Book Title: Shrutsagar Ank 2013 09 032
Author(s): Mukeshbhai N Shah and Others
Publisher: Acharya Kailassagarsuri Gyanmandir Koba
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर वर्ष ३, अंक ८, कुल अंक - ३२, सितम्बर २०१३ प. पू. गुरुदेव आचार्यदेव श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराज आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर For Private and Personal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सं. १२१६ मां प्रतिष्ठित सम्राट् संप्रति संग्रहालयमां संगृहीत श्री पार्श्वनाथ भगवाननी प्रतिमा For Private and Personal Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचार्य श्री कैलाससागरसरि ज्ञानमंदिर का मुखपत्र श्रुतसागर ३२ * आशीर्वाद राष्ट्रसंत प. पू. आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. * संपादक मंडल * मुकेशभाई एन. शाह कनुभाई एल. शाह हिरेन दोशी डॉ. हेमन्त कुमार केतन डी. शाह एवं ज्ञानमंदिर परिवार १७ सितम्बर, २०१३, वि. सं. २०६९, भाद्रपद सुद-" प्रकाशक आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र कोबा, गांधीनगर-३८२००७ फोन नं. (०७९) २३२७६२०४, २०५, २५२ फेक्स : (०७९) २३२७६२४९ website : www.kobatirth.org email : gyanmandir@kobatirth.org For Private and Personal Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुक्रम १. संपादकीय २. इंद्रनंदिसूरि विवाहलो पू. मुनिश्री सुयशचंद्रवि. ६ ३. आदिजिन विवाहलो हिरेन दोशी १९ ४. विवाहलउ साहित्य- रेखादर्शन हीरालाल र. कापडिया ४८ ५. सम्राट् संप्रति संग्रहालयना प्रतिमा लेखो संपा. ६. श्री ओसियां तीर्थ परिचय कनुभाई एल. शाह ७. पद्मसागर गुरु प्रार्थना हिरेन दोशी ८. क्षमा की शक्ति सुरेश जैन ९. योग परम्परा में वर्णित आध्यात्मिक विकास एवं गुणस्थान डॉ. दीपा जैन १०. श्रुतसागरना केटलाक सुधाराओ संपा. ११. ज्ञानमंदिर कार्य अहेवाल १२. समाचार सार प्राप्तिस्थान आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर तीन बंगला, टोलकनगर परिवार डाईनिंग हॉल की गली में पालडी, अहमदाबाद - ३८०००७ फोन नं. (०७९) २६५८२३५५ प्रकाशन सौजन्य श्रीमती शारदाबेन उत्तमभाई महेता परिवार अहमदाबाद For Private and Personal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org पंचाचार परिमल स्वरूप पू. गुरुदेव आचार्य श्रीमत् पद्मसागरसूरिजी महाराज का परिचय Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जन्म : विक्रम संवत १९९१ भाद्रपद कृष्णपक्ष एकादशी मंगलवार १० सित. १९३५. जन्म स्थान : अजीमगंज, पश्चिम बंगाल पिता का नाम : श्री रामस्वरूपसिंहजी उर्फ श्री जगन्नाथसिंहजी. माता का नाम : श्रीमती भवानीदेवी बचपन का नाम : प्रेमचन्द / लब्धिचन्द्र शिक्षा : माध्यमिक स्तर तक भाषा ज्ञान: संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, बंगाली, गुजराती, राजस्थानी व अंग्रेजी. दीक्षा ग्रहण : वि. सं. २०११ कार्तिक (मार्गशीर्ष) कृष्णपक्ष ३ रविवार, १३ नव. १९५४ दीक्षा स्थल : साणंद दीक्षा प्रदाता : आचार्य श्री कैलाससागरसूरीश्वरजी म. सा. दीक्षा गुरु : आचार्य श्री कल्याणसागरसूरीश्वरजी म. सा. दीक्षा नाम मुनि श्री पद्मसागरजी म. सा. गणिपद प्रदान : वि. सं. २०३० माघ शुक्ल पक्ष पंचमी, सोमवार, २८ जनवरी १९७४, अहमदाबाद पंन्यासपद प्रदान : वि. सं. २०३२ फाल्गुन शुक्ल पक्ष सप्तमी, सोमवार, ८ मार्च, १९७६, जामनगर आचार्यपद प्रदान : वि. सं. २०३३ मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष तृतीया, शुक्रवार, ९ दिसम्बर, १९७६, महेसाणा विहार : एक लाख से अधिक कि. मी. की तीर्थ यात्रा. प्रतिष्ठाएँ : ७५ से अधिक यात्रासंघ : ११ ७० शिष्य-प्रशिष्य : ४२ ( आचार्य - ४, पंन्यास ५, गणिवर्य - २) श्रमण संघ एवं श्री संघ के गौरव रूप आचार्यदेवेश श्री पद्मसागरसूरिजी म. सा. के पुनित चरणों में उनके ७९वें जन्मदिवस पर हमारी आपकी, सबकी नतमस्तक कोटिशः वंदना... उपधान तप : १२ दीक्षाएँ : For Private and Personal Use Only · Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संपादकीय श्रुतसागरनो ३२मो अंक आपना हाथमां छे. पू. गुरुभगवंतना जन्मदिवसे प्रकाशित थवानो अवसर आ अंकने मळ्यो छे. ए बदल अमने सहुने खूब आनंद छे. गुरुपूर्णिमानुं पर्व भले अषाढनी पूनमना आवे पण गुरुऋणमुक्तिनुं पर्व तो आ ज दिवसे आवतुं होय छे. एवी भावनाथी ज गुरुऋणमुक्तिना अवसरे कैलास श्रुतसागर ग्रंथसूचिनो १६मो भाग, विश्वकल्याण प्रकाशनना ६ पुस्तको, अने श्रुतसागर विशेषांक प्रकाशित करीए छीए. * दीवो नथी, पण ज्योति छे. * पुष्प नथी, पण सौरभ छे. * सूर्य नथी, पण तेजस्वी छे. * चंद्र नथी, पण सौम्य छे. * पाणी नथी, पण शीतळ छे. * साकर नथी, पण मधुर छे. * सागर नथी, पण गंभीर छे. आ बधा ज गुणो आपणने एक ज सरनामे मळे एनुं नाम गुरु. गुणतत्त्व ज्यारे एनुं विराट अने उन्नत स्वरूप प्रगट करे त्यारे एनामां गुरुतत्त्वनो उद्भव थतो होय छे. एटले ज परमात्माने परमगुरु के जगगुरुनुं बिरुद अपायुं हशे. जीवता भगवाननी उपमा पामेला गुरुतत्त्वनी उपासना तो फळदायी छे ज, परंतु उपासना करतांय एनो अनुभव आपणा जीवनने वधु समृद्ध अने सद्धर बनावी आपे छे. गुरु आपणी पासेथी क्यारेय कांई मांगता नथी अने आपणने खबर पण न पडे एवी रीते आपणा जीवन अने मननुं परिवर्तन करी आपता होय छे. एटला माटे ज सद्गुरुना संयोगने पारसमणि जेवो गणाव्यो छे. कारण के पारसमणिनी जेम सद्गुरुनो संयोग पण दुर्लभ होय छे. जयवीयरायसूत्रमा सुहगुरुजोगोनी वात करता जणाव्युं छे. के हे प्रभु! तारी सेवा अने भक्तिथी बंधायेला पुण्यथी मने सद्गुरुनो योग प्राप्त थाओ. सद्गुरु साथे मारो मेळाप थाओ. आपणा माटे सद्गुरुना पावन संयोगने पामवानो एक अवसर गणी शकाय एवो समय आजनो छे. अत्यारनो छे. समयनु पारखं करी शकवानी क्षमता घरावता आपणे आ अवसरनो लाभ लेवो ज रह्यो. For Private and Personal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर - ३२ आ अंकनी वात : आ अंकमां बे अप्रकाशित कृतिओ सौ प्रथमवार प्रकाशित थाय छे. एमां पहेली कृति अज्ञातकर्तृक इंद्रनंदिसूरि विवाहलो छे. अने बीजी कृति सेवक कृत आदिजिन विवाहलो छे. हस्तप्रतना कागळ उपरथी उतरी आवेली आ बे कृतिओ रचना अने वर्णननी द्रष्टिए साहित्य अने वाचकने वधु समृद्ध करशे ए आशा अस्थाने नथी. इंद्रनंदिसूरि विवाहलानी कृति श्रुतसागर माटे सदाय सहयोग आपनार पू. आचार्य श्री सोमचंद्रसूरि महाराजना शिष्य मुनि श्री सुयशचंद्रविजयजी म. साहेबे पाठवी छे. ए बदल एमनो खूब खूब आभार. ए साथे ज श्री हीरालालभाईनो विवाहला साहित्यने प्रकाशित करतो लेख 'विवाहला साहित्य दर्शन' जैन सत्यप्रकाशमाथी अत्रे यथावत् प्रगट कर्यो छे. विद्वानोने सरळता रहे ए आशयथी ज ए लेखमां नोंधायेली केटलीक कृतिओना स्थानो जै. गू. क.नी द्वितीय आवृत्ति अनुसार टीप्पणमां नोंधेल छे. तेमज आ ज लेखमां विवाहला कृति नोंधमां अनुक्रम नंबर ४ उपर नोंधायेली कृति आदि जिन विवाहलो आ अंकमां प्रकाशित करी छे. ___ आ साथै सम्राट् संप्रति संग्रहालयमा रहेला धातु प्रतिमा लेखोने अत्रे प्रकाशित कर्या छे. साथ-साथे तीर्थ परिचय अंतर्गत आ अंकमां श्री ओशीया तीर्थनो परिचय अने एनी संक्षिप्त माहिती रूप लेख पण अत्रे प्रकाशित कर्यो छे. ओशीया गामनी नजीक टेकरी उपर आचार्य श्री रत्नप्रभसूरि महाराजनी देवकुलिका छे, ए देवकुलिका अने पादुकानुं चित्र आ अंकना टाईटल पेज नं. ३ उपर प्रकाशित कर्या छे. पू. गुरुमहाराजना जन्मदिवसे ज आ अंक प्रकाशित थतो होवाथी पू. गुरुदेवनी स्तुति रूपे पद्मसागर गुरु प्रार्थना अष्टक अत्रे प्रकाशित कर्यु छे. श्रुतसागरना नियमित वाचक मध्यप्रदेशना आई. ए. एस. अधिकारी श्रीसुरेश जैननो लेख 'क्षमा की शक्ति' आ अंकमां प्रकाशित कर्यो छे. लेखमा क्यांकक्यांक पुनरावृत थती वात द्रढताथी क्षमाना महात्म्यने ज उजागर करे छे. तेमज गतांकमां प्रकाशित डॉ. दीपा जैननो योगपरंपरा अने आध्यात्मिक विकासमां गुणश्रेणिनी तुलना करतो लेख अत्रे प्रकाशित कर्यो छे. For Private and Personal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org * इंद्रनंदिसूरि विवाहलो पू. मुनिश्री सुयशचंद्रविजय विवाह, व्याह, व्याहलो विगेरे विवाहला संज्ञक कृतिओ छे. आवी कृतिओनो विस्तृत परिचय अगरचंदजी नाहटा अने श्री हीरालालभाई जेवा विद्वानो ए जैन सत्यप्रकाश जेवा मेगेझीनना अंकमां आप्यो छे. तेथी अहिं तेनुं वर्णन करी पुनरुक्ति करवी योग्य नथी. मध्ययुगमां रास, चोपाई, बारमासा जेवा काव्यप्रकारोनी जेम आ प्रकारमां पण घणी रचनाओ थवा पामी. जेमानी केटलीक रचनाओ जीवनचरित्र रूपी सामग्रीवाळी तो बीजी केटलीक ऐतिहासिक तथ्योथी भरपूर हती. प्रस्तुत कृतिनो समावेश बीजा प्रकारनी रचनाओमां करी शकाय इंद्रनंदिसूरिजी ना जीवननी ऐतिहासिक घटनाओनी साथे साथै तत्कालीन रीतरिवाजोनुं चित्रण पण कविए अहिं सुपेरे कर्तुं छे जे कृति वाचंता जोइ शकाय छे. हवे सौ प्रथम आपणे कृतिनो सामान्य परिचय जोइशुं. कृति परिचय : मंगलाचरणमां गुरु गौतमस्वामी, सुधर्मास्वामी, माता सरस्वती अने इंद्रनंदिसूरिजीने नमस्कार करीने कविए चारित्रनायक देवराज ( इंद्रनंदिसूरि ) ना ग्रहस्थाश्रमनुं वर्णन कर्तुं छे. शरूआतना १० पद्योगां कविए चारित्रनायकना जन्मस्थाननी माता-पितानी, पुत्र गर्भमां आवता पूर्वे माताने आवेला शुभ स्वप्ननी अने पुत्रना प्रभावथी उत्पन्न थयेल मनोरथादिनी अगत्यनी नोंध गुंथी छे. ११मां पद्यमां पुत्रजन्मनी अने १२मां पद्यथी तत्कालिन रीवाज मुजब गर्भ नाळने जमीनमां दाटी देवानी, लूणउतारण विगेरेनी वात कविए रजू करी छे नामकरण अंगेनो अछडतो उल्लेख करी पछीनी ढाळमां कवि देवराज कुमारना अंगोपांगनुं वर्णन करे छे. कृतिना २५मां पद्यथी ६ पद्यमां कुमारना निशालगमननुं, पुत्रने परणाववाना पिताना मनोरथोनुं अने संयमाभिलाषि पुत्रना भावोनुं सामान्य चित्र छे, संसारनी असारतानुं वर्णन करता पुत्रने चारित्र जीवनना कष्टो समजावी संसारमां ज रहेवा माटे प्रेरणा करता पितानी संवेदनाना पद्यो वर्णवी पछीनी ढाळमां कविए दीक्षानी Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only . इंद्रनंदिसूरिजीना चरित्रनी विशेष विगतो अनुसंधान ५९नी इंद्रनंदिसूरिभास' कृतिनी प्रस्तावनामांथी जोइ लेवा विनंती. Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर - ३२ अनुमति प्राप्त कुमारना दीक्षा महोत्सव माटे उत्साहित थयेला जनसमुदायनुं तेमज दीक्षा प्रसंगनुं हृदयंगम वर्णन कर्यु छे. दीक्षाकुमारी साथे कुमार देवराजना लग्न थतानी साथे ज मदनराज (कामदेव) पोतानी आज्ञा शिरोधार्य करवानो संदेशो लई यौवन दूतने मोकले छे ते दूतनी अवज्ञा करी मुनि इंद्रनंदिजी स्वाध्यायने समरांगणमां फेरवी नाखे छे. ज्ञानरूपी शिरस्त्राण सीलरूपी बख्तर विगेरे वडे युद्ध माटे सुसज्ज मुनिने परास्त करवा कामदेव पण माया रूपी शिरस्त्राण क्रोध-लोभरूपी अंगरखा विगेरे धारण करी युद्धमेदानमा उतरे छे, युद्ध माटेनी तैयारीनुं आ वर्णन अने मदनरायना पराजयनुं रोचक वर्णन कविए ६३ थी ७९ नं. ना पद्योमा कर्यु छे. जो के मुनि इंद्रनंदिना जीवनमा आq कोई युद्ध थयु ज नथी परंतु मुनिश्रीना चारित्रवैभवने बताडवा ज कविए आ कल्पनाने स्थान आपी युद्धनो प्रसंग अहिं रजू को छे. कृतिमा ऐति. कही शकाय तेवी मुनिश्रीना पंडितपद, आचार्यपद, महोत्सव करावनारा आदिनी महत्वपूर्ण नोंधो कविए ८० थी ८७ नं. ना पद्योमा गुंथी छे. छेल्ली त्रण ढाळोमां सूरिजीना अन्य सामान्य गुणोनी स्तुति करी काव्यांते कृति रच्यानी संवत, स्थान अने पोताना गुरूभगवंतना नामोल्लेखपूर्वक कृतिनुं समापन करे छे. कृतिकार परिचय : कृतिकार कोण छे तेनो काव्यमां कशो ज उल्लेख नथी परंतु कृतिनी १००मी गाथामां कविए 'सीसलेस' पद मुकी ते वातनो कंइक आछो निर्देश कर्यो होय तेम जणाय छे कवितुं नाम अज्ञात छे छतां तेओ इंद्रनंदिसूरिजीना ज शिष्य हशे तेवू अनुमान थाय छे. भावानंद पंडित (उपाध्याय)जीना सानिध्यमां कृति रची होय तेथी तेमने पण वंदना करी होय तेम वधु संभवित छे. छता आ अंगे विद्वानो वध प्रकाश पाडे तेवी आशा छे. प्रत परिचय : प्रस्तुत कृतिनी हस्तप्रत लालाभाई दलपतभाई विद्यामंदिरना संग्रहमा नं. २४६६मां सचवाएली छे. त्रण पानामां कंइक अंशे मरोडदार अक्षरोमां कृतिनुं आलेखन थयुं छे. दरेक पत्रमा प्रायः १३ लीटीओमां छे. लेखन उपरथी ने प्रायः १६मी सदीमां ज लखाई होवानुं अनुमान करी शकाय संपादनार्थे कृतिनी हस्तप्रत आपवा बदल संस्थाना व्यवस्थापक श्री जीतुभाई पंडितजीनो खूब खूब आभार. For Private and Personal Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीइन्द्रनन्दिसूरि विवाहलो | || श्री गौतमाय नमः ।। गणहर मणहर गोअमसामि, सोहम मुणिवर पय नमीय । समरीय सरसति भगवती माय, आसस' मागउं तुम्ह तणुं ए ।।१।। श्रीइंद्रनंदिसूरि सुहगुरुराय, पायकमल नरवर नमइ ए। भवीयण सांभलउ नव-नव भावि, बोलिसु तासु वीवाहलउ ए ।।२।। जंबूदीवह विनय विचारि, सार भरत तिहां जाणीइ ए। मरूमंडल वली देस विसाल, नयर सीरोही अभिनवी ए ।।३।। धण कण कंचण अति अभिराम, नयर वसंतपुर जाणीइ ए। वापीअ कूप सरोवर साल, बाल क्रीडा करइ नित नवी ए ।४।। ।। ढाल ऊलालानउ ।। तहिं छइं चंपक साह, लच्छी केरडउ नाह! धरणि सीतादे सुसील, विलसइ प्रीयसिउं अलील ||५|| शीलई सीत समाण, सिरि वहइ जिणवर-आण । धरमिइ वासीअ देह, रूपिइ मयणनी रेह' ।।६।। तेहनी ऊअरि ऊपन्नओ, शशिहर सुहणइं संपन्न। मासई-दिसिइं संपूरउ, नाणे अभिनवउ सूरत ७|| मनह मनोरथ चंग, अचरइं जिणवरअंग। समरइ सासणदेवि, सुहगुरू पाय नमेवि ||८|| साहमीवछल रंग, करइं नितु उत्तम संग। हीअडइ करइ विचार, अवतरिउ नंदन सार ।।९।। || ढाल । वारू दिवस संयोगि सार, कुमर तव जाईउ' ए। तिहूअण जय-जयकार, नारि धवल दिइ मिली-मिली ए ||११|| For Private and Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रुतसागर - ३२ सोभागी सुकुमाल नाल, विमल वसुधां ठविउं ए । बोलइ मंगल च्यारि, वाजिंत्र वाजइ अंगणइ ए ||१२|| अहवि दीइ आसीस, कोडि वरीस कुंअर जयउ ए । जणणीसिउं परिवार, नारि निपुण बोलइ हसिउं ए ||१३|| माजणडउ मनरंगि, कुंअर करावइ सुंदरी ए । जणणि ऊतारइ लूण, कुंअर पुड्ढाडइ' पालणइ ए ||१४|| 7 चंद्रोआ चउसाल, चित्र चित्रामई आगला ए । रूपिइं अति अभिराम नाम जोसी देवराज दीउं ए ||१५|| Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हींचई चतुर तुरंग, रंगि रमलि' कुंअर करई ए बोलई नव-नव भंगि, चंग चतुर मन मोहतु ए ||१६|| || ढाल // जोउ जोउ निरूपम बाल, अट्टम-ससि जिम भाल । नासा वंस अमूल, जाणे तिलचुंअ - फूल || १७ || लोचन अमिअमय कुंड, जोतां हरख अखंड | जाणे मयनी धुणही " इसी अनोपम भ्रमही || १८ || गल्ल आरीस अभंग, अधर सुविद्रुमरंग । अडी दंतआवलीअ, जिसीअ दाडिमकुलीअ ||१९|| वाणी मधुर अपार, जिसिउ हुइ अमी अनुसार । दोला करण उदार, रमई रामतडी कुमार ||२०|| जीहा अमीअकी धार, बुद्धिई अभयकुमार । पूनमशशिहरवयण, उदयु नरवररयण ||२१|| बाहयुगल सुकुमाल, जिस्यां हुई कमलनां नाल । पल्लवविमल अंगुलीअ, सरल सकोमल मिलीअ ||२२|| हीअडउं जलहि गंभीर, बलवंत बावन वीर । सोवनवन्नसरीर, पहिरइ निरमल चीर ||२३|| For Private and Personal Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १० सितम्बर - २०१३ चरणकमलआरंभ, जिस्यां हुइ केलिना थंभ। धुरि लगइ सहजि सुशील, करइ नितु यवनवी लील ||२४|| ।। राग - सोधडउ ।। पंच वरीसउ जव हुउ हो, कुंअर दुर्लभराज। सज्जन सहूको हरखीउं हो, नेसालइ वरराज किं ||२५।। विद्या अभ्यसइ रे, बोलइ सुललित वाणि कि । सुरजन मोहइ रे, रूपि मयणअवतार कि दूलओ सोहइ रे, रंजवइ बालगोपाल कि (आंकणी) लखण छंद प्रमाण भणी हो, लाधउ विद्यापार | उच्छवि नीय घरि आविउ हो, विद्यातणुं भंडार कि ।।२६।। विद्या अब्यसइ रे.... तात मात चिंतावीआ हो, जोइ सुकुली(लि)णी बाल । चंपक साह ऊमाहलउ हो, परिणावी नीय बाल कि ।।२७।। विद्या अभ्यसइ रे... सुगुरु तणी सेवा करइ हो, दूलउ अति सुकुमाल। जिनवर पूजइ मनि रूली हो, लहूउ लीलविलास कि ||२९ 11 विद्या अभ्यसइ रे... आगमआगर अतिहिं भला हो, सिरिउदयनंदिसूरिराय सेवा करतां उपनउ हो, लेवा संयमभाव कि ३०!! विद्या अभ्यसइ रे... । ढाल - धउलनउ ।। बे कर जोडी वीनवइ, संभलउ तातनइ माता संयमलच्छी आदरूं, मझ मति एहीय वात ।।३१।। ए संसार असारडइ, सार छइ संयमरयण । जिणि करी शिवपुरि जाईइ, साचुं करउ मझ वयण ।।३२।। For Private and Personal Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११ श्रुतसागर - ३२ आप अरथि सहू आवीउं. सगांसणीजांइ१६ एह ! पूत्र कलत्र अनइ बांधव, आपणु नही ए देह ३३|| जीवी यौवन ए अछइ, जेहवउ डाभि जलबिंद! विषय तणां सुख संमुख, जाणे मधुनउ बिंद ||३४।। II ढाल ।। तात वयण तव सांभली, कुंअर सुकुमाल संयमअवसर ए नही, सुखभोगवि बाल ||३५|| मात सीतादे बूझवइ, गहबरीउ१९ चीत । वछ नही तुझ वेसडउ०, इम कहइ मावीत्र । लघु वय वेसिइं लहूअडइ, कंदली परि देह! आ आ कह किम छांडीइ, विषयसुख एह ३६ ।। मात सीतादे... तातवचन हीअडइ धरी, मनि आंणिउ उछाह । पाणिग्रहण करवउं सही. लिइ नरभव लाह ||३७।। मात सीतादे... दीक्षाकन्या आदरी, हइ दोहिलं देव। (सालडु) वर जलि भीजीइ, गाजइ गुहिरू मेह ।।३८।। मात सीतादे... पगि-पगि कादवडो हिवउ२, ताढा२३ वाजइं वाय। घरि-घरि भिक्षा मागवी, वछ दोहिलं काय [३९।। मात सीतादे... सीअल भोअण" होअसइ, नही अधिकुं वेस। जरवाणी पाणी पीइवउं, करवउ गुरूआदेस ।।४०।। मात सीतादे... ऊन्हालइ दिणवर तपइ, वाजइ ऊन्हीअ६ लूण । तप-जप-संयम पालिवउं, संथारउ भूअ ।।४१ ।। मात सीतादे... सीआलइ सीई करी, वच्छ पडिसइ तुषार। वनमाहे होसिइ वासडउ. कुण करिसिइ सार ।।४२|| मात सीतादे... ऊन्हां पाणी विहरीअ, भोअणह असार । आतापन अति दोहिली, काकरि२९ संथारू ||४३|| मात सीतादे... For Private and Personal Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra १२ www.kobatirth.org वडपणि संयम लेअजे, वछ कहीउं कीजइ । संसारना सुख आदरी, भवलाहु लीजइ ||४४॥१ || ढाल हेलडीनु || पय पणमी नीय तात, वात विमासीय हीयडलइ ए । अवर सहोदर मात, संयमलच्छी आदरूं ए ।। ४५ ।। