म से भाव हो । इसमें ही तो फंसा अज्ञानी, करता हा-हाकार है। पाप विषय कषाय से हटना, यही त्रिभंगी सार है ।
(दोहा) जन्म मरण से छूटना, उपदेश शुद्ध का सार । जिनवर की यह देशना, करो इसे स्वीकार ।। छोडो भ्रम-अज्ञान को, दृढ़ता से लो काम | आतम ही परमात्मा, बैठो निज ध्रुवधाम ||
५. भेदज्ञान तत्वनिर्णय द्वारा, जिसने निज को जान लिया।
भाव शुभाशुभ छोड़कर उसने, शुद्धभाव रस पान किया । निज सत्ता शक्ति को देखा, मचती जय जयकार है। पाप विषय कषाय से हटना, यही त्रिभंगी सार है ।
६. एक सौ आठ भाव आश्रव जो, कर्मबंध के कारण हैं।
इनसे ही बच करके रहना, समझाते गुरु तारण हैं |
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१७)
[अध्यात्म अमृत
जयमाल
ध्रुव धाम में डटे रहो बस, इसमें ही अब सार है। पाप विषय कषाय से हटना, यही त्रिभंगी सार है ।
८. श्री चौबीस ठाणा
जयमाल
मिथ्यात्व अविरत प्रमाद कषाय यह,जीव अजीव के न्यारे हैं। कर्मरूप पुद्गल परमाणु, भाव अज्ञानी के सारे हैं । भेदज्ञान से भिन्न जानना, द्वादशांग का सार है । पाप विषय कषाय से हटना, यही त्रिभंगी सार है ।
१. ध्रुव तत्व शुद्धातम हो तुम, परमानन्द परमातम हो ।
जिनवाणी मां जगा रही है, जागो खुद शुद्धातम हो । थक गये हो संसार भ्रमण से, यदि मुक्ति को पाना है। चेतो जागो अभी समझ लो, वरना चौबीसठाणा है ।।
निमित्त नैमित्तिक संबंध दोनों का, बना हुआ संसार है । इसी बात का ज्ञान कराने, निश्चय व व्यवहार है ।। एकान्तवादी मिथ्यादृष्टि, अनेकांत भव पार है । पाप विषय कषाय से हटना, यही त्रिभंगी सार है ।
गति, इन्द्रिय, काय, योग अरु, वेद, कषाय, यह ज्ञान है। संयम, दर्शन, भव्य, लेश्या, सम्यक्, सैनी, गुणस्थान है। आहारक, जीवसमास, पर्याप्ति,संज्ञा,प्राण,अरु ध्याना है। चेतो जागो अभी समझ लो, वरना चौबीसठाणा है ।
३.
पाप, विषय, कषाय से हटना, व्रत संयम तप कहलाता। निश्चय पूर्वक इनका पालक, मुक्ति मार्ग पर बढ़ जाता ॥ जब तक दोनों साथ न होवें, तब तक न उद्धार है। पाप विषय कषाय से हटना, यही त्रिभंगी सार है ।
उपयोग आश्रव जाति कुल का, बना यह सब संसार है। चौबीस स्थानों में अनादि से, भ्रमण किया कई बार है । मानुष भव सौभाग्य जगा यह, अब नहीं धोखा खाना है। चेतो जागो अभी समझ लो, वरना चौबीसठाणा है ।
४.
१०. महावीर का मार्ग यही है, वीतराग बनने वाला ।
तारण पंथी वही कहाता, जो इस पर चलने वाला ।। ज्ञानानंद चलो अब जल्दी, अब क्यों देर दार है । पाप विषय कषाय से हटना, यही त्रिभंगी सार है ।
चहुँगति में पंच इन्द्रिय बनकर, नाना दु:ख उठाये हैं। एक स्वांस में अठदश वारा, जन्म-मरण दु:ख पाये हैं। स्थावर काय पृथ्वी जल वायु, अग्नि वनस्पति नाना हैं। चेतो जागो अभी समझ लो, वरना चौबीसठाणा है ।
(दोहा) त्रिभंगी संसार के, जन्म-मरण के मूल | रत्नत्रय को धार लो, मिट जाये सब भूल ।। भाव शुभाशुभ जीव को, भरमाते संसार । शुद्ध स्वभाव की साधना, करती भव से पार ।।
नरक तिर्यंच मनुष देवायु, जन्म मरे अनादि हो । निज स्वरूप सत्ता को भूले, भटक रहे जग वादि है । सद्गुरू तारण तरण जगा रहे, मौका मिला महाना है। चेतो जागो अभी समझ लो, वरना चौबीसठाणा है ।
६.
सक सत्रह, आशा, स्नेह, भय, लाज लोभ अरू गारव है। आलस, प्रपंच विभ्रम जन रंजन, कल-मन रंजन गारव है।
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१९]
जयमाल
[२०
[अध्यात्म अमृत दर्शन मोह न्यान आवरण, दर्शनावरण ठिकाना है। चेतो जागो अभी समझ लो, वरना चौबीसठाणा है ।
९. श्री ममलपाहुड़
जयमाल
१.
७. शल्य शंक भय लगे अनादि, मोह अज्ञान निदाना है।
न्यान रमण जिननाथ ध्रुव से, इनका मिला प्रमाणा है । हितकार न्यान सहकार न्यान, ज्ञान ही भेदविज्ञाना है। चेतो जागो अभी समझ लो, वरना चौबीसठाणा है ॥
देव गुरू व धर्म आत्मा, आतम ही परमातम है । जिनने निज स्वरूप पहिचाना, ध्रुव तत्व शुद्धातम है ॥ ममल स्वभाव में रहने का, पुरूषार्थ हुआ बलवान है। ममल पाहुड में डूबने वाला, बनता जिन भगवान है ॥
८. न्यान कमल अतीन्द्रिय सत्ता, इसको अब स्वीकार करो।
सुख साता चैतन्य बोध कर, जल्दी साधु पद को धरो ।। बारह हजार छत्तीस बार का, जामन मरण मिटाना है। चेतो जागो अभी समझ लो, वरना चौबीसठाणा है ।
२. ममल पाहुड बत्तीस सौ गाथा, एक सौ चौंसठ फूलना हैं।
मोक्षमार्ग की तमिलनाडु यह, परमानंद का झूलना है । इसका साधक सम्यग्दृष्टि, ज्ञानी श्रेष्ठ महान है । ममल पाहुड में डूबने वाला, बनता जिन भगवान है ।
ज्ञानानन्द निजानन्द रत हो, सहजानंद को पाना है। ब्रह्मानंद स्वरूपानंद संग, मिलता मुक्ति ठिकाना है | स्थावर विकलत्रय त्रस से, अब भी मुक्ति पाना है। चेतो जागो अभी समझ लो, वरना चौबीसठाणा है ॥
३. मैं हूं सिद्ध स्वरूपी चेतन, ध्रुव तत्व शुद्धातम हूं।
ज्ञानानंद स्वभावी हूं मैं, परम ब्रह्म परमातम हूं।। पर्यायें सब क्रमबद्ध हैं, ऐसा दृढ़ श्रद्धान है । ममल पाहुड में डूबने वाला, बनता जिन भगवान है ॥
४.
१०. पयायें सब नाशवान हैं, ध्रुव सत्ता को पहिचानो।
मै आतम शुद्धातम हूं बस, इतना सत्य धर्म जानो ।। सिद्ध मुक्त निज का स्वभाव, यह तारण तरण बखाना है। चेतो जागो अभी समझ लो, वरना चौबीसठाणा है ।।
ध्रुव तत्व पर दृष्टि जिसकी, ममल स्वभाव में लीन है। पर पर्याय का लक्ष्य छोड़कर, ब्रह्मानंद आसीन है। संयम तप की करके साधना, धरता आतम ध्यान है। ममल पाहुड में डूबने वाला, बनता जिन भगवान है ॥
(दोहा) चौबीस ठाणा जगत में, काल अनादि अनन्त । जो इसके चक्कर फंसा, मिला न भव का अंत ।। ध्रुव तत्व शुद्धात्मा, लक्ष्य बनाया जाये । भव भ्रमण का अंत हो, मोक्ष परम पद पाये ।।
५. मुक्ति श्री पर दृष्टि लगी है, परमानंद मय होना है।
अब संसार में नहीं रहना है, पर्यायी भय खोना है । अनुभूति युत सम्यग्दर्शन, जगा यह सम्यग्ज्ञान है । ममल पाहुड में डूबने वाला, बनता जिन भगवान है ॥
शल्य शंक भय सभी बिला गये, शुद्धातम प्रकाश हुआ। मुक्तिमार्ग अब सामने दिखता, संयम चरण विकास हुआ।
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[२१]
७.
८.
९.
[अध्यात्म अमृत
ज्ञान स्वभाव में रत रहता है, रहा न भ्रम अज्ञान है । ममल पाहुड़ में डूबने वाला, बनता जिन भगवान है ।
पंच ज्ञान परमेष्ठी पद का वह आराधन करता है । आर्त रौद्र ध्यानों को तजकर, धर्म-शुक्ल ही धरता है ॥ विषय- कषाय पाप आदि का रहा न नाम निशान है। ममल पाहुड़ में डूबने वाला, बनता जिन भगवान है ।
पंचनन्द पंच पदवी से, पंचाचार पालता है । पंचज्ञान में रंजरमण कर, अभय स्वभाव चालता है । मुक्ति श्री ध्यावहु रे फूलना, अन्यानी अन्यान है । ममल पाहुड़ में डूबने वाला, बनता जिन भगवान है ।
चितनौटा चेतक हियरा से, जोगी जोग में रमता है। बसंत फूलना फाग फूलना, जनगन बाबला जमता है ॥ परमानंद विलासी गाता, ज्ञानानंद गुणगान है । ममल पाहुड़ में डूबने वाला, बनता जिन भगवान है ॥
.
१०. बीजौरो बीजारोपण कर जिनय जिनेली गाता है । पंच कल्याणक उसके होते, तारण तरण कहाता है । सर्व अर्थ की सिद्धि होती, पाता पद निर्वाण है । ममल पाहुड़ में डूबने वाला, बनता जिन भगवान है |
3
मल स्वभाव की साधना, ममल पाहुड़ है नाम | ज्ञानी साधक संत को मिलता निज ध्रुवधाम || तारण स्वामी महाकवि, संगीतज्ञ महान । शुद्ध अध्यात्म के फूलना, दिये जगत को दान ||
जयमाल ]
१.
२.
३.
४.
५.
६.
१०. श्री खातिका विशेष
जयमाल
सम्यग्दर्शन ज्ञान चरण ही, मोक्षमार्ग कहलाता है । बिन सम्यक्त के जीव आत्मा, जग में चक्कर खाता है । द्रव्य क्षेत्र काल भाव भव बन्धन, ये ही जगत ठिकाना है। धर्म-कर्म का मर्म गुरू ने खातिका विशेष बखाना है ॥
,
"
,
सम्यग्दर्शन सहित जीव जो निश्चय मुक्ति पायेंगे । सम्यग्दर्शन हुये बिना तो जग में ही भरमायेंगे || जीव-अजीव का भेद ज्ञान ही, भव दुःख से छूट जाना है। धर्म-कर्म का मर्म गुरू ने खातिका विशेष बखाना है ॥
.
जो जन्मा है अवश्य करेगा, ही जगत विधान है । मर करके जो जन्म न लेता, वह बनता भगवान है | अपने को अब कहाँ जाना है, इसका पता लगाना है। धर्म-कर्म का मर्म गुरू ने खातिका विशेष बखाना है ॥
',
सम्यग्दर्शन बिन व्रत संयम, देवगति के कारण हैं । भवनत्रिक में जन्म वह लेता, बतलाते गुरू तारण हैं । भूत-पिशाच गन्धर्व वह होता, गाता फिरता गाना है। धर्म-कर्म का मर्म गुरू ने खातिका विशेष बखाना है ॥
""
नरभव यह पुरूषार्थ योनि है, अब सम्यक् पुरुषार्थ करो । भेदज्ञान तत्व निर्णय करके, साधु पद महाव्रत धरो ॥ चूक गये यदि इस जीवन में, तो फिर चक्कर खाना है। धर्म-कर्म का मर्म गुरू ने खातिका विशेष बखाना है ॥
,
इस संसार महावन भीतर, छह कालों का घेरा है । उत्सर्पिणी अवसर्पिणी भेद से, बीस कोड़ाकोड़ी फेरा है ।
[२२
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२३]
[अध्यात्म अमृत
जयमाल]
(२४
ऐसे काल अनन्त गुजर गये, निज स्वरूप नहीं जाना है। धर्म-कर्म का मर्म गुरू ने, खातिका विशेष बखाना है ॥
११. श्री सिद्धस्वभाव
जयमाल
७.
एक सागर असंख्यात पल्य का, जिसका नहीं ठिकाना है। अर्क न दिस्यते नरक गति में, फिर-फिर चक्कर खाना है। भय दु:खों का घर यह जग है, अब मुक्ति को पाना है। धर्म-कर्म का मर्म गुरू ने, खातिका विशेष बखाना है |
१. जग में सब भगवान आत्मा, सिद्धह सिद्ध सुभाव हैं।
निज स्वभाव को भूल भटकते, फिरते सदा विभाव हैं । जिनने निज स्वरूप पहिचाना. लगा यह जिसका दांव है। ज्ञानानंद निजानंद रहना, ये ही सिद्ध स्वभाव है ।
एक गड्ढा दो योजन लम्बा चौड़ा, उतना ही वह गहरा हो। रोम कतरनी गाड़र भर के, पैर न धंसे इकहरा हो । एक रोम इक वर्ष मुताबिक, गिनती करे निदाना है। धर्म-कर्म का मर्म गुरू ने, खातिका विशेष बखाना है ॥
२. देखी कहे न सुनी कहे, जो बोले तो भी न बोले ।
हित उपजी भी कहे नहीं जो, निज स्वभाव में ही डोले ॥ भेदज्ञान तत्व निर्णय का ही, रहता जिसको चाव है। ज्ञानानंद निजानंद रहना, ये ही सिद्ध स्वभाव है ॥
रत्नत्रय सुभाव उत्पन्न हो, औकास उत्पन्न हितकार है। उत्पन्न कमल अर्कस्य जहाँ है, मचती जय जयकार है । एक सौ चार सूत्र ज्ञानानंद, मिलता मुक्ति ठिकाना है। धर्म-कर्म का मर्म गुरू ने, खातिका विशेष बखाना है ॥
चोर के लेय बंधारे के लेवे, जो निज गाय लगाता है। अमृत रस उसके झरता है, परमानंद को पाता है । गाढ़ो धरे वही पाता है, ढील ढाल भटकाव है। ज्ञानानंद निजानंद रहना, ये ही सिद्ध स्वभाव है ॥
१०. अष्टगुणों से युक्त सिद्ध हो, सिद्ध परम पद पाता है।
तारण तरण स्वयं बन जाता, जग जयकार मचाता है । अपने को यह मौका मिला है, निज पुरूषार्थ जगाना है। धर्म-कर्म का मर्म गुरू ने, खातिका विशेष बखाना है ॥
४. निज स्वभाव को भूला अपने, नरक गति को जाता है।
चारों गति के दु:ख भोगता, जग में रुदन मचाता है। धर्म मार्ग में ऊँच नीच का, कोई न भेदभाव है । ज्ञानानंद निजानंद रहना, ये ही सिद्ध स्वभाव है ।।
(दोहा खातिका विशेष गड्ढा बड़ा, जिसमें जगत समाय। बिन सद्गुरू सत्संग के, मिले न इसकी थाह ।। चार गति में जीव का, होता क्या क्या हाल | ज्ञानानंद अब देख लो, छोड़ो जग जंजाल ||
सिद्ध स्वभाव की रुचि तीव्र हो, जैसे भोजन रुचता है। जैसे कि संसार मार्ग में, बात-बात को गुनता है ।। ऐसा लक्ष्य बने शुद्धातम, इतना परम उछाव है । ज्ञानानंद निजानंद रहना, ये ही सिद्ध स्वभाव है ।
६.
पुण्य पाप करते-करते यह, काल अनादि बीता है। धर्म का मर्म नहीं जाना है, रहा रीता का रीता है ।
3
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२५]
[अध्यात्म अमृत
जयमाल
[२६
आतम स्वयं स्वयं ही अपना, भवसागर की नांव है। ज्ञानानंद निजानंद रहना, ये ही सिद्ध स्वभाव है ।
१२. श्री सुन्न स्वभाव
जयमाल
७.
१
चार दान पर की अपेक्षा, पुण्य बन्ध के कारण हैं। निज स्वभाव को दान जो देता, बन जाता वह तारण है ॥ पर की पूजा करते-करते, बना यह गहरा घाव है। ज्ञानानंद निजानंद रहना, ये ही सिद्ध स्वभाव है ।।
आतम ही है देव निरंजन, देवाधिदेव भगवान है । निज स्वरूप को देखो अपने, बिल्कुल सिद्ध समान है । भेदज्ञान तत्वनिर्णय द्वारा, मिटते सभी विभाव हैं। निर्विकल्प सानन्द समाधि, ये ही शून्य स्वभाव है ।।
पर संयोग के कारण जग में, विषय-कषाय में लीन है। तीन लोक का नाथ स्वयं ही, बना यह कितना दीन है ॥ उत्पन्न प्रवेश हो निज स्वभाव में, क्षय होते सब भाव हैं। ज्ञानानंद निजानंद रहना, ये ही सिद्ध स्वभाव है ।।
मछली जैसे जल के माँहि, पवन पियासी रहती है। ऐसे ही भगवान आत्मा, जग दु:ख संकट सहती है । उल्टी होवे पानी पीवे, ये ही आतम दांव है । निर्विकल्प सानन्द समाधि, ये ही शून्य स्वभाव है ॥
उत्पन्न आचरण साधु पद हो, होता अरिहंत सिद्ध है। सारे कर्म विला जाते हैं, जिनवाणी प्रसिद्ध है ॥ सत्पुरुषार्थ जगाओ अपना, छोड़ो सभी विभाव है। ज्ञानानंद निजानंद रहना, ये ही सिद्ध स्वभाव है ।
३. दृष्टि पलटते मुक्ति होवे, सदगुरू की यह वाणी है।
कस्तूरी मृग की नाई यह, बीत रही जिन्दगानी है ॥ निज सत्ता स्वरूप पहिचानो, देखो ममल स्वभाव है। निर्विकल्प सानन्द समाधि, ये ही शून्य स्वभाव है ।।
१०. मैं हूं सिद्ध स्वरूपी चेतन, ऐसा दृढ़ श्रद्धान है ।
सम्यग्ज्ञान चरण के द्वारा, पाता पद निर्वाण है ॥ ॐ नमः सिद्ध के मंत्र से, भगते सभी विभाव हैं। ज्ञानानंद निजानंद रहना, ये ही सिद्ध स्वभाव है ।।
४. कोल्हू कांतर पाँव न देता, रस को दोना लेता है।
बिना सुने जो बने सयानों, गुरू की शरण न सेता है । उसको सत्य समझ न आवे, रहता सदा विभाव है। निर्विकल्प सानन्द समाधि, ये ही शून्य स्वभाव है ।
(दोहा) नमस्कार करते सदा, शुद्धातम सत्कार | सिद्ध स्वरूप की जगत में, मच रही जय जयकार || सिद्ध समान ही जीव सब, खुद आतम भगवान । निज स्वभाव में लीन हो, पाते पद निर्वाण ||
पढ़े गुने जो मूढ रहे ना, विकथा व्यसन का त्यागी है। ममल स्वभाव की करे साधना, शुद्धातम अनुरागी है । सिद्ध मुक्त निज का स्वभाव ही, परम पारिणामिक भाव है । निर्विकल्प सानन्द समाधि, ये ही शून्य स्वभाव है।
६.
