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कविधर सांगु
के समान लगते हैं। नगर के घरों पर गुडियां उछलती रहती है। यहां की कामनियां अपने प्रापका श्रृंगार करने में ही अस रहती है। घरों में मोतियों के र लगे रहते हैं जैसे मानों वे उसी नगर में पैदा होते हों। नगर के निवासी स्वर्ण दान बहुत करते हैं । वहां के प्रत्येक घर में वैभव बरसता है उनमें लक्ष्मी निवास करती है । यही वर्णन कवि के शब्दों में निम्न प्रकार है -
घिरि धिरि बन्ध्यापरि के कारण, घिरि घिरि राउत गुडि निसाण । धिरि घिरि नारी करि सिणगार, घिरि घिरि बंदी जय जयकार
घिरि घिरि सोबग दीजि घर्णा, चिरि घिरि नही मोती नीमणा । घिरि घिरि रयण प्रमूलइक जेहा घिरि घिरि नहीं लक्ष्मी नु छेड
।। ७ ।। सुकोमल का युग सात्विक युग था । विषय वासना, भोग विलास एवं खान-पान में रुचि आयु लने के साथ-साथ स्वत: कम हो जाया करती थी और राजा महाराजा भी अपना अन्तिम समय राज पाट त्याग कर साघु जीवन के रूप में व्यतीत करना चाहते थे । इसलिये राजा कीतिघर मे भी पपनी यही इच्छा व्यक्त की
धन योवननि जाषिम घणु, सहि जी शरीर नही आपणु । अह्म दीक्षा लेसु बनि जाई, पंच महावत पानु सही ।
भुगति तणा सुख जो ना काजि, तिणि कार्राण हूं मग राज ।।१४।। लेकिन तब तक कीतिधर पुत्र विहीन थे। इसलिये मंत्रियों एवं महाजनों ने पुत्र होने तक राज्य काज करते रहने की प्रार्थना की। राजा के मन में बात बैठ गयो और उन्होंने वैराग्य लेने के विचार को कुछ समय के लिये स्थगित कर दिया। रानी के गर्भवती होने के पश्चात् पुत्र जन्म का भेद खुल ही गया। फिर क्या था चारों और उल्लव प्रायोजित किये गये। मंगलगीत गाये गये । ब्राह्मणों को एवं याचकों को खून्य दान दिया गया। इसी की एक कनक कवि के शब्दों में देखिये -
नयर माहि गुडी उन्ली, रायतणी मनि पूगी रली।
वध्यामणि ब्रह्मरिंपनि दीष, जन्म लगि प्रधानक कीच । एक ओर पुत्र जन्म के उत्सव प्रायोजिन हो रहे थे तो दूसरी ओर राजा ने नवजात शिशु को राज्य भार सौप कर मुनि दीक्षा धारण कर ली। चारो मोर