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir साह चंपक मनरंगि, अंगउल्लासइं गुरु वीनव्या ए। लगन गणावउं सार, नारि करइ ऊआरणांए । ४७ ।। तात मा लाउ" वार, जई सुगुरू तम्हे वीनवउ ए । सिरिउदयनंदिसूरिराय, पायकमल तम्हे अनुसरू ए ११४६ || सितम्बर २०१३ || ढाल - त्रिपदीनु // उच्छव मांडइ चंपक साह, लीइ अथिर लच्छीनु लाह । साह कुंकुंत्री मोकलइ ए ।। ४८ ।। - मात सीतादे... गाम - गामनुं श्रीसंघ लावइ, साह चंपक मनि रूअडू भावइ । श्रीवीयपार न जा [वा] पामीइ ए ||४९ || दुर्लभकुमर वरेसिइ दीक्षा, संघ-सजनमन ततखणि हरख्या । निरख्या कुंअर मनरूली ए ||५०|| सवि सिणगार करी वर बाली, पहिरइ नव रंग रूअडा फाली ! लाली अंग अशेषनीए ||५१|| सीस मुकुट सोहइ सिणगार, उरवरि मोतीअ - रयणहार ! अहीं एक गाथा मूळप्रतमां छूटी गई लागे छे. टोली मिली-मिली तिहां आवइ, साह चंपकनंदन बद्धावइ । करावइ ऊआरणां ए ।। ५२ ।। For Private and Personal Use Only सार तुखारइं आविउ ए । ५३ ।। लोक अटाले” मिलीआ निरखइ, जोईइ नयणे कुंअर हरखइ । धन कुंयर जिणि अवतरिउ ए ।।५४।। * Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर • ३२ १३ ।। ढाल-ऊचु ।। सुहासिणि(णी) हरिषइं कहइ, सवि सुंदरि(री) करउ शृंगार। सिरि चूनडी ओढी अफर, करि कंकण चूडीअ सार | पाए नेउर रणझणकार कि, दुर्लभराज वधावीइ ए 11५६ ।। आंकणी ।। तिलक ठवी चोखे करी, वधावीइ सुहासणि(णी) बाल | वच्छ प्रतपे तुं संघसिउ चिर काल जस रूअडउं ए दीपइ भाल | कोटइ दीसइ ए फूलह माल कि, बालकुंअर जगि जाणीइ ए । ५७ । । सवि सुंदरि... सजन सहू को सांचरउ, जाणे अभिवन सोहइ सुरसाल। वाजई वाजिन तिवल कंसार, .......[अहीं एक पद खूटे छ.] राय रंजण नाचइ पात्र चउसाल कि, भालतिलक मोती जडिउं ए ५८ ।। सवि सुंदर... || ढाल-वीवाहलानु ।। इणि परि उच्छवि आवीउ ए, वाजित्र वाजइ ए रंगि। अंगि आणंद अभिनवउ ए (आंकणी) ओघउ ततखिणि आणीउ ए, करि कंकण समवडि थापि। चउथु मंगल वरतीउ ए, गुरे" इंद्रनदि मुनि दीउ नाम १५८ ।। श्री उद....(?) हाथ मेलावइ मुहपत्ती एठ, परणीय संजम नारि। पंच महाव्रत ऊचरीआं ए, पालइ खडगनी धार [५९ || श्री उदय... साहेलडी रे तिहुअणजणसिणगार। साहेलडी रे रूपिइं देवकुंमार ।। साहेलडी रे आगमरयणभंडार। साहेलडी रे लबधिइ गोयमअवतार ||६०11 (आंकणी) भणी गुणी आगम सयल, जाण हुउ, मुनिचंद । जाणे सुरगुरू अवतरिउ, साहेलडी रे मोहनवल्ली कंद ||६१।। * आ ढाळ छंदमां बराबर बेसती नथी क्यांक चरण वधारे क्यांक ओछु लागे छे. For Private and Personal Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४ सितम्बर - २०१३ क्षमा सरसउ तप करइ, लिइ विशुद्ध आहार। एक ध्यानि अरिहंत वसइ, वादी मोडइ माण। तेणि करी दिणयर समउ साहेलडी रे दुरिअ-तिमिर-हरनार 11६२]] ।। ढाल-फागनु ।। अहे मयणराय इम बोलइ ए, तोलइ ए कुण मुणिं(णी)द। ताजी हरिहर मुनिवर, किंनर दिणयर इंद ||६३।। ब्रह्म महेसर ईसर, पारासर रहनेमि, आपणी आण मनावीअ, आवीअ जीपुं खेवि३७ मझ आगलि कुण मुनिवर, सुरवर सेवक जास, मयणदूत तव पाठवइ, आवइ मुनिवर पासि ।।६४ 11 यौवनदूत पठावीउ, आवीउ मुनिवर पासि। मान मुंकी तुं मुनिवर, आदरि मयण- वास !६५ ।। हसी करी मुनिवर जंपइ ए, कंपइ ए सेस पायालि । जई मयणनइ वीनवे, आवीउ तुझ खइकाल [६६ ।। मनिवर करइं सजाई, लाई नहीअ लगार | संग्राम हुइ सजाई", लाई मला इसि वार ||६७।। ज्ञानटोप आरोपइ ए, थापइ ए सीलसन्नाह। तप-जप अंगारगाउलि लिइ, मुनि धरी उछाह 1६८ ।। छत्र चारित्र तुरंगम, आगम उपशमसार । सेनानी मुहवडि१ कीउ, क्षमाखडग लिइ धार ||६९।। सामंत दीसइ रूअडा, वडा महाव्रत पंच । दस विध संयम उद्भट, सुभट२ करइं नही खंच ।।७० ।। 11 ढाल । मयणराय मनि कोप धरीनइ, मस्तकि मायाटोप। अंगारगाउलि क्रोध लोभ, बे नारी कुंजर आरोप ।।७१।। For Private and Personal Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर - ३२ इक झूडइ इक बूडइ, समरंगणि साम्हइ जाइ जीतु। मयण मनाविउ आण (आंकणी) आठ मद हुआ सुभट सजोडा, घोडां इंदिय पंच । असत्यवाद करवाल ऊलालीअ, युद्ध कीउ प्रपंच ।।७२।। मछर तिहां सेनानी थापीअ, आपीअ दंभ.....। प्रमादपुरूष सेलहतुं सारइ, सात व्यसन झूझार ||७३|| वीर धीरनई बीडा आपइ, बिहुं दलि मान अपार। सज्ज थई समरंगणि आवइ, खेहिंई छाहिउ दिणकार 11७४।। एक एकनइं हणवाना, कइ मूंकइ खडगप्रहार। एक छेक थई टार टंपावई५, सोहावइ तिणि वार 1७५।। बिहुं दलि बहुला ढोल ध्रसूकइ, चूकई इक हथीआर। सिरि विण इक धड-धडह झूझइ, सीजइ इक तिणिवार ७६|| तुरि४७ तिविल८ कंसाला, वाजइं भाजइं सुभट समूह । वक्र चक्र ताकीइ मूंकइ, भूकओ९ थाइ देह ||७७)। इणि परि बिहुं दलि झूझ करतां, मयण मूकाविउ बाण । भूजबलि नीतु मयणराय तिहां, काज चडिउं प्ररमाणि 1७८ ।। ।। ढाल ।। मुनिवरि जयसंपद वरी ए, तव वाजइ दुंदुभि दड-दुडि ए। धवल-मंगल दिइ सुंदरी ए, वर नारि वधावइ मिली-मिली ए |७९ ।। श्रीसोमजयसूरिसीसू ए, मुनि प्रतपउ कोडि वरीसू ए। अहवि दीइं आसीसू ए, जस प्रणमइ नरवरसीसू ए 11८०।। सुहगुरि गुणवंत जाणीउ ए, जव गिरूइ श्रीसंघि वखाणीउ ए। साह पुंजइ नीय मनरूली ए, वीनवीआ सहिगुरू संघि मिली ए ।।८१॥ पाटणि नयर मझारू ए, वर ओसवंश सिणगारू ए। वित्त वेचइ अपारू ए, साह पुंजउ अति सुविचारू ए ||८२।। For Private and Personal Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६ सितम्बर - २०१३ इंद्रनंदि मुनि थापीआ ए, गुरे पंडितपद तिहां आपिउं ए। विहरइ देस-विदेसू ए, श्रीसोमजयसूरिना सीसू ए ||८३!! | ढाल । अहम्मदावाद नयर भलउं, जिहां विवहारीआ माहि। सजन मिली विमासिउं, लीइ लच्छी केरउ लाह ||८४।। मृगनयणी सवि सामही, जई वीनवइ ए पता हरिचंद। आचारिजपद थापिवा, संघ हीअडइ ए अतिहिं आणंद !!८५ (आंकणी) ईडरि गढि जई वीनव्या, लक्ष्मीसागरसूरि। सोनी लगन गणाविउं, वित्त वेचई पता हरिचंद भूरि 1।८६ ।। श्रीइंद्रनंदिसूरि थापीआ, आपीअ सूरिनु मंत्र । पता हरिचंद मनोरथ फलिउ. वाजा वाजइ ए नाचई पात्र |८७।। ।। ढाल ।। ईणे महोछवि थापीआ, आपीआ सूरिमंत्र सारू ए। सारीअ नारीअ पहिरी ए, बोलइ ए मंगल च्यारी ए 11८८11 गणहर गुणमणि भरिआं, वरीआ दीक्षाकुमारी ए। सोहइ ए शशिसम वयणू ए, नयणू ए उपशम पूरी ए ||८९|| पांच महाव्रत पालइ ए. वालइ ए मनह अपारू ए। यतिपति समितिहिं समितु ए, गुपतु ए गुपतिहि चारू ए ।।१०।। शशहर शशिगण सागर, नागर नरवर वारू ए। प्रणमई सुहगुरू सारू ए, वारी ए विकथा ए भारू ए १९१।। || ढाल । सकल सुहासिणी ए. तुम्हे करू सिणगार। गाउ मंगल धवल रसाल, सोहइ सुंदरू ए, रूपि पुरंदरु ए ।।१२।। आगमआगरू ए जिसियां गोयमसामि। दुरीअपणासइ लीधइ नामि, कामितसुरतरू ए, गावउ सुहगुरू ए 11९३।। For Private and Personal Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर - ३२ १७ श्रीइंद्रनंदि गुरू ए, शीलई वयरकुमार। भविअकमलबोहणदिणकार, वाणी सेलडी ए, मोहणवेलडी ए १९८ ।। । ढाल ।। देस-विदेसई विहरई ए, बोहइं भवीअणथाट। सोरठ सुराठ सवालख, मरहउ मगध मुरारि ||९६ ।। गूजर कंकण कलहथ मालवउ अंग तिलंग। मरूमंडल जांगल वली, अंकज अपद पलंग ।।९७।। दक्षिणदेसे विचक्षण, वादी प्रणमइ ए पाय। नमइं नरेसरकोटी, कोटी धज नरराय १९८।। महीअलि महिमाआगर, गणधर गुणअसंख। सहस जीभइ नइ मुखि हूइ, तोइ न लाभइ ए संख ।।९९ ।। श्रीइंद्रनंदिसूरि मुनिवर, पायकमलि अलिअवास । सीस लेस इम वीनवइ, पूरित मझ मन आस ।।१०० ।। शशहर मेरू महीधर, दिणयर ग्रहगण वास। तां लगइ पूरउ सुहगुरू, श्रीसंघ केरी आस ।।१०१।। संवत पनरच्यालीस(१५४०), ऊपरि सुंपीअ............(?)! फागुण सुदि पंचमि दिनि, वीवाहलउ विख्यात ।।१०२11 भावानंद पंडितपवर, पाय नमी लास* मझारि । वीवाहलउ ऊमाहलउ करइ, नव-नव रसि सार ||१०३!! मणइ गुणइं नर-नारीअ, हीअडलइ घरी आणंद । विनय विवेक मंगल वली, तेह घरी लच्छीवृंद ।।१०८ ।। ।। इति श्रीइंद्रनंदीसूरीणां वीवाहक: ।।छ। For Private and Personal Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८ सितम्बर - २०१३ शब्दार्थ १. आशीर्वाद २. निराळी ३. रेखा ४. स्वप्नमां ५. जन्म्यो ६. एवी ७. स्नान (?) ८. पोढाडे - सुवडावे ९. रमत १०. तलना पुष्पजेवी ११. धनुष १२. जीभ १३. अवनवी-जुदी जुदी १४. निशाळमां १५. नाम? १६. सगांवहालां १७. जीवतर १८. डाभना पांदडे १९. गभरायु २०. उमर २१. हा हा (आघात जनक शब्दो) २२. हशे २३. ठंडा २४. भोजन २५. (जुवार- पाणी?) २६. उनी २७. पडशे २८. वत्स (पुत्र) २९. कांकरा उपर ३०. लगाडो ३१. ओवारणा ३२. साडी ३३. झरूखो ३४. हाथमां ३५. गुरुए ३६. तलवार ३७. अत्यारे ३८. स्वाध्याय ३९. गोळा ४०. घोडा ४१. मोवड-आगळ ४२. योद्धा ४३. धूळथी ४४. छांयु ४५. कूदावq ४६. सिद्ध थq-जीती जQ ४७. रणशिंगु ४८. ढोल ४९. भूक्को ५०. एक प्रकारचें वाद्य ५१, बधाने ५२. कोंकण ५३. भ्रमर ५४. गामनुं नाम For Private and Personal Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आदि जिन विवाहलो हिरेन दोशी मारुगुर्जर साहित्यमां भक्ति अने उर्मिनी अभिव्यक्ति करती केटलीय कृतिओ मळे छे. साहित्यनो वैभव मारुगुर्जर कृतिओमां ठेक-ठेकाणे पथरायेलो जोवा मळे छे. कविना समर्पणभावमांथी नितरेली रचनाओमां भक्ति अने अहोभावनी एक तेज शब्दधारा मळे छे. एना वांचन-मनन अने चिंतनथी कर्ताए अनुभवेली भीनाश अने शीतळतानो अनुभव आपणने पण थया वगर रहेतो नथी. __ आदिश्वर परमात्माना जीवनने संक्षिप्तमां सुंदर रीते रजू करती कृति आदि जिन विवाहलो अत्रे प्रकाशित छे. आम तो आ प्रकारनी कृतिनी रचना पाछळनो उद्देश तीर्थंकर भगवंतना