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ब्रह्म यशोधर
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रचना में श्रीकृष्ण जी के भाई बलिभद्र के परित्र का वर्णन है । कथा का संक्षिप्त सार निम्न प्रकार है
द्वारिका पर थीकृष्णजी का राज्य था । बलिभट उनके बड़े भाई थे। एक बार २२ वें तीर्थकर मिनाथ का उघर विहार हुमा | नगरी के नरनारियों के नाथ वे दोनों भी दर्शनार्थ पधारे । बलिभद्र ने नेमिनाथ से जब द्वारिका के भविष्य के बारे में पूछा तो उन्होंने १२ वर्ष बाद द्वीपायन ऋषि द्वारा द्वारिका दहन की भविव्यवाणो की 1 १२ वर्ष बाद ऐसा ही हुमा । श्रीकृष्ण एवं बलराम दोनों जंगल में चले गये और जब श्रीकृष्णा जी सो रहे थे तो जरदकुमार ने हरिण के धाम में इन पर बारण कला दिया जिससे वहीं उनकी मृत्यु हो गई । जरदकुमार को जब वस्तुस्थिति का पता लगा तो वह बहुत पछताये लेकिन फिर क्या होना था। बलिभद्र श्रीकृष्ण जी को अकेला छोड़कर पानी लेने गये थे, वापिस पाने पर जब उन्हें मालूम हुना तो 4 बड़े शोकाकुल हुए एवं रोने लगे और मोह से छह मास तक अपने भाई को मामातीर को नए यूको समान में एक ममि ने जब उन्हें संमार की प्रसारता बतलाई तो उन्हें भी वैगग्य हो गया और अन्त में तपस्या करते हा निर्बागा प्राप्त किया। चौपई की सम्पूर्ण कथा जैन पुराणों के माधार पर निबद्ध है।
चौपई प्रारम्भ करने के पूर्व सर्व प्रथम कवि ने अपनी लघुता प्रगट करते हुए लिया है कि न तो उसे व्याकरग्य एवं छंद का बोध है और न उचित रूप से अक्षर ज्ञान ही है । गीत एवं कवित्त कुछ माते नहीं है लेकिन वह जो कुछ लिख रहा है वह सब गुरु के आशीर्वाद का फल है. -
न लहूं व्याकरण न लह छन्द, न लहु अक्षर न लह बिंद 1 हूँ मूरख मानव मति नहीं, गीत कवित्त नवि जाणु काही ।।२।।
बोहा सुरज ऊग्य तम हरि, जिम जलहर बुष्टि ताप । गुरु बमणे पुण्य पामीठ, मडि भत्रंतर पाप ||४| मुरख परिण जे मति लहि, करि कवि पतिसार । बह्म यशोधर इम कहि, ते सहि गुरु उपगार ।।६।।
उस समय द्वारिका वैभव पूर्ण नगरी थी। इसका विस्तार १२ योजन प्रमाण था । वहां सान से तेरह मंजिल के महल थे। बड़े-बड़े करोड़पति सेठ वहां निवास करते थे। श्रीकृष्ण जी याचकों को दान देने में हर्षित होते थे, मभिमान नहीं