Book Title: Adhyatma Amrut
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Bramhanand Ashram

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Page 53
________________ [अध्यात्म अमृत आध्यात्मिक भजन] भजन-४७ भजन-४५ मेरी अंखियों के सामने ही रहना, ओ सिद्ध प्रभु शुद्धात्मा।। 1. पर पर्याय अब देखी न जावे / जग में रहना अब न पुसावे .... मेरी .... 2. तेरी ही भक्ति की लगन लगी है / मोक्ष पुरी की चाह जगी है .... मेरी .... 3. बिन दर्शन के कल नहीं पड़ती / एक समय की विरह अखरती .... मेरी .... 4. ब्रह्म ही ब्रह्म अब सबमें दिखावे / धुव ही ध्रुव की धूम मचावे .... मेरी .... 5. तेरी ही महिमा शक्ति निराली / शान्तानंद अमृत की प्याली .... मेरी .... जय तारण तरण जय तारण तरण सदा सबसे ही बोलिये / जय तारण तरण बोल अपना मौन खोलिये / / 1. श्री जिनेन्द्र वीतराग, जग के सिरताज हैं। आप तिरे पर तारे, सद्गुरू जहाज हैं। धर्म स्वयं का स्वभाव, अपने में डोलिये ..... 2. निज शुद्धातम स्वरूप, जग तारण हार है। यही समयसार शुद्ध, चेतन अविकार है // जाग जाओ चेतन, अनादि काल सो लिये.... देव हैं तारण तरण, गुरू भी तारण तरण / धर्म है तारण तरण, निजात्मा तारण तरण || भेदज्ञान करके अब, हृदय के द्वार खोलिये... 4. इसकी महिमा अपार, गणधर ने गाई है। गुरू तारण तरण ने, कथी कही दरसाई है // ब्रह्मानंद अनुभव से, अपने में तौलिये..... CP भजन - 46 हे भव्यो, भेद विज्ञान करो। जिनवाणी का सार यही है, मुक्ति श्री वरो॥ 1. जीव अजीव का भेद जान लो, मोह में मती मरो। तुम तो हो भगवान आत्मा, शरीरादि परो ..... 2. क्रमबद्ध पर्याय सब निश्चित, तम काहे को डरो। निर्भय ज्ञायक रहो आनंद मय, भव संसार तरो .... 3. कर्म संयोगी जो होना है, टारो नाहिं टरो। तारण तरण का शरणा पाया, मद मिथ्यात्व हरो .... 4. इस संसार में क्या रक्खा है, नरभव सफल करो। ज्ञानानंद चलो जल्दी से, साधु पद को धरो .... जो भव्य जीव अनेकान्त स्वरूप जिनवाणी के अभ्यास से उत्पन्न सम्यकज्ञान द्वारा तथा निश्चल आत्म संयम के द्वारा स्वात्मा में उपयोग स्थिर करके बार-बार अभ्यास द्वारा एकाग्र होता है, वही शुद्धोपयोग के द्वारा केवलज्ञान रूप अरिहन्त पद तथा सर्व कर्म शरीर आदि से रहित सिद्ध परम पद पाता है। मालारोहण टीका गाथा-५ शुद्धात्मदेव की जय * इति .

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