चरित्रनुं वर्णन अने एमना प्रत्येनी भक्तिथी प्रेराईने एमनुं गुणगान ज मुख्यत्वे होय छे, तो साथे साथे जन सामान्यने सरळताथी एमना जीवननो परिचय पण मळी जाय एवा हेतुथी आवी कृतिओनुं निर्माण थतुं रयुं छे. तीर्थकर भगवंतना जीवन प्रसंगने वर्णवता वर्णवता अहोभावनी छीपमांथी मळी आवेला मोती जेवी सुंदर कल्पना अने एनुं वर्णन ए कृतिनी उपादेयतामां वधु उमेरो करे छे. अनुभूति अने भक्तिनी मांडीने वात करती केटलीय कृतिओ आजे उपलब्ध छे. एमांनी ज एक कृति एटले आदि जिन विवाहलो. ४४ ढाळना २४३ पद्योमां आ कृतिआखी विस्तरे छे. कृतिना नामथी ज कर्ताए पोताना कथित विषयने स्पष्ट कर्यो छे. आदिश्वर परमात्माना जीवननी आसपास बनती घटनानुं सुंदर वर्णन कविए रजु कटुं छे. कृति परिचय : माता सरस्वती अने शासनदेवीने प्रणाम करी, एमनी सहायथी आ कृतिनी रचनानो प्रारंभ करे छे. प्रारंभनी १० ढाळमां भगवानना पूर्वभवनुं वर्णन करवामां आव्युं छे. कविए क्यांक क्यांक संक्षिप्तमां तो क्यांक योग्य विस्तार साथे भगवानना पूर्वभवनी वात रजु करी छे. ११मी ढाळथी ऋषभदेव प्रभुना जीवननी वात शरू थाय छे. परमात्मा मातानी कुक्षिए पधारतां मरूदेवी माताने आवेला चौद स्वप्न अने प्रभुनो जन्म थया बाद इंद्र द्वारा थयेला जन्म महोत्सवना वर्णनमा कविए सुंदर रंग पूर्या छे. कविए प्रभुना बाळपण अने प्रभुनी देहयष्टिनी सुंदरतानी वात विविध उपमा सभर करी छे, परमात्माना ३४ अतिशयोने पण कविए कृतिना माध्यमे वर्णवी लीधा छे. १८मी ढाळथी कवि परमात्माना लग्न अवसरनी वात करे छे. लग्न प्रसंगे इंद्र अने इंद्राणी सहित देव-देवीओए करेला उत्सव अने आनंद मंगळनी वात आ For Private and Personal Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २० सितम्बर - २०१३ ढाळमां कविए बहु विस्तारपूर्वक करी छे. इंद्र अने इंद्राणी सुनंदा अने सुमंगला साथे परमात्मानुं पाणिग्रहण करावे छे. काळ पसार थाय छे. क्रमशः युगलिकोनी विनंतीथी परमात्मा आ अवसर्पिणी काळना प्रथम राजा बने छे. त्र्यांशीलाख पूर्व गृहस्थवास भोगवी संयमनो अवसर जाणीने सांवत्सरीक महादान आपी सिद्धार्थ वनमां परमात्मा छट्टनुं पच्चक्खाण करीने दीक्षा ग्रहण करे छे. सूझतो आहार के पाणी परमात्माने न मळता एक वर्षना उपवास थाय छे. एक वर्ष पछी श्री श्रेयांसकुमारना हाथे परमात्मानुं पारणुं थाय छे, आ अवसर्पिणी काळमां सौ प्रथम सुपात्रदाननी परंपरा प्रवर्ते छे. परमात्माए ज्यां पारणं कर्यु त्यां श्री श्रेयांसकुमार स्तुप बनावी. ए स्थाने परमात्मानी स्मृत्तिमां रोज भक्ति करे छे. एक हजार वर्ष देश-विदेशमां विचरता परमात्माने अयोध्या नगरनी बाजुना शकटमुख उद्यानमां न्यग्रोधना वृक्ष नीचे सूर्योदयना समये केवळज्ञान प्राप्त थाय छे. देवो केवळज्ञान कल्याणकनो महोत्सव करे छे. समोवसरणनी रचना थाय छे. मरूदेवा माता भरत सहित बधा ज पुत्रो परमात्मानी देशना सांभळवा आवे छे. अनित्य भावनामां रत मरूदेवी माता केवळज्ञान पामे छे. कविए परमात्माना समोवसरण अतिशय अने देशनाना प्रसंगनुं सुंदर वर्णन प्रस्तुत कर्यु छे. ए समये चतुर्विध श्री संघनी स्थापना थई. परमात्मानी देशना सांभळी वैराग्यवासित थई ५०० भव्यात्माओए चारित्र ग्रहण कर्यु. राजा भरत चक्रवर्तीपणुं प्राप्त करवा बाहुबली विगेरे ९८ भाईओ पासे पोतानी आण मनाववा कहेण मोकले छे. राजा भरतनी आज्ञा मानवा कोई तैयार नथी. त्यारे पिता ऋषभदेव पासे जई आनुं समाधान मेळववाना हेतुथी ९८ पुत्रो परमात्मा ऋषभदेव पासे आवी, बधी वात जणावे छे. परमात्मा राज्य माटे लडवा आवेला ९८ पुत्रोने प्रतिबोध पमाडे छे. प्रतिबोध पामी ९८ पुत्रो चारित्र ग्रहण करे छे. बाहुबली पण भरत साथे युद्ध थया पछी वैराग्यथी चारित्रनो स्वीकार करे छे, प्रभु जोवे छे के एनाथी नाना बंधु मुनिवरोने वंदन करता बाहुबलिने अभिमान अटकावे छे, आथी बाहुबलीने बोध पमाडवा ब्राह्मी अने सुंदरीने एमनी पासे मोकले छे. बंन्ने बहेनो बाहुबलीने वीरा मोरा गज थकी उतरो जेवा शब्दोथी बाहुबलिने जगाडे छे. बाहुबली जेवा प्रभु पासे जवा माटे पग उपाडता केवळज्ञान पामे छे. प्रभु क्रमशः विहार करता अष्टापदपर्वत उपर पधार्या. त्यां दशहजार साधुओ साथे अणसण स्वीकारी, परमात्मा मोक्षे पधार्या, देवताओए आवी एमना निर्वाणकल्याणकनो महोत्सव कर्यो. आम परमात्माना जीवनमां बनती घटनाओने कवि पोताना अहोभावसभर शब्दो आपी सुंदर रीते वर्णवे छे. कवि छेल्ली कडीओमां For Private and Personal Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २१ श्रुतसागर - ३२ आ कृतिनी रचनाना फळ स्वरूपे भवो भव परमात्मानी सेवा अने परमात्मानी भक्ति मांगे छे. आ धवलनी रचना करता जे कांई विराधना थई होय तेनी क्षमा मांगी आ कृतिनुं समापन करे छे. कर्ता परिचय: कृतिनी छेल्ली कडीओमां मळता सेवक शब्द अनुसार आ कृतिना कर्ता सेवक होवानी संभावना छे. कृतिनी १७मी ढाळनी छेल्ली कडीओमां वपरायेल .......लक्ष्मीत' सागर आ पदथी एमना गुरु तरीके लक्ष्मीसागरसूरि महाराज होवानी संभावना व्यक्त थाय छे. आवा ज उल्लेख वाळी जै.गू.क(द्वितीयआवृत्ति)मां भा. पना ४८२मां पेज उपर नोंधायेली रचना शालिभद्रफागुना अंते पण सेवक शब्दनो उल्लेख मळे छे. जो के ए कृतिमां लक्ष्मीसागरसूरि महाराजना नामनो स्पष्ट उल्लेख मळे छे. जै.गू.क.नी नवी आवृत्तिमां आ कृतिकर्ता श्रीवंत साथे नोंधायेली छे. पाठांतरमां मळता अंतिम वाक्यमां श्रीवंतना नामना उल्लेखथी आ कृति श्रीवंतना स्थाने मूकाई होवी जोईए. ज्ञानमंदिरमां आ कृतिनी ८ थी अधिक हस्तप्रतो छे. एमांनी केटलीक प्रतो तो कृति रचनाथी आसपासना समयमा लखायेली छे. आ दरेक प्रतोमां कर्ताना नाम तरीके सेवकनो ज उल्लेख मळे छे. आ कृतिना कर्ता तरीके सेवकने गणवा के श्रीवंत लेवा ए बाबते विद्वानो जणावे ए ज आशा... प्रत परिचय : आ कृतिनी हस्तप्रत अमारा ज्ञानमंदिरमा १४०५ नंबरना क्रमांक पर नोंधायेली छे. आ प्रतमां कुल १५ पत्रो छे. अने २६४११ एनुं परिमाण छे. एमां १२ लाईनमा ३६ जेटला अक्षरो नोंधायेला छे. प्रतना मध्यभागमां चोखंडु छे. एमां चार अक्षरोनुं आलेखन थयुं छे. प्रतमा खने माटे षनो उपयोग थयो छे. क्यांक पडिमात्रानो पण उपयोग थयो छे. थोडा लेखनदोषो होवा छता आ प्रत पाठनी द्रष्टिए घणी सारी छे. अक्षरो सुंदर छे. क्यांक क्यांक प्रतिलेखक द्वारा कडी क्रमांक आपवानो रही गयेल छे. पाठनो अन्वय करता पदच्छेद चिह्न आपेला छे. अंक अने दंड माटे लाल स्याहीनो उपयोग करवामां आव्यो छे. तेमज पत्र क्रमांक स्थान पर विविध रेखा चित्रनुं चित्रण मळे छे. प्रतना पहेला पाने अने छल्ला पाने सुंदर चित्र पुष्ठिका चित्रित छे. प्रतनी चारे बाजुनी किनारीओ अधिक उपयोगना कारणे खंडित थयेली छे. खंडित के बेटित पाठ अने गाथाओने योग्य चिह्न आपी बाजुमां के हांसियामां उतारेली जोवा मळे छे. पतिलेखन पुष्पिकाना आधारे आ प्रत वि. सं. १६१२मां पोष सुद पना गुरुवारना लाभपुरमा श्रावक लाडाना पठन माटे लखायेली छे. For Private and Personal Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आदि जिन विवाहलो गई! ||श्री गुरुभ्यो नमः।। ||ढाल-वीवाहलु।। शासनदेवीअ पाय पणमेवीय, मुझ मनि एह ऊमाहलो' ए। मात सरसति तणइ सहीय', सुपसाउलइ गाइसिउं रिषभ वीवाहलु ए ।। तेर भवंतर मूल चरित्रवर, भाविइं भवियण सांभलु ए। धण-कण-कंचण राज-राणिमसिउंअ, परभवि-इहभवि जिम मिलु ए ।।१।। || Jटक || मेलीउ सारथ सकल लेई, जाम वाटिइं चालीओ। धनसार सारथपति सुगुरुसिउं, ताम वरिषा आवीउ ।। चुमासि लागी हरिय जागी', चालवा कोइ नवि लहइ। कंदमूल आहार करतां, लोक सहू तिहां कणि रहइ ।।२।। श्रीधर्मघोषमुनि बहू परिवारसिउं, तप उपवास घणा करइ ए । मास चिहुं तणइ अति धन मनमांहि, साधु निग्रंथ चिंतन धरइ ए ।। पूज्य अणगार ए न लिइ असूझतूं, मइ पुण न करीअ किं पि सार] हिवइ प्रभातिइं जई दान फासूअ*, देई खामसिउं अपराध वार-वार !३!] || Jटक ।। इम वार-वार विमासता', तव सहस्रकिरण परगट थया । सुगुरुनइ आमंत्रवानइ, धनसार सारथपति गया ।। अतिभाव भावी, घृत विहिरावी, सार सम्य(म)कित्त पामिओ। बीजइ ए, भवि उत्तरकुरमाहि, युगलधर्मिइ आवीओ ||४|| || ढाल-जलही(हि)नी ।। त्रिहि पल्योपम भोगवी, युगल तणा वर भोग। त्रीजइ भवि अवतरीआ, सुर सौधर्म संयोग 11१|| For Private and Personal Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर - ३२ चउथइ भवि महाविदेहमांहि, विजइ गंधलावती नाम। वखारागिरि पासई, गंधसमिद्धपुर ठाम ।।२।। महाबलराय तिहां हू(हुआ, नास्तिकमत(ति) अतिचंड। स्वयंबुध मंत्री तेहनई, श्रीजिनधर्म अखंड ।।३।। एक दिनि स्वयंबुधि, भांजीउ नाटक रंग। वाद करीअनइ कुमतनु, रायनइ पाडीउ भंग ।।४।। बूझविओ राय मंत्री कहइ, सांभलि तं सविवेक। तुह्म आऊखू सदगुरि, आज कहिउं मास एक ||५|| तिणि कारणि मई भाजीओ, नाटक आज नरिंद। हिवइ जिम जाणु तिम करु, सांभलज्यो जनवृंद ||६|| || ढाल-ऊलालु ।। तु राय मनिहिं विमासइ, किसिउं करिसि एकइ मासइं। हई-हई गिउ भव आलिसा, जइ न बांधीय पालि ||१|| हूं विषयारसि रातु", जनम न जीणिउ ए जातु । इम झूरंता ए दुखभरि कहइ, तुझ सरणि मंत्रीसर ।।२।। मंत्री भणइ म म दुख करउं, हिव तुम्हे आतमहित करु। एक दिन चारित्रयोगि, पामइ वैमानिक भोग ।