अनन्त ज्ञान मोरे सो तोरे, जिनवर ने बतलाया है। अनुभव प्रमाण करो यह श्रद्धा, जिनवाणी में आया है ।
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२७]
[अध्यात्म अमृत
जयमाल]
[૨૮
पर पर्याय से दृष्टि हटाकर, बैठा आतम नांव है । निर्विकल्प सानन्द समाधि, ये ही शून्य स्वभाव है ।
७. सींग सों नातो पूँछ से बैर, ये ही जगत स्वभाव है।
उपयोग हीन आचरण है करता, रहता सदा विभाव है। मुक्ति प्रमाण पात्र वह होता, जिसको उमंग उछाव है। निर्विकल्प सानन्द समाधि, ये ही शून्य स्वभाव है ॥
१३. श्री छद्मस्थ वाणी
जयमाल १. ॐ ह्रीं श्रीं अरहंत सिद्ध ही, ध्रुव सर्वज्ञ स्वभाव है।
जय सुयं जयं उत्पन्न जयं, परम पारिणामिक भाव है। निज स्वभाव की शक्ति जगाकर, हुआ जो सम्यग्ज्ञानी है। सद्गुरू की छमस्थ वाणी, जिनवर की जिनवाणी है ।
८. सैंतालीस शून्य सद्गुरू ने ध्याये, तारण तरण कहाये हैं।
अतीन्द्रिय आनंद के अमृत झरने, इन ग्रंथों में बहाये हैं। पढे सुने जो करे साधना, मिटे जगत भटकाव है। निर्विकल्प सानन्द समाधि, ये ही शून्य स्वभाव है ।।
२. संतों का जीवन परिचय ही, ज्ञान ध्यान से होता है।
जड़ शरीर के साधन से, अज्ञान तिमिर को खोता है | तारण तरण की जीवन गाथा, कहती छद्मस्थ वाणी है। सद्गुरू की छद्मस्थ वाणी, जिनवर की जिनवाणी है ।
जैसे जिनवर परमातम हैं, अनन्त चतुष्टयधारी हैं। वैसे सब भगवान आतमा, स्वतंत्र सत्ता न्यारी है । ज्ञानानंद स्वभावी हूं मैं, कोई न भेदभाव है । निर्विकल्प सानन्द समाधि, ये ही शून्य स्वभाव है ॥
३. वीर प्रभु के समवशरण का, आंखों देखा हाल कहा।
उत्पन्न ज्योति कमलावती और,रूइया जिन का साथ रहा। कलनावती रमनावती और, भक्तावती बखानी है। सद्गुरू की छदास्थ वाणी, जिनवर की जिनवाणी है ॥
१०. सम्यग्दर्शन ज्ञान के द्वारा, जिसने निज को पहिचाना।
अपनी सत्ता शक्ति जगाकर, सत्पुरुषार्थ है यह ठाना ॥ ध्यान समाधि लगाता अपनी, जिसको इतना चाव है। निर्विकल्प सानन्द समाधि, ये ही शून्य स्वभाव है ॥
४. ॐनमः सिद्धं का मन्त्र ही, तारण पंथ आधार है ।
मुक्ति सुख को देने वाला, यही समय का सार है ।। ब्रह्मदेव सुखेन विरउ सब, कहते सद्गुरू वाणी है। सद्गुरू की छयास्थ वाणी, जिनवर की जिनवाणी है ।
(दोहा) शून्य स्वभाव की साधना, होती द्रव्य स्वभाव । वस्तु स्वरूप के जानते, मिटते सभी विभाव ॥ योग-ध्यान निज ज्ञान बल, होती शून्य समाधि । ज्ञानानंद में लीन रह, मिलती जगत समाधि ।
५. जिनवर स्वामी तू बड़ो, मैं जिनवर अनुगामी हूं।
अर्थति अर्थह सिद्ध ध्रुव पद, मैं भी अपना स्वामी हूं। जैसे ले सको वैसे ले लो, एकई टेर लगानी है। सद्गुरू की छद्मस्थ वाणी, जिनवर की जिनवाणी है |
६. उत्पन्न जय उत्पन्न प्रवेश हो, यही तो सत्य प्रमाण है।
जो उन कियो सो मैं कियो, वह बनता खुद भगवान है।
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[२९]
७.
८.
९.
ताले सात तोड़कर अन्तर, रत्नत्रय निधि पानी है । सद्गुरू की छद्मस्थ वाणी, जिनवर की जिनवाणी है |
[ अध्यात्म अमृत
अंचित चिंतामणि अनन्त प्रवेश में, तिलक महोत्सव होते हैं। चिदानंद त्रिलोकीनाथ तब, शून्य समाधि में खोते हैं ॥ संसार तो आता जाता है, हम संसार छुड़ानी है । सद्गुरू की छद्मस्थ वाणी, जिनवर की जिनवाणी है |
सुभाव सुभाव मुक्ति विलसाई, सोहं की ध्वनि होती है। निज हेर बैठो रार करो नहीं, सब दुनियांदारी खोती है ॥ अस्थाप छत्र तिलक प्रसाद हो, दयाल प्रसाद बखानी है। सद्गुरू की छद्मस्थ वाणी, जिनवर की जिनवाणी है ॥
जय साह जय साह सुल्प सुन्न हो, दुंदुहि शब्द निकलते हैं। अनन्तानन्त उत्पन्न प्रवेश हो, ज्ञानानंद मचलते हैं । मुक्ति विलास पात्र वह होता, तीर्थंकर अगवानी है। सद्गुरू की छद्मस्थ वाणी, जिनवर की जिनवाणी है |
१०. अगहन सुदी सातें पुष्पावती, पंद्रह सौ पाँच में जन्म हुआ । संवत् पंद्रह सौ बहत्तर, जेठ वदी छठ तिलक हुआ । सर्वार्थसिद्धि में प्रयाण कर, छोड़ी अकथ कहानी है । सद्गुरू की छद्मस्थ वाणी, जिनवर की जिनवाणी है |
जिन स्वभाव को जानकर, जो बन गये भगवान । छद्मस्थ वाणी में कहा, तारण तरण महान ||
मैं भी ध्रुव शुद्ध सिद्ध हूं, खुद आतम भगवान | ऐसी दृढ़ श्रद्धा करो, जो चाहो कल्याण ॥
जयमाल ]
१.
ॐ नमः सिद्धं की धुन ही, ध्रुव पद प्राप्त कराती है। आतम शुद्धातम परमातम, सिद्ध परम पद पाती है । महावीर की दिव्य देशना प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र है । अन्मोय कलन जिन श्रेणी, यह नाम माला का मंत्र है ॥
२.
३.
४.
५.
१४. श्री नाम माला
जयमाल
६.
सभी जीव सम्यग्दृष्टि हो, आतम का कल्याण करें । मोह अज्ञान - मिथ्यात्व को छोड़ें, संयम तप महाव्रत धरें ॥ नरभव सब शुभयोग मिले हैं, तारण स्वामी से संत हैं। अन्मोय कलन जिन श्रेणी, यह नाम माला का मंत्र है ॥
वीतराग की ध्यान समाधि, जिन श्रेणी कहलाती है । मुक्ति गामिनो मार्ग यही है, केवल ज्ञान प्रगटाती है ॥ जिसकी होवे अन्तर साधना, वह बनता अरिहन्त है । अन्मोय कलन जिन श्रेणी, यह नाम माला का मंत्र है ॥
नाम ठाम अर्क छत्तीस को, नाम माला की कहानी है । महा उत्पन्न कलिकमल न्यानश्री, छत्तीस अर्जिका बखानी हैं । सात मुनि भी संघ में जिनके, दिया सबको महामंत्र है । अन्मोय कलन जिन श्रेणी, यह नाम माला का मंत्र है |
कमल श्री चरन श्री अर्जिका, दिप्ति श्री आनन्द श्री । अलषश्री सर्वार्थ श्री थी, विंदश्री और समय श्री ॥ दौ सौ इकतीस ब्रह्मचारी बहिनें, सुवनी सब स्वतंत्र हैं । अन्मोय कलन जिन श्रेणी, यह नाम माला का मंत्र है ॥
"
साठ ब्रह्मचारी थे संघ में शुद्ध अध्यात्म जगाया था । ॐच नीच का भेदभाव सब, धर्म से मार भगाया था ।
[३०
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३१]
जयमाल
[अध्यात्म अमृत आतम शुद्धातम पहिचानो, यही तो तारण पंथ है। अन्मोय कलन जिन श्रेणी, यह नाम माला का मंत्र है ।।
१५. श्री समय सार
जयमाल
७. यह पाती लिख थाती सौंपी, रूइया जिन तसलीम कियो ।
कमलावती विरउ ब्रह्मचारी, दयाल प्रसाद आशीष दियो । त्रितालीस लाख भव्य जीवों का, बना यह तारण पंथ है। अन्मोय कलन जिन श्रेणी, यह नाम माला का मंत्र है ।
१. मैं आतम शुद्धातम हूँ, परमातम सिद्ध समान हूँ।
ध्रुव तत्व टंकोत्कीर्ण अप्पा, ज्ञायक ज्ञान महान हूँ | भेदज्ञान तत्व निर्णय द्वारा, वस्तु स्वरूप स्वीकार है। द्रव्य दृष्टि का हो जाना ही, समयसार का सार है ।
एक सौ आठ मंडल के स्वामी, मंडलाचार्य कहाये हैं। तारण तरण गुरू की जय हो, धर्मध्वजा फहराये हैं। गांव गांव में भ्रमण करके, छुड़ा दिया परतंत्र है । अन्मोय कलन जिन श्रेणी, यह नाम माला का मंत्र है ।
ध्रुव ध्रुव हूँ धुव तत्व हूँ, एक अखंड निराला हूँ। निरावरण चैतन्य ज्योति मैं, अनन्त चतुष्टय वाला हूँ॥ सम्यक्दर्शन ज्ञान चरण सब, भेद विकल्प व्यवहार है। द्रव्य दृष्टि का हो जाना ही, समयसार का सार है ।
ॐ नमः प्रणम्य उत्पन्न कर, आनंद परमानंद रहो । सिद्ध स्वभाव स्वयं का देखो, सहजोपनीत का मार्ग गहो । धर्म साधना आतम हित में, हर व्यक्ति स्वतंत्र है । अन्मोय कलन जिन श्रेणी, यह नाम माला का मंत्र है ।।
३. अबद्ध अस्पर्शी अनन्य नियत हूँ, अविशेष असंयुक्त हैं।
स्वानुभूति में दिखने वाला, पूर्ण शुद्ध और मुक्त हूँ॥ ज्ञेय भाव से भिन्न कमलवत, भावक भाव असार हैं। द्रव्य दृष्टि का हो जाना ही, समयसार का सार है ।।
१०. पंडित सरउ, उदय, भीषम ने, यह सारा इतिहास लिखा ।
कई उपसर्ग सहे सद्गुरू ने, सत्य धर्म से नहीं डिगा ।। ज्ञानानंद स्वभाव लीन हो, बने स्वयं भगवन्त हैं। अन्मोय कलन जिन श्रेणी, यह नाम माला का मंत्र है ।
४. नहिं प्रमत्त-अप्रमत्त नहीं जो, परम पारिणामिक भाव है ।
अहमिक्को खलु शुद्धो हूँ मैं, जहाँ न कोई विभाव है ॥ वर्ण रूप रस गंध से न्यारा, ममल सदा अविकार है। द्रव्य दृष्टि का हो जाना ही, समयसार का सार है ।
(दोहा)
नाम-काम और दाम का, खेल है सब संसार । जीव अनादि से फंसे, इस ही मायाचार ।। छूटना है संसार से, धरो आत्म का ध्यान । ज्ञानानंद स्वभाव रह, पाओ पद निर्वाण ||
अनादि अनन्त अचल अविनाशी, स्वसंवेद्य प्रकाशक हूँ। नवतत्वों को जानने वाला, चेतन ज्योति ज्ञायक हूँ | पुद्गल द्रव्य शुद्ध परमाणु, जिसका जग विस्तार है। द्रव्य दृष्टि का हो जाना ही, समयसार का सार है ।
६. वर्ग वर्गणा स्पर्धक सब, कर्म नोकर्म में आते हैं।
बद्ध अबद्ध जीव का होना, सब नय पक्ष कहाते हैं ।
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३३]
जयमाल
[३४
[अध्यात्म अमृत पक्षातीत स्वयं का अनुभव, भव से तारण हार है। द्रव्य दृष्टि का हो जाना ही, समयसार का सार है ।
१६. श्री नियम सार
जयमाल
७.
१.
जो दिखता है भ्रांति स्वयं की, यही तो भ्रम अज्ञान है। पर पर्याय से भिन्न जो देखे, वही तो सम्यग्ज्ञान है ॥ निज शुद्धात्मानुभूति होते ही, मिटता भ्रम संसार है। द्रव्य दृष्टि का हो जाना ही, समयसार का सार है ।।
आतम ही परमातम है, शुद्धातम सिद्ध समान है । चिदानंद चैतन्य ज्योति यह, खुद आतम भगवान है । भेदज्ञान तत्व निर्णय द्वारा, निज में इतनी दृढ़ता धरो। नियमसार का सार यही है, मुक्ति श्री का वरण करो ॥
आसव बन्ध पुण्य-पाप सब, कर्म बन्ध कहलाते हैं। संवर निर्जर तत्व के द्वारा, जीव मोक्ष को जाते हैं । सर्व विशुद्ध ज्ञान से होता, आतम का उद्घार है । द्रव्य दृष्टि का हो जाना ही, समयसार का सार है ।।
मार्ग मार्ग फल सामने देखो, दोनों तरफ का ज्ञान है। एक तरफ संसार चतुर्गति, सामने मोक्ष महान है ॥ छोड़ो अब संसार चक्र को, मोह राग में मती मरो। नियमसार का सार यही है, मुक्ति श्री का वरण करो ॥
जीव आत्मा सिद्ध स्वरूपी, अजर अमर अविकार है। पुद्गल द्रव्य शुद्ध परमाणु, अनंतानंत अपार हैं ॥ धर्म अधर्म आकाश काल सब, अपने में निर्विकार है। द्रव्य दृष्टि का हो जाना ही, समयसार का सार है ।।
सम्यक्दर्शन ज्ञान सहित ही, द्रव्य दृष्टि यह होती है। कर्म कषायें मन पर्यायें, सारा भ्रम भय खोती हैं । निज सत्ता स्वरूप पहिचाना, कर्मोदय से नहीं डरो। नियमसार का सार यही है, मुक्ति श्री का वरण करो ॥
१०. छह द्रव्यों का समूह जगत यह, भ्रम अज्ञान का जाल है।
द्रव्य दृष्टि से देखो इसको, मिटता जग जंजाल है ।। ज्ञानानंद स्वभाव रहो तो, मचती जय जयकार है। द्रव्य दृष्टि का हो जाना ही, समयसार का सार है ।।
४. निज स्वभाव में स्थित रहना, सम्यग्चारित्र कहाता है।
शुद्धोपयोग की सतत साधना, जैनागम बतलाता है । वीतराग निर्ग्रन्थ दिगम्बर, साधु पद रत्नत्रय धरो । नियमसार का सार यही है, मुक्ति श्री का वरण करो ॥
(दोहा)
मोह राग अज्ञान के कारण, काल अनादि भटके हो। चारों गति के दु:ख भोगे हैं, भव संसार में लटके हो ॥ नरभव यह पुरूषार्थ योनि है, जन्म मरण के दुःख को हरो। नियमसार का सार यही है, मुक्ति श्री का वरण करो ॥
कुन्द कुन्द आचार्य का, अध्यात्मवाद का सार। सत्य धर्म की देशना, जिनवाणी अनुसार ।। आतम शुद्धातम प्रभु, निज स्वरूप अविकार। मुमुक्षु जीव बन कर सभी, करो इसे स्वीकार ।।
६. ध्रुव तत्व टंकोत्कीर्ण अप्पा, केवलज्ञान स्वभावी हो ।
तीन लोक के नाथ स्वयं तुम, लोकालोक प्रकाशी हो ।
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३५]
७.
८.
९.
ममल स्वभाव सामने देखो, दृढ़ निश्चय श्रद्धान धरो । नियमसार का सार यही है, मुक्ति श्री का वरण करो ॥
[ अध्यात्म अमृत
पंच महाव्रत पंच समितियां, तीन गुप्ति का पालन हो । विषय कषायें पाप-पुण्य सब, कर्मों का प्रक्षालन हो । पंचाचार का पालन करते, संयम तप का मार्ग वरो । नियमसार का सार यही है, मुक्ति श्री का वरण करो |
निश्चय लक्ष्य ध्रुव शुद्धातम, इसमें जरा न शंका हो । पर पर्याय से दृष्टि हटाना, व्यवहार नय का डंका हो ॥ ध्रुव तत्व की धूम मचाते, भव सागर से शीघ्र तरो । नियमसार का सार यही है, मुक्ति श्री का वरण करो ||
महावीर का मार्ग यही है, वीतराग बनने वाला | सम्यक दृष्टि वही कहाता, जो इस पर चलने वाला ॥ कुन्दकुन्द आचार्य देव का शुद्ध मार्ग स्वीकार करो । नियमसार का सार यही है, मुक्ति श्री का वरण करो ॥
१०. ज्ञानानंद स्वभावी हो तुम, ज्ञानानंद कहाते हो । आतम परमातम की चर्चा, सबको खूब सुनाते हो ॥ धर्म कर्म की श्रद्धा करके, अब तो साधु पद को धरो । नियमसार का सार यही है, मुक्ति श्री का वरण करो |
मार्ग, मार्ग फल सामने, देख लो सब संसार । जिनवर की यह देशना, करो इसे स्वीकार ॥
निश्चय अरू व्यवहार से, मुक्ति मार्ग पहिचान | ज्ञानानंद स्वभाव रत, पाओ पद निर्वाण ॥
जयमाल ]
१.
