Book Title: Adhyatma Amrut
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Bramhanand Ashram

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Page 34
________________ [५६ जयमाल] १०. वीतरागता आने पर ही, साधुपद हो जाता है । सहजानंद में मस्त रहे वह, ब्रह्मानंद पद पाता है । ध्यान समाधि लगती ऐसी, पाता पद निर्वाण है। सर्वश्रेष्ठ और इष्ट जगत में, केवल सम्यग्ज्ञान है ॥ २८.साधक [अध्यात्म अमृत ३. शरीरादि से भिन्न सदा मैं, ज्ञायक ज्ञान स्वभावी हूँ। अलख निरंजन परम तत्व मैं, ममलह ममल स्वभावी हूँ॥ अनुभूतियुत सम्यग्दर्शन, जग में श्रेष्ठ महान है । सर्वश्रेष्ठ और इष्ट जगत में, केवल सम्यग्ज्ञान है ॥ निज अज्ञान मोह के कारण, जीव बना संसारी है। चारों गति में काल अनादि, दु:ख भोगे अति भारी है। पर का कर्ता धर्ता बनना, यही महा अज्ञान है । सर्वश्रेष्ठ और इष्ट जगत में, केवल सम्यग्ज्ञान है ॥ ५. निज शुद्धात्मानुभूति ही, निश्चय सम्यग्दर्शन है । इससे परे और कुछ करना, झूठा व्यर्थ प्रदर्शन है । धर्म-कर्म को जानने वाला, ज्ञानी परम सुजान है। सर्वश्रेष्ठ और इष्ट जगत में, केवल सम्यग्ज्ञान है । भेद ज्ञान तत्व निर्णय द्वारा, वस्तु स्वरूप को जाना है। द्रव्य दृष्टि का उदय हुआ है, निज स्वरूप पहिचाना है। ज्ञायक ज्ञान स्वभाव में रहता, वह नर वीर महान है। सर्वश्रेष्ठ और इष्ट जगत में, केवल सम्यग्ज्ञान है ॥ काल लब्धि आने पर जिसको, सम्यग्दर्शन होता है। निज पुरूषार्थ जागता उसका, संशय विभ्रम खोता है । अभय स्वस्थ मस्त रहना ही, इसका एक प्रमाण है। सर्वश्रेष्ठ और इष्ट जगत में, केवल सम्यग्ज्ञान है ।। हर क्षण हर पर्याय में ज्ञानी, निजानंद में रहता है। ज्ञानानंद प्रगट हो जाता, किसी से कुछ न कहता है ॥ ध्रुव स्वभाव की साधना करता, सब जग धूल समान है। सर्वश्रेष्ठ और इष्ट जगत में, केवल सम्यग्ज्ञान है ॥ सम्यग्दर्शन ज्ञान सहित वह, समयसार हो जाता है। दृढ निश्चय श्रद्धान जागता, भ्रम भय सब खो जाता है। शुद्ध दृष्टि समभाव में रहता, कर्म बना श्मशान है। सर्वश्रेष्ठ और इष्ट जगत में, केवल सम्यग्ज्ञान है । १. सम्यग्दृष्टि ज्ञानी हो, जो ममल भाव में रहता है। धु वतत्व शुद्धातम हूँ मैं, सिद्धोहं ही कहता है | ज्ञान ध्यान की साधना करता, जपता आतम राम है। शुद्ध दृष्टि समभाव में रहना, साधक का यह काम है ॥ २. पर पर्याय का लक्ष्य नहीं है, ध्रुव तत्व पर दृष्टि है। भेद ज्ञान तत्व निर्णय करता, बदल गई सब सृष्टि है। विषय कषायें छूट गई हैं, छूट गया धन धाम है । शुद्ध दृष्टि समभाव में रहना, साधक का यह काम है ॥ वस्तु स्वरूप को जान लिया है, अभय अडोल अकंप है। त्रिकालवी पर्याय क्रमबद्ध, इसमें जरा न शंक है ॥ धुवधाम में बैठ गया है, जग से मिला विराम है। शुद्ध दृष्टि समभाव में रहना, साधक का यह काम है ॥ ४. सभी जीव भगवान आत्मा, सब स्वतंत्र सत्ताधारी । पुद्गल द्रव्य शुद्ध परमाणु, उसकी सत्ता भी न्यारी । द्रव्य दृष्टि से देखता सबको, अपने में निष्काम है। शुद्ध दृष्टि समभाव में रहना, साधक का यह काम है ॥ सिद्ध स्वरूप का ध्यान लगाता, निजानंद में रहता है। तत् समय की योग्यता देखता, किसी से कुछ न कहता है। सत्पुरुषार्थ बढ़ाता अपना, अपने में सावधान है। शुद्ध दृष्टि समभाव में रहना, साधक का यह काम है ॥

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