Book Title: Adhyatma Amrut
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Bramhanand Ashram

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Page 49
________________ [अध्यात्म अमृत आध्यात्मिक भजन [८६ भजन -३१ दढता धरलो इसी में सार है, करना धरना तो अब बेकार है। जब चल दोगे सब कुछ छोड़कर,होगी तब ही तुम्हारी जयकार है। १. देखलो अपना क्या है जगत में, किससे क्या है नाता। कौन तुम्हारे भाई बहन हैं, कौन पिता और माता ॥ स्वारथ का यह संसार है...करना... २. मोह से अपने घर में रह रहे, लोभ से पाप कमा रहे। पर के ऊपर दोष लगा रहे, व्यर्थ में समय गंवा रहे। यह अपना ही मायाचार है...करना... ३. तुमको कोई रोक रहा नहीं, और न कोई पकड़े। अपने मन से मरे जा रहे, मोह राग में जकड़े ॥ हो रही खुद की ही दुर्गति अपार है...करना... ४. वस्तु स्वरूप को जान रहे हो, भेदज्ञान भी कर रहे। कैसे अंधा मूरख हो रहे, लोक लाज में मर रहे ॥ अपनी हो रही इसी में हार है...करना... ज्ञानानंद स्वभावी हो तुम, आत्मानंद शुद्धातम । स्वरूपानंद में लीन रहो तो, हो जाओ परमातम ॥ ब्रह्मानंद की अब ये ही पुकार है...करना... भजन-३३ नहीं जानी भैया नहीं जानी, तुम धर्म की महिमा नहीं जानी। नहीं मानी भैया नहीं मानी, सत्गुरू की शिक्षा नहीं मानी ॥ १. देख लो सब प्रत्यक्ष बता रहे । जीव अजीव को ज्ञान करा रहे ॥ मत कर रे अब मनमानी, तुम धर्म... २. धर्म करे से सुख मिलता है । कर्म करे से दु:ख मिलता है ॥ काये पड़ो खेंचातानी, तुम धर्म....... ३. धर्म के आगे देवता झुकते । कर्म उदय और बंध से रूकते ॥ तत्व बता रही जिनवाणी, तुम धर्म....... ४. अपनो ही श्रद्धान तुम करलो । भेदज्ञान कर संयम धर लो ॥ ज्ञानानंद है सुखदानी, तुम धर्म....... ५. धर्मी के पुण्य आगे चलता । जग का हर इक काम सुलझता ॥ ब्रह्मानंद बनो श्रद्धानी, तुम धर्म....... १. भजन-३२ अब चेत सम्भल उठ बाबरे, वृथा समय मत खोय॥ आयु का नहिं कुछ भी भरोसा, पल भर में क्या होय। गई स्वास आवे न आवे, मोह नींद मत सोय ॥ शुद्धातम में लीन रहो नित, बाहर में मत जोय । भाई बंधु और कुटुम्ब कबीला, कोई का नहीं है कोय ॥ अपना ध्यान लगा लो अब तुम, रहो अपने में खोय । पर की तरफ न देखो बिल्कुल,होना है सो होय ॥ व्रत संयम को धारण करलो, छोड़ दो राग और मोह। जल्दी उठो चलो ज्ञानानंद, गुरू तारण की जय होय ॥ भजन -३४ प्रभु नाम सुमर दिन रैन, यह जीवन दो दिन का मेला।। १. आय अकेला जाय अकेला, मचा यही रेला । कोई किसी के साथ न जावे, नहीं साथ जाये धेला ... अपनी अपनी लेकर आते, हो जाता भेला । अपना मानकर मूरख रोवे, ज्ञानी हंसत अकेला ... नदी नाव संयोग है जैसा, ये कुटुंब मेला । स्त्री पुत्र नहीं कोई जीव के, जाता हंस अकेला ... ४. जैसी करनी वैसी भरनी, काहे भरे पाप ठेला । आतम सुमरण कर ले मोही, उजड़े तेरा झमेला ... ४.

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