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ब्रह्म यशोधर
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दहा-सारी वाणी संभली, बोलि नेमि रसाल ।
पूरव भवि अक्षर लखा, ने किम थाह पाल १७१॥ चुप-द्वीपायन मुनिवर जे सार, ते करसि नगी संधार ।
मद्य मांड जे नामि कही, तेह थकी वली बलसि सही ।।७२।। पोरलोक सनद लिसि, वे मंत्रम नीलसु तिसि । तमह सहोदर जरा कुमार, ते हनि हाथि मरि मोरार ||७३।। बार बरस पूरि जे तलि, ए कारण होसि ते सलि । जिणवर वाणी अमीय समान, सुरणीय कुमर तब बाल्यु गनि !|७४||
बारह वर्ष पश्चात वही समय पाया । कुछ यादवकुमार अपेय पदार्थ पीने से उन्मत्त हो गए । वे नाना प्रकार की क्रियायें करने लगे। द्वीपायन मुनि को जो बन में तपस्या कर रहे थे उन्हें देखकर वे चिटाने लगे।
तिणि अवसरि ते पीधू नीर, विकल रूप ते थमा शीर। से परवत था पाछावलि, एकि विसि एक धरणी ढाल ।।२।। एक नाचि एक गाइ गीत, एक रोइ एक हरषि चित्त । एक नासि एक उडलि घरि, एक सुइ एक क्रीडा करि ||३|| इणि परि नगरी प्रावि जिसि, विपायन मुनि दी तिसि । कोप करीनि ताष्टि ताम, देर गालवली लेइ नाम ||४||
हीपायन ऋषि के साप से द्वारिका जलने लगी और श्रीकृष्णाजी एक बलराम अपनी रक्षा का कोई अन्य उपाय न देखकर वन की पोर चले गये 1 वन में श्रीकृष्ण की प्यास बुझाने के लिए बलिभद्र जल लेने चले गये । पीछे से जरद कुमार ने सोते हुये श्रीकृष्ण को हरिग समझ कर वारण मार दिया। लेकिन जब जरदकुमार को मालूम हुना तो वे पश्चाताप की अग्नि से जलने लगे । भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें कुछ नहीं कहा और कौ की विडम्बना से कौन बच सकता है यही कहकर धैर्य धारण करने को कहा--
काहि कृष्ण मुणि जराकुमार, मूड परिण मम बोलि गमार । संसार तणी गति विषमी होइ, होयडा माहि विचारी जो 1!११२।। करमि रामचन्द वनिगड, कमि सीता हरणज भउ । फरमि रावण राज जटिली, करमि लेक विभीषण फली ॥११३।।