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________________ [अध्यात्म अमृत जयमाल जिनने निज स्वरूप पहिचाना, करते सिद्धारोहण हैं। भेदज्ञान युत सम्यक् दर्शन, यही तो मालारोहण है । २. श्री पंडित पूजा जयमाल १ ७. निश्चय सम्यग्दर्शन होना, एक मात्र हितकारी है । पर-पर्याय से दृष्टि हटना, मुक्ति की तैयारी है ॥ ज्ञानानंद स्वभाव ही अपना, जिनवाणी का दोहन है। भेदज्ञान युत सम्यक् दर्शन, यही तो मालारोहण है ॥ परम तत्व ओंकारमयी है, चिदानन्द ध्रुव अविकारी । जिन शिव ईश्वर परम ब्रह्म है, अनन्त चतुष्टय का धारी ॥ निश्चय सत्श्रद्धान किया, वे बने स्वयं भगवान है। पूज्य समान आचरण ही, पूजा का सही विधान है। ८. सम्यग्दर्शन सहज साध्य है, करण लब्धि से होता है। जीवन में सुख शांति आती, सारा भय गम खोता है । दृढ संकल्प रूचि हो अपनी, बंध जाता यह तोरण है। भेदज्ञान युत सम्यक् दर्शन, यही तो मालारोहण है । मैं आतम शुद्धातम हूं, परमातम सिद्ध समान हूं। ज्ञेय मात्र से भिन्न सदा, मैं ज्ञायक ज्ञान महान हूं। ज्ञानी पंडित उसी को कहते, जिसको सम्यग्ज्ञान है। पूज्य समान आचरण ही, पूजा का सही विधान है । जांति पांति का भेद नहीं है, न पर्याय का बंधन है। सभी जीव स्वतंत्र हैं इसमें, निज स्वभाव आलम्बन है। राजा श्रेणिक प्रश्न किये, यह महावीर उद्बोधन है। भेदज्ञान युत सम्यक् दर्शन, यही तो मालारोहण है ।। निश्चय व व्यवहार शाश्वत, जिसका एक सा चलता है। कथनी करनी भिन्न जहाँ है, वह तो सबको खलता है। ज्ञानी सम्यग्दृष्टि ही नित, करता ज्ञान स्नान है। पूज्य समान आचरण ही, पूजा का सही विधान है। १०. जो भी मुक्ति गये अभी तक, जा रहे हैं या जावेंगे। शुद्ध स्वभाव की करके साधना, वे मुक्ति को पावेंगे । जिनवर कथित धर्म यह सच्चा, दिव्य अलौकिक लोचन है। भेदज्ञान युत सम्यक् दर्शन, यही तो मालारोहण है ।। ४. विषय कषाय अशुभ कर्मों का, करते हैं जो प्रक्षालन । पुण्य पाप से दृष्टि हटाकर, करते सदा धर्म साधन ।। आर्त रौद्र ध्यानों को तजकर.धरते आतम ध्यान हैं। पूज्य समान आचरण ही, पूजा का सही विधान है । (दोहा) सम्यग्दर्शन से सिंह बना, महावीर भगवान । निज आतम अनुभव करो, जो चाहो कल्याण ।। तारण तरण की देशना, जिनवाणी प्रमाण । मालारोहण से मिले, ज्ञानानंद निर्वाण || रत्नत्रय के वस्त्र पहिनते, जिन मुद्रा धारण करते । वीतराग साधु बन करके, मुक्तिश्री को वे वरते ।। मिथ्यात्वादि त्रय शल्यों का, हुआ जहाँ अवसान है। पूज्य समान आचरण ही, पूजा का सही विधान है। ६. पूजा का अभिप्राय पूज्य सम, स्वयं पूज्य बन जाना है। जो भी अपना इष्ट मानते, उसी इष्ट को पाना है ।।
SR No.009710
Book TitleAdhyatma Amrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherBramhanand Ashram
Publication Year1999
Total Pages53
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size1 MB
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