२.
३.
४.
५.
६.
१७. श्री प्रवचन सार
जयमाल
आतम ही है देव निरंजन, आतम ही सद्गुरू भाई । आतम शास्त्र धर्म आतम ही, तीर्थ आत्म ही सुखदाई ॥ आत्म मनन ही है रत्नत्रय द्वादशांग का सार है । जन्म-मरण के चक्र से छूटो, यही प्रवचन सार है ॥
वीतराग जिनवर परमातम, आदिनाथ भगवन्त हैं । अजितनाथ से पार्श्वनाथ तक जितने भी सब सन्त हैं ॥ वीर प्रभु की दिव्य देशना, सब संसार असार है । जन्म-मरण के चक्र से छूटो, यही प्रवचन सार है ॥
,
चिदानन्द चैतन्य ज्योति यह सिद्ध स्वरूप शुद्धातम है। जिनवर की वाणी में आया, आतम ही परमातम है । निज स्वभाव की शक्ति जगाना, अपना ही अधिकार है। जन्म-मरण के चक्र से छूटो, यही प्रवचन सार है ॥
ज्ञान तत्व और ज्ञेय तत्व का खेल यह सब संसार है। दर्शन ज्ञान उपयोग के द्वारा, चलता सब व्यापार है । चरणानुयोग चूलिका में इसका ही विस्तार है । जन्म-मरण के चक्र से छूटो, यही प्रवचन सार है ॥
द्रव्य स्वभाव से गुण पर्यय वत, शाश्वत सदा निराला है। व्यय उत्पाद ध्रौव्य के कारण, इसका क्षेत्र विशाला है ॥ छह द्रव्यों का समूह यह, दिखता सब संसार है । जन्म-मरण के चक्र से छूटो, यही प्रवचन सार है ॥
जीव अजीव का खेल जगत में, चलता काल अनादि है। निज अज्ञान मोह के कारण, भटक रहा जग वादि है ॥
[३६
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३७]
जयमाल]
[अध्यात्म अमृत सम्यक् दर्शन ज्ञान का होना, जग से तारणहार है। जन्म-मरण के चक्र से छूटो, यही प्रवचन सार है |
१८. श्री पंचास्तिकाय
जयमाल
७.
अज्ञानी कर्मों से बंधता, ज्ञानी कमल समान है । त्रिविध योग की साधना करके, बनता खुद भगवान है । दृष्टि पलटते मुक्ति होवे, मिटता सब संसार है । जन्म-मरण के चक्र से छूटो, यही प्रवचन सार है।
१. जीव तत्व पदार्थ द्रव्य से, अस्तिकाय कहलाता है।
छह द्रव्यों का समूह जग, जैनागम बतलाता है ।। जीव स्वभाव से सिद्ध स्वरूपी, पुद्गल सब जड़ धूल है। शुद्ध प्रदेश बताने वाला, पंचास्तिकाय का मूल है ।
पर पर्याय शरीरादि का, लक्ष्य महा अज्ञान है । सर्वागम का ज्ञाता हो पर, पाता न निर्वाण है ॥ सम्यक् दर्शन ज्ञान चरण से, आतम का उद्धार है। जन्म-मरण के चक्र से छूटो, यही प्रवचन सार है ।।
गुण पर्ययवत् सभी द्रव्य हैं, सत अस्तित्व कहाते हैं। व्यय उत्पाद धौव्य के कारण, सबमें आते-जाते हैं । पर्यायी निमित्त नैमित्तिक संबंध, यही जगत का मूल है। शुद्ध प्रदेश बताने वाला, पंचास्तिकाय का मूल है ।
३.
जो मुमुक्षु चारित्र को धारे, शुद्धोपयोग में लीन हो। अंतर में रत्नत्रय प्रगटे, बाह्य चरित्र दशतीन हो । साधु हो यदि शुभ उपयोग में, व्यर्थ उठाता भार है। जन्म-मरण के चक्र से छूटो, यही प्रवचन सार है ॥
पांच द्रव्य हैं बहुप्रदेशी, काल द्रव्य है कालाणु । जीव अनन्त असंख्य प्रदेशी, पुद्गल अनंत हैं परमाणु ॥ दोनों के अशुद्ध परिणमन से, बना जगत यह शूल है। शुद्ध प्रदेश बताने वाला, पंचास्तिकाय का मूल है ।
१०. सम्यग्दर्शन ज्ञान सहित जो, साधु पद स्वीकार करे ।
कुन्द कुन्द आचार्य बखाने, वह ही मुक्ति श्री वरे ।। ज्ञानानंद स्वभाव ही अपना, एक मात्र आधार है । जन्म-मरण के चक्र से छूटो, यही प्रवचन सार है ॥
४. धर्म एक अधर्म एक, आकाश एक सर्व व्यापी है ।
गुण पर्याय से शुद्ध हैं तीनों, मात्र निमित्त सहकारी हैं । काल द्रव्य परिणमन सहकारी, सब अपने अनुकूल हैं। शुद्ध प्रदेश बताने वाला, पंचास्तिकाय का मूल है ।
(दोहा)
जीव पुद्गल गुण द्रव्य से शुद्ध है, मात्र अशुद्ध पर्याय है। अपने-अपने में परिणमन करते, अज्ञानी भरमाय है ॥ जीव अरूपी चेतन लक्षण, जैसे कमल का फूल है। शुद्ध प्रदेश बताने वाला, पंचास्तिकाय का मूल है ।।
ज्ञानानंद स्वभाव का, जिनका लक्ष्य महान । निज स्वभाव में लीन हो, बन गये वे भगवान ।। निज आतम कल्याण का, जिनका होवे लक्ष्य । सम्यक् ज्ञान प्रगट करे, छोड़े सब ही पक्ष ।
काल अनादि छहों मिले हैं, चलता चक्र ये सारा है। शुद्ध प्रदेशी सभी द्रव्य हैं, सब अस्तित्व न्यारा है ॥
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[अध्यात्म अमृत
जयमाल
निज सत्ता स्वरूप को भूला, जीव बना त्रिशूल है। शुद्ध प्रदेश बताने वाला, पंचास्तिकाय का मूल है ॥
१९. श्री अष्टपाहुड़
जयमाल
७. ज्ञायक ज्ञान स्वभावी चेतन, चिदानंद भगवान है ।
ध्रुव तत्व टंकोत्कीर्ण अप्पा, केवल ज्ञान प्रमाण है । निज स्वरूप का बोध जागना, सम्यक्दर्शन मूल है। शुद्ध प्रदेश बताने वाला, पंचास्तिकाय का मूल है ।
१. चिदानंद ध्रुव शुद्ध आत्मा, चेतन सत्ता है भगवान ।
टंकोत्कीर्ण अप्पा ममल स्वभावी,ब्रह्म स्वरूपी सिद्ध समान ॥ निज शुद्धात्मानुभूति युत जिसको, हुआ यह सम्यक्ज्ञान है। अष्ट पाहुड को जानने वाला, पाता पद निर्वाण है ॥
८. चार गति चौरासी लाख योनि का, चक्र बना संसार है।
नव पदार्थ के रूप में चेतन, करता हा हाकार है ।। निश्चय व व्यवहार समन्वय, जग तरने का कूल है। शुद्ध प्रदेश बताने वाला, पंचास्तिकाय का मूल है ।
दर्शन पाहुड सूत्र पाहुड, चारित्र पाहुड़ का ज्ञान है। बोध पाहुड भाव पाहुड, मोक्ष पाहुड महान है ॥ लिंग पाहुड शील पाहुड़ का, जिसको सत्श्रद्धान है। अष्ट पाहुड को जानने वाला, पाता पद निर्वाण है ॥
व्यवहाराभासी निश्चयाभासी, सूक्ष्म संधियां होती हैं। सम्यज्ञान प्रगट होने पर, मोह तिमिर को खोती है । निज शुद्धात्मानुभूति से, मिटता सब प्रतिकूल है । शुद्ध प्रदेश बताने वाला, पंचास्तिकाय का मूल है ॥
३. सम्यक् दर्शन प्रथम सीढ़ी है, मोक्षमार्ग को पाने की।
सम्यक् ज्ञान ही कला सिखाता, वीतराग बन जाने की ॥ बिन समकित के क्रिया कांड सब, मिथ्या भ्रम अज्ञान है । अष्टपाहुड को जानने वाला, पाता पद निर्वाण है ।।
१०. शुद्ध प्रदेश अनादि निधन है, जिसका लक्ष्य महान है।
कुन्दकुन्द आचार्य कथन है, वह बनता भगवान है । ज्ञानानंद स्वभाव साधना, करती जग को धूल है । शुद्ध प्रदेश बताने वाला, पंचास्तिकाय का मूल है ।
४. शास्त्र सूत्र सिद्धांत का ज्ञाता, जिन आगम का ज्ञाता है।
जिनवर कथित सप्त तत्वों का, वही सही व्याख्याता है। कथनी करनी जिसकी एक सी, वह बनता भगवान है। अष्ट पाहुड को जानने वाला, पाता पद निर्वाण है ।
(दोहा) कुन्द कुन्द आचार्य ने, जिनवर के अनुकूल | अस्तिकाय पदार्थ का, बता दिया सब मूल || जो चाहो निज आत्म हित, करो स्व-पर का ज्ञान । निज स्वभाव में लीन हो, बन जाओ भगवान ।।
सम्यक् चारित्र मुक्ति देता, परमानंद का दाता है। वीतराग शुद्धोपयोग ही, साधु पद को पाता है । धर्म के नाम पर ढोंग रचाना, जीवन पशु समान है। अष्ट पाहुड को जानने वाला, पाता पद निर्वाण है ॥
बोध भेद विज्ञान से होता, के वलज्ञान प्रगटाता है । वस्तु स्वरूप सामने दिखता, फिर न धोखा खाता है ।
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४१]
[अध्यात्म अमृत
जयमाल]
द्रव्य दृष्टि के द्वारा जिसको, हुआ स्व-पर का ज्ञान है। अष्ट पाहुड को जानने वाला, पाता पद निर्वाण है ॥
२०. श्री अमृत कलश
जयमाल
७.
भाव प्रधान ही जैन धर्म है, भाव का जगत पसारा है। शुभ अशुभ भाव संसार के कारण, शुद्ध भाव जयकारा है। परम पारिणामिक भाववान ही, ज्ञानी श्रेष्ठ महान है। अष्ट पाहुड को जानने वाला, पाता पद निर्वाण है ॥
१. स्वानुभूति में चकचकासते, निज शुद्धात्म स्वरूप है।
आनंद परमानंद का दाता, चेतन अरस अरूप है ।। सम्यक् दर्शन ज्ञान की महिमा, मोक्षमार्ग दर्शाये हैं। कुन्द कुन्द के समयसार पर, अमृत कलश चढ़ाये हैं।
८. वीतराग निर्ग्रन्थ दिगम्बर, मोक्ष महल अधिकारी है।
पाप विषय कषाय से छूटा, परम भाव निर्विकारी है । आर्त रौद्र ध्यानों का त्यागी, धर्म शुक्ल ही ध्यान है। अष्ट पाहुड को जानने वाला, पाता पद निर्वाण है ।
एकत्वे नियतस्य शुद्ध नय, जिन आगम प्रमाण है। परभावों से भिन्न रहा जो, खुद आतम भगवान है ॥ भूतं भांत मभूत मेव जो, निज अनुभूति में लाये हैं। कुन्द कुन्द के समयसार पर, अमृत कलश चढाये हैं।
३.
लिंग तीन हैं मुक्ति मार्ग के, सम्यक दृष्टि ज्ञानी हो। साधु श्रावक अविरत साधक, वीतराग विज्ञानी हो । जिनलिंगी जिनमुद्रा धारी, चेतन ही भगवान है । अष्टपाहुड को जानने वाला, पाता पद निर्वाण है ।
अबद्ध अस्पृष्ट अनन्य नियत जो, अविशेष असंयुक्त है। ऐसा आतम शुद्धातम मैं, अनुभव प्रमाण अव्यक्त है ॥ चेतन ज्योति प्रकाशित करते, सहजानंद बरसाये हैं। कुन्द कुन्द के समयसार पर, अमृत कलश चढाये हैं।
१०. शील धर्म संसार पूज्य है, सब धर्मों का मूल है ।
कुन्द कुन्द कुन्दन सा खिलता, आत्म कमल का फूल है ॥ ज्ञानानंद स्वभावी हूँ मैं, केवलज्ञान प्रमाण है । अष्ट पाहुड को जानने वाला, पाता पद निर्वाण है ॥
४. कथमपि हि लभन्ते भेदविज्ञान से,जिनने निज को जाना है।
समयसार का सार उन्होंने, अपने में पहिचाना है । त्यजतु जगदिदानी मोह मान को, नरभव सफल बनाये हैं। कुन्द कुन्द के समयसार पर, अमृत कलश चढाये हैं।
(दोहा) अष्टपाहुड़ की देशना, जैनागम का डंड | कथनी करनी भिन्न हो, धर्म नहीं पाखण्ड ।। कुन्द कुन्द आचार्य का, समझो धर्म विज्ञान । महावीर अनुयायिओ, जो चाहो कल्याण ।।
ज्ञेय भाव भावक भावों से, शाश्वत सदा निराला हूँ। अहमिक्को खलु शुद्धो हूँ मैं, अनन्त चतुष्टय वाला हूँ | रत्नत्रय मयी सदा अरूपी, शुद्धातम प्रगटाये हैं। कुन्द कुन्द के समयसार पर, अमृत कलश चढ़ाये हैं।
६.
आत्माराम मनन्त धाम महसा, ज्ञान ज्योति से प्रगटा है। जीव अजीव पुण्य पाप सब, नृत्य रणांगन विघटा है।
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४३]
७.
८.
[ अध्यात्म अमृत
ध्रुव धाम की धूम मचाते, निज में आन समाये हैं । कुन्द कुन्द के समयसार पर, अमृत कलश चढ़ाये हैं ।
आत्मा ज्ञानं स्वयं ज्ञानं, अज्ञान अज्ञान से आया है। पर का कर्ता भोक्ता बनकर, अज्ञानी कहलाया है ॥ निज स्वरूप का बोध जगाकर, सब भ्रम भेद मिटाये हैं। के समयसार पर, अमृत कलश चढ़ाये हैं । कुन्दकुन्द
नय पक्षों में फंसा अज्ञानी, संकल्प विकल्प ही करता है। ज्ञानानंद स्वभावी चेतन, मुफत में सुख दुःख भरता है ॥ चित्स्वरूप के अनुभव द्वारा, नय विकल्प सुलझाये हैं । कुन्द कुन्द के समयसार पर, अमृत कलश चढ़ाये हैं ।
९.
भेद विज्ञानतः सिद्धा, सिद्ध परम पद पाये हैं । कोत्कीर्ण स्व रस पा करके, जिन भगवान कहाये हैं । शुद्ध चिन्मात्रमहोतिरिक्ता, जय जयकार मचाये हैं । कुन्द कुन्द के समयसार पर, अमृत कलश चढ़ाये हैं । १०. सिद्धांतोऽयमुदात्तचित्तचरिते, यदि मोक्ष को पाना है । परम ज्योति चिन्मात्र शुद्ध हूँ, दृढ़ निश्चय कर माना है । सर्व विशुद्ध ज्ञान के द्वारा, सर्वार्थ सिद्ध पद पाये हैं । कुन्दकुन्द के समयसार पर, अमृत कलश चढ़ाये हैं |
दोहा
निज सत्ता स्वरूप का, जिन्हें हुआ है ज्ञान । ज्ञानानंद में लीन हो, बन गये वे भगवान ॥ अमृत चंद्र आचार्य का, सब जग को संदेश | छोड़ो सब भ्रम भांति को, बन जाओ परमेश ॥
जयमाल ]
१.
२. निज स्वरूप का अनुभव ही तो, सम्यक्दर्शन कहलाता । स्व पर का यथार्थ स्वरूप ही, सम्यक्ज्ञान में झलकाता ॥ निज स्वभाव में रत हो जाना, सम्यक्चारित्र अन्त है । आतम शुद्धातम पहिचानो, यही तो तारण पंथ है ।
३.
४.
२१. श्री तारण पंथ
जयमाल
"
मन शरीर से भिन्न सदा जो एक अखंड निराला है। ध्रुव तत्व शुद्धातम कहते, चेतन लक्षण वाला है । ऐसे निज स्वरूप को जाने, वही कहाता संत है । आतम शुद्धातम पहिचानो, यही तो तारण पंथ है ।
६.
निज स्वरूप को भूला चेतन, काल अनादि भटक रहा । चारों गति के चक्कर खाता, मोह राग में लटक रहा । सद्गुरू तारण स्वामी जग को, दिया यही महामंत्र है । आतम शुद्धातम पहिचानो, यही तो तारण पंथ है ।
सम्यक् दर्शन ज्ञान चरण ही, मोक्षमार्ग कहलाता है । जीवमात्र का धर्म यही है, जैनागम बतलाता है ॥ धर्म साधना आतम हित में हर व्यक्ति स्वतंत्र है । आतम शुद्धातम पहिचानो, यही तो तारण पंथ है ।
1
५. जाति पांति व क्रिया कांड सब, सम्प्रदाय बतलाते हैं। अज्ञानी जीवों को इनमें धर्म के नाम फंसाते हैं । बाह्य प्रपंच परोन्मुख दृष्टि करती यह परतंत्र है । आतम शुद्धातम पहिचानो, यही तो तारण पंथ है ।
"
सभी जीव भगवान आत्मा, सब स्वतंत्र सत्ताधारी । पर्यायी परिणमन क्रमबद्ध, सबकी अपनी है न्यारी ॥
[ ४४
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________________
४५]
[अध्यात्म अमृत
जयमाल
कोई किसी का कुछ नहीं करता, कहते यह अरिहंत हैं। आतम शुद्धातम पहिचानो, यही तो तारण पंथ है ॥
२२. श्री छहढाला
जयमाल
७. भेदज्ञान तत्व निर्णय करना, तारण पंथ आधार है।
मुक्ति सुख को देने वाला, समयसार का सार है । वस्तु स्वरूप जान कर ज्ञानी, बनता खुद भगवंत है। आतम शुद्धातम पहिचानो, यही तो तारण पंथ है ॥
१. वीतराग विज्ञान सार है, शिव सुख को देने वाला ।
निज शुद्धात्म स्वरूप को देखो, चेतन रत्नत्रय माला || निज स्वरूप की विस्मृति से, हुआ यह सब गड़बड़ झाला। संसार मोक्ष का भेद समझ लो, सामने रक्खो छहढाला ॥
द्रव्य दृष्टि के हो जाने पर, द्रव्य स्वभाव दिखाता है। पुद्गल द्रव्य शुद्ध परमाणु, भ्रम में न भरमाता है । ध्रुव तत्व दृष्टि में रहता, बनता वह निर्ग्रन्थ है । आतम शुद्धातम पहिचानो, यही तो तारण पंथ है ।
निज अज्ञान मोह के कारण, काल अनादि भटक रहे । नरक निगोद के बहु दुःख भोगे, चारों गति में लटक रहे । सद्गुरू करूणा करके जगा रहे, अब भी चेत जाओ लाला। संसार मोक्ष का भेद समझ लो, सामने रक्खो छहढाला ॥
३.
