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ममल स्वभाव सामने देखो, दृढ़ निश्चय श्रद्धान धरो । नियमसार का सार यही है, मुक्ति श्री का वरण करो ॥
[ अध्यात्म अमृत
पंच महाव्रत पंच समितियां, तीन गुप्ति का पालन हो । विषय कषायें पाप-पुण्य सब, कर्मों का प्रक्षालन हो । पंचाचार का पालन करते, संयम तप का मार्ग वरो । नियमसार का सार यही है, मुक्ति श्री का वरण करो |
निश्चय लक्ष्य ध्रुव शुद्धातम, इसमें जरा न शंका हो । पर पर्याय से दृष्टि हटाना, व्यवहार नय का डंका हो ॥ ध्रुव तत्व की धूम मचाते, भव सागर से शीघ्र तरो । नियमसार का सार यही है, मुक्ति श्री का वरण करो ||
महावीर का मार्ग यही है, वीतराग बनने वाला | सम्यक दृष्टि वही कहाता, जो इस पर चलने वाला ॥ कुन्दकुन्द आचार्य देव का शुद्ध मार्ग स्वीकार करो । नियमसार का सार यही है, मुक्ति श्री का वरण करो ॥
१०. ज्ञानानंद स्वभावी हो तुम, ज्ञानानंद कहाते हो । आतम परमातम की चर्चा, सबको खूब सुनाते हो ॥ धर्म कर्म की श्रद्धा करके, अब तो साधु पद को धरो । नियमसार का सार यही है, मुक्ति श्री का वरण करो |
मार्ग, मार्ग फल सामने, देख लो सब संसार । जिनवर की यह देशना, करो इसे स्वीकार ॥
निश्चय अरू व्यवहार से, मुक्ति मार्ग पहिचान | ज्ञानानंद स्वभाव रत, पाओ पद निर्वाण ॥
जयमाल ]
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१७. श्री प्रवचन सार
जयमाल
आतम ही है देव निरंजन, आतम ही सद्गुरू भाई । आतम शास्त्र धर्म आतम ही, तीर्थ आत्म ही सुखदाई ॥ आत्म मनन ही है रत्नत्रय द्वादशांग का सार है । जन्म-मरण के चक्र से छूटो, यही प्रवचन सार है ॥
वीतराग जिनवर परमातम, आदिनाथ भगवन्त हैं । अजितनाथ से पार्श्वनाथ तक जितने भी सब सन्त हैं ॥ वीर प्रभु की दिव्य देशना, सब संसार असार है । जन्म-मरण के चक्र से छूटो, यही प्रवचन सार है ॥
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चिदानन्द चैतन्य ज्योति यह सिद्ध स्वरूप शुद्धातम है। जिनवर की वाणी में आया, आतम ही परमातम है । निज स्वभाव की शक्ति जगाना, अपना ही अधिकार है। जन्म-मरण के चक्र से छूटो, यही प्रवचन सार है ॥
ज्ञान तत्व और ज्ञेय तत्व का खेल यह सब संसार है। दर्शन ज्ञान उपयोग के द्वारा, चलता सब व्यापार है । चरणानुयोग चूलिका में इसका ही विस्तार है । जन्म-मरण के चक्र से छूटो, यही प्रवचन सार है ॥
द्रव्य स्वभाव से गुण पर्यय वत, शाश्वत सदा निराला है। व्यय उत्पाद ध्रौव्य के कारण, इसका क्षेत्र विशाला है ॥ छह द्रव्यों का समूह यह, दिखता सब संसार है । जन्म-मरण के चक्र से छूटो, यही प्रवचन सार है ॥
जीव अजीव का खेल जगत में, चलता काल अनादि है। निज अज्ञान मोह के कारण, भटक रहा जग वादि है ॥
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