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भट्टारक यशकीति साहित्य सेवा ... भट्टारक यःकीति की अभी तक कोई बड़ी रचना नहीं मिल सकी है । केवल २ पद, योगी वाणी एवं चौमीस तीर्थङ्कर भावना मिली है। जो लघु रचनायें है। दो पद उपदेशात्मक है जिनमें मनुष्य भर में प्रच्छे कार्य करने के लिये कहा गया है। गढ, मठ, मन्दिर, घोरा हाथी कोई भी साथ जाने वाले नहीं है । केवल धर्म ही साथ जाने वाला है। दोनो ही पद भाषा एवं भाव की दृष्टि से अच्छे पद है ।।
योगी वाणी में ज्ञान एवं ध्यान में रहने वाले योगियों के चरणों की वंदना करने को कहा गया है। यश कीत्ति ने कहा है कि जो शुद्ध ध्यान को धारण करता है उसी योगी के चरणों की वन्दना करनी चाहिये । योगी वाणी में मागे कहा गया है कि क्रोध, लोभ माया और मान इन सभी को अपने आप से दुर हटा तथा अस एवं स्थावर जीवों की रक्षा कर. कावा से प्रेम मत कर तथा पतीपह सहने के डर से बारित्र को मत छोड़ यही योगियों को नाणी का सार है। योगी संयमी एवं संतोषी होते हैं अल्प माहारी एवं अल्प निद्रा लेने वाले होते हैं । योगियों की पहचान योगी दो कर सकते हैं। इस प्रकार की न होने पर भी गूढ़ अर्थ को लिये हुये हैं ।
चौबीस तीर्थकर भावना में चौबीय तीर्थङ्का गणाननाद है। तथा अन्त में कहा गया है कि जो नर नारी भाव पूर्वक इनका साधार करेगा गुणानुवाद यावेगा यही भद से पार होगा।
इस प्रकार यश कीति अपने समय के अस्ट्र कवि थे तथा अपने भक्तों को शुभ कार्य करने की प्रेरणा दिया करते थे ।
यश कीति भट्टारक होते हा. भी अपने पापको मुनि निखा करते थे इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि वे संभयन: नग्न रहते हों। सोमकीर्ति भी अपने आपको प्राचार्य लिखना अधिक पसन्द करते थे इसलिये यशकीति ने अपने गुरु से मागे न बड़ कर मुनि लिखने में मंतोष धारण कर लिया।
राग सबाफ तडकि खागि जिम हे टि। अंजलि उदक जिम माइटि ।
I. श्री रामसेन अनुक्रमि हुशा, यमकीरति गुरु जागि।
श्री विजयसेन पदि धागिया, महिमा मेर ममाण || १-६॥ सास शिष्य इम उच्चरि ब्रह्म यशोधर बेह ।
बलिभद चुपई