पराधीन पर के आश्रय से, मुक्ति नहीं मिलने वाली। पर की पूजा क्रिया कांड सब, मन समझाना है खाली ॥ निज चैतन्य देव को पूजो, बन जाओ अरिहंत है। आतम शुद्धातम पहिचानो, यही तो तारण पंथ है ॥
पहली ढाल में चारों गति के, दु:खों का ही वर्णन है। पर पर्याय के आश्रय चेतन, कैसा करता क्रंदन है । देख लो अपने सामने सब है, छोड़ो सब जग जंजाला। संसार मोक्ष का भेद समझ लो, सामने रक्खो छहढाला ।।
१०. जन जन का अध्यात्म धर्म है, निज स्वरूप को पहिचानो।
बाह्य परिणमन कर्माधीन है, इसको अपना मत मानो । ज्ञानानंद स्वभावी हो तुम, देखो खिला बसंत है । आतम शुद्धातम पहिचानो, यही तो तारण पंथ है ॥
४. दूसरी ढाल में मिथ्यादर्शन, गृहीत अगृहीत बताया है।
मैं सुखी दुखी मैं रंक राव, इस मान्यता ने भरमाया है। आतम अनात्म के ज्ञानहीन, सारी करनी है विकराला । संसार मोक्ष का भेद समझ लो, सामने रक्खो छहढाला ॥
(दोहा) सोलहवीं सदी में हुए, सदगुरू तारण संत । शुद्ध अध्यात्म की देशना, चला यह तारण पंथ॥ जाति पांति का भेद तज, किया धर्म प्रचार । ज्ञानानंद स्वभाव से, मच रही जय जयकार ||
सम्यक् दर्शन ज्ञान चरण ही, मोक्षमार्ग कहलाता है। निज स्वरूप का अनुभव ही तो, परमानंद का दाता है | सप्त तत्व की श्रद्धा होना, अष्ट अंग की है माला । संसार मोक्ष का भेद समझ लो, सामने रक्खो छहढाला ॥
६.
सम्यकदर्शन की यह महिमा, आत्म कमल अविकार है। मुक्ति श्री का दर्शन होता, मचती जय जयकार है ॥
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४७]
७.
८.
९.
दौल समझ सुन चेत सयाने, खड़ा सामने है काला । संसार मोक्ष का भेद समझ लो, सामने रक्खो छहढाला ॥
,
चौथी ढाल में सम्यक्ज्ञान की महिमा बड़ी विशाल है। सम्यक् ज्ञानी चारित्र धारें, श्रावक एक मिशाल है । ज्ञान समान न आन जगत में जीवन का है प्रतिपाला । संसार मोक्ष का भेद समझ लो, सामने रक्खो छहढाला ॥
साधु पद धारण करके जो
,
[ अध्यात्म अमृत
आतम ध्यान लगाता है। वीतराग बन जाता है ॥
बारह भावना के चिंतन से
,
स्वरूपाचरण में लीन जो होता, खाज खुजाते मृग छाला । संसार मोक्ष का भेद समझ लो, सामने रक्खो छहढाला ॥
साधु चर्या कैसी होती, छठी ढ़ाल में आया है । द्वादस तप तपने का सच्चा, विधि विधान बताया है ॥ बिना ज्ञान के थोथी क्रिया, जन्म-मरण का जंजाला । संसार मोक्ष का भेद समझ लो, सामने रक्खो छहढाला ॥
१०. इमि जानि आलस हानि, साहस ठानि यह सिख आदरो । जब लों न रोग जरा गहे, तबलों झटिति निज हित करो | ज्ञानानंद स्वभाव साधना सिद्धि को देने वाला । संसार मोक्ष का भेद समझ लो, सामने रक्खो छहढाला ॥
,
दोहा
क्षत्रिय वीर के हाथ में, रहती है तलवार । एक हाथ में ढाल रख करता शत्रु की मार ॥ कर्म शत्रु को जीतने, रखो ज्ञान की ढ़ाल । ज्ञानानंद में सदा रहो, पढ़ लो यह जयमाल ॥
जयमाल ]
१.
२.
३.
४.
५.
६.
२३. ज्ञानी ज्ञायक
ध्रुव तत्व शुद्धातम हूं, परमातम सिद्ध समान हूं । निरावरण चैतन्य ज्योति मैं ज्ञायक ज्ञान महान हूं ॥ वस्तु स्वरूप को जाना जिसने, ध्रुव ध्रुव ही कहता है । ज्ञानानंद निजानंद रत हो, ज्ञानी ज्ञायक रहता है ।
,
कर्म उदय पर्याय से उसका कोई न संबंध है । पर की तरफ न दृष्टि देता, स्वयं पूर्ण निर्बन्ध है ॥ पूर्व कर्म बन्धोदय जैसा, समता से सब सहता है । ज्ञानानंद निजानंद रत हो, ज्ञानी ज्ञायक रहता है ।
खाना पीना सोना चलना, सब पुद्गल पर्याय है । अच्छा बुरा न पुण्य-पाप है, सुख दुःख न हर्षाय है ॥ अभय अडोल अकंप निरन्तर, मन के साथ न बहता है। ज्ञानानंद निजानंद रत हो, ज्ञानी ज्ञायक रहता है |
करना - धरना छूट गया सब जो होना वह होता है।
,
किसी की कोई परवाह नहीं, क्या आता जाता खोता है ॥ अड़ीधक्क अपने में रहता, सब कर्मों को हरता है। ज्ञानानंद निजानंद रत हो, ज्ञानी ज्ञायक रहता है |
-
किसी दशा में किसी हाल में, कहीं रहे कैसा होवे । इससे उसे कोई न मतलब अपने ध्रुव धाम सोवे ॥ सत्य धर्म की बात बताता, अहं ब्रह्मास्मि कहता है। ज्ञानानंद निजानंद रत हो, ज्ञानी ज्ञायक रहता है ।
कर्मोदय पर्याय अव्रती, व्रती हो महाव्रती हो । जग में जय जयकार मचे या, सारी साख ही गिरती हो ॥ निर्भय मस्त रहे अपने में, जग अस्तित्व को ढहता है । ज्ञानानंद निजानंद रत हो, ज्ञानी ज्ञायक रहता है ।
[४८
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४९)
जयमाल
५०
[अध्यात्म अमृत घर समाज परिवार से उसका, अब ना कोई नाता है। प्रेमभाव रहता है सबसे, सबसे हंसता गाता है । निर्विकार निस्पृह है निज में, पर से कुछ न कहता है। ज्ञानानंद निजानंद रत हो, ज्ञानी ज्ञायक रहता है । ध्रुव तत्व निज शुद्धातम का, जिसको दृढ़ श्रद्धान है। त्रिकाली पर्याय क्रमबद्ध, निश्चित अटल का ज्ञान है । निर्विकल्प हो ध्यान समाधि, अपने आप में रहता है। ज्ञानानंद निजानंद रत हो, ज्ञानी ज्ञायक रहता है ।। धन शरीर संसार से उसको, कोई न राग द्वेष है। कैसी क्या क्रिया होती है, कैसा उसका भेष है ॥ सहजानंद स्वरूपानंद हो, तत्वमसि ही कहता है ।
ज्ञानानंद निजानंद रत हो, ज्ञानी ज्ञायक रहता है । १०. आगम अनुभव से प्रमाण कर, सार तत्व को जाना है।
कथनी करनी छूट गई सब, धुवतत्व पहिचाना है । पर उसको पहिचान न सकता, स्वयं स्वयं को गहता है। ज्ञानानंद निजानंद रत हो, ज्ञानी ज्ञायक रहता है ।।
३. चारों तरफ धर्म की सेना, कर्म बने वरदान हैं ।
अभय स्वस्थ होकर के बैठो, जीत लिया मैदान है ॥ कुंभकरण वध हो ही गया है, जीता आतम राम है। धुवधाम में डटे रहो बस, इतना ही अब काम है ।। दृढता धर कर मारे जाओ, धर्म की जय जयकार करो। अब संसार में नहीं रहना है, कर्मोदय से नहीं डरो । सीता सती परम शान्ति का, सदा जपो तुम नाम है।
धुवधाम में डटे रहो बस, इतना ही अब काम है । ५. क्या होना है क्या होवेगा, इसका तनिक न सोच करो।
त्रिकाली परिणमन सब निश्चित, ध्रुव तत्व का ध्यान धरो॥ पर घर काल अनादि भटके, अब यह मिला मुकाम है। धुवधाम में डटे रहो बस, इतना ही अब काम है ॥ कुछ ही समय की बात रही है, समता शान्ति धरे रहो। जल्दी काल लब्धि आना है, ॐ नमः सिद्ध ही कहो ॥ जग से अब क्या लेना-देना, सबको राम-राम है। धुवधाम में डटे रहो बस, इतना ही अब काम है ॥ ज्ञानानंद जीतता जाता, निजानंद बढ़ता जाता । ब्रह्मानन्द सामने देखो, सहजानंद चला आता ॥ स्वरूपानंद में लीन रहो बस, यहीं पर अब विश्राम है।
ध्रुवधाम में डटे रहो बस, इतना ही अब काम है ।। ८. सर्वज्ञ प्रभु यह सामने बैठे, वस्तु स्वरूप को बता रहे ।
सिद्ध स्वरूप को देखो अपने, तारण स्वामी जता रहे ॥ ध्रुवतत्व शुद्धातम अपना, पूर्ण शुद्ध निष्काम है। धुवधाम में डटे रहो बस, इतना ही अब काम है ।। पर का सब अस्तित्व मिटाओ, पर्यायी भ्रम जाल है। पर की तरफ देखना ही बस, यही तो जग जंजाल है ॥
२४.ध्रुवधाम १. सिद्ध स्वरूपी शुद्धातम हो, अनन्त चतुष्टय धारी हो।
परमानन्द मयी परमातम, पूर्ण मुक्त अविकारी हो । न्यारे हो स्वराज्य लिया है, पाया निज ध्रुव धाम है।
धुवधाम में डटे रहो बस, इतना ही अब काम है ॥ २. क्या होता आता जाता है. इससे कोई न मतलब है।
क्रमबद्ध पर्याय से निश्चित, जरा न होवे गफलत है । रावण का ही वध होना है, जय बोलो श्रीराम है। धु वधाम में डटे रहो बस, इतना ही अब काम है ।।
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जयमाल]
५२
५१]
[अध्यात्म अमृत निज घर रहो निजानन्द पाओ, पर घर में बदनाम है।
धुवधाम में डटे रहो बस, इतना ही अब काम है ॥ १०. शून्य समाधि लगाओ अपनी, निर्विकल्प निर्बंद रहो ।
अपनी ही बस देखो जानो, और किसी से कुछ न कहो ॥ ज्ञानानंद सौभाग्य जगा है, जग से मिला विराम है । धुवधाम में डटे रहो बस, इतना ही अब काम है ।
२५. ममल स्वभाव
१. सिद्ध स्वरूपी शुद्धातम है, पूर्ण शुद्ध निष्काम है।
ध्रुव त त्व टंकोत्कीर्ण अप्पा, ज्ञायक आतम राम है ॥ वस्तु स्वरूप सामने देखो, मिला यह अच्छा दांव है। पर पर्याय पर दृष्टि न देना, ये ही ममल स्वभाव है ॥ ममल स्वभाव में रहने से ही, परमानन्द बरसता है। कर्मों का क्षय होता जाता, सहजानंद हरषता है । ज्ञान विराग की शक्ति अपनी, जितना उमंग उछाव है। पर पर्याय पर दृष्टि न देना, ये ही ममल स्वभाव है ।। भेदज्ञान तत्व निर्णय द्वारा, वस्तु स्वरूप को जाना है। ध्रुव तत्व शुद्धातम हूँ मैं, निज स्वरूप पहिचाना है । दृढता धर पुरूषार्थ करो नर, देखें कितना चाव है।
पर पर्याय पर दृष्टि न देना, ये ही ममल स्वभाव है ।। ४. शरीरादि सब ही भ्रांति है, मन माया भ्रम जाल है।
इनके चक्र में उलझा प्राणी, रहे सदा बेहाल है ॥ अनुभव प्रमाण सब जान लिया है, ये तो सभी विभाव हैं। पर पर्याय पर दृष्टि न देना, ये ही ममल स्वभाव है ॥ व्यवहारिक सत्ता को छोड़ो, धर्म का अब बहुमान करो। वीतराग निस्पृह होकर के, साधु पद महाव्रत धरो ।।
ध्रुव तत्व की धूम मचाओ, बैठो आतम नांव है ।
पर पर्याय पर दृष्टि न देना, ये ही ममल स्वभाव है ॥ ६. कर्मोदय सत्ता मत देखो, न संसार की बात करो।
धर्म कर्म का सब निर्णय है, चित्त में इतनी दृढ़ता धरो ॥ ढील-ढाल प्रमाद में रहना, ये ही जग भटकाव है।
पर पर्याय पर दृष्टि न देना, ये ही ममल स्वभाव है ॥ ७. निज शुद्धात्म स्वरूप को देखो, ज्ञानानंद में मगन रहो।
निजानंद की धूम मचाओ, तारण तरण की शरण गहो । एक अखंड सदा अविनाशी, परम पारिणामिक भाव है। पर पर्याय पर दृष्टि न देना, ये ही ममल स्वभाव है ॥ ममल स्वभाव में रहने लगना, मोक्षमार्ग पर चलना है। जीवन में सुख शांति आती, सब कर्मों का दलना है । पर का लक्ष्य -पक्ष न रहता, मिटता भेदभाव है। पर पर्याय पर दृष्टि न देना, ये ही ममल स्वभाव है ॥ संसारी व्यवहार का जब तक, मूल्य महत्व अधिकार है। निज सत्ता स्वरूप को भूले, चलता मायाचार है । अपनी सुरत नहीं रहती है, शुद्ध दृष्टि अभाव है।
पर पर्याय पर दृष्टि न देना,ये ही ममल स्वभाव है ॥ १०. रूचि अनुगामी पुरूषार्थ होता, सब सिद्धांत का सार है।
रूचि कहां की और कैसी है, इसका करो विचार है ॥ दृष्टि पलटते सृष्टि पलटे, फिर न कोई लगाव है। पर पर्याय पर दृष्टि न देना, ये ही ममल स्वभाव है ॥
जो अनन्त सिद्ध परमात्मा मुक्ति को प्राप्त हुए हैं, उनने शुद्ध स्वरूपी ज्ञान गुणमाला शुद्धात्म तत्व की अनुभूति को ग्रहण किया। जो कोई भी भव्यात्मा सम्यक्त्व से शुद्ध होंगे, वे भी मुक्ति को प्राप्त करेंगे यह श्री जिनेन्द्र भगवान ने कहा है।
श्री मालारोहण - गाथा ३२
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५३]
१.
२.
३.
४.
[ अध्यात्म अमृत
५.
२६. मुनिराज
मैं आतम शुद्धातम हूँ, परमातम सिद्ध समान हूँ । ज्ञायक ज्ञान स्वभावी चेतन, चिदानन्द भगवान हूँ ॥ ऐसे ज्ञान श्रद्धान सहित जो चढ़ता मुक्ति जहाज है । ममल स्वभाव में रहने वाला, साधु वह मुनिराज है |
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ज्ञान ध्यान में लीन सदा जो, तपश्चरण ही करता है । आर्त रौद्र ध्यानों को तजकर, धर्म शुक्ल ही धरता है ॥ जनरंजन मनरंजन से छूटा, छूटा सकल समाज है । ममल स्वभाव में रहने वाला, साधु वह मुनिराज है | कलरंजन का काम नहीं है, न कोई मायाचारी है। सरल शान्त निस्पृह बालकवत्, छूटी दुनियांदारी है ॥ जग का सब अस्तित्व मिटाकर, बना वह जग का ताज है। ममल स्वभाव में रहने वाला, साधु वह मुनिराज है | ध्रुव तत्व की लगन लगी है, मुक्ति श्री को पाना है। अब जग से कोई काम नहीं है, परमातम बन जाना है । पाप परिग्रह छूट गये सब, छूटा सब भय लाज है । ममल स्वभाव में रहने वाला, साधु वह मुनिराज है |
आत्म ध्यान की साधना करता, परमानन्द में रहता है। शान्त शून्य निर्विकल्प स्वयं मैं, किसी से कुछ न कहता है ॥ जग में क्या होता जाता है, किसी से कुछ न काज है । ममल स्वभाव में रहने वाला, साधु वह मुनिराज है | ६. निस्पृह आकिंचन ब्रह्मचारी, उत्तम क्षमा का धारी है। अर्घावतारण असि प्रहार में, समता शांति बिहारी है ॥ परम अहिंसा धर्म का धारी, अनुपम शाह नवाज है। ममल स्वभाव में रहने वाला, साधु वह मुनिराज है |
जयमाल ]
७.
८.
९.
१.
पंच महाव्रत पंच समितियां, तीन गुप्ति का पालक है। दस सम्यक्त पंच ज्ञान रत, महावीर सम बालक है । अभय अडोल अकंप स्वयं में, करता आतम काज है । ममल स्वभाव में रहने वाला, साधु वह मुनिराज है |
२.
