Book Title: Aadhunik Vigyan Aur Ahimsa
Author(s): Ganeshmuni, Kantisagar, Sarvoday Sat Nemichandra
Publisher: Atmaram and Sons

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Page 7
________________ कता है जो मानवता मे जीवनी शक्ति का मिन्टन कार नक, प्रोत्साहित कर सके और मानव-मानव मे मता और ग्वार्थों को लेकर पनपने वाली नघर्ष परम्परा को सदा के लिए ममात्र गरयात्म-ज्योनि का नबर्वोन्नत पथ प्रदगिन कर सके, ननी विश्व शान्ति का नृजन सम्भव है । निद्धान्नन रिली भी तत्त्व को स्वीकार करने की अपेक्षा उने जीवन के दैनिक व्यवहार में लाना वांछनीय है । उन्नति और विकास का वास्तविक रहस्य तभी प्रगट हो सकता है जब नत्य जीवन में नाकारहो, और वही भावी परम्परा का रूप ले । साँच्च निदीप पार बलिष्ठ जीवन पद्धनि मानव ही नहीं प्राणीमात्र के प्रति समत्व मूलर जीवन की दिगा स्थिर कर नानी है। जीवन भी मवमुत्र याज एक जटिल समस्या को न्प मे वटा है। राजनीति औरत द्वारा इसे और भी विपम बनाया जा रहा है। और साथ ही पाव्यात्मिक जागृति के पथ पर भी प्रहार किये जा रहे हैं. पर ग्रान्चर्य तो इस बात का है कि उन्ननिमूलक यात्मिक तत्वनाधक नथ्यो नो अतरग दृष्टि से देखने का प्रयत्न नही किया जा रहा है। ऐसी स्थिति में सुरक्षित और गान्तिमय जीवन की स्थिति और भी गभीर हो जाती है। जीवन को जगत की दृष्टि ने संतुलित बनाये रखने के लिए विकारों पर प्रहारो का स्वागत है, पर वे सन्कारमूलक होने चाहिए । मान लीजिये परिस्थितिजन्य वै पम्य के कारण आज हिसा के नाम पर जोअहिंमा पनप रही है उनमे लगोधन अनिवायह। सचमुच उत्कृप्ट तत्त्व कोत्राचार पद्धति मे उतारने के लिए कुछ काठिन्य अनुभव होता है, पर असम्भव नहीं। जीवन मे अहिंसा की प्रतिष्ठा के लिए तत्त्व मनीपियो ने अपरिग्रहवाद की ओर सकेत दिया है । अनावश्यक बार अनुचित मचयही नघर्ष और हिंसा को प्रोत्साहन देते है। आज अधिक उत्पादन की ओर नसार जुटा हुआ है। दिनानुदिन आवश्यकताएँ इतनी वढी जा रही है कि उनकी पूर्ति में ही जीवन समाप्त हो जाता है। उपभोग के लिए भी अवकाश नहीं मिलता । जब कि व्यक्ति स्वातन्त्र्य मूलक और जनतान्त्रिक परम्परा का अनुगमन करने वाली श्रमणो की साधना ने यह नकेत दिया है कि यदि समाज और राष्ट्र मे शान्ति एव सन्तुलन की स्थापना करनी है तो व्यक्ति को ही सर्वप्रथम अपनायाभ्यन्तरिक विकास करते हुए जीवन की आवश्यकतायो को कम करना होगा, ताकि अनावश्यक स्वार्थ

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