Book Title: Aavashyak Digdarshan Author(s): Amarchand Maharaj Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra View full book textPage 6
________________ आवश्यक दिग्दर्शन हमारे कोटि-कोटि बार अभिवन्दनीय देवाधिदेव भगवान् महावीर स्वामी ने, देखिए, विश्व की विराटता का कितना सुन्दर चित्र उपस्थित किया है ? गौतम पूछते हैं-"भन्ते ! यह लोक कितना विशाल है ?" भगवान् उत्तर देते हैं-"गौतम ! असंख्यात कोडा-कोडी योजन पूर्व दिशा में, असंख्यात कोडा-कोडी योजन पश्चिम दिशा मे, हसी प्रकार असंख्यातं कोडा-कोडी योजन दक्षिण, उत्तर, ऊर्ध्व और अधोदिशा में लोक का विस्तार है ।" -भगवती १२, ७, सू० ४५७ ॥ गौतम प्रश्न करते हैं- भंते ! यह लोक कितना बड़ा है ?" भगवान् समाधान करते है--"गौतम ! लॉक की विशालता को समझने के लिए कल्पना करो कि एक लाख योजन के ऊँचे मेरु पर्वत के शिखर पर छः महान् शक्तिशाली ऋद्धिसंपन्न देवता बैठे हुए हैं और नीचे भूतल पर चार दिशाकुमारिकाएँ हाथों में बलिपिंड लिए चार दिशात्रों मे खडी हुई है, जिनकी पीठ मेरु की ओर है एवं मुख दिशात्रो की ओर " -"उक्त चारो दिशाकुमारिकाएँ इधर अपने बलिपिडों को अपनीअपनी दिशात्रों में एक साथ फेकती हैं और उधर उन मेरुशिखरस्थ छ: देवताओं में से एक देवता तत्काल दौड़ लगाकर चारों ही बलिपिंडों को भूमि पर गिरने से पहले ही पकड लेता है। इस प्रकार शीघ्रगति वाले वे छही देवता है, एक ही नहीं।" ---"उपर्युक्त शीघ्र गति वाले छही देवता एक दिन लोक का अन्त मालूम करने के लिये क्रमशः छहो दिशाओं में चल पड़े। एक पूर्व की श्रोर तो एक पश्चिम की ओर, एक दक्षिण की ओर तो एक उत्तर की श्रीर, एक ऊपर की ओर तो एक नीचे की ओर । अपनी पूरी गति से एक पल का भी विश्राम लिए बिना दिन-रात चलते रहे, चलने क्या उडते रहे "Page Navigation
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