शुद्ध दृष्टि समदर्शी साधक, परम शान्त परमार्थी है। ऊँच नीच का भेदभाव तज, स्वयं बना आत्मार्थी है | ध्यान समाधि ऐसी साधी, हिरण खुजाता खाज है । ममल स्वभाव में रहने वाला, साधु वह मुनिराज है |
१०. कमल बत्तीसी जिसकी खिल गई, ज्ञानानंद में रहता है। पूर्व कर्म बंधोदय के, उपसर्ग परीषह सहता है || तारण तरण भवोदधि तारक, सद्गुरू परम जहाज है। वीतराग निर्ग्रन्थ दिगम्बर साधु वह मुनिराज है |
दस चौदह परिग्रह का त्यागी, बन्धन रहित विरागी है। क्रियाकांड पुण्य को तजकर, धर्मध्यान अनुरागी है ॥ नमन सदा ऐसे साधु को, लिया स्वतंत्र स्वराज है । ममल स्वभाव में रहने वाला, साधु वह मुनिराज है |
२७. सम्यग्ज्ञान
ओंकारमयी शुद्धातम ही परम ब्रह्म परमातम है । सभी जीव भगवान आत्मा स्वयं सिद्ध शुद्धातम है ॥ स्व-पर का सत्स्वरूप जानना, यही भेद विज्ञान है । सर्वश्रेष्ठ और इष्ट जगत में, केवल सम्यग्ज्ञान है | अध्यात्म वाद का मूल यही तो तत्व ज्ञान कहलाता है। आत्म ज्ञान का बोध जागना, भव से पार लगाता है ॥ जीवन का यह परम लक्ष्य है, बनना खुद भगवान है। सर्वश्रेष्ठ और इष्ट जगत में, केवल सम्यग्ज्ञान है |
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[५४
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[५६
जयमाल] १०. वीतरागता आने पर ही, साधुपद हो जाता है ।
सहजानंद में मस्त रहे वह, ब्रह्मानंद पद पाता है । ध्यान समाधि लगती ऐसी, पाता पद निर्वाण है। सर्वश्रेष्ठ और इष्ट जगत में, केवल सम्यग्ज्ञान है ॥
२८.साधक
[अध्यात्म अमृत ३. शरीरादि से भिन्न सदा मैं, ज्ञायक ज्ञान स्वभावी हूँ।
अलख निरंजन परम तत्व मैं, ममलह ममल स्वभावी हूँ॥ अनुभूतियुत सम्यग्दर्शन, जग में श्रेष्ठ महान है । सर्वश्रेष्ठ और इष्ट जगत में, केवल सम्यग्ज्ञान है ॥ निज अज्ञान मोह के कारण, जीव बना संसारी है। चारों गति में काल अनादि, दु:ख भोगे अति भारी है। पर का कर्ता धर्ता बनना, यही महा अज्ञान है ।
सर्वश्रेष्ठ और इष्ट जगत में, केवल सम्यग्ज्ञान है ॥ ५. निज शुद्धात्मानुभूति ही, निश्चय सम्यग्दर्शन है ।
इससे परे और कुछ करना, झूठा व्यर्थ प्रदर्शन है । धर्म-कर्म को जानने वाला, ज्ञानी परम सुजान है। सर्वश्रेष्ठ और इष्ट जगत में, केवल सम्यग्ज्ञान है । भेद ज्ञान तत्व निर्णय द्वारा, वस्तु स्वरूप को जाना है। द्रव्य दृष्टि का उदय हुआ है, निज स्वरूप पहिचाना है। ज्ञायक ज्ञान स्वभाव में रहता, वह नर वीर महान है। सर्वश्रेष्ठ और इष्ट जगत में, केवल सम्यग्ज्ञान है ॥ काल लब्धि आने पर जिसको, सम्यग्दर्शन होता है। निज पुरूषार्थ जागता उसका, संशय विभ्रम खोता है । अभय स्वस्थ मस्त रहना ही, इसका एक प्रमाण है। सर्वश्रेष्ठ और इष्ट जगत में, केवल सम्यग्ज्ञान है ।। हर क्षण हर पर्याय में ज्ञानी, निजानंद में रहता है। ज्ञानानंद प्रगट हो जाता, किसी से कुछ न कहता है ॥ ध्रुव स्वभाव की साधना करता, सब जग धूल समान है। सर्वश्रेष्ठ और इष्ट जगत में, केवल सम्यग्ज्ञान है ॥ सम्यग्दर्शन ज्ञान सहित वह, समयसार हो जाता है। दृढ निश्चय श्रद्धान जागता, भ्रम भय सब खो जाता है। शुद्ध दृष्टि समभाव में रहता, कर्म बना श्मशान है। सर्वश्रेष्ठ और इष्ट जगत में, केवल सम्यग्ज्ञान है ।
१. सम्यग्दृष्टि ज्ञानी हो, जो ममल भाव में रहता है।
धु वतत्व शुद्धातम हूँ मैं, सिद्धोहं ही कहता है | ज्ञान ध्यान की साधना करता, जपता आतम राम है।
शुद्ध दृष्टि समभाव में रहना, साधक का यह काम है ॥ २. पर पर्याय का लक्ष्य नहीं है, ध्रुव तत्व पर दृष्टि है।
भेद ज्ञान तत्व निर्णय करता, बदल गई सब सृष्टि है। विषय कषायें छूट गई हैं, छूट गया धन धाम है । शुद्ध दृष्टि समभाव में रहना, साधक का यह काम है ॥ वस्तु स्वरूप को जान लिया है, अभय अडोल अकंप है। त्रिकालवी पर्याय क्रमबद्ध, इसमें जरा न शंक है ॥ धुवधाम में बैठ गया है, जग से मिला विराम है।
शुद्ध दृष्टि समभाव में रहना, साधक का यह काम है ॥ ४. सभी जीव भगवान आत्मा, सब स्वतंत्र सत्ताधारी ।
पुद्गल द्रव्य शुद्ध परमाणु, उसकी सत्ता भी न्यारी । द्रव्य दृष्टि से देखता सबको, अपने में निष्काम है। शुद्ध दृष्टि समभाव में रहना, साधक का यह काम है ॥ सिद्ध स्वरूप का ध्यान लगाता, निजानंद में रहता है। तत् समय की योग्यता देखता, किसी से कुछ न कहता है। सत्पुरुषार्थ बढ़ाता अपना, अपने में सावधान है। शुद्ध दृष्टि समभाव में रहना, साधक का यह काम है ॥
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[अध्यात्म अमृत
जयमाल
[५८
६. जग का ही अस्तित्व मिटाता, सब माया भ्रमजाल है।
सत्ता एक शून्य विन्द का, रखता सदा ख्याल है । तन-धन-जन से काम रहा नहीं, मन का भी विश्राम है। शुद्ध दृष्टि समभाव में रहना, साधक का यह काम है ॥ ज्ञेय भाव सब ही भ्रांति है, भावक भाव भ्रमजाल है। त्रिगुणात्मक माया का, फैला सब जंजाल है । निज स्वरूप सत्य शाश्वत है, सहजानंद सुखधाम है। शुद्ध दृष्टि समभाव में रहना, साधक का यह काम है। अब जग से कोई काम नहीं है, सिद्ध मुक्त ही होना है। निज सत्ता शक्ति प्रगटा कर, पर्यायी भय खोना है। अब संसार में नहीं रहना है, दृढ़ संकल्प महान है। शुद्ध दृष्टि समभाव में रहना, साधक का यह काम है । क्या होता आता जाता है, इसकी ओर न दृष्टि है। कर्मोदय परिणमन है सारा, सिमट गई सब सृष्टि है । ध्रुव तत्व की धूम मचाता, रहा दाम न नाम है ।
शुद्ध दृष्टि समभाव में रहना, साधक का यह काम है ॥ १०. वस्तु स्वरूप सामने रखता, परमातम पद धारी है।
ब्रह्मानंद की साधना करता, ज्ञानानंद निर्विकारी है । निस्पृह आकिंचन होकर के, बैठा निज धुवधाम है। शुद्ध दृष्टि समभाव में रहना, साधक का यह काम है ॥
२९. मोक्षमार्ग १. भेदज्ञान तत्वनिर्णय द्वारा, शुद्धातम को पहिचाना ।
स्व-पर का यथार्थ निर्णय कर, वस्तु स्वरूप को है जाना ॥ ध्यान समाधि लगाओ अपनी, छोड़ो दुनियांदारी है। दृढता साहस और उत्साह ही, मोक्षमार्ग सहकारी हैं ।
२. द्रव्य दृष्टि से जीव-अजीव का, निश्चय सत्श्रद्धान किया।
धुव तत्व शुद्धातम हूँ मैं, निज स्वरूप पहिचान लिया । सम्यग्दर्शन ज्ञान हो गया, मच रही जय जयकारी है। दृढता साहस और उत्साह ही, मोक्षमार्ग सहकारी हैं । त्रिकालवर्ती परिणमन सारा, क्रमबद्ध और निश्चित है। भ्रम भ्रांति अशुद्ध पर्याय यह, अपना कुछ न किन्चित है । शुद्ध दृष्टि समभाव में रहना, यही एक हुश्यारी है।
दृढता साहस और उत्साह ही, मोक्षमार्ग सहकारी हैं। ४. मुक्ति मार्ग के पथिक बने हो, सिद्ध मुक्त ही होना है।
अब संसार में नहीं रहना है, व्यर्थ समय नहीं खोना है। सत्पुरूषार्थ जगाओ अपना, अब क्यों हिम्मत हारी है। दृढता साहस और उत्साह ही, मोक्षमार्ग सहकारी हैं। करना धरना कुछ भी नहीं है, जो होना वह हो ही रहा। किसी से अपना कोई न मतलब, कर्मोदय सब खो ही रहा । सब जीवों की सब द्रव्यों की, स्वतंत्र सत्ता न्यारी है। दृढता साहस और उत्साह ही, मोक्षमार्ग सहकारी हैं । स्वयं धुव तत्व शुद्धातम, अरहन्त सिद्ध केवलज्ञानी । टंकोत्कीर्ण अप्पा ममल स्वभावी, जगा रही है जिनवाणी ॥ रत्नत्रयमयी स्वस्वरूप ही, अनन्त चतुष्टय धारी है। दृढता साहस और उत्साह ही, मोक्षमार्ग सहकारी हैं । सत्ता एक शून्य विन्द है, एकोहं द्वितियो नास्ति । निज अज्ञान भ्रम के कारण, पर की है सत्ता भासती ॥ ज्ञान बलेन इष्ट संजोओ, कैसी मति यह मारी है। दृढ़ता साहस और उत्साह ही, मोक्षमार्ग सहकारी हैं। अभय स्वस्थ मस्त होकर के, ध्रुवधाम में डटे रहो। कमल ममल अनुभव में आ गये, निजानंद से कर्म दहो ।
७.
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जयमाल]
[६०
[अध्यात्म अमृत अशुभ कर्म वरदान बने हैं, धर्म की महिमा सारी है। दृढता साहस और उत्साह ही, मोक्षमार्ग सहकारी हैं । पर पर्याय पर दृष्टि न देना, तारण गुरू का कहना है । धर्म साधना मुक्ति मार्ग यह, ममल स्वभाव में रहना है । निस्पृह वीतराग बन जाना, साधु पद तैयारी है ।
दृढता साहस और उत्साह ही, मोक्षमार्ग सहकारी हैं । १०. ज्ञायक ज्ञान स्वभावी हो तुम, ज्ञानानंद में सदा रहो ।
सहजानंद की करो साधना, मुक्ति श्री की बांह गहो । कर्मोदय पर्याय न देखो, यह तो सब संसारी है । दृढता साहस और उत्साह ही, मोक्षमार्ग सहकारी हैं ।
दर्शनोपयोग की शुद्धि ही, शुद्धोपयोग कराती है। धुवतत्व को देखने वाली, दृष्टि शुद्ध कहाती है | चक्षु अचक्षु दर्शन द्वारा, जो भी दिखाई देता है । कर्मोदय अशुद्ध पर्याय यह, चित्त को भरमा लेता है। माया का अस्तित्व मानना, ये ही चाह जगाती है ।
धुवतत्व को देखने वाली, दृष्टि शुद्ध कहाती है । ६. धुवतत्व शुद्धातम हूं मैं, असत् अन्त पर्याय है ।
जब ऐसा दृढ निश्चय होवे, फिर चित्त न भरमाय है ॥ निज सत्ता की दृढ़ता होना, पर का बंध छुड़ाती है।
धुवतत्व को देखने वाली, दृष्टि शुद्ध कहाती है । ७. मन बुद्धि चित्त अहं यह, सभी अशुद्ध पर्याय हैं ।
इनमें उलझा हुआ यह चेतन, जग में ही भरमाय है ॥ दृष्टि शुद्ध अटल अपने में, फिर न धोखा खाती है। धुवतत्व को देखने वाली, दृष्टि शुद्ध कहाती है । क्षायिक सम्यग्दर्शन करके, ज्ञानानंद में सदा रहो। कर्मोदय पर्याय न देखो, जड़ पुद्गल की कुछ न कहो । पर का सब अस्तित्व मिटाना, केवलज्ञान कराती है। धुवतत्व को देखने वाली, दृष्टि शुद्ध कहाती है |
३०.शुद्ध दृष्टि १. ॐ ह्रीं श्रीं स्वरूप ही, यह आतम परमातम है ।
देव गुरू व धर्म आत्मा, स्वयं सिद्ध शुद्धातम है ॥ निज स्वरूप का बोध हमें, मां जिनवाणी करवाती है। धुवतत्व को देखने वाली, दृष्टि शुद्ध कहाती है । दर्शन ज्ञान के भेद से चेतन, बाहर पकड़ में आता है। आगम की परिभाषा में,ये ही उपयोग कहाता है । दर्शन ज्ञान उपयोग की शुद्धि, भव से पार लगाती है।
धुवतत्व को देखने वाली, दृष्टि शुद्ध कहाती है । ३. श्रद्धागुण निर्मल पर्याय में, सम्यग्दर्शन होता है ।
सप्त प्रकृति के क्षय होने से, मोह तिमिर को खोता है । निज स्वरूप अनुभूति होना, निश्चय नय की थाती है।
धुवतत्व को देखने वाली, दृष्टि शुद्ध कहाती है । ४. सम्यग्दर्शन सहित ज्ञान को, तत्व निर्णय से शुद्ध किया ।
संशय विभ्रम सभी विला गये, निर्विकल्प आनंद लिया ॥
३१.भाव विशुद्ध
१. आतम सिद्ध स्वरूपी चेतन, धुव तत्व अविनाशी है।
पर्यायी परिणमन अशुद्ध से, बना यह जग का वासी है। कोदय संयोग अनादि, पर में ही भरमाता है । पर का लक्ष्य-पक्ष न रहना, भाव विशुद्ध कहाता है । भाव विशुद्धि ही मुक्ति है, भाव मोक्ष कहलाती है। सम्यग्दर्शन ज्ञान सहित यह, मोक्षपुरी ले जाती है ।
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जयमाल
३२. कल्याण
[अध्यात्म अमृत कर्मों का क्षय होता जाता, परमानंद बढ़ाता है ।
पर का लक्ष्य-पक्ष न रहना, भाव विशुद्ध कहाता है। ३. भेदज्ञान तत्व निर्णय द्वारा, वस्तु स्वरूप को जाना है।
धुवतत्व शुद्धातम हूँ में, अनुभव प्रमाण पहिचाना है । सत्ता एक शून्य विन्द का, नारा तभी लगाता है। पर का लक्ष्य-पक्ष न रहना, भाव विशुद्ध कहाता है ॥ पर्यायी परिणमन क्रमबद्ध, त्रिकालवर्ती निश्चित है। जैसा केवलज्ञान में आया, टाले टले न किंचित् है ॥ क्षणभंगुर सब नाशवान है, ध्रुव की धूम मचाता है। पर का लक्ष्य-पक्ष न रहना, भाव विशुद्ध कहाता है । सिद्धोहं - सिद्धरूपोहं का, जिसे हुआ बहुमान है। अहं ब्रह्मास्मि ही कहता है, खुद आतम भगवान है। एकोहं द्वितियो नास्ति, जग अस्तित्व मिटाता है। पर का लक्ष्य-पक्ष न रहना, भाव विशुद्ध कहाता है । क्या होता आता जाता है, पर का जरा न ख्याल है। शुद्ध दृष्टि अखंड पर रहती, सब माया भ्रमजाल है ॥ धुवधाम में बैठा-बैठा, जय जयकार मचाता है । पर का लक्ष्य-पक्ष न रहना, भाव विशुद्ध कहाता है | अकड़-पकड़ सब मिट जाने से, परम शान्ति आती है। अच्छा बुरा छूट जाना ही, निर्भय निवद बनाती है । ज्ञानानंद निजानंद रहता, ब्रह्मानंद मस्ताता है । पर का लक्ष्य-पक्ष न रहना, भाव विशुद्ध कहाता है ॥ निज स्वभाव में रहना ही तो, केवलज्ञान कहाता है। तीर्थंकर सर्वज्ञ के वली, परमातम बन जाता है । सहजानंद स्वरूपानंद हो, मोक्ष परम पद पाता है । पर का लक्ष्य-पक्ष न रहना, भाव विशुद्ध कहाता है ।
१. ध्रुवतत्व शुद्धातम हूँ मैं, इसका ज्ञान श्रद्धान किया ।
त्रिकाली पर्याय क्रमबद्ध, इसको भी स्वीकार लिया ॥ ज्ञायक ज्ञान स्वभावी चेतन, खुद आतम भगवान है। ममल स्वभाव में लीन रहो, बस इसमें ही कल्याण है ॥ वस्तु स्वरूप सामने देखो, शुद्ध तत्व का ध्यान धरो। पर पर्याय तरफ मत देखो, कर्मोदय से नहीं डरो॥ धुव तत्व की धूम मचाओ, पाना पद निर्वाण है।
ममल स्वभाव में लीन रहो, बस इसमें ही कल्याण है। ३. सिद्धोहं-सिद्धरूपोहं का, शंखनाद जयकार करो।
अभय स्वस्थ मस्त होकर के, साधु पद महाव्रत धरो ॥ अब संसार तरफ मत देखो, सब ही तो श्मशान है।
ममल स्वभाव में लीन रहो, बस इसमें ही कल्याण है। ४. ज्ञेय मात्र सब ही भ्रांति है, भावक भाव भ्रमजाल है।
पर्यायी अस्तित्व मानना, यही तो सब जंजाल है ॥ निज सत्ता स्वरूप को देखो, कैसा सिद्ध समान है।
ममल स्वभाव में लीन रहो, बस इसमें ही कल्याण है। ५. छहों खंड चक्रवर्ती राजा, तीर्थंकर महावीर हये ।
कौन बचा है यहां बताओ, राम कृष्ण भी सभी मुये ॥ अजर अमर अविनाशी चेतन, ज्ञायक ज्ञान महान है। ममल स्वभाव में लीन रहो, बस इसमें ही कल्याण है ॥ ज्ञानानंद स्वभावी हो तुम, निजानंद में लीन रहो । अब किससे क्या लेना देना, ॐ नम: सिद्ध ही कहो ॥ ध्यान समाधि लगाओ अपनी, प्रगटे के वलज्ञान है। ममल स्वभाव में लीन रहो, बस इसमें ही कल्याण है ॥
