Book Title: Adhyatma Amrut
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Bramhanand Ashram

View full book text
Previous | Next

Page 18
________________ २३] [अध्यात्म अमृत जयमाल] (२४ ऐसे काल अनन्त गुजर गये, निज स्वरूप नहीं जाना है। धर्म-कर्म का मर्म गुरू ने, खातिका विशेष बखाना है ॥ ११. श्री सिद्धस्वभाव जयमाल ७. एक सागर असंख्यात पल्य का, जिसका नहीं ठिकाना है। अर्क न दिस्यते नरक गति में, फिर-फिर चक्कर खाना है। भय दु:खों का घर यह जग है, अब मुक्ति को पाना है। धर्म-कर्म का मर्म गुरू ने, खातिका विशेष बखाना है | १. जग में सब भगवान आत्मा, सिद्धह सिद्ध सुभाव हैं। निज स्वभाव को भूल भटकते, फिरते सदा विभाव हैं । जिनने निज स्वरूप पहिचाना. लगा यह जिसका दांव है। ज्ञानानंद निजानंद रहना, ये ही सिद्ध स्वभाव है । एक गड्ढा दो योजन लम्बा चौड़ा, उतना ही वह गहरा हो। रोम कतरनी गाड़र भर के, पैर न धंसे इकहरा हो । एक रोम इक वर्ष मुताबिक, गिनती करे निदाना है। धर्म-कर्म का मर्म गुरू ने, खातिका विशेष बखाना है ॥ २. देखी कहे न सुनी कहे, जो बोले तो भी न बोले । हित उपजी भी कहे नहीं जो, निज स्वभाव में ही डोले ॥ भेदज्ञान तत्व निर्णय का ही, रहता जिसको चाव है। ज्ञानानंद निजानंद रहना, ये ही सिद्ध स्वभाव है ॥ रत्नत्रय सुभाव उत्पन्न हो, औकास उत्पन्न हितकार है। उत्पन्न कमल अर्कस्य जहाँ है, मचती जय जयकार है । एक सौ चार सूत्र ज्ञानानंद, मिलता मुक्ति ठिकाना है। धर्म-कर्म का मर्म गुरू ने, खातिका विशेष बखाना है ॥ चोर के लेय बंधारे के लेवे, जो निज गाय लगाता है। अमृत रस उसके झरता है, परमानंद को पाता है । गाढ़ो धरे वही पाता है, ढील ढाल भटकाव है। ज्ञानानंद निजानंद रहना, ये ही सिद्ध स्वभाव है ॥ १०. अष्टगुणों से युक्त सिद्ध हो, सिद्ध परम पद पाता है। तारण तरण स्वयं बन जाता, जग जयकार मचाता है । अपने को यह मौका मिला है, निज पुरूषार्थ जगाना है। धर्म-कर्म का मर्म गुरू ने, खातिका विशेष बखाना है ॥ ४. निज स्वभाव को भूला अपने, नरक गति को जाता है। चारों गति के दु:ख भोगता, जग में रुदन मचाता है। धर्म मार्ग में ऊँच नीच का, कोई न भेदभाव है । ज्ञानानंद निजानंद रहना, ये ही सिद्ध स्वभाव है ।। (दोहा खातिका विशेष गड्ढा बड़ा, जिसमें जगत समाय। बिन सद्गुरू सत्संग के, मिले न इसकी थाह ।। चार गति में जीव का, होता क्या क्या हाल | ज्ञानानंद अब देख लो, छोड़ो जग जंजाल || सिद्ध स्वभाव की रुचि तीव्र हो, जैसे भोजन रुचता है। जैसे कि संसार मार्ग में, बात-बात को गुनता है ।। ऐसा लक्ष्य बने शुद्धातम, इतना परम उछाव है । ज्ञानानंद निजानंद रहना, ये ही सिद्ध स्वभाव है । ६. पुण्य पाप करते-करते यह, काल अनादि बीता है। धर्म का मर्म नहीं जाना है, रहा रीता का रीता है । 3

Loading...

Page Navigation
1 ... 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53