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कविवर सांग
सुकौसल ने भी वैराग्य लेने का निश्चय कर लिया। उसके वैराग्य लेने को मुचना लत्काल चारों पोर फैल गयी। नगर में हाहाकार मच गया। जिसने मुना वहीं रोने बिलखने लगा। रानियों के विलाप का हृदयविदारक दृश्य था। कवि ने इन सबका पन्छा एवं प्रभावोत्पादक वर्णन क्रिया है
एक झूरि एक करि विलाप, एक कहि इम लांगु पाप । हा हा कर्रानि कटि होउ, भाज अंसेउर सुनु थऊ । एक अबला साखि सिणगार, एक तोडी नवसर हार ।
धीर दोर एक भाजि वाली एके घरणि पड़ी टल बाली । सुकौसल के वैराग्य लेने के पश्चात सारा घर ही चौपट हो गया। राजमाता महिदेवी बुरी तरह विलाप करने लगी पोर महल से गिरकर प्रात्मघात कर लिया । वह प्रात्तध्यान से भरने के कारण अगले जन्म में व्याघ्रिणी बनी।
इस प्रकार पूरा काच्य विभिन्न वर्णनों से प्रोतप्रोत है। सभी वर्णन स्वाभाविक है । मगर वन, सकोसल जन्म, शिक्षा-दीक्षा, शत्रु देशों पर आक्रमण एवं उनमें विजय, सौन्दर्य वर्णन, विषय दु ख वर्णन, विरह वर्सन, तपस्या वर्णन, परिषह वर्णन, आदि सभी वर्णन एक से एक निखरे हुये हैं । कदि ने उनमें जीवन पता है इसलिये व सभी सजीव बन गये हैं।
सकौसल यद्यपि राजकुमार थे । दुःख को कभी जाना ही नहीं था। लेकिन जब तपस्या करने लगे तो गर्मी, सर्वी एवं वर्षा की भीषणता की जरा भी परवाह नहीं की । भाद्रपद मास में डांस एवं मच्छर भयंकर रूप में सताते सेकिन वे तो प्रात्मध्यान में रहते । सर्दियों में जब कण्ड से सारा शरीर कांपता था तब भी वे एकानचित्त होकर नदी किनारे ध्यान करते रहते । गर्मियों में दोपहर की वेला, तपती हुई शिलाएं और तेज धूप सभी तो एक से एक बन कर ध्यान में बाधक थे। फषि ने इन सभी का अपने लघु काव्य में अच्छा वर्णन किया है
ताती बेलू तपती सिला, ते उपरि तप सापि भला ।
माथा उपरि सूरज तपि, निभर फर्म घणेरा खपि ॥ एक ओर वह व्याघिणी सुकौसल के शारीर को खाने लगी। दूसरी पोर सुकौसल मुनि प्रात्म ध्यान में इतने लीन हो गये कि शारीरिक कष्ट का उन्हें भान हो नहीं हमा। भोर ये कर्मी की निर्जरा करने लगे। प्रशारह दोषों से रहित होकर पांच महावतों का पालन करने लगे ।