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६३]
[अध्यात्म अमृत
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३३. बारह भावना
आतम ही तो परमातम है, सब धर्मों का सार है। निज स्वरूप का बोध जगा लो, ब्रम्ह सदा अविकार है। निज अज्ञान मोह के कारण, सह रहे कर्म की मार है। बारह भावना भाने से होता आतम उद्धार है ॥ वैराग्य की जननी बारह भावना, वस्तु स्वरूप बताती है। स्व पर का यथार्थ निर्णय यह, अपने आप कराती है | इनका चिन्तन मनन ध्यावना, नरभव का ही सार है। बारह भावना भाने से, होता आतम उद्धार है ॥
१.अनित्य भावना जो जन्मा है अवश्य मरेगा, ये ही जगत विधान है। मर करके जो जन्म न लेता, वह बनता भगवान है ॥ आतम अजर अमर अविनाशी, अज्ञान से बना गंवार है। अनित्य भावना भाने से, होता आतम उद्धार है । संयोगी पर्याय बिछुड़ना, यह मरना कहलाता है । वस्तु स्वरूप विचार करो तो, सब अज्ञान नसाता है | पर्यायी परिणमन क्षणिक है, अपनी रखो सम्हार है। अनित्य भावना भाने से, होता आतम उद्धार है ।
२.अशरण भावना शरण नहीं है जग में कोई, झूठे सब रिश्ते नाते । स्वारथ लाग करें सब प्रीति, जरा काम में नहीं आते ॥ जन्मो मरो, स्वयं ही भुगतो, यही तो सब संसार है। अशरण भावना भाने से, होता आतम उद्धार है ॥ देख लिया जग का स्वरूप सब,अब किसको क्या कहना है। ज्ञानी हो, तो अभी चेत लो, ज्ञानानंद में रहना है ॥
बारह भावना
धर्म कर्म में कोई न साथी, झूठा सब व्यवहार है। अशरण भावना भाने से, होता आतम उद्धार है ।।
३. संसार भावना कोई नहीं किसी का साथी, न कोई सुख दुःख दाता। अपना अपना भाग्य साथ ले, जग में जीव आता जाता ।। फिर किसको अपना कहते हो, सब जग ही निस्सार है। संसार भावना भाने से, होता आतम उद्धार है ।। धन वैभव सब कर्म उदय से, मिलता और बिछुड़ता है। कर्ता बनकर मरने से ही, जीव अनादि पिटता है । देख लिया सब जान लिया फिर, अब क्यों बना लवार है। संसार भावना भाने से, होता आतम उद्धार है ।
४. एकत्व भावना आप अकेला आया जग में, आप अकेला जायेगा। जैसी करनी यहाँ कर रहा, उसका ही फल पायेगा । चेत जाओ अब भी जल्दी से, रहना दिन दो चार है। एकत्व भावना भाने से, होता आतम उद्धार है ।। माया का यह खेल जगत है, जीव तो ज्ञान स्वभावी है। चिदानन्द चैतन्य आत्मा, ममलह ममल स्वभावी है । निज सत्ता शक्ति पहिचानो, मौका मिला अपार है । एकत्व भावना भाने से, होता आतम उद्धार है ॥
५.अन्यत्व भावना इस शरीर से सब संबंध है, जीव से न कोई नाता। सारा खेल खत्म हो जाता, जब यह जीव निकल जाता | धन वैभव सब पड़ा ही रहता, साथी न परिवार है। अन्यत्व भावना भाने से, होता आतम उद्धार है । देखलो सब प्रत्यक्ष सामने, कैसी है दुनियादारी । नाते रिश्ते छूट गये सब, छूट गई सब हुश्यारी ।।
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६५]
[अध्यात्म अमृत
बारह भावना
पूछने वाला कोई नहीं है, करते रहो विचार है । अन्यत्व भावना भाने से, होता आतम उद्धार है ।
६.अशुचि भावना हाड़ मांस मल मूत्र भरा यह, बना हुआ तन पिंजरा है। इसमें कैदी जीव अज्ञानी, रहता मूर्ख अधमरा है ।। मिट्टी-मिट्टी में मिल जाती, जलकर होता खार है। अशुचि भावना भाने से, होता आतम उद्धार है ।। पुद्गल परमाणु का ढेर यह सारा, क्षण भर में ढह जाता है। भ्रम भ्रांति यह दीख रहा जो, इसमें क्यों भरमाता है । द्रव्य दृष्टि से देखो जग को, करो यह तत्व विचार है। अशुचि भावना भाने से, होता आतम उद्धार है ।
७. आस्रव भावना मोह माया में फंसा अज्ञानी, राग द्वेष ही करता है। इससे कर्म बंध होता है, मुफत में सुख दुःख भरता है | पर पर्याय पर दृष्टि रहना, कर्माश्रव का द्वार है । आसव भावना भाने से, होता आतम उद्धार है ॥ पर का कर्ता भोक्ता बनना, यही महा अपराध है। वस्तु स्वरूप विचार करो तो, आता अमृत स्वाद है । सम्यक्दर्शन ज्ञान के द्वारा, हो जाओ भव पार है । आसव भावना भाने से, होता आतम उद्धार है ।।
८. संवर भावना निज शुद्धातम की दृष्टि होना, संवर तत्व कहाता है। कर्म बन्ध होना रूक जाता, जीव मोक्ष को पाता है । भेद ज्ञान तत्व निर्णय करना, एक मात्र आधार है। संवर भावना भाने से, होता आतम उद्धार है ॥ निज स्वभाव की सुरत ही रहना, इसमें संयम कहलाता । पाप विषय कषाय का चक्कर, अपने आप ही छुट जाता ॥
निश्चय व व्यवहार शाश्वत, जिनवाणी का सार है। संवर भावना भाने से, होता आतम उद्धार है ।।
९. निर्जरा भावना ममल स्वभाव की ध्यान समाधि, कर्म निर्जरा कारण है। ज्ञानानंद में मस्त रहो बस, समझाते गुरू तारण हैं । धु वतत्व पर दृष्टि रहना, समयसार का सार है । निर्जर भावना भाने से, होता आतम उद्धार है ।। द्वादस तप अरू बारह भावना, वीतराग साधु होना। मन समझाने से काम चले न,व्यर्थ समय अब नहीं खोना । कथनी करनी भिन्न जहाँ है, वहाँ तो मायाचार है। निर्जर भावना भाने से, होता आतम उद्धार है |
१०. लोक भावना चार गति चौरासी लाख का, चक्कर खूब लगाया है। जन्म मरण के दुःख से छूटो, अपना नम्बर आया है | यह सारे शुभयोग मिले हैं, करलो खूब विचार है । लोक भावना भाने से, होता आतम उद्धार है ।। नरभव यह पुरूषार्थ योनि है, अब तो निज पुरूषार्थ करो। साधु पद की करके साधना, जल्दी मुक्ति श्री वरो ।। व्यर्थ समय अब नहीं गंवाओ, हो जाओ तैयार है। लोक भावना भाने से, होता आतम उद्धार है ।।
११.बोधिदुर्लभ भावना ज्ञान समान न आन जगत में, सुख शान्ति देने वाला। स्व-पर का यथार्थ ज्ञान ही, मिटाता सब भय भ्रम जाला ॥ निज स्वरूप का बोध जागना, करता भव से पार है। बोधि भावना भाने से, होता आतम उद्धार है । सम्यग्दर्शन सहित ज्ञान ही, मुक्ति सुख का दाता है। सम्यग्चारित्र होने पर ही, सिद्ध परम पद पाता है |
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जयमाल]
[अध्यात्म अमृत सम्यग्ज्ञान का सूर्य उदित हो, मचती जय जयकार है। बोधि भावना भाने से, होता आतम उद्धार है ॥
१२.धर्मभावना चेतन लक्षण धर्म जगत में, एकमात्र सुखदाई है । निज स्वभाव की साधना करके, सबने मुक्ति पाई है। धर्म की महिमा देखो सामने, कैसी अपरंपार है । धर्म भावना भाने से, होता आतम उद्धार है ॥ सुख शान्ति आनंद का दाता, रत्नत्रय मयी धर्म है। उत्तम क्षमा अहिंसा आदि, सभी इसी का मर्म है ।। धर्म साधना ही जीवन में, एक मात्र सुखकार है । धर्म भावना भाने से, होता आतम उद्धार है ॥
३४. सतत् प्रणाम १. चिदानंद धुव शुद्ध आत्मा, चेतन सत्ता है भगवान ।
शुद्ध बुद्ध अविनाशी ज्ञायक, ब्रह्म स्वरूपी सिद्ध समान ॥ निज स्वभाव में रमता जमता, रहता है अपने ध्रुवधाम ।
तारण तरण कहाने वाले, सत् स्वरूप को सतत् प्रणाम ॥ २. कर्मों का क्षय हो जाता है, निज स्वभाव में रहने से ।
सारे भाव बिला जाते हैं, ॐ नमः के कहने से ॥ शुद्ध ज्ञान दर्शन का धारी, एक मात्र है आतमराम ।
तारण तरण कहाने वाले, सत् स्वरूप को सतत् प्रणाम ।। ३. तीन लोक का ज्ञायक है, सर्वज्ञ स्वभावी केवलज्ञान ।
निज स्वभाव में लीन हो गये, बनते हैं वे ही भगवान ।। भेद ज्ञान तत्व निर्णय करके, बैठ गया जो निज धुवधाम ।
तारण तरण कहाने वाले, सत् स्वरूप को सतत् प्रणाम । ४. वस्तु स्वरूप सामने देखो, शुद्धातम का करलो ध्यान ।
पर पर्याय तरफ मत देखो, जो चाहो यदि निज कल्याण ॥
निज घर रहो निजानंद पाओ, पर घर होता है बदनाम । तारण तरण कहाने वाले, सत् स्वरूप को सतत् प्रणाम ।। त्रिकालवर्ती पर्याय क्रमबद्ध, जो होना वह हो ही रहा । जिसका कोई अस्तित्व नहीं है, आता जाता खो ही रहा । धुवतत्व तो अटल अचल है, पूर्ण शुद्ध और है निष्काम ।
तारण तरण कहाने वाले, सत् स्वरूप को सतत् प्रणाम ॥ ६. कल रंजन, मनरंज गारव, जन रंजन होता है राग ।
आतम के यह महाशत्रु हैं, है संसार की जलती आग || ज्ञान स्वभाव में रहने से ही, होता इनका काम तमाम ।
तारण तरण कहाने वाले, सत् स्वरूप को सतत् प्रणाम । ७. दर्शन मोह से अंधा प्राणी, जग में करता जन्म-मरण ।
सम्यक् दर्शन ज्ञान चरण से, करता मुक्ति श्री वरण ।। ज्ञानानंद स्वभावी हो तुम, अब तुमको जग से क्या काम । तारण तरण कहाने वाले, सत् स्वरूप को सतत् प्रणाम ।। धुव तत्व निज शुद्धातम में, मुक्ति श्री से रमण करो। अब संसार तरफ मत देखो, जल्दी साधु पद को धरो ॥ धुव तत्व की धूम मचाओ, रहो सदा अपने ध्रुव धाम । तारण तरण कहाने वाले, सत् स्वरूप को सतत् प्रणाम ।।
जय तारण तरण सच्चे देव
तारण तरण सच्चे गुरू
तारण तरण सच्चा धर्म
तारण तरण शुद्धात्मा
तारण तरण जय तारण तरण श्री गुरू तारण तरण मण्डलाचार्य महाराज की जय
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६९]
[अध्यात्म अमृत
आध्यात्मिक भजन]
[७०
* आध्यात्मिक भजन * (साधना, प्रेरणा एवं वैराग्य प्रद)
भजन- १ जय जय हे जिनवाणी माता॥ शरण तिहारी जो कोई आता । मुक्ति मार्ग को वह पा जाता.. जय..... तेरे पुत्र बड़े गुण ज्ञाता । कुन्द कुन्द तारण विख्याता.. जय..... स्याद्वाद सब भ्रम मिटाता । सब धर्मों का भेद बताता.. जय..... तारण मंडल तुव गुण गाता । चरणों में तुम्हरे शीश झुकाता..जय.....
भजन-३
करले रे श्रद्धान, अरे मन...|| १. कैसा सुन्दर अवसर पाया, जिनवाणी की शरणा आया ।
सत्गुरू तुझको मिले दयालु, तारण तरण महान..अरे... देखत जानत भूल रहा है, मिथ्या मद में फूल रहा है।
कोई न जावे साथ किसी के,जानत सकल जहान..अरे... ३. तू है चेतन सबसे न्यारा, शुद्ध बुद्ध अविनाशी प्यारा ।
'मोही' पर को छोड़ सुमर ले, तू है सिद्ध समान..अरे... ४. राग द्वेष और मोह छोड़ दे, अपना सब संबंध तोड़ दे।
वीतराग बन लगा समाधि, बन जा रे भगवान..अरे...
१.
भजन-२ प्रभु नाम सुमर मनुवा, यही तोहे पार लगायेगा। धन वैभव और महल खजाना, कुछ नहीं जाना रे । स्त्री पुत्र और कुटुम्ब कबीला, इनमें भुलाना रे ॥ हंस अकेला जाय, साथ कुछ भी नहीं जायेगा..यही... कहता जिनके लिए रात दिन, मेरा-मेरा रे । पाप कमावे काम न आवे, सब जग देखा रे ॥ काया पड़ी रहेगी, नहीं कोई हाथ लगायेगा ..यही... स्वास-स्वास में सुमरण करले, जल्दी जाना रे । वृथा समय मत खोवे वन्दे, फिर नहीं आना रे ॥ अपनी फिकर करो अब मोही, सब हो जायेगा..यही...
भजन-४ मत कर, मत कर रेतू सोच विचार,
लगा देबाजी जीवन की॥ १. कैसा अच्छा मौका मिला है, हो जा तू होशियार ।
थोड़ी हिम्मत कर ले भैया, हो जावे भवपार... २. कितने दिन तुझको जीना है, करले जरा विचार ।
दस बीस वर्ष ही तू जीवे, नहिं जीवे वर्ष हजार... इतने समय में धरम तू कर ले, होवे बेड़ा पार । कर्म की मार को सह सकता है, धर्म से डरत गंवार ... धर्म करे से स्वर्ग मिलेगा, मिले मोक्ष सुख द्वार । कर्म करे से नर्क मिलेगा, भुगते दु:ख अपार ... राग छोड़ दे मोह छोड़ दे, छोड़ दे सब घर द्वार । पाप छोड़कर मोही अब तो, महाव्रतों को धार ...
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७१]
१.
२.
३.
४.
५.
१.
२.
भजन - ५
निज हेर देखो नहीं तो रार करो रे । आतम का अपनी उद्धार करो रे ।
[ अध्यात्म अमृत
मानुष गति और कुल उच्च पाया । वीतराग वाणी और बल बुद्धि पाया ॥ शुद्धातम का अपनी श्रद्धान करो रे..... क्या होगा अपना कहां जाना होगा । अपने ही कर्मों का फल पाना होगा ॥ अपना ही अब तो विचार करो रे..... अरे साथ अपने यह कुछ भी न जावे । इन सबके कारण ही तू दुःख पावे ॥ अपनी ही अब तो संभार करो रे......
पड़ा है तू झंझट में इन सबके द्वारा | फिर रहा अनादि से तू मारा-मारा ॥ भ्रमना को छोड़ अब सुधार करो रे...... यहाँ कौन तेरा है तू तो अरूपी । सबसे ही भिन्न है तू शुद्ध स्वरूपी ॥ अपना ही मोही अब ध्यान धरो रे......
भजन - ६
बोलो तारण तरण, बोलो तारण तरण । कर लो आतम रमण, करलो आतम रमण ॥
क्या लाया है संग में, क्या ले जायेगा । करके खोटे करम, खुद ही दुःख पायेगा || छोड़कर झंझटें, कर प्रभु का भजन.. बोलो... पाया नरभव अब इसमें तू कर ले धर्म । त्याग तप दान संयम, और अच्छे कर्म ॥ बसंत मिट जायेगा, तेरा जन्म मरण.. बोलो...
आध्यात्मिक भजन ]
१.
२.
३.
४.
भजन
चल छोड़ दे रे चेतन, कि अब यह देह हुआ बेगाना ॥
१.
इसकी खातिर चेतन तूने, पाप अनेक कमाये । विषय भोग में लिप्त रहा तू, आत्म तत्व न भाये ॥ अब कर ले रे छेदन, कि तुम पर अब न हंसे जमाना......... इसको तूने अपना माना, बड़े प्यार से पाला । इसकी हालत देखो, इसने कैसा चक्कर डाला ॥ अब तो हो रही रे खेंचन, कि बनता अब न आना जाना.... आखों से अब कम दिखता है, अंग सब पड़ गये ढीले । काम धाम कुछ नहीं बनता है, सबमें हो गये ठीले ॥ अब कोई नहीं रे पूछत, कि तुमने खाया भी कुछ खाना...... ऐसा साथी कौन काम का, जो दुर्गति ले जावे । इससे अपना नाता तोड़ दे, तारण गुरू समझावें ॥ अब तो करले रे वंदन, कि मैं हूं आतम सिद्ध समाना.......
२.
३.
४.
-
७
-
भजन
उद्धार तेरा होगा तब ही, शुद्धात्म की इतनी लगन लगे । पुद्गल की कभी न याद आये, मुक्ति की इतनी चाह जगे ॥
८
[७२
सोते में दिखे जगते में दिखे, खाते में दिखे पीते में दिखे। हर क्षण में वही शुद्धात्म दिखे, विषयों की न कोई चाह जगे...... चलते में दिखे फिरते में दिखे, करते में दिखे मरते में दिखे। हर तन में वही शुद्धात्म दिखे, दूसरा न कोई भाव जगे.... ज्ञानानंद अब क्या सोच रहे, अपनी ही गलती है सारी । अब लीन होओ शुद्धातम में, सबरे ही तेरे कर्म भगे...... क्या होता है क्या नहीं होता, इससे तुमको मतलब क्या है। जो होना है वह हो ही रहा, इतनी दृढ़ता अपने में जो.......
