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[अध्यात्म अमृत
जयमाल
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आतम स्वयं स्वयं ही अपना, भवसागर की नांव है। ज्ञानानंद निजानंद रहना, ये ही सिद्ध स्वभाव है ।
१२. श्री सुन्न स्वभाव
जयमाल
७.
१
चार दान पर की अपेक्षा, पुण्य बन्ध के कारण हैं। निज स्वभाव को दान जो देता, बन जाता वह तारण है ॥ पर की पूजा करते-करते, बना यह गहरा घाव है। ज्ञानानंद निजानंद रहना, ये ही सिद्ध स्वभाव है ।।
आतम ही है देव निरंजन, देवाधिदेव भगवान है । निज स्वरूप को देखो अपने, बिल्कुल सिद्ध समान है । भेदज्ञान तत्वनिर्णय द्वारा, मिटते सभी विभाव हैं। निर्विकल्प सानन्द समाधि, ये ही शून्य स्वभाव है ।।
पर संयोग के कारण जग में, विषय-कषाय में लीन है। तीन लोक का नाथ स्वयं ही, बना यह कितना दीन है ॥ उत्पन्न प्रवेश हो निज स्वभाव में, क्षय होते सब भाव हैं। ज्ञानानंद निजानंद रहना, ये ही सिद्ध स्वभाव है ।।
मछली जैसे जल के माँहि, पवन पियासी रहती है। ऐसे ही भगवान आत्मा, जग दु:ख संकट सहती है । उल्टी होवे पानी पीवे, ये ही आतम दांव है । निर्विकल्प सानन्द समाधि, ये ही शून्य स्वभाव है ॥
उत्पन्न आचरण साधु पद हो, होता अरिहंत सिद्ध है। सारे कर्म विला जाते हैं, जिनवाणी प्रसिद्ध है ॥ सत्पुरुषार्थ जगाओ अपना, छोड़ो सभी विभाव है। ज्ञानानंद निजानंद रहना, ये ही सिद्ध स्वभाव है ।
३. दृष्टि पलटते मुक्ति होवे, सदगुरू की यह वाणी है।
कस्तूरी मृग की नाई यह, बीत रही जिन्दगानी है ॥ निज सत्ता स्वरूप पहिचानो, देखो ममल स्वभाव है। निर्विकल्प सानन्द समाधि, ये ही शून्य स्वभाव है ।।
१०. मैं हूं सिद्ध स्वरूपी चेतन, ऐसा दृढ़ श्रद्धान है ।
सम्यग्ज्ञान चरण के द्वारा, पाता पद निर्वाण है ॥ ॐ नमः सिद्ध के मंत्र से, भगते सभी विभाव हैं। ज्ञानानंद निजानंद रहना, ये ही सिद्ध स्वभाव है ।।
४. कोल्हू कांतर पाँव न देता, रस को दोना लेता है।
बिना सुने जो बने सयानों, गुरू की शरण न सेता है । उसको सत्य समझ न आवे, रहता सदा विभाव है। निर्विकल्प सानन्द समाधि, ये ही शून्य स्वभाव है ।
(दोहा) नमस्कार करते सदा, शुद्धातम सत्कार | सिद्ध स्वरूप की जगत में, मच रही जय जयकार || सिद्ध समान ही जीव सब, खुद आतम भगवान । निज स्वभाव में लीन हो, पाते पद निर्वाण ||
पढ़े गुने जो मूढ रहे ना, विकथा व्यसन का त्यागी है। ममल स्वभाव की करे साधना, शुद्धातम अनुरागी है । सिद्ध मुक्त निज का स्वभाव ही, परम पारिणामिक भाव है । निर्विकल्प सानन्द समाधि, ये ही शून्य स्वभाव है।
६.
अनन्त ज्ञान मोरे सो तोरे, जिनवर ने बतलाया है। अनुभव प्रमाण करो यह श्रद्धा, जिनवाणी में आया है ।