1३11 करी अट्ठाही(इ) महोत्सव, श्रीजिनमंदिरि उछव । लिइ संथारा ए दीक्षा, करइ मंत्रीसर सिख्या५५ ।।४।। अनशन पालीय सार, सुर ईशान मझारि तिहां। ललितांग थया सुरवर, स्वयंप्रभा तसु घरि अपछर ||५|| ते निर्नामिका जीव, तेहसिउं प्रेम अतीव । ते श्रेयांसकुमार जे, हुस्यइ प्रथम दातार ।। ६ ।। ॥ ढाल-चांदलानु ।। छठइ ए भवि महाविदेहमाहि, लोहार्गलपुर सार] वज्रजंघराय तिहां हऊआ१७, सगुण सरूप उदार ||१!! For Private and Personal Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४ सितम्बर - २०१३ धन-धन वज्रजंघ नरवरु, धन ते श्रीमती नारि । रिषभ तणइ घरि जे हुस्यइ, श्रीश्रेयांसकुमार ||२|| || द्रूपद ।। स्वयंप्रभा जीव ते अवतरिउ, नयरी पुंडरीगिणीमाहि! वइरसेण चक्रवर्ति घरि, श्रीमती कुंअरि जाय ||३11 धन-धन वज्रजंघ... कुमरी पूरवभव सांभरिउ, प्रीयसिउं प्रेमअपार । पूरवभव कंत झु(जो) मिलइ, तु परणिसि सुविचार ||४|| धन-धन वज्रजंघ... करीय प्रतिज्ञा मूनि रही, धावि" करिउ उपाय] पटि लखी पूरवभवचरी, लहिउ वज्रजंघराय ।।५।। धन-धन वज्रजंघ... हरखिइ ते बेहु परणाविआ, पुहुता निज पुरि आप! चडतइ ए पखि जिम चंदलु, तिम वाघिउ तेज प्रताप ! ६ }। धन-धन वज्रजंघ... ।। ढाल-स्वामीअ सपन संभालीइए । वइरसेनराय व्रत लीउं ए, निज पुत्रनइं राज सयल दीउं ए तीर्थंकर पद पामीआ ए, आठकर्मना वइरी नामीआ ए ।।१]| पुत्र ते परबलि राहाविउ(?) ए, तव वनजंघराय बोलावीउ ए| चतुरंगबल लेई चालीया ए, तव वइरीअ सवि नासी गया ए 11२।। वलतां मुनिवर वांदीआ ए, दोइ केवली मनि आणंदीआ ए! श्रीमती बंधव ते बहु ए, वांदीनइ चालीआ ते सहू ए ।।३।। ।। ढाल-सरसति सामिणि करिउ पसाउ ।। मारगि नरवर राणीय साथि ए, जंपइ ए इसिउंअ वइरागसिउं ए। धन एह मुनिवर नाहना लहूअडा, चारित्र पालइ ए भावसिउंए । For Private and Personal Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रुतसागर - ३२ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir // त्रूटक // भावसितं पाली जाण, पामीउं केवलनाण । हुं विषयनइ रसि रत्त, नवि लहिउ एह भवजत्त* !! एह भव न जाणिउ जाअतोनइ ", पांचइ इंद्री भोलविउ । आगइ श्रीजिनधर्म पाखइ, भवअनंता रोलविउ ||२|| हिव हूंअ घरि जई पुत्र राजइ ठवी, चारित्र, लेसिउंअ तिजीअ भोग। श्रीमती भइ तुम्ह साथि अम्हे लेइसिउ, संयम व्रत-तप तणा योग || // त्रुटक // इम योग करिवा भाव, आवीउ निज घरि राउ (त) ! निसि नीं( निं) द्र नावइ सेजि", राणीअ राज हेजि ।। राणीअ राजा मनिहि चिंतइ, किमइ दिनकर ऊगमइ । घर-वास छांडी लिउं चारित्र, माहरइ मनि इम गमइ ||३|| इम करी पुढि रायनई री ( रा ) णीय, पुत्र न जाणइ तेह परि । राजनु लोभीअ निसिभरि आवीय, विषधूम्र कीधउ सूयणघरे ||४| || लूटक ।। विषधूमनु थिउ व्याप, रायइं ते छांडिउ आप। दोइ जणा काल करंति, युगलीआं तिहाथी हुंति ।। युगलीआंथी काल करीनइ, हऊआ सोहम सुरवरा । आठमइ भव श्रीरिषभ जिनवर, थयां भोग भोगीसूरा || ।। ढाला-चंदनबालानु || || नवमउ भव सां[भ]लु ए ।। महाविदेह ए सखी क्षेत्र मझारि, वच्छ विजयधन कनकं भरी ए । प्रभंकरा ए पुरीअच्छ (छ) इ विशाल, केसव वैद्य तिहा कणि हउआ ए । मिलीया एतसु च्यारइ ए मित्र, रायसुत मंत्रीसुत श्रेष्टिपुत्र । चउथु ए सारथपति पुत्र, एकठा मिलइ ते वैद घरे 119 || // त्रूटक || वैदनइ घरि आविआ तव विहरता श्री मुनिवरा । कृमि कोढ सघलूं सइर" व्यापिउं, तोहि ऊषध नवि करा । For Private and Personal Use Only २५ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra २६ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सितम्बर २०१३ ते मित्र च्यारइ वैदनइँ कहई, लोक बहु धन खाधउ । पुण मुनि-यती (ति) नी सार कीजइ, एह माग न लाधउ ||२|| वैद कहई तो सांभलु ए, माहरइ ए नथी उसड" दोइ । रतनकंबल बावनचंदनूं ए. कोतीआएवणि” हाटि ते होइ तु ।। तेह च्यारि लेवा गया ए पूछइ ए. तस सेठि विचार ते कहइ साधु पडीगसिउं ए । करिसिउं ए सखी जनमपवित्त, आपणउं इम तारसिउं ए ||३|| // त्रुटक // तारसिउं एहवां वचन निसुणी, सेठि मनि आणंदिउ । ते मूलपाखइ" उसड देई, भाव भाविइं भावीउ ।। ते कुमरना बहुभाव देखी, वइरागिइं चारित्त लीउं 1 केवल पामी मुगति पहुता, सेठि भवसफलउ कीउ ||४|| // ढाल वडउ नेसालाउ ए || For Private and Personal Use Only - रिषिनुं... तु तेह पांचइ ए आवीआ ए वनमाहि साधुनइ पासि ||१|| त्रोड ए कर्मनी कोडि तु, पुण्यपोतइ भरइ ए ||२|| || द्रूपद || मर्दना दईअ तेलसिउं ए. काढीआ कोढना जीव || ३ || रतनकंबल सिर वींटीउ ए चंदन लगाडीउं अंगि ||४|| जीव अने ते परिठव्या ए, इम करिआ साधु नीरोग ||५|| साधुनु , धर्म पांचइ करी ए, छठउ श्रेयांसनु जीव ॥ ६॥ बारमइ कलपि ते सुर हउआ ए, दसमइ भवि जिणराय ए ।।७।। रिषिनुं... रिषिनुं... रिषिनुं ... रिषिनुं... // ढाल - आदनराय पहुतला जाम || इग्यारमइ भवि महाविदेहमांहि, पुंडरीकिणी नयरी तिहां ठाहि । वइरसेन नरवर राज करंति, जिनजीव वज्रनाभकुमर हवंति ||१|| बाहू सुबाहु पीढ महापीढ च्यारि, पूरव मित्र तसु बंधव च्यारि । वइरसेनराय ते अछइ जिणंद, चारित्र लि (ली) इ करी कुमरनरिंद ||२|| Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर - ३२ २७ वज्रनाभराजा राज्य करंता, चक्र ऊपन्नुअ षटखंड जीता। साधु वेयावच्चतणुं एह पुण्य, पांचइ बांधव ते विलसइ धन्य ||३|| सत्तरिलाख पूरव घरवासि, पछइ पिता तीर्थंकर पासि । पांचइ बांधव लीइ ए चारित्र, द्वादशांगी भणइ पहिलउ पुत्र ||४|! ४३ || ढाल-ऊलालु ।। वीसथानकवर सेवी, तप-जप बहुत करेवी! तीर्थकरपद बांधइ, इम ते आतम साधइ ||१|| बाहु वेयावच्च नित करइ, चक्रवर्ति पदवी ते धरइ । कितिकर्म करइ सुबाहु, बाहुबल बांधइ सो साहु ।।२।। पीढ-महापीढ दोइ, करइ अदेखाई५ सोइ। स्त्रीकर्म तेणइए बाधिउं, करिसं आपणुं अलाधउ६ ।।३।। छट्ठउ से(श्रे)यांसजें जीव, अनशन करीअ अतीव । हऊआ अनुत्तरि सुरवर, तिहां आयु तेत्रीससागर ||४|| ॥ ढाल-११ ।। जंबूअदीवह भरहखंडि, पर्वत वैताढ्य छइ नामू ए !! तेहथी दक्षिण दिसि भणी, सात कुलगर केरां ठामू ए 11१।। विमलवाहन पहिलुं हूयउ, चक्षुखेमा-जसवंत नामू ए। अभिचंद्र-प्रसेनजित सही, मरुदेवा छठो अभिरामू ए ॥१२॥ नाभि कुलगर छइ सातमु ए, मरुदवा तसु घरिनारी ए। रूपसोभागइय ए आगली, सीलवति अनइ सदाचारी ए !३!! वइरनाभ जीव ते सुर चवि, आसाढी चउथि अंधारी ए ! उत्तराषाढि नक्षत्रि थयइ, मरुदेवा कूक्षि अवतारी ए ||४|| माझिम५७ रयणी नी(नि)द्रभरि, देखइ सुपना दस-च्यारु ए। प्रभाति ऊठीअ प्रिय कन्हइ, पूछइ वरसपन विचारू ए ||५|| For Private and Personal Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २८ सितम्बर - २०१३ ।। ढाल-सोहलानुं ।। धवल ८ सबल सोहमणु रे, वृषभ पहिल दीठ [1] । ऊंचउ अंजनगिरि समु, बीजउ बीजउ गयवर दीठ तु ।। दीठां स्वामीमइं सुमिणडा ए, सुपना तणुं फल एह तु! गुणनिधि सुत तुम्हे जनमिसिउ ए, कुलगर कुलगर माहि प्रधान तु ||१|| दीठो स्वामी... सी(सिं)ह अतिहिं अबीह आवी, मुझ उच्छंगि° बईठ [तु। ला(ल)छि अति लि(ली)ला करंती, मुझ घर घर मांहि पईठ तु ||२] दीठां स्वामी... कुसुम परिमल महिमहंती, फूलमाला सार ति! अति सोम सी(शी)तल, अमिय झरतु छठउ छठउ चंद्र उदार तु ||३|| दीठां स्वामी... सहसकिरण अति दीपतु, सातमउ तेजिकमाल (तु । प्रासाद ऊपरि धजा लटकइ, ऊंचीय ऊंचीय अतिहिं विशाल तु ||४|| दीठां स्वामी... पुण्यना भंडार सरिखु, दीठउ पूरणकुंभ [तु|| पदमसरोवर उदकि भरिउ, कमलिई कमलिई करीअ सशोभतु ।।५।। दीठां स्वामी... अतिअ मानइ उदक भरिउ, दीठउ सागरखीर [तु] 1 सुरविमानइ तिहां पधारिउ, छांडिय छांडिय ते निज थाहार" तु ।१६ ! ! दीठां स्वामी... अति अमूलिक रतननी रे, रासि तेजि विराज [तु। अगनिजाल करंतु देखी, जागीय जागीय कंत हुं आज तु || ७ !! दीठां स्वामी... For Private and Personal Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रुतसागर - ३२ www.kobatirth.org || ढाल - जिसउ मनोरथनु || शुभदिवसइ सुत जनमीउ मांडीइं, चईत्र अंधारा ए पक्षमाहि । आठमि दिवस धन रासि (शी) शसि आवीउ, सीत समीरण वाउईउ ए ||१|| Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जनमकालिई सहू त्रिभुवन सुखी थयउ, नाभिकुलगर मनि हरखीया ए । आसन कंपइ ए दिसाकुमारिनुं, अवधिज्ञानि जिन निरखीया ए || ३* || छपनकुमारी एकठी मिलियनइ, आवइ ए जनमधरि उल्हसी ए । माइ पाए लागी अनुमति मागीअ, सूतिकरम करइ धसमसीअ ||४| नाड़ीअ-धोई अंग पक्खा (क्षा ) लीअ, वस्त्र - आभरण पहिरावीआ ए । सेजि पासइ ते सघलीअ बइसइ ए, धवलमंगलगीत गाईआ ए ||५|| || ढाल घोडीनी || || एक तेजणी घोडीए || माइ धन्न सपुण्य तूं, धन जीवी तोरी आज । तइं सकल सोभागी, जनम्या श्री जिनराज ||१|| चिरजीवउ ताहरु नान्हडीउ, त्रिभुवनकेरउ राय । प्रतपुर ताहरु बालू अड्डु, सुरनर सेवइ पाय ।। ३* || || द्रूपद || बीहारी ताहरी कूखडली, बलीहारी तारो वंस (श) 1 जिहां जगपरमेसर, अवतरीआ रायहंस ||४|| एह कुल तणु दीठु, तइ कुलि कलस चडाव्यु । एह तुझ कुलमंडण, जगजनतारण आव्यु ॥ १५ ॥ सुर-असुरनइ किंनर, विद्याधरनी कोडि । एहनूं सहू किंकर, पाइ पडइ करजोडि ||६|| २९ For Private and Personal Use Only चिरजीवउ... चिरजीवउ... चिरजीवउ... चिरजीवउ... प्रतिलेखक द्वारा अहीं कडी क्रमांक नंबर २ आपवानुं रही गयेल छे. परंतु अत्रे सुधारो करेल छे. Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३० सितम्बर - २०१३ शतशाखा पसरु, एह तणउ परिवार। इम धवलमंगल गाइ. बइठी छपनकुमारि |७|| चिरजीवउ... || ढाल-पूरी रे एनुती यशोमती ए || हऊउ आसनकंप, सुरपति मनि कोपिइं चडिउ ए। जाणिउ जनम जिणंद, को ए सयल तव उपसमिउ ए |191! हरखिउ सोहमइंद्र, सीघासणथी ऊठीआ ए। दोइ करज्योडी सार, करइ शक्रस्तव उल्हसीय {२|| जनम महोत्सव काजि, हरणगमेषीह कारीउ ए। मेली सुरनी कोडि, घंटनु नाद टंकारीउ ए ||३|| पालक विमानि बइ[ठा] सवि, नाभितणइ घरि आवीआ ए। मरुदेवी पाए लगेवि इंद्र, करइ अऊआरणा५ ए ||४|| पंचरूप करी सार, मेरुस(शि)खि(ख)रि लेई चालीआ ए। तिहां मिलीआ इंद्र करेइ, जनममहोत्सव रंगसिउं ए ||५|| घणा ठामना नीर, कमलपुष्पनइ चंदन ए। सरसिव ऊषधी(धि) जाति, स्नात्रइ कारणि आणीया ए ।।६।। आठ सहस चउसट्टि, कलस करइ सुरपति सहू ए। पूजी प्रणमी देव नाटक, नाचइ सुर बहु ए ।।७।। ।। ढाल-झमझमका पाए घण घूघरी ।। || श्री पार्श्वनाथना वीवाहलानी ।। ईशानइंद्र खोलइ लीइ तव, स्नात्र करइ सौधर्म रे। वृषभच्यारिना श्रृंगथी'६, तिहां घार आठy मर्म रे ।।१।। नाचइ इंद्र आनंदसिउ, इंद्राणी गावइ गीत रे। दिइ आसीस ते रूअडी, चिरजीवि तूं नाभिना पूत्र रे 1।२।। तिहां नादिइ अंबर गाजी(जि)आ, नइ भेरीनु भा(भों)कार रे। ति वल(वेला) दमामा वाजीआ, वली मादलनुं धोकार रे ||३|| For Private and Personal Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३१ श्रुतसागर - ३२ इम जनम सफल करी आपणउ, लेई चाल्या श्री जिनराज रे। माता पासइ थापीया, इम कीधा उच्छवकाज रे ।।४।। नंदीसरि यात्रा करी, पहुता निज-निज ठामि रे। जगजनना मन मोहतु इम, वाधइ रिषभजिन स्वामि रे ।।५।। ।। ढाल-घोडीनु ।। ।। मूलतानथी घोडी आवी ।। प्रभु वाधइ ए सुरतरु सरिखा, मरुदेवी-नाभि ते हरख्या। प्रभु आवीअ चडइ उच्छंगि. माइन(y) मन रेलइ रंगि ।।१।। ॥ टक ॥ रंग रमतु आंगिणि चालइ, कमलनयण जिणंदू ए। वणि अमृतवाणि करतु, जिसउ पूनिमचंदू(दु) ए ।। सकल सुरवर-असुर किंनर, मिलीअ आवइ इंदू(द्र) ए। करइ क्रीडा ऋषभ सरसिउं°, ओलगइ नागिंदू ए ||२|| अवसरि सोहमपति आवइ, सेलडीअ सरस एक ल्यावइ। पूछइ स्वामी ए तुम्ह भावइ. ते सेलडीअ स्वामी करि ठावइ ।।३।। करि सेलडी देई वंस थापिउ, नाम तसु इक्खागु ए| सबल पसरिउ पुहविमंडलि, आज लगेइ सोभागू ए ||४* ।। पांचसइ धनुष शरीर, देह सोवनवर्ण सधीर। लक्षण दससइ आठ रसाल, लंछनि वृषभ उत्तंग विसाल ।।५।। उत्तंग सरल विशाल नासा, केस काजलवयूँ ए। धवलदंत सुपंति सोहइ, जिसा शशिकर किरणू ए 1६11 निलवट्टि पंचगुलि प्रमाणी, अर्द्धचंद्र निलाडू ए। गजराज गति चालतउ जिणवर, नहीअ केहनइ पाडू ए ७|| जिनवर आहार-नी(नि)हार करंता, नवि कोई देखइ सुरनरवरता। जिनना स्वास-ऊसास सुगंध रे, जेहवा उतपलकमलना गंध रे !८!! * प्रतिलेखक द्वारा कडी क्रमांक ४ नो उल्लेख बे वार थयेल होदाथी अत्रे सुधारो करेल For Private and Personal Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३२ सितम्बर - २०१३ ||Qटक ॥ कमलउतपलगंध६३ सरिखा, रुधिरमांस सइर तणा। गाई दूध समान उज्व(ज्ज)ल, इसा अतिशय छइ घणा 11 अनंतगुणमणिरोहणाचल, रुपि मयण विशेषिइ। ते धन दिवस घडी अनोपम, जीणइ नयणे देखीइ 11८।। योवनभरि श्रीऋषभ आव्या, रूपइ सोहगसुंदरू! सकललक्षमी(क्ष्मी) तणुं सागर, वंछितदायक सुरतरु ||५|| ॥ ढाल-जाननु ।। वीवाह अवसरि कंपीउ रे, आसन इंद्र, ताम। देव-देवी सवि मिल्यां रे, कांई करवा रे वीवाहनुं काम। जिहां अठइ रिषभ जिन स्वामि, रूडी नयरी अयोध्या ठामि ।।१।। सुरासुर आवइ... भुवन-व्यंतर-योतिषी रे, वैमानिकनी कोडि | सामानिक अंगरक्षक मिलीआ, कांई आवइ निज रथि जोडि ।।२।। सुरासुर आवइ... इंद्र बोलइ अम्हे करिसिउं, वीवाह जिननु आज। इंद्राणी कहइ अम्हे करिसिउं, काई कन्यानुं वीवाह काज ।।३।। सुरासुर आवइ... रयण-सोवनजडित्त मंडप, चंद्रूआ४ चउसाल] ठामि-ठामिइं पूतली, जाणे मयण तणी हीइआलि ।।४।। सुरासुर आवइ... इस्या मंडप तिहां रच्या रे, मांडीउ वीवाह। जोउ समकित करइ निरमल, कांई इंद्राणीनउ नाह ।।५।। सुरासुर आवइ... For Private and Personal Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर • ३२ ३३ || ढाल-जम्हणान ।। सिंघासणि थापेवि, मणि-माणिक जडी ए। रिषभनइ नव्हण करावइ, सुरपति हरखस्यु ए ।। मर्दन देई अंगि, सुगंधतेलसिउं ए।। तेल आणी लक्षपाक, चंदन अगरनूं ए ।। जिन ऊपरी धरी राग, सुरासुर आवइ सर्व मिलइ !२|| रत्ननी रासि रूडी, सिरिसूं ए भरावइ। कानि कुंडल पहिरावइ, सुरासुर आवइ सर्व मिलइ ||३|| उरि एकाउलि६ ए, बाहइ अंगद६८ सारा। मूंद्रडी हाथि पहिरावउ, सुरासुर आवइ सर्व मिलइ ||४|| इम आभरण सारे, सवि अंग सोहावइ । सेवइ मन आणंदि, सुरासुर आवइ सर्व मिलइ ।।५।। || ढाल-ऊलालु ।। कुंकुम तिलक सिरि करीआ. नयणां काजलि भरिआ। चूआ-चंदन अंगि लाया, ऊगटि-ऊगटाणा कराया 11१!! चंपक जूबीनइ जाइ, लाल गुलाल(ब) मिलाइ। कीधा नवरंग टोडर, कंठ कंदलि ठवइ सुरवर ||२|| मरुदेवी हरख न माइ, उच्छवपूर प्रवाहइ। मिलीआ गयंगणि३ देवा, चालइ ऋषभ परणेवा ।।३।। ॥ ढाल-वर चडवाबु ।। हाथ जोडअ पाए लागीअ, सुरपति कीधउ गजराउ। खंधि चडीअ तस चालिआ. सुरनरसिउं जिनराउ ।।१।। मेघाडंबर सिरि वरि, धरीयलुं छत्र विसालो। बिहुं पखि चामर ढलकइ ए, गाइं गीत रसालो ||२|| लूण ऊतारइ ए व्यंतरी, योतिषी केरीय नारिउ। हयदल-गयदल सवि मिली, आव्या इंद्राणीअ बारिउ |१३।। For Private and Personal Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ३४ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir || ढाल जलहीनु // इंद्र कहइ इंद्राणीअ, वेग लइ बाहिरि आवु । अम्ह ऊभा घणीवार थई, काई तुम्हे विलंब करावु ||१|| तोरणि आव्या वरराय, मोतीयाथाल वधावु । आघउ दिउ अरहंतनइ, आरण करण करावु ||२|| ता इंद्राणी धसमसी, वेगि लइ बाहिरि पुहुता । सोवनकरवी नीर भरी, लेई आवइ गहगहता ||३|| // ढाल आघो दिइ || सितम्बर २०१३ आघो दिइ राणीय इंद्रनी, जिनवर केरइ हाथि । आघो दिइ ऊलट सवि मिली, देवीअ कोडो - कोडि ||१|| आघो दिइ बाहु लोडावती, करवीअ लेईअ सारो । आघो दिइ उत्तरनइ दक्षण, करि लूणऊतार तइ वारो ||२|| || ढाल - वडउ नेसालीउ ए ।। तोरणि जिणवर पुखी ( ख ) या ए, घटि जहलइ करी साहि ( ? ) 119|| इंद्राणी जिण ताणीया ए. आणीआ माहिरा माहि त्रिभुवन सहु हरखीउ ए ||२|| पाए सराव भंजावीजं ए, बइठा मंडप हेठि । इंद्राणी - इंद्र ब्राह्मणनइ रूपि थया ए. साधी लगननी वार । हाथमेलावडुं तिहां हऊउ ए, मरुदेवी हरख अपार ||३|| धवलमंगल गाइ अपच्छरा ए. सांभलइ देव असंख ||४|| || ढाल - घोडीनु || || एक धन-धन रे घोडलडी || एक धन-धन रे माडीनी कूख, जिणइ एहवर जायु । जिण - जिण वलइ रे सुणु सहीअर, बहिन तु जगत्त उच्छाहिउ ||१|| For Private and Personal Use Only एक धन-धन रे श्रीनाभिनरिंद, जस घरि एह आयु | जिणि आविइ आविइ रे, धन- कनकह कोडि मंदिर भरायु ॥२॥ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३५ श्रुतसागर • ३२ एक धन-धन रे सुमंगला-सुनंदा, जेणइ एह वर वरीउ। जेणइ परणतइ रे अम्ह मनह, मनोरथ सफलां ए फलीउ !!३।। एक धन-धन रे अयोध्या ठामि, जिहां ए उच्छराण। जिणइ उच्छवि अम्ह सरीआ काज, अनइ जनमप्रमाण ४|| । ढाल-नीमालईए । देव नीमी ठामे करी निमालइ ए, बांधीअ चोरीअ सार। बिहुल जिनवर तिहां बइसारीया ए नीमालइ ए, दक्षण पासइ ए नारि ||१|| पहिलूलु)अमंगलो वरतीइ ए नीमालइ ए. वर-वहू चउरीअमाहि। सोवनकांति सोहामणु ए नीमालइ ए, धनुषसइ पांच सरीर ||२|| बीजूअमंगल वरतीइ ए नीमालइ ए, परणइ रिषभ जिनराज ||३|| दा(दांत जिसा दाडिमकुली ए नीमालइ ए, गजगतिरूप उदार 11४11 त्रीजउमंगल वरतीइ ए नीमालइ ए. पासइ सुमंगला नारिं ।।५।। रूपि जिसी सुरसुंदरी ए नीमालइ ए, सीलसोभागिणि(णी) सार ।।६।। चउथउमंगल वरतीइ ए नीमालइ ए. परणी सुनंदा रंगि 1७1} हंस हरावइ हीडती ए नीमालइ ए, जाणइ अपच्छरा अंगि 11८11 च्यारइमंगल वरतीयां ए नीमालइ ए, इंद्र ते प(पु)रोहित वेसि ।।९।। सुनंदा-सुमंगला थापीया ए नीमालइ ए. जिन तणइ डावइ पासि ।।१०।। ॥ ढाल-वइरसेन व्रतलीउए ।। अगनिनइ दिइ प्रदक्षणा ए, इंद्र मागइ जिन कह्नइ दक्ष(क्षिणा ए ।।१।। तिहां स्वामीइ अविहड धन दीउं ए, श्रीसमकित निर्मल सुरि कीउं ए ||२|| सुरवर सहू थया साखीया ए, वर-वहूअ सहित जब निरखीया ए ।।३।। इंद्र कंसार मंगावीउ ए, इंद्राणी वेगइ आणीउ ए ||४|| For Private and Personal Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ३६ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुरनर - किंनर इम भणइ, धन ए नारि रतन्न । जेणइ ए एह वर पामीउ, त्रिभुवननायक जिन्न ॥२॥ || ढाल - कंसार // जिन आगलि थाल अणावीउं, ते सोवन रतन जडावीउ ||१|| साकर घी मोदक मेलीइ, माहि घणुं अमृत भेलीइ ||२|| कंसार कपूरनं वासीइ, वर आगलि थाल ते मेल्हीइ ||३|| इंद्राणी बोलइ हरखसिउं, जिमु सुनंदा - सुमंगला युगादिसिउं ||४|| इंद्र कंसार अभिमंत्रीउ, श्रीऋषभ जिणंद पवित्रीउ ||५|| तिहां इंद्रनी डाढडी आगलइ, सुर-किंनर सहू जोवा मिलइ ||६|| इम इंद्रिइ जिन परिणावीआ, दोई कन्या लई घरि चालीआ | १७ | || ढाल चंदलानु || चांदलु सोभ [इ] ए पूनिमि, जेहवु आसो मासि । तिम जिनवर दोइ नारिसिउं, आवइ निजआवासि ||१|| मरुदेवी हरखिइं गहबरी, आवी आंगण बारि । आछण" पाणी छंडावती, लूण ऊतारइ ए सार ||३|| नाभि कुलगर रंगि ऊठीआ, दिइ आलींगण पुत्र ! हरखि उच्छंगि बइसारीआ, श्रीजिनऋषभ पवित्र ||४|| पंच विषयसुख भोगवइ. पूरइ सजननी आस । सकललोक उलग करइ, स्वामी लीलविलास ||५|| || ढाल घोडीउ ।। सितम्बर २०१३ For Private and Personal Use Only . एक दिनि युगलीया बोलइ रे, प्रभु कोइ नही तुम्ह बोलइ रे ||१|| तुम्हे लिउ राजउ भार रे, जिम अम्हे टलु निरधार रे ||२|| तु कहइ स्वामी विनीत रे, राजि ठवु नाभितात रे || ३ || तु ते नाभिनइ याच रे, नाभि कहइ निजवच्छ रे ।।४।। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 3७ श्रुतसागर - ३२ हुँ थिउ वृद्धअपार रे, रिषभ यौवनकुमार रे ।।५।। राजि ठवु तुम्हे जाई रे, आव्या ते सज थाई रे ।।६।। उदकनइ कारणि पुहुता रे, कमलदले संजुत्ता रे । 10 | ! अवसरिइं तिहा आवइ रे, जिननइ राजि बइसारइ रे ।।८।। मस्तकि मुकुट पहिरावइ रे, आभरणे अंग भरावइ रे ।।९।। मस्तकि धरीयलां छत्र रे, बिहुँ पखि च(चा)मर पवित्र रे ।।१०।। युगलीआ उदक लेई आवइ रे, प्रभुनई अंगूठइ नहवरावइ रे ।।११।। देखी अतिहि विनीत रे, हरषिउं इंद्रनुं ची(चि)त रे ।।१२।। विनीतानयरीय थापीय रे, चतुरंगिणीसेना आपी रे ||१३ ।। सुरपति कीधउ काज रे, जिनराय भोगवइ राज रे ।।१४।। || ढाल-३१।। इम छ लाखपूरव सार, राज भोगवइ गुण भंडार ||१|| तव बाहु पीढ तणा जंतु, सर्वारथ विमान हुंत ।।२।। सुमंगला कूखि अवतार, हऊआ ब्राह्मीअ भरथ(त)कुमार महापीढ सुबाहु दोइ. सुंदरी बाहूबलि होइ ||३|| अट्ठाणूं(गुं) पुत्र अनेरा वली, मात सुमंगला केरा ! शमशाखा इम परिवार, पसरिउ श्रीनाभिमल्हार |३|! इम पालइ नीतिइ राज, टालइ युगलधर्मना काज। ऊपाया श(शिल्प ते सोई, वडां पांच ते माहि जोई ।।४।। इम पुरव त्रिआसीलाख, घरवासि रह्या शतशाख । हिव चारित्र अवसर जाणइ. मनि संयमभावनुं आणइ ।।५।। ॥ ढाल-३२ ।। अवसर जाणी इंद्रिइ जिनदीक्षा तणु, भंडारी बोलावी(वि)उ ए| सांभलि तूं महाभाग दानसंवत्सर, देवा अवसर आवीउ ए |1911 For Private and Personal Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ३८ www.kobatirth.org लेई सोवनकोडि श्रीजिनमंदिरि मुंकु, वेगि उतावला ए । तेह सुणी आनंदि रोमांचइ घणुं, भंडारी वाधइ कला ए ||२|| त्रिणिसइकोडि सुवर्णकोडि अठ्यासीय, लाख असी संख्या सुणीय । जिन घरि मुंकइ तेह पाए लागीय, जाइ देवलोक भणीअ ||३|| जिनवर दिइ नितु दान मानवनइ, वर वर वरज्यो जे जोईइ ए । करण कीधा लोक सहू सुखी थयुं, दुख-दारिद्र दूरिइ गया ए ||४|| तु लोकांतिकदेव आवई तिहां कणि, जिन पाए लागी इम कहइ ए । त्रिभुवन केरा नाथ धर्म प्रवर्त्तावउ, लोक सहूनइ तारिवा ए ||५|| एह अयोध्यानुं राज, भरहेसर तुम्हे करु ए । बहुलीअ मंडलदेसनुं, बाहुबलि तुम्हे धरु ए पुत्र अट्टाणुंनइ दीधा तु, देस ते झूझूआ " ए ।। करयो राजनो सार तु, तुम्हे हिवि मूंगया ए ||१|| Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बूझि - बूझि भगवंत छांडि, विषमभोग ए संसारवधारणा ए ! इम कही गया निजठामि तु ते, जिनवर निजसुतनइ सिष्यादीइ ए ||६| || ढाल -मउडनी ।। न्याइ पालयो राज तु. कुल अजूआलज्यो ए । करयो देसनी रक्षा तु, लोकनइं पालयो ए ||२| इम देई सीख ते सार तु, जगहितकारणी ए। दीक्षा मन आणेइ तु भवजलतारणी ए 11३ ॥ ॥ सुरवर - किंनर कोडि तु ततक्षणि तिहां मिली ए करइ चारित्र उच्छव तु, पूरइ मनरली ए ।।४।। श (शि) बिका ऊपाडइ इंद्र तु, भगतइ उहलसी ए । सिद्धारथवनमाहि तु, आवइ अतिहसी ए ||५|| सितम्बर २०१३ दोइ करी उपवास तु, चारित्र ऊचरइ ए । च्यारिसहस मुनि साथि तु, संयमसिरी वरइ ए ||६|| विहरइ घर पुरि गामि तु, चालतु सुरतरू ए ! जेणइ दीठा नाह तु, धन ते नारी-नरु ए ||७|| For Private and Personal Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रुतसागर - ३२ www.kobatirth.org || ढाल घोडीनी ।। जस घरि जाइ विहरता, सोइ आणइ हरख अपार ||१|| रिषभ घरि आवइ छइ ए तु नाभिनरिंदकुलमंडणु । माता मरुदेवी उरि धरी आइ ||२|| Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कोइ घोडा कोइ पालकी (ख), भेट करइ आनंदि । मणि - माणिक मोती तणा, कोइ रतने भरीया थाल ||३|| भद्रजाति कहाथी लेई, कोई राजा ढोइ रंगि ||४|| कोइ निजपुत्री वल्लही" दिइ कन्यानूं (नु) दान रे !|५|| पुण नवि कोई दिइ सूजता, फासू अन्ननइ-पान || ६ || पुहता गजपुरि विहरता, तिहां देखइ श्रेयांसकुमार ||७|| त्रिहु जणे सुपना देखीया, तेणइ कीधा सुपनविचार रे ||८|| जाती (ति) समरण सांभरइ तिहां, दसभवतणउ सनेह | १९ ।। फासूअरस विहरावीआ, इम वरसिहं पाम्युं आहार ||१०|| पांचदिव्य तिहां कणि ह ( हु )वां, सुर जय-जय सबद जपंति || ढाल -कुंकुछडानी // चंदनि छडउ" देवारइ" ए, भुइ" सूधी" करइ ए । रतनमइ पीठ बंधावर तु, सोवनमणिधरी ए ||१|| दिन प्रति पूजइ पीठ तु, भोजन तु करइ ए । मोतीचउक पूरावइ ए, ऊगटि‍ छांटना ए ॥२॥ For Private and Personal Use Only रिषभ घरि ... जिहां ऊभा करिउं पारणउं, तिहां कुमरनइ ऊपनी भगति ||१२|| ३९ रिषभ घरि ... रिषभ घरि ... रिषभ घरि .... रिषभ घरि ... रिषभ घरि ... रिषभ घरि ... रिषभ घरि ... रिषभ घरि ... ||११|| रिषभ घरि ... रिषभ घरि ... Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ४० www.kobatirth.org जाई जुई चंपक तणी, सार माला रची ए । पूजइ ए परमआनंद तु, मनवचनिइं सु(शु)ची ए ||३|| जिणवर विहरता जाइ तु, तक्षश (शि) लापुरी ए । सांझ (ज) समइ वनपालि तु दीधी वधामणी ए || ४ || बलवंत बाहुबलि रायनइ, जईअ वद्धावीआ ए । स्वामी रुषभ जिणेसरो, वनमाहि आवीया ए ||५|| Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir || ढाल सांजीनु // माहरु तातपन (ण) उ तु ए, पुण्यइ आगलु” ए । छांडीय घरनी रे लक्षमी, संजमसिरीवरिउ ए ।।१।। लेई सुभटनी रिद्धि, प्रभातिइ वांदिवु ए । चालीउ ऊगतइ सूरि, मोटइ भंडाणसुं ए | २| प्रभाति प्रभु ग्या अनेथि तु, पुण्य विण किहां मिलइ ए । राय न देख तात ए, वियोगिइं दुख धरइ ए ||३|| पूछइ ए पंथीय वात, तात दीठा किहां ए । रांक तइ करि रतन, कहु किहांथी रहइ ए || ४ || ताति दूहवण आणी, वीआलि" न वांदीआ ए । इम विलंवंता ए अतिघणुं, प्रधानिइं वारीया ए || ५ || धर्मवरचक्र करुं ताम तु, तातनी भगतिस्युं ए । घर गया भोगवइ राज तु, बहुलीय देस तु ए ||६|| || ढाल-कली ॥ वरस सहस इम विहरीया ए, स्वामीअ देस - विदेसि । नयरि पुरि रूअडइ ए, जंगम तीरथसार जगत्रनई वालहु ए ।। धन-धन ते नरनारि, विहरतु जेणइ देखीउ ए । भूमिका तेहजि धन्य जिहा, पग तणी रज पडी ए ।।१।। पडी पाए जेणई वांद्या, तेह सुरवर धन्नू ए । श्रीनाभिनंदन दुरितखंडण, जगत्तमंडण जिन्नू ए ||२|| For Private and Personal Use Only सितम्बर २०१३ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर - ३२ जगत्तमंडण जिन विहरता ए, आव्या पुरिमताल । नयरि अयोध्या पासइ जिहां ए, शकटमुखइ उद्यानि ।। निग्रोधवृक्ष तलइ ए, ऊगतइ सूरि निरमलु केवल पामीउं ए। आवी सुरवर कोडि तिहां करइ महोछवू ए || ३ || महोच्छवनी कोडि करतां समोसरण रचावइ ए । + हवइ सांभलु मरुदेवि माता, वांदिवा जिम आवइ ए ||४|| || ढाल करवा रावणनानी // // राग सामेरी || रिषभ दीक्षा लीइ जव लगइ मातामरुदेवी दुख करइ तव लगइ | झूरइ ए, आणी मनि अंदोहड " ए, भरथनइ दीइ उलंभडा । तुज धिगहउ राज वालूअडा, रूडा रे रिषभ केरी शुद्धि नही ए ||१|| // त्रूटक // शुद्धि नही माहरा रिषभ केरी, न जाणउं किहां कणिअच्छइ । एह दुख थकी मुज मरण आवइ, करिसि पछि (छ) तावु ए छइ || जेहनुं दर्शन देवदुर्लभ पामता मझ घर छतां ते रुषभ माहरु किम करइ छइ । न जाणउं वनि हीडतां, तुं देवनइ कीधे अवासे सूइ सुखनिद्रा करी | रुषभ सूनेदेउले समशानि सूइ संथरी, तूं देव ने (नी) मी (मि) आहारलिइ । नितु पुत्र भिक्षा हींड ए हिवइ दीजीइ केहनइं, दूषण कर्म जिहां जिहांइं पडिहिडइ || रिषभनइ घरि तुज्झ समु सुत, इसिउ अविनयमंदिरू । रिषभनी तूं सि(शु) द्धि न करइ, सांभलि रे भरथेसरू ||२|| भरथ भगइ सुणि मात ए, करजोडी जेह कहुं बात ए । तात अमारु त्रिभुवन जाणीइ ए. सुरनर सेवक तस सहू ।। तेहनी लीलाछइ अतिबहू, लहू (हु) अडउ त्रिभुवनमाहि वखाणीइ ए || ३ | ४१ वक्खाणीइ जस नाम लीधइ, पाप जाई भवतणां । दर्शनि दुर्गति थकी छूटइ, कर्म त्रूटडइ भवतणां || दिन थोडिलामांहि हूं दिखाडिस, रिद्धि ताहरा पुत्रनी । इम वरस सहस गया जि (जी) वारइं, आवी ताम वधामणी ||४|| For Private and Personal Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४२ सितम्बर - २०१३ भगवंत केवलज्ञान पाम्या, भरथनइ वद्धाव ए। ते सुणी भरथनरेसरू, मरुदेव पासइ आवइ ए 11 वधामणी दिउ मात मझनइं, रुषभ जिनवर आवीआ। माइ ऊठी हरखसिउं, निजपुत्र जोवा भावीआ 11 गयवर खंधि चडी पधारइ, सकलदलसारथिं थया। मारगिइ हरखिइं केवल पामी, मातजी मुगतिइं गया 11४|| ढाल-सोभागि रणानु।। भरथनरेश्वर आवीआ समोसरणि । त्रिणि गढ देखइ रूअडा समोसरणि ।।