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[अध्यात्म अमृत
जयमाल]
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ऐसे काल अनन्त गुजर गये, निज स्वरूप नहीं जाना है। धर्म-कर्म का मर्म गुरू ने, खातिका विशेष बखाना है ॥
११. श्री सिद्धस्वभाव
जयमाल
७.
एक सागर असंख्यात पल्य का, जिसका नहीं ठिकाना है। अर्क न दिस्यते नरक गति में, फिर-फिर चक्कर खाना है। भय दु:खों का घर यह जग है, अब मुक्ति को पाना है। धर्म-कर्म का मर्म गुरू ने, खातिका विशेष बखाना है |
१. जग में सब भगवान आत्मा, सिद्धह सिद्ध सुभाव हैं।
निज स्वभाव को भूल भटकते, फिरते सदा विभाव हैं । जिनने निज स्वरूप पहिचाना. लगा यह जिसका दांव है। ज्ञानानंद निजानंद रहना, ये ही सिद्ध स्वभाव है ।
एक गड्ढा दो योजन लम्बा चौड़ा, उतना ही वह गहरा हो। रोम कतरनी गाड़र भर के, पैर न धंसे इकहरा हो । एक रोम इक वर्ष मुताबिक, गिनती करे निदाना है। धर्म-कर्म का मर्म गुरू ने, खातिका विशेष बखाना है ॥
२. देखी कहे न सुनी कहे, जो बोले तो भी न बोले ।
हित उपजी भी कहे नहीं जो, निज स्वभाव में ही डोले ॥ भेदज्ञान तत्व निर्णय का ही, रहता जिसको चाव है। ज्ञानानंद निजानंद रहना, ये ही सिद्ध स्वभाव है ॥
रत्नत्रय सुभाव उत्पन्न हो, औकास उत्पन्न हितकार है। उत्पन्न कमल अर्कस्य जहाँ है, मचती जय जयकार है । एक सौ चार सूत्र ज्ञानानंद, मिलता मुक्ति ठिकाना है। धर्म-कर्म का मर्म गुरू ने, खातिका विशेष बखाना है ॥
चोर के लेय बंधारे के लेवे, जो निज गाय लगाता है। अमृत रस उसके झरता है, परमानंद को पाता है । गाढ़ो धरे वही पाता है, ढील ढाल भटकाव है। ज्ञानानंद निजानंद रहना, ये ही सिद्ध स्वभाव है ॥
१०. अष्टगुणों से युक्त सिद्ध हो, सिद्ध परम पद पाता है।
तारण तरण स्वयं बन जाता, जग जयकार मचाता है । अपने को यह मौका मिला है, निज पुरूषार्थ जगाना है। धर्म-कर्म का मर्म गुरू ने, खातिका विशेष बखाना है ॥
४. निज स्वभाव को भूला अपने, नरक गति को जाता है।
चारों गति के दु:ख भोगता, जग में रुदन मचाता है। धर्म मार्ग में ऊँच नीच का, कोई न भेदभाव है । ज्ञानानंद निजानंद रहना, ये ही सिद्ध स्वभाव है ।।
(दोहा खातिका विशेष गड्ढा बड़ा, जिसमें जगत समाय। बिन सद्गुरू सत्संग के, मिले न इसकी थाह ।। चार गति में जीव का, होता क्या क्या हाल | ज्ञानानंद अब देख लो, छोड़ो जग जंजाल ||
सिद्ध स्वभाव की रुचि तीव्र हो, जैसे भोजन रुचता है। जैसे कि संसार मार्ग में, बात-बात को गुनता है ।। ऐसा लक्ष्य बने शुद्धातम, इतना परम उछाव है । ज्ञानानंद निजानंद रहना, ये ही सिद्ध स्वभाव है ।
६.
पुण्य पाप करते-करते यह, काल अनादि बीता है। धर्म का मर्म नहीं जाना है, रहा रीता का रीता है ।
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