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[अध्यात्म अमृत
आध्यात्मिक भजन]
[७४
भजन-९ विचारो विचारो विचार करो रे।
नरभव पर अपने विचार करो रे ॥ १. मिला नरतन यह किसलिये, जरा विचार करो।
साथ क्या जायेगा, इस पर जरा विचार करो ॥ विषय भोगों में मत बरबाद करो रे ..नरभव.... कौन है दुनियां में अपना, जरा विचार करो। पिता माता न पुत्र बंधु, जरा विचार करो ॥ सब स्वारथ के साथी स्वीकार करो रे ..नरभव.... शरीर की हालत पर, जरा विचार करो । भरी है गन्दगी सारी, जरा विचार करो ॥ साथ देता नहीं, मत अभिमान करो रे..नरभव.... संसार की हालत है यह, कुछ साथ नहीं जाता है। वृथा क्यों मोह में फंस, जिन्दगी गंवाता है । भजन भगवान का कर ले, वही एक काम आयेगा । त्याग वैराग्य संयम कर, नहीं कुछ साथ जायेगा । मोही आतम का अपनी उद्धार करो रे..नरभव....
भजन - ११ रहो रहो रे शुद्धात्मा में लीन, अगर मुक्ति पाने है। १. रहो सदा ही ज्ञान ध्यान में, निज स्वभाव को देखो। पर की खबर कबहुं नहीं आवे, कर्म बंध को लेखो ॥
करो करो रे कर्मों हे क्षीण..अगर... २. एक अखंड सदा अविनाशी, ज्ञानानंद स्वभाव । शुद्ध बुद्ध है ज्ञाता दृष्टा, अपना ममल स्वभाव ॥
मत रहो रे कर्मों के आधीन..अगर... ३. धन शरीर परिवार की तुमको, कबहुं खबर नहीं आवे । अजर अमर और अलख निरंजन, शुद्ध स्वरूप दिखावे ॥
गहो गहो रे चारित्र दस तीन..अगर... ४. ज्ञानानंद समय अच्छा है, मत कर सोच विचार । कर पुरूषार्थ ध्यान लगाओ, छोड़ कषायें चार ||
मत रहो रे अब तुम दीन..अगर...
भजन-१० अरी ओ आत्मा सुनरी आत्मा ।
परमात्मा में लीन हो जाओ आत्मा ।। १. तू तो है चेतन शुद्ध स्वरूपी, एक अखंड अरस और अरूपी।
गुरू की जा बात मान जाओ आत्मा..परमात्मा... २. काल अनादि कही नहीं मानी.निजअनुभति कबह नही जानी।
अपने को अब जान जाओ आत्मा..परमात्मा... ३. बड़ी मुश्किल से जो दांव लगो है, ज्ञानानंद तेरो भाग्य जगो है।
मत चूको अब ध्याओ आत्मा ..परमात्मा...
भजन-१२ परभावों में न जाना, विषयों में न भरमाना। शुद्धातम ध्यान लगाना,आतमयाद रखोगे या भूल जाओगे।। १. सत्गुरू की यह वाणी और कहती है जिनवाणी । निज हित करले तू प्राणी, तेरी दो दिन की जिन्दगानी॥
आतम याद रखोगे या भूल जाओगे..परभावो... २. क्षणभंगुर जग की माया, तू मोह में क्यों भरमाया । भव भव में तू भटकाया, नहीं कोई काम में आया ।
आतम याद रखोगे या भूल जाओगे..परभावों... ३. सब छोड़ दे भ्रम यह सारा, क्यों फिरता मारा मारा। निज ज्ञान का ले ले सहारा, ज्ञानानंद रूप तुम्हारा ॥
आतम याद रखोगे या भूल जाओगे..परभावों...
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[अध्यात्म अमृत
आध्यात्मिक भजन
(DE
भजन-१३
मत करो रे सोच विचार, अगर सुख से रहने है॥ १. क्या होता है क्या नहीं होता, करो न कोई विचार । जो होना है वह ही होता, अपनी रखो संभार ॥
मत बनो रे जुम्मेदार ..अगर.... २. क्या हो गया और क्या होवेगा, छोड़ो विकल्प सारे। शांत रहो समता से देखो, रहो सदा ही न्यारे ॥
मत बनो रे ठेकेदार ..अगर.... ३. सोच करे से कछु नहीं होता, होना है वह होता। ज्ञानी इसमें समता रखता, मूरख इसमें रोता ॥
रहो रहो रे सदा हुश्यार ..अगर.... ४. पाप पुण्य का खेल तमाशा, सारे जग में होता । तेरे करे से कुछ नहीं होता, तू काहे को रोता ॥
छोड़ो छोड़ो रे कषायें चार..अगर.... जीव अकेला ध्रुव अविनाशी, परम ब्रह्म और ज्ञानी। पुद्गल है यह जड़ और अचेतन,मच रही खींचातानी॥
करो करो रे तत्व विचार..अगर.... मोह राग में स्वयं फंसे हो, दुर्गति हो रही इससे । दृढ श्रद्धान करो ज्ञानानंद, कहते हो अब किससे ।।
अपनी अपनी ही रखो संभार ..अगर....
भजन - १५ ले जायेंगे ले जायेंगे, सब तुझको बांधकर ले जायेंगे। रह जायेंगे रह जायेंगे, घर वाले देखते रह जायेंगे । १. तेरे साथ में कुछ नहीं जावे, खाना तलाशी लेवेंगे।
लकड़ी का फिर बना चौतरा, तुझे आग में देवेंगे।
बांस मारकर सर को फोड़कर, अपने अपने घर जायेंगे..... २. तीन दिना में करे तीसरा, सबको चिट्ठी देवेंगे।
तेरह दिन में करके रसोई, अपनी छुट्टी लेवेंगे ।
लगकर फिर अपने कामों में, तेरी सुध बुध विसरायेंगे.... ३. जिनके लिये मरा तू जाता, तेरे संग में नहीं जाएंगे।
धन वैभव और कुटुम्ब कबीला,सभी यहीं पर रह जायेंगे।
अब तो कर श्रद्धान तू सच्चा, सारे दुःख तेरे मिट जायेंगे... ४. स्वारथ का संसार है सारा, स्वारथ की सब प्रीत है।
जैसा करेगा वैसा भरेगा, नहीं तेरा कोई मीत है। काहे को तू पाप कमाता, नरक निगोद में खुद जायेंगे .... देख तमासा इस दुनियां का, सबके संग यह होता है। मोह में फंसकर मूरख मोही, अब काहे को रोता है। आयु का नहीं कुछ भी भरोसा, भजन करो तो तर जायेंगे....
भजन-१४ मैं तारण तरण, तुम तारण तरण ।
सब तारण तरण, बोलो तारण तरण॥ पाया मानुष जनम, करलो आतम रमण । छोड़ो भाव रमण, मेटो भव दु:ख मरण ॥ होओ सुख में मगन, करलो मुक्ति वरण । ले लो अपनी शरण, बनो तारण तरण ॥
भजन-१६ देखो रे भैया, जा है जग की रीत ॥ १. जब तक स्वारथ सधता अपना, तब तक करते प्रीत।
जग के यह झूठे सब नाते, कोई न किसी का मीत ॥ २. बखत पड़े कोई काम न आवे, बन जाते सब ढीट।
माता पिता भगिनी सुत नारी, मोह राग की भीत ॥ ३. नाते रिश्ते सब झूठे हैं, करलो दृढ प्रतीत ।
ज्ञानानंद अब भी तुम चेतो, छोड़ दो मिथ्या गृहीत ॥
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७७]
[अध्यात्म अमृत
आध्यात्मिक भजन]
भजन-१७ तुमको जगा रहे गुरू तारण, अब तो होश में आओ जी॥ १. कर श्रद्धान धरो उर दृढ़ता, मत भरमाओ जी ।
तुम तो अरूपीजीव तत्व हो,ममल स्वभाओजी..तुमको... २. धन शरीर में राचि रहे हो, दुर्गति जाओ जी ।
साधु बन कर करो साधना,शुद्धातम ध्याओ जी..तुमको... ३. चारों गति में फिरे भटकते, दु:ख ही पाओ जी।
अपनी सुरत कभी नहीं आई,सबने समझायोजी..तुमको... देख लो अपनो कोई नहीं है, काये मोह बढ़ाओ जी। ज्ञानानंद जगो अब जल्दी,मत समय गंवाओ जी..तुमको...
भजन-१९ अरे आतम वैरागी बन जइयो..... अरे...॥ १. कोरे ज्ञान से कछु नहीं होने । दुर्लभ जीवन वृथा नहीं खोने ॥
शुद्ध स्वरूप में रम जइयो ... अरे..... २. देख लो अपनो कछु नहीं भैया । मोह में कर रहे हा हा दैया ॥
कछु तो दृढ़ता धर लइयो ... अरे..... ३. धन परिवार में कब तक मर हो । पाप कषायों में कब तक जर हो ॥
ब्रह्मचर्य प्रतिमा धर लइयो... अरे..... ४. घर में पूरो कबहुं नहीं पड़ने । मोह राग में कुढ़ कुढ़ मरने ॥
ज्ञानानंद वन चल दइयो... अरे.....
भजन -२०
भजन - १८ अरी जो आत्मा जग जाओ आत्मा।
उठ चेत संभल अब ध्याओ आत्मा ॥ १. देख लो अपनो कोई नहीं है, पर द्रव्यों से भिन्न कही है।
मोह में मत भरमाओ आत्मा... उठ.... २.तू तो है चेतन शुद्ध स्वरूपी,एक अखंड अरस और अरूपी ।
ज्ञानानंद स्वभाव आत्मा... उठ.... ३. अपने को देखो यही शुद्ध दृष्टि,इससे ही होगी तुम्हारी मुक्ति ।
कर्मों के बंध बिलाओ आत्मा... उठ.... ४. अपने को देखो रहो भेदज्ञानी, कर्मों की होगी अनंती हानि ।
मोक्ष परम पद पाओ आत्मा ... उठ.... ५. लीन रहो तुम बनो वीतरागी, फैली है बाहर राग की आगी।
जलने से अब बच जाओ आत्मा... उठ.... ६. मौका मिलो है करो पुरूषार्थ,छोड़ो यह सब ध्यान रौद्र और आर्त।
अपने में अब रम जाओ आत्मा... उठ.... ७.छोड़ो यह झंझट सभी दुनियादारी, चलने की अपनी करो तैयारी।
तारण तरण बन जाओ आत्मा... उठ....
चेतन अपने भाव सम्हाल॥ १. अपने भावों का तू ही कर्ता, पर का कुछ न कर्ता धर्ता ।
अपने आपतू फंसा है जग में,बीता अनादि काल...चेतन... २. धन वैभव को अपना माने, जड़ चेतन से हो अनजाने ।
भूल रहा क्यों तू अपने को, अपना रूप संभाल...चेतन... ३. समय मिला है निज हित करले, मोही अपने भाव बदल ले। हो जाये तू मुक्त जगत से, कहते तारण तरण दयाल |
चेतन अपने भाव संभाल ....||
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[अध्यात्म अमृत
आध्यात्मिक भजन]
भजन-२३ तारण श्रद्धांजलि
भजन-२१ करले करले तू निर्णय आज, तुझे कहां जाना है। १. स्वर्ग नरक तिर्यंच गति में, कई बार हो आया।
मनुष्य गति में भी आकर के,जरा चैन नहीं पाया ..... २. सबका निर्णय किया हमेशा, अपना नहीं किया है।
बिन निर्णय के पगले तेरा, लगा न कहीं जिया है ..... अपना निर्णय आज तू करले, तुझे कहां है जाना।
चारों गति संसार में रूलना, या मुक्ति को पाना ..... ४. इस संसार में सुख ही नहीं है, फिरो अनंते काल ।
मोक्षमार्ग में सुख ही सुख है, करलो जरा ख्याल.... सम्यक् दर्शन ज्ञान चरण ही, है मुक्ति का मारग ।
पाप पुण्य शुभ अशुभ भाव सब, हैं संसारी कारक..... ६. ज्ञानानंद करो अब हिम्मत, शुभ संयोग मिला है।
अब के चूको फिरो भटकते, हाथ से जाय किला है.....
दे दी हमें मुक्ति ये बिना पूजा बिना पाठ । तारण तरण ओ संत तेरी अजब ही है बात ।।
वन्दे श्री गुरू तारणम्॥ जड़वाद क्रियाकांड को मिथ्यात्व बताया । आतम की दिव्य ज्योति को तुमने लखाया ॥
बन गये अनुयायी तेरे, सभी सात जात...तारण... २. भक्ति से नहीं मुक्ति है पढ़ने से नहीं ज्ञान ।
क्रिया से नहीं धर्म है ध्याने से नहीं ध्यान ॥
निज की ही अनुभूति करो, छोड़ कर मिथ्यात्व...तारण... ३. आतम ही है परमात्मा शुद्धात्मा ज्ञानी ।
तुमने कहा और साख दी जिनवर की वाणी ॥
तोड़ीं सभी कुरीतियां, तब मच गया उत्पात...तारण... ४. बाह्य क्रिया काण्ड से नहीं मुक्ति मिलेगी ।
देखोगे जब स्वयं को तब गांठ खुलेगी ॥
छोड़ो सभी दुराग्रह, तोड़ो यह जाति पांति...तारण... ५. ब्रह्मा व विष्णु शिव हरि, कृष्ण और राम ।
ओंकार बुद्ध और जिन, शुद्धात्मा के नाम ॥ भूले हो कहां मानव, क्यों करते आत्मघात...तारण... अपना ही करो ध्यान तब भगवान बनोगे । ध्याओगे शुद्धात्मा, तब कर्म हनोगे ॥ मुक्ति का यही मार्ग, तारण पंथ है यह तात...तारण...
भजन-२२ नहिं है नहिं है रे सहाई कोई वीर, काहे को वृथा खेद करे॥ जिनके लिये तू निशदिन मरता, पाप पुण्य और सब कुछ करता। अंत समय कोई काम न आवे, खुद ही नरक परे...काहे.... अपने मोह से ही तू मरता, औरों पर तु दोष है धरता ।
कौन कहत है कछु करवे की, लोभ से खुद ही मरे...काहे.... ३. सत्गुरू तुझे कैसा समझावें, सच्चे सुख का मार्ग बतावें ।
कछु नहीं करने समता धरने, तब कछु फरक परे ...काहे.... ४. छोड़ दे अब सब जंजाला, भजले अब गुरू नाम की माला ।
मोही छोड़ के सब झंझट को, चल तू पार परे ...काहे....
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[अध्यात्म अमृत
आध्यात्मिक भजन]
[८२
३. अब भी मान गुरू का कहना ।
भेदज्ञान कर सुख से रहना ॥
तारण गुरू समझाये रे ..... अब काहे..... ४. तू है जीव अरूपी चेतन । यह शरीर जड़ और अचेतन ॥
घर में मत भरमाये रे ..... अब काहे..... ५. शुद्ध स्वरूप की करो साधना ।
छोड़ो मोह और विषय वासना ॥
कर्मों के बंधन विलाये रे ..... अब काहे..... ६. ज्ञानानंद करो पुरूषार्थ ।
धर वैराग्य चलो परमार्थ ॥
सिद्ध परम पद पाये रे..... अब काहे.....
भजन - २४ यह तारण तरण की वाणी, तुम बनो भेद विज्ञानी॥ १. देख लो हालत इस दुनियां की, नहीं कहीं भी सुख है। काल अनादि भटकते हो गये, सबमें दुःख ही दुःख है ।
सोच समझ ओ प्राणी...... तुम..... २. धन वैभव की खातिर तूने, सारी उमर गंवाई । कहो किसी के जरा काम में, यह माया है आई ॥
मत करो अब नादानी...... तुम..... ३. मात-पिता परिवार किसी के, कौन काम में आता। जीव अके ला आता जाता, वृथा मोह बढ़ाता ।
भुगते नरक निशानी...... तुम..... ४. इस शरीर की हालत देखो. यह भी यहीं जल जाता। इसकी खातिर पाप कमाते, मूढ बने तुम ज्ञाता ॥
छोड़ो अब मनमानी...... तुम..... तुम तो अरूपी ज्ञाता दृष्टा, अजर अमर अविनाशी। देख लो अपने शुद्धातम को, ज्ञानानंद सुख राशि ।।
मिट जाये जग की कहानी ...... तुम.....
भजन-२५ हंस हंस के कर्म बंधाये रे, अब काहे रोवे चेतनवा।
जैसो कियो है वैसो पाये रे, अब काहे रोवे चेतनवा॥ १. पहले ही अपनी सुधि विसराई । धन शरीर में रहो भरमाई ॥
मोह करो दु:ख पाये रे..... अब काहे..... २. चारों गति में तू फिर आयो ।
कहीं जरा साता नहीं पायो | छूटो न अब तक छुड़ाये रे..... अब काहे.....
भजन-२६ सोचो समझो रे सयाने मेरे वीर, साथ में का जाने॥ धन दौलत सब पड़ी रहेगी. यह शरीर जल जावे ।
स्त्री पुत्र और कुटुम्ब कबीला, कोई काम नहीं आवे... २. हाय हाय में मरे जा रहे, इक पल चैन नहीं है।
ऐसो करने ऐसो होने, जइकी फिकर लगी है... ३. लोभ के कारण पाप कमा रहे, मोह राग में मर रहे।
हिंसा झूठ कुशील परिग्रह, चोरी नित तुम कर रहे... ४. कहां जायेंगे क्या होवेगा, अपनी खबर नहीं है।
चेतो भैया अब भी चेतो, सद्गुरूओं ने कही है... सत्संगत भगवान भजो नित, पाप परिग्रह छोड़ो। साधु बनकर करो साधना, मोह राग को तोड़ो...
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[अध्यात्म अमृत
आध्यात्मिक भजन]
भजन-२७ निजको ही देखना और जानना बस काम है।
पर को मत देखो यह सब कुछ बेकाम है ॥ १. पर को ही देखते, अनादि काल बीत गया । पर को ही जानने में, पुद्गल यह जीत गया ।
निज को कब देखोगे, इसका कुछ ध्यान है..... २. अपने में दृढता धरो, हिम्मत से काम लो । मोह राग छोड़कर, भेदज्ञान थाम लो ॥
अपना क्या जग में है, यह तो मरी चाम है..... ३. बहुत गई थोड़ी रही, थोड़ी भी अब जात है। स्व पर का ज्ञान करो, संयम की बात है ॥
धर्म का बहुमान करो, धन का क्या काम है..... ४. अपनी ही सुरत रखो, समता से काम लो। अपनी ही अपनी देखो, पर का मत नाम लो॥
ज्ञानानंद जल्दी करो, थोड़ा ही मुकाम है.....
