Book Title: Aacharya Kundakunda Dravyavichar Author(s): Kamalchand Sogani Publisher: Jain Vidya Samsthan View full book textPage 6
________________ मे (शुभ-अशुभ) प्रयोजनात्मक चेतना का विकाम हो जाता है । यहा यह समझना चाहिए कि प्रयोजनात्मक चेतना मनुप में ही पूर्णस्प में प्रकट होती है। बाकी जीवो में इसका प्रकटीकरण अचेतन स्थिति में ही होता है। विचार का विकास मनुष्य की ही उपलब्धि है। विचार के विकास के माय ही उद्देश्यात्मक जीवन का विकास होकर शुभ-अशुभ प्रयोजनो मे जीने का विकास हो जाता है (24 से 28)। यह मभव माना गया है कि जीव पर पुद्गल का दवाव कम होते-होते शून्य हो जाए । ऐसी स्थिति मे जीव अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है । ऐमा जीव ज्ञान चेतना वाला कहा गया है। इस तरह ने पुद्गल के दवाव मे रहित जीव ज्ञान-चेतना वाला रहता है और पुद्गल के दवाव से युक्त जीव प्रयोजनचेतना और (सुखदु खात्मक) फल-चेतना को लिये हुए होता है (24 से 27)। प्राचार्य कुन्दकुन्द का कथन है कि कुछ जीव सुख दुखात्मक फल को, कुछ शुभअशुभ प्रयोजन को तथा कुछ ज्ञान को अनुभव करते है (25)। यहा पर यह ध्यान देने योग्य है कि जीव और पुद्गल की मिश्रित अवस्था का अनुभव ममी की सामान्य अनुभूति है, किन्तु पुदगल के दवाव मे रहित जीव की अनुभूति केवल तीर्थंकरो या योगियो की ही अनुभूति होती है। यह सर्व-अनुभूत तथ्य है कि पौद्गलिक वस्तुप्रो मे अवस्था परिवर्तन होता है । इमी परिवर्तन को पर्याय कहा गया है। पौद्गलिक मिश्रण के कारण जीव की अवस्थाओं में भी परिवर्तन होता है। पुद्गल के निमित्त से जीव क्रिया-महित होते हैं (13)। परिवर्तन और क्रिया काल द्रव्य के कारण उत्पन्न होते हैं (138) । परिवर्तन का अर्थ है एक अवन्या के बाद दूसरी अवस्या का आना। यह काल द्रव्य के विना सभव नही है । क्रिया मे जो निमित्त है वह धर्म द्रव्य है तथा स्थिति मे जो निमित्त है वह अधर्म द्रव्य है । द्रव्यो को स्थान देने के लिए आकाश द्रव्य है । इस तरह से लोक में 6 द्रव्यो की व्यवस्था है (14, 134)। प्राचार्य कुन्दकुन्द का कहना है कि अनेक जीव, पुद्गलो का ममूह, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये वास्तविक द्रव्य कहे गये हैं । ये सभी द्रव्य अनेक गुण और पर्यायो सहित होते है (6)। __ आचार्य कुन्दकुन्द के अनुसार जो गुण और पर्याय का आश्रय है वह द्रव्य है (139) । इमका अभिप्राय यह है कि गुण और पर्याय को छोडकर द्रव्य कोई स्वतन्त्र वस्तु नही है । दूसरे शब्दो मे द्रव्य गुणों और पर्यायो के विना नही होता, तथा गुण और पर्याएँ द्रव्य के विना नहीं होती (142,143) । उदाहरणार्थ, स्वर्ण (iv)Page Navigation
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