Book Title: Aadhunik Hindi Jain Sahitya
Author(s): Saroj K Vora
Publisher: Bharatiya Kala Prakashan

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Page 14
________________ (xii ) के प्रति मनसा, वचसा कर्मणा अहिंसात्मक, प्रेम तथा करुणापूर्ण व्यवहार आज़ के अणु युग में कितने संघर्षों तथा विनाश को रोक सकता है! इस महान् आदर्श व व्यवहार-प्रधान धर्म ने हमारे राष्ट्र के दर्शन, नीति, धर्म, संस्कृति, साहित्य, शिल्प-स्थापत्यादि के विकास में अपना अमिट प्रभाव डालकर अपूर्व योगदान दिया है। प्रसिद्ध हिन्दी साहित्यकार और तत्त्वचिंतक डॉ. हीरालाल जैन ने उचित ही लिखा है कि-'जैन धर्म भारत वर्ष का एक प्राचीनतम धर्म है। इस धर्म के अनुयायियों ने देश के ज्ञान, विज्ञान, समाज, कला-कौशल आदि के वैशिष्ट्य-विकास में बड़ा भाग लिया है। मनुष्य मात्र में नहीं, प्राणी मात्र में परमात्म तत्त्व की योग्यता रखनेवाला जीवन विद्यमान है और प्रत्येक प्राणी गिरते-उठते उसी परमात्मत्व की ओर अग्रसर हो रहा है। इसी सिद्धान्त पर इस धर्म का विश्व-प्रेम और विश्व-बन्धुत्व स्थिर है। भिन्न-भिन्न धर्मों के विरोधी मतों और सिद्धान्तों के बीच अपने स्याद्वादनय (अनेकान्तवाद) के द्वारा सामंजस्य उपस्थित कर देता है। जैनाचार्यों ने ऊंच-नीच, जाति-पांति का भेद न करके अपना उदार उपदेश सब मनुष्यों को सुनाया और 'अहिंसा परमोधर्म' के मन्त्र द्वारा इतर प्राणियों की रक्षा के लिए तत्पर बना दिया। __इस प्रकार जैन धर्म जितना समृद्ध और प्राचीन है, उसका धार्मिक और दार्शनिक साहित्य जितना पुष्ट है, उतना ही पुष्कल परिमाण में प्राप्त उसका ललित साहित्य भी है। भगवान महावीर ने पंडितों की संस्कृत भाषा छोड़कर जनता के कल्याणार्थ बोल-चाल की अर्द्ध-मगधी प्राकृत भाषा में कथा-दृष्टान्तों द्वारा बोध प्रदान किया, तब से लेकर निरन्तर जनभाषा में उसका साहित्य लिपिबद्ध होता रहा है। मध्यकाल में अपभ्रंश तथा कालान्तर में उससे निःसृत भाषा में जैन-साहित्य विपुल परिमाण में लिखा गया। आधुनिक काल में भी हिन्दी भाषा में जैन धर्म व दर्शन के तत्त्वों को समाविष्ट कर रचा गया साहित्य प्रभूत मात्रा में उपलब्ध है। आवश्यकता है केवल इन रचनाओं के शोधात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन की। इनको प्रकाश में लाकर इनकी विशेषता स्थापित करने का हार्दिक उपक्रम नितान्त आवश्यक है। विराट जन-मानस में फैले इस धर्म की विचारधारा का प्रभाव जैन या जैनेत्तर साहित्यकार पर पड़ना स्वाभाविक है। जैन धर्म के अनेक श्लाध्य तत्त्वों को अपने साहित्य का मेरुदण्ड स्थापित करनेवाले न केवल जैन धर्मी साहित्यकार ही रहे हैं वरन् जैनेतर साहित्यकारों ने भी अपनी प्रतिभा का उन्मेष जैन दर्शन एवं उदात्त जैन धर्म के तत्त्वों को समाविष्ट करने में किया है। अतः इन तत्त्वों को आधार बनाकर रचे गये 1. डा. हीरालाल जैन-ऐतिहासिक जैन-काव्य संग्रह की भूमिका, पृ॰ 13.

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