भजन-२९ गुरू तारण तरण आये तेरी शरण ।
हम डूब रहे मंझधार, नैया पार करो॥ १. काल अनादि से डूब रहे हैं । चारों गति में घूम रहे हैं ॥
भोगे हैं दु:ख अपार, नैया पार करो...गुरू... २. अपने स्वरूप को जाना नहीं है । तन धन को पर माना नहीं है ॥
करते हैं हा हा कार, नैया पार करो...गुरू... ३. हमको आतम ज्ञान करा दो । सच्चे सुख का मार्ग बता दो ॥
मोही करता पुकार, नैया पार करो...गुरू...
भजन-२८ हो जा हो जा रे निर्मोही आतमराम, मोह में मत भटके। १. धन शरीर परिवार से अपना, तोड़ दे नाता सारा । काल अनादि से इनके पीछे, फिर रहा मारा मारा॥
खोजा खो जा रे अपने में आतमराम...मोह... २. मात पिता और भाई बहिन यह, नहीं जीव के होते। धन शरीर और मोह में फंसकर, अज्ञानी जन रोते॥
सो जा सो जा रे समता में आतमराम...मोह... ३. तू तो अरूपी निराकार है, अजर अमर अविनाशी। पर से तेरा क्या मतलब है, ज्ञानानंद सुख राशि ॥
बोजा बो जा रे हृदय में सम्यक्ज्ञान...मोह...
भजन-३० धन के चक्कर में भुलाने सब लोग, धर्म हे कोई नहीं जाने ॥ धर्म के नाम पर ढोंग कर रहे, माया के हैं दास । पूजा पाठ में लगे हैं निशदिन, नहीं आतम के पास ॥
मन के चक्कर में लुभाने सब लोग.... २. मंदिर तीर्थ बनवा रहे हैं, तिलक यज्ञ हैं कर रहे। पर के नाम को घोंट रहे हैं, धन के पीछे मर रहे ॥
तन के चक्कर में रूलाने सब लोग.... ३. धन वैभव ही जोड़ रहे हैं, धर्म के नाम पर धंधा। पर को मारग बता रहे हैं, खुद हो रहे हैं अंधा ॥
कन के चक्कर में सुलाने सब लोग ..... ४. जीव अजीव का भेदज्ञान कर, अपनी ओर तो देखो। ज्ञानानंद तब धर्म होयगा, पर को पर जब लेखो।
वन में चल करके धरो तुम जोग .....
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[अध्यात्म अमृत
आध्यात्मिक भजन
[८६
भजन -३१ दढता धरलो इसी में सार है, करना धरना तो अब बेकार है। जब चल दोगे सब कुछ छोड़कर,होगी तब ही तुम्हारी जयकार है। १. देखलो अपना क्या है जगत में, किससे क्या है नाता। कौन तुम्हारे भाई बहन हैं, कौन पिता और माता ॥
स्वारथ का यह संसार है...करना... २. मोह से अपने घर में रह रहे, लोभ से पाप कमा रहे। पर के ऊपर दोष लगा रहे, व्यर्थ में समय गंवा रहे।
यह अपना ही मायाचार है...करना... ३. तुमको कोई रोक रहा नहीं, और न कोई पकड़े। अपने मन से मरे जा रहे, मोह राग में जकड़े ॥
हो रही खुद की ही दुर्गति अपार है...करना... ४. वस्तु स्वरूप को जान रहे हो, भेदज्ञान भी कर रहे। कैसे अंधा मूरख हो रहे, लोक लाज में मर रहे ॥
अपनी हो रही इसी में हार है...करना... ज्ञानानंद स्वभावी हो तुम, आत्मानंद शुद्धातम । स्वरूपानंद में लीन रहो तो, हो जाओ परमातम ॥
ब्रह्मानंद की अब ये ही पुकार है...करना...
भजन-३३ नहीं जानी भैया नहीं जानी, तुम धर्म की महिमा नहीं जानी। नहीं मानी भैया नहीं मानी, सत्गुरू की शिक्षा नहीं मानी ॥ १. देख लो सब प्रत्यक्ष बता रहे । जीव अजीव को ज्ञान करा रहे ॥
मत कर रे अब मनमानी, तुम धर्म... २. धर्म करे से सुख मिलता है । कर्म करे से दु:ख मिलता है ॥
काये पड़ो खेंचातानी, तुम धर्म....... ३. धर्म के आगे देवता झुकते । कर्म उदय और बंध से रूकते ॥
तत्व बता रही जिनवाणी, तुम धर्म....... ४. अपनो ही श्रद्धान तुम करलो । भेदज्ञान कर संयम धर लो ॥
ज्ञानानंद है सुखदानी, तुम धर्म....... ५. धर्मी के पुण्य आगे चलता । जग का हर इक काम सुलझता ॥
ब्रह्मानंद बनो श्रद्धानी, तुम धर्म.......
१.
भजन-३२ अब चेत सम्भल उठ बाबरे, वृथा समय मत खोय॥ आयु का नहिं कुछ भी भरोसा, पल भर में क्या होय। गई स्वास आवे न आवे, मोह नींद मत सोय ॥ शुद्धातम में लीन रहो नित, बाहर में मत जोय । भाई बंधु और कुटुम्ब कबीला, कोई का नहीं है कोय ॥ अपना ध्यान लगा लो अब तुम, रहो अपने में खोय । पर की तरफ न देखो बिल्कुल,होना है सो होय ॥ व्रत संयम को धारण करलो, छोड़ दो राग और मोह। जल्दी उठो चलो ज्ञानानंद, गुरू तारण की जय होय ॥
भजन -३४ प्रभु नाम सुमर दिन रैन, यह जीवन दो दिन का मेला।। १. आय अकेला जाय अकेला, मचा यही रेला ।
कोई किसी के साथ न जावे, नहीं साथ जाये धेला ... अपनी अपनी लेकर आते, हो जाता भेला । अपना मानकर मूरख रोवे, ज्ञानी हंसत अकेला ... नदी नाव संयोग है जैसा, ये कुटुंब मेला ।
स्त्री पुत्र नहीं कोई जीव के, जाता हंस अकेला ... ४. जैसी करनी वैसी भरनी, काहे भरे पाप ठेला ।
आतम सुमरण कर ले मोही, उजड़े तेरा झमेला ...
४.
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[अध्यात्म अमृत
१.
कान
भजन-३५ नरभव मिला है विचार करो रे । आतम का अपनी उद्धार करो रे ॥ काल अनादि निगोद गंवाया । पशुगति में कोई योग न पाया ॥
नरकों के दु:खों का ध्यान धरो रे... आतम... २. मुश्किल से यह मनुष्य गति पाई । देव गति में भी सुख नाहीं ॥
वृथा न इसको बरबाद करो रे... आतम... ३. देख लो अपना क्या है जग में ।
भटक रहे हो क्यों भव वन में | __ मुक्ति का मार्ग स्वीकार करो रे... आतम... ४. मोह राग में मरे जा रहे ।
धन शरीर के चक्कर खा रहे ॥
अपना भी कुछ तो श्रद्धान करो रे...आतम... ५. जीव अजीव का भेदज्ञान करलो ।
संयम तप त्याग ब्रह्मचर्य धरलो ॥ ज्ञानानंद अपनी संभाल करो रे... आतम...
आध्यात्मिक भजन
[८८ ३. सद्गुरू की जा बात न माने, कर्मों को अपने पति जाने ।
काल अनादि बिहानी है....ऐ भैया.... ४. अपने घर में जरा नहीं रहती,सुनती है पर जरा नहीं कहती।
विषयों में भरमानी है....ऐ भैया.... ५. शुद्ध बुद्ध है ज्ञाता दृष्टा, निराकार कर्मों की सुष्टा।
ज्ञानानंद सुखदानी है....ऐ भैया.... ६. समझाने पर नहीं मानती, धर्म कर्म कुछ नहीं जानती।
कर रही आनाकानी है....ऐ भैया....
भजन-३७ जग अंधियारो, धूरा को ढेर सारो, ज्ञान की ज्योति जगा लइयो।
मुक्ति को मारग बना लइयो। १. जीव जुदा और पुद्गल जुदा है । अपना आपहि आतम खुदा है ॥
भेदज्ञान प्रगटा लइयो...मुक्ति ... २. जीव आत्मा सिद्ध स्वरूपी । पुद्गल शुद्ध परमाणु रूपी ॥
__ द्रव्य दृष्टि अपना लइयो...मुक्ति ... ३. जग का परिणमन क्रमबद्ध निश्चित । टाले टले न कुछ भी किन्चित् ॥
कर्ता भाव मिटा दइयो...मुक्ति... ४. पर्यायी परिणमन द्रव्य की छाया । भ्रम भ्रांति सब असत् है माया ॥
ब्रह्म ज्ञान प्रगटा लइयो...मुक्ति... आत्मानंद करो पुरूषार्थ । वीतराग बन चलो परमारथ ॥ राग में आग लगा दइयो...मुक्ति ...
भजन-३६ मेरी आतम बौरानी है, ऐ भैया कोई समझा दइयो । १. पर द्रव्यों हे अपनो माने, हित अहित कछु नहीं जाने।
हो रही जा मस्तानी है....ऐ भैया.... २. धन शरीर में मरी जा रही, पुद्गल के जा चक्कर खा रही।
मानत नहीं दीवानी है....ऐ भैया....
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[अध्यात्म अमृत
भजन-३८ तन गोरो कारो, धूरा को ढेर सारो। राग में आग लगा दइयो, आतम ध्यान लगा लइयो। १. तन पिंजरे में जा आत्मा बैठी । अपनो मान के जासे चैटी ॥
भेदज्ञान प्रगटा लइयो...आतम... २. पुद्गल परमाणु का पिंड यह तन है । मोह कर्म से बना यह मन है ॥
सम्यग्ज्ञान जगा लइयो...आतम... ३. अशुचि अपावन देह यह सारी । मल मूरति हाड़ मांस की नारी ॥
माया को भ्रम मिटा दइयो...आतम... ४. आतम अजर अमर अविनाशी । पुद्गल पिंड है सदा विनाशी ॥
आतम ज्ञान जगा लइयो...आतम... ५. तन से करो तपस्या भारी । साधु पद की करो तैयारी ॥
जीवन सफल बना लइयो...आतम... आत्मानंद यह मौका मिला है । सम्यक् ज्ञान का सूर्य खिला है । मुक्ति को मार्ग बना लइयो...आतम...
आध्यात्मिक भजन
[९० २. वह अनन्त चतुष्टय धारी, उसकी लीला है न्यारी ।
महिमा अपरम्पार, निज शुद्धातम का...सेवक... ३. बिन दर्शन जग में भटका, बिन ज्ञान के चहुंगति लटका।
दृढ श्रद्धा को धार, निज शुद्धातम का...सेवक... ४. सब कर्म कषाय क्षय होते, भय शंका शल्य भी खोते ।
मुक्ति का आधार, निज शुद्धातम का...सेवक... ५. ब्रह्मानंद कर पुरूषारथ, जग छोड़ के चल परमारथ । सुख शान्ति दातार, निज शुद्धातम का...सेवक...
भजन-४० ध्रुव से लागी नजरिया, आतम हो गई बबरिया॥ १. धुव सत्ता की महिमा निराली।
इससे कटती कर्म की जाली ॥
मोक्ष पुरी की डगरिया....आतम.... २. पर पर्याय अब कछु न दिखावे।
ध्रुव ही धुव की धूम मचावे ॥ रत्नत्रय की गगरिया....आतम.... गुण पर्याय का भेद नहीं है। एक अखंड अभेद यही है ॥
ज्ञानानंद की नगरिया....आतम.... ४. ध्रुव के आश्रय भव मिटता है।
कर्म कषाय और राग पिटता है॥ ब्रह्मानंद की बजरिया....आतम.... अनन्त चतुष्टय की शक्ति जगती। केवल ज्ञान की ज्योति प्रगटती ॥ परमातम की संवरिया....आतम....
भजन -३९ करले तू दीदार निज शुद्धातम का ।
सेवक है संसार उस परमातम का ॥ १. माया लक्ष्मी उसकी दासी, वह अजर अमर अविनाशी।
सब धर्मों का सार, निज शुद्धातम का...सेवक....
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आध्यात्मिक भजन]
/१२
[अध्यात्म अमृत भजन-४१ श्री गुरू को हमारा है शत् शत् नमन।
सन्मार्ग दाता हैं, तारण तरण || १. मिथ्यात्व अज्ञान भ्रम सब मिटाया, भेदज्ञान तत्व निर्णय मार्ग बताया। सत्धर्म निजस्वभाव शुद्धातम बताया,बाह्य क्रिया कांड का भ्रमभेद मिटाया।
मिटाया अनादि का जन्म मरण.......सन्मार्ग.... २. सम्यग्दर्शन है आतम का दर्शन, इससे ही मिटता सब जन्म मरण । ज्ञान मार्ग ही एक मुक्ति का दाता, मोह अज्ञान वश जीव भरमाता ॥
ज्ञानानंद स्वभाव की ले लो शरण .......सन्मार्ग....
भजन-४२ शुद्धातम को तरसे नजरिया, भगवन दे दो दरसिया॥ १. बिन दरशन के अंखिया तरसती।
जिनवाणी सुन नेहा बरसती ॥ तड़फत है जल बिन मछरिया...भगवन.... तुम्हारा दर्शन ही सम्यग्दर्शन । जिससे मिटता सब जन्म मरण ॥ मोक्षपुरी की डगरिया...भगवन.... तुम्हारे ही दर्शन को संयम तप करते। ज्ञान चारित्र साधु पद धरते ॥
पाते हैं शिवपुर नगरिया...भगवन.... ४. स्वानुभूति ही सच्चा सुख है।
इससे मिटता सारा दु:ख है॥ आत्मानंद बबरिया...भगवन.... हर पल हर क्षण तुमको ही ध्याते। अहं ब्रह्मास्मि सिद्धोहं गाते ॥ कर दो ऐसी महरिया...भगवन....
भजन-४३ तारण स्वामी ने जगाया, उठो आत्मा हो लाल॥ १. काल अनादि भटकत हो गये।
चारों गति में लटकत हो गये। तारण स्वामी ने बताया, बहिरात्मा हो लाल...तारण... भेदज्ञान तत्व निर्णय करलो। जीवन में व्रत संयम धरलो ॥
बन जाओ अंतर आत्मा हो लाल...तारण स्वामी ने... ३. निज की सत्ता शक्ति देखो।
रत्नत्रय चतुष्टय लेखो॥ तुम परम ब्रह्म, परमात्मा हो लाल...तारण स्वामी ने... पर पर्याय कछु मत मानो । ममलह ममल स्वभाव को जानो। खुद ध्रुव तत्व, शुद्धात्मा हो लाल...तारण स्वामी ने...
भजन-४४ गुरू तारण लगा रहे टेर, चलो चलें मुक्ति श्री॥ १. चारों गति में बहु दुःख पाये, चौरासी लाख योनि फिर आये।
अब काहे कर रहे अबेर ....चलो चलें.... २. अपने अज्ञान से भूले स्वयं को.पर का कर्ता माना स्वयं को।
अपनी ही बुद्धि का फेर....चलो चलें.... ३. भेदज्ञान तत्व निर्णय करलो, जीवन में व्रत संयम धरलो।
जग जाओ अब तो शेर....चलो चलें.... ४. तुम तो हो भगवान आत्मा, एक अखंड ध्रुव शुद्धात्मा ।
परम ब्रह्म परमेश....चलो चलें.... ५. सत्श्रद्धान ज्ञान अब करलो, वीतराग साधु पद धर लो।
ब्रह्मानंद क्यों करते देर....चलो चले....
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________________ [अध्यात्म अमृत आध्यात्मिक भजन] भजन-४७ भजन-४५ मेरी अंखियों के सामने ही रहना, ओ सिद्ध प्रभु शुद्धात्मा।। 1. पर पर्याय अब देखी न जावे / जग में रहना अब न पुसावे .... मेरी .... 2. तेरी ही भक्ति की लगन लगी है / मोक्ष पुरी की चाह जगी है .... मेरी .... 3. बिन दर्शन के कल नहीं पड़ती / एक समय की विरह अखरती .... मेरी .... 4. ब्रह्म ही ब्रह्म अब सबमें दिखावे / धुव ही ध्रुव की धूम मचावे .... मेरी .... 5. तेरी ही महिमा शक्ति निराली / शान्तानंद अमृत की प्याली .... मेरी .... जय तारण तरण जय तारण तरण सदा सबसे ही बोलिये / जय तारण तरण बोल अपना मौन खोलिये / / 1. श्री जिनेन्द्र वीतराग, जग के सिरताज हैं। आप तिरे पर तारे, सद्गुरू जहाज हैं। धर्म स्वयं का स्वभाव, अपने में डोलिये ..... 2. निज शुद्धातम स्वरूप, जग तारण हार है। यही समयसार शुद्ध, चेतन अविकार है // जाग जाओ चेतन, अनादि काल सो लिये.... देव हैं तारण तरण, गुरू भी तारण तरण / धर्म है तारण तरण, निजात्मा तारण तरण || भेदज्ञान करके अब, हृदय के द्वार खोलिये... 4. इसकी महिमा अपार, गणधर ने गाई है। गुरू तारण तरण ने, कथी कही दरसाई है // ब्रह्मानंद अनुभव से, अपने में तौलिये..... CP भजन - 46 हे भव्यो, भेद विज्ञान करो। जिनवाणी का सार यही है, मुक्ति श्री वरो॥ 1. जीव अजीव का भेद जान लो, मोह में मती मरो। तुम तो हो भगवान आत्मा, शरीरादि परो ..... 2. क्रमबद्ध पर्याय सब निश्चित, तम काहे को डरो। निर्भय ज्ञायक रहो आनंद मय, भव संसार तरो .... 3. कर्म संयोगी जो होना है, टारो नाहिं टरो। तारण तरण का शरणा पाया, मद मिथ्यात्व हरो .... 4. इस संसार में क्या रक्खा है, नरभव सफल करो। ज्ञानानंद चलो जल्दी से, साधु पद को धरो .... जो भव्य जीव अनेकान्त स्वरूप जिनवाणी के अभ्यास से उत्पन्न सम्यकज्ञान द्वारा तथा निश्चल आत्म संयम के द्वारा स्वात्मा में उपयोग स्थिर करके बार-बार अभ्यास द्वारा एकाग्र होता है, वही शुद्धोपयोग के द्वारा केवलज्ञान रूप अरिहन्त पद तथा सर्व कर्म शरीर आदि से रहित सिद्ध परम पद पाता है। मालारोहण टीका गाथा-५ शुद्धात्मदेव की जय * इति .