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जयमाल]
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[अध्यात्म अमृत अशुभ कर्म वरदान बने हैं, धर्म की महिमा सारी है। दृढता साहस और उत्साह ही, मोक्षमार्ग सहकारी हैं । पर पर्याय पर दृष्टि न देना, तारण गुरू का कहना है । धर्म साधना मुक्ति मार्ग यह, ममल स्वभाव में रहना है । निस्पृह वीतराग बन जाना, साधु पद तैयारी है ।
दृढता साहस और उत्साह ही, मोक्षमार्ग सहकारी हैं । १०. ज्ञायक ज्ञान स्वभावी हो तुम, ज्ञानानंद में सदा रहो ।
सहजानंद की करो साधना, मुक्ति श्री की बांह गहो । कर्मोदय पर्याय न देखो, यह तो सब संसारी है । दृढता साहस और उत्साह ही, मोक्षमार्ग सहकारी हैं ।
दर्शनोपयोग की शुद्धि ही, शुद्धोपयोग कराती है। धुवतत्व को देखने वाली, दृष्टि शुद्ध कहाती है | चक्षु अचक्षु दर्शन द्वारा, जो भी दिखाई देता है । कर्मोदय अशुद्ध पर्याय यह, चित्त को भरमा लेता है। माया का अस्तित्व मानना, ये ही चाह जगाती है ।
धुवतत्व को देखने वाली, दृष्टि शुद्ध कहाती है । ६. धुवतत्व शुद्धातम हूं मैं, असत् अन्त पर्याय है ।
जब ऐसा दृढ निश्चय होवे, फिर चित्त न भरमाय है ॥ निज सत्ता की दृढ़ता होना, पर का बंध छुड़ाती है।
धुवतत्व को देखने वाली, दृष्टि शुद्ध कहाती है । ७. मन बुद्धि चित्त अहं यह, सभी अशुद्ध पर्याय हैं ।
इनमें उलझा हुआ यह चेतन, जग में ही भरमाय है ॥ दृष्टि शुद्ध अटल अपने में, फिर न धोखा खाती है। धुवतत्व को देखने वाली, दृष्टि शुद्ध कहाती है । क्षायिक सम्यग्दर्शन करके, ज्ञानानंद में सदा रहो। कर्मोदय पर्याय न देखो, जड़ पुद्गल की कुछ न कहो । पर का सब अस्तित्व मिटाना, केवलज्ञान कराती है। धुवतत्व को देखने वाली, दृष्टि शुद्ध कहाती है |
३०.शुद्ध दृष्टि १. ॐ ह्रीं श्रीं स्वरूप ही, यह आतम परमातम है ।
देव गुरू व धर्म आत्मा, स्वयं सिद्ध शुद्धातम है ॥ निज स्वरूप का बोध हमें, मां जिनवाणी करवाती है। धुवतत्व को देखने वाली, दृष्टि शुद्ध कहाती है । दर्शन ज्ञान के भेद से चेतन, बाहर पकड़ में आता है। आगम की परिभाषा में,ये ही उपयोग कहाता है । दर्शन ज्ञान उपयोग की शुद्धि, भव से पार लगाती है।
धुवतत्व को देखने वाली, दृष्टि शुद्ध कहाती है । ३. श्रद्धागुण निर्मल पर्याय में, सम्यग्दर्शन होता है ।
सप्त प्रकृति के क्षय होने से, मोह तिमिर को खोता है । निज स्वरूप अनुभूति होना, निश्चय नय की थाती है।
धुवतत्व को देखने वाली, दृष्टि शुद्ध कहाती है । ४. सम्यग्दर्शन सहित ज्ञान को, तत्व निर्णय से शुद्ध किया ।
संशय विभ्रम सभी विला गये, निर्विकल्प आनंद लिया ॥
३१.भाव विशुद्ध
१. आतम सिद्ध स्वरूपी चेतन, धुव तत्व अविनाशी है।
पर्यायी परिणमन अशुद्ध से, बना यह जग का वासी है। कोदय संयोग अनादि, पर में ही भरमाता है । पर का लक्ष्य-पक्ष न रहना, भाव विशुद्ध कहाता है । भाव विशुद्धि ही मुक्ति है, भाव मोक्ष कहलाती है। सम्यग्दर्शन ज्ञान सहित यह, मोक्षपुरी ले जाती है ।