१।। मूरति च्यारि सोहामणी समोसरणि । चिहुं पखि बइठा जिनवर समोसरणि 1|२|| मस्तकि छत्र त्रय भलां समोसरणि । बिहुं पखि च(चा)मर सदा ढलइ समोसरणि । ३ ।। सिरि वृक्ष अशोक ते सुंदरू समोसरणि। बार परषद देसना सुणइ समोसरणि ||४|| तिहां वांदइ रिषभजी तातनइं समोसरणि। जिनवर तिहा देसन दीइ समोसरणि ||५|| वाणी योजनगामिणी समोसरणि। त्रिभो(भुवनना संस(श)य हरइ समोसरणि ||६|| पुंडरीक गणधर थया समोसरणि । ब्राह्मी संयम आदरइ समोसरणि ||७|| पांचसइ कुमर चारित्र लीयइ समोसरणि । भरथ श्रावक सुंदरि श्राविका समोसरणि ||८|| इम संघ चतुर्विध थापीउ समोसरणि । त्रिपदी सूत्र ते उपदिसइं समोसरणि ।।९।। भरथ तु निज घरि आवीया समोसरणि । स्वामी विहार क्रम करइ समोसरणि 11१०11 For Private and Personal Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर - ३२ ४३ ढाल-४०11 चक्र उपअ षटखंड साधी, राजनी लीला भरथइ लाधी 11१।। भाइ अट्ठाणुं आण मंगावइ, ते ते वलतुं कहण कहावइ २!! तातिइं दीधउं अम्हनई राज, अम्हे नही करूं तुम्हारं काज ।।३।। वली अम्हे पूछिसि तात सुजाण, ज्यु कहस्यइ तु मानसिउं आण 11४11 नही तु अम्हे झूझ करेसिउं, ताहरु राज अम्हे लेसिउं ||५|| अम्हे-तम्हे एक ज तातना पूत्र, अम्ह-तम्ह सरिखुंअछइ घरसूत्र 11६ || अवसरि रिषभ अष्टापदि आवइ, पुत्र अट्ठाणूं ते वांदिवा जावइ । ७ !! वांदी पूछइ भरथनी वात तु, वलतुं कहइ रिषभजी तात ||८|] ढाल-४१॥ एह भवि भमतां बहु परि, लाधा छइ भोग | बहु परिनइ लाधा ए, सुख अतिघणां ।। तुहि पुणि तृपता तेणइ, सुखि न थया जो आजस्यउ । इण सुखि किम होसिउ, ए(इ)णइं भवि किम सुखी ए ||१|| किम सुखी होसिउ विषयसुखथी, तृपति नहीय निरंतरू] अंगार दाहकतणउ उपनय, दाखवइ श्री जिनवरू 11 ते सयल सुत प्रतिबोध पाम्या, लीइ चारित्र मनोहरू। बहु तप तपतां कर्म खपतां, हऊआ केवलश्रीवरू ।।२।। एक दिनि बाहूबलि, रायनइ मनावइ तु। आण वलतुं कहावइ सपराणो, अम्हे सुत रिष[भ]ना ए ।। आगइ तुम्हे बांधव राज, छंडाव्या पछइ निज काज] तेह दुख मझनई अछइ, आजमनमाहि अतिघणुं ए ।।३।। अतिघणु कटक तु मेली, आवइ भरथ तक्षशलापुरी। तिहां भरथ भागु जयपताका, बाहूबलि लाभइ खरी ।। For Private and Personal Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ४४ www.kobatirth.org वैराग्य पामी लीइ दीक्षा, अभिमानिइं तिहां काउसगि रहइ । बहु सहइ उपसरग वरस ताई, तुहइ केवल नवि लहइ ||४|| || ढाल - झूहलानी || अभिमानि केवल नवि लहइ ए, स्वामी जाणइ न्यानि । ब्राह्मी-सुंदरि मोकल्यां ते बोलइ ए बोलइ ए मधुरीअ वाणि तु || वीरा तुम्हे गज थकी ऊतरु ए, गज चड्यां केवल न होइ तु 119 तु वीरा तुम्हे... इम विमासतां ऊपनूं ए, अभिमान ते गज जाणिउ । वांदिवा पग ऊपाडइ ए, तव वरीयउ वरीयउ केवलनाण Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इम वचन निसुणी बहिनना रे, चींतवइ मुनिराय तु । हूं रहिउ काउसगि इहां किहां गज, अलीअ" कि अलीअ की न बोलइ ताय ||२|| तु वीरा तुम्हे... ||ढाल H-hellej || इम बहु लोकनइ तारी, मोहमहाभडवारी । अष्टापदगिरि आवइ, कनककमल पद ठावइ ||५|| सितम्बर २०१३ जई समोसरणि जिनेद्रनइ ए, दिझं त्रि-प्रदक्षण सार 1 भगवंत विहरइ पुहवीमंडलि, त्रिभुवनतणु आधार तु ||४|| तिहां लिइ अनशनसार, साथि बहू परिवार । साधु सहसदस चंग, करइ संथारउ रंगि ||६|| ध्यानि गुणश्रेणि पामी, मुगति पुहता ए स्वामी । अचल अमल अजरामर, टाली भवनी परंपर 1७1 For Private and Personal Use Only · अनंतज्ञाननइ दर्शन अनंत, सुखबल नही मत्त | परमयो (ज्यो) तितणउ आगर, गुणमणिरोहणभूधर ||८|| ||३|| तु वीरा तुम्हे.... तु वीरा तुम्हे.... Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रुतसागर - ३२ www.kobatirth.org इसिउं शास्वत पद पावइ, गिरिवरशृंगअ द्वावइ । सुरवर मिलीअ महोत्सव, करइ कल्याणिक उत्सव ||९|| जाइ निज निज ठामि लिइ नितु ताहरूंअ नाम | नामिदं पातक जाई, पुण्यपवित्त नित थाइ ||१०|| || ढाल घोडीनु // " इम श्री रिसहेसर, गायु पुण्यपवित्त । एह तेर भवंतर, केरुं मूल चरित || हिव दोइ करजोडी, करूं वीनती आज । तू निसुणि कृपापर, स्वामी श्रीजिनराज ।। तुज स्तवन करीनइ, नवि मागुं राज - रिद्ध । नवि मागुं सुरसुख, वली न मागुं सिद्धि ।। हुं एतलुं मागं कृपा करी दिउ मज्झ । भवि-भवि वली गाऊं, गुणि गरूआ हुं तुज्झ ||१|| Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एह धवल करता, आण विराधी जेह | मझ मिच्छादुक्कड, तिहां कण नही संदेह || भलई नरभव लाधु, भलई लाधु जिनधर्म । तुज पाइ सेवतां, त्रूटइ सघला कर्म ||२| || काव्य || इम नाभिनंदन, दुरितखंडण, जगत्तमंडण जिनवरो । मइ गुरुतणउ, सुपसाउ पामी, गाइआ जगहितकरो || एह धवल गाई, जिन आराहइ, जेह नर-नारी सदा । ते मुगति जाइ, सुखी थाइ, बोलइ सेवक इम मुदा ॥ For Private and Personal Use Only ४५ ।। इति श्रीरुषभ वीवाहलु समाप्तमिति || ।। लिखितं च श्री लाभपुरपुरे सं. शशिकलाकलितविदयद्धेविदिता पौष मास शुक्ल प्रतिपदि गुरुवारे श्रा० लाडां पठन कृते स्वपुण्यपुण्यार्थम् || शुभं भवतु श्रीमद्देवगुरुप्रसत्ते श्री कल्याणस्तु श्रीः श्रीः श्रीः ।। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४६ १. आनंदित थर्बु २. सहाय ३. ज्यारे ४. त्यारे ५. वनस्पतिनी फूटी निकळवू ६. खपे नहीं एवं ७. जीव रहित ८. विचारीने ९. सूर्योदय थयो १०. स्वभाव रौद्र होवू ११. विक्षेप पाडवो १२. हा हा १३. आळस १४. आशक्त १५. हितवचन १६. निर्यामणा करावनार (?) १७. थया १८. स्मरण थयुं १९. द्रढ निर्धार २०. मौन रहे २१. धाव माता २२. चित्रनो कागळ के पडदो २३. पूर्वभवनी जीवन कथनी २४. पक्ष २५. चंद्रमा सितम्बर - २०१३ शब्दकोश २६. दुश्मनोए २७. यत्न, पुरुषार्थ २८. जतो २९. भोळव्यो ३०. रोळवq (नष्ट करवू) ३१. स्वाभाविक रीते ३२. अनुराग ३३. पोढ्या, सूता ३४. धुमाडो ३५. फेलायु ३६. पोताने ३७. शरीर ३८. औषध ३९. कृतिकापण ४०. इलाज करवो ४१. औषध विशेष ४२. भंडार ४३. चोळवं ४४. अन्य स्थाने ४५. इर्ष्या ४६. अलाभ ४७. मध्य ४८. सफेद ४९. स्वप्न ५०. खोळो For Private and Personal Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४७ श्रुतसागर - ३२ ५१. हलन-चलन वगरनुं ७७. लग्नविधिनो मंडप ५२. स्मरण करवू ७८. कोडियु ५३. प्रकाशो ७९. डाबी बाजु ५४. अवाज, टंकार ८०. गभरावू, व्याकुळ थर्बु ५५. ओवारणां ८१. नितारेलु पाणी ५६. शींगडामाथी ८२. सेवा ५७. शरणाईना प्रकारनु वाद्य ८३. जीव ५८. नोबत ८४. ऋण मुक्त ५९. मृदंग ८५. विविध ६०. साथे ८६. अर्पण कर ६१. सेवा ८७. वहाली ६२. कपाळ ८८. छंटकाव करवो ६३. कमळनी सुवास ८९. देवराववी ६४. चंदरवा ९०. भूमि ६५. विशाळ ९१. शुद्ध करवी ६६. एक सेरनो हार ९२. सुगंधी पदार्थों ६७. बाहु ९३. श्रेष्ठ ६८. कांडा परनुं कडं ९४. दुभवq ६९. वीटी ९५. मोडेथी, कसमये ७०. बधा ९६. विमासण ७१. सुगंधी पदार्थोनुं लेप-विलेपन कर, ९७. समाचार ७२. डमरानी मंजरी ९८. युद्ध ७३. आकाशनुं आंगणुं ९९. घरनो नियम ७४. दरवाजो १००. शूरवीर ७५. समक्ष १०१. खोटुं ७६. नाळचावाळी सोनानी लोटी १०२. पर्वत For Private and Personal Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir વિવાહલઉ' સાહિત્યનું રેખાદર્શન હીરાલાલ ૨. કાપડિયા જૈન સાહિત્ય એની વિવિધતા અને વિપુલતા માટે વિશેષતઃ વિખ્યાત છે. એની આ વિવિધતા વિષયો પૂરતી જ નથી, પણ ભાષાઓ સાથે પણ એ સંબદ્ધ છે. ભારતીય તેમ જ અભારતીય અને તેમાં પણ પ્રાચીન અને અર્વાચીન અનેક ભાષાઓમાં જૈન સાહિત્ય આજે ઉપલબ્ધ છે. એનું મુખ્ય કારણ તે જૈન મુનિવરોના વિવિધ વિહારના ક્ષેત્રની અપરિમિતતા છે, અને એ સમુચિત છે, કેમકે અમુક જ ભાગમાં વિહરવું કે સાહિત્યક્ષેત્રના અમુક જ અંગને સ્પર્શવું એવી સંકુચિત મનોવૃત્તિ ઉદાર, ભાવનાશીલ, વિચારક અને સર્જનાત્મક જૈન પ્રકૃતિ સાથે કોઈ રીતે સંગત થઇ શકે તેમ નથી. આથી તો જૈન લેખકોએ-ખાસ કરીને મુનિવરોએ અનેક દિશામાં પહેલ કર્યાનું માન મેળવ્યું છે. ઉદાહરણાર્થે હું પ્રાયઃ ગુજરાતી સાહિત્યને અનુલક્ષીને અલ્પ નિર્દેશ કરીશ. (૧) ઉપલબ્ધ “રાસ' સાહિત્યમાં ભરતેશ્વરબાહુબલિરાસ સૌથી પ્રાચીન છે. એની રચના શાલિભદ્રને હાથે વિક્રમસંવત્ ૧૨૪૧માં થયેલી છે. (૨) વિ. સ. ૧૭૩૦માં આશાપલ્લીમાં રચાયેલી આરાધના નામની કૃતિ ગુજરાતી ગદ્યાત્મક કૃતિઓમાં પહેલી ગણાય છે, આ પ્રાચીન ગુજરાતી કાવ્યસંગ્રહ (પૃ. ૮૩)માં તેમજ પ્રાચીન ગુજરાતી ગદ્યસન્દર્ભ (પૃ. ૧૧૮)માં છપાયેલી છે. (૩) વિ. સં. ૧૪૧૧માં દિવાળીના દિવસે પડાવશ્યક ઉપર બાલાવબોધ રચનારા તરુણપ્રભસૂરિનો લગભગ પ્રથમ ગુજરાતી ગદ્યકાર તરીકે નિર્દેશ કરાય છે. આપણા કવિઓ (પૃ. ૩૫૦)માં કહ્યું છે કે “જૂનું વ્યવસ્થિત ગદ્ય અનેક કથાઓ દ્વારા તરુણપ્રભાચાર્યે મધ્ય ગુજ. ની ૧લી ભૂમિકામાં રચી આપ્યું છે.” (૪) ગુજરાતીમાં ગદ્ય-પદ્ય એમ ઉભય પ્રકારની સાહિત્યપ્રવૃત્તિ કરનારા જે ગણ્યાગાંઠા સર્જકો થયા છે એમાં સોમસુન્દરસૂરિ લગભગ પહેલા છે. એમનો જન્મ વિ.સં. ૧૪૩૦માં થયો હતો અને દેહવિલય વિ. સં. ૧૪૯૯માં થયો હતો. (૫-૭) ગુજરાતી સાહિત્યમાં પ્રથમ ઋતુકાવ્ય તેમજ પ્રથમ બારમાસી કાવ્ય એ જૈન મુનિ વિનયચન્દ્રની કૃતિ નામે નેમિનાથ ચતુષ્યદિકા છે. એ મુનિનો સમય વિક્રમની ચૌદમી શતાબ્દીનો પૂર્વાર્ધ છે. (૭) ખરતરગચ્છના જિનપદ્મસૂરિએ રચેલું સિરિથૂલિભદફાગુ “ફાગુ' ૧. જુઓ આપણા કવિઓ (ભા. ૧, પૃ. ૩૩૧) For Private and Personal Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर - ३२ કાવ્યોમાં આદ્ય સ્થાન ભોગવે છે. એ સૂરિ વિ. સં. ૧૪૮૦માં સ્વર્ગે સંચર્યા. (૮) સૌથી પ્રથમ પ્રાકૃતિક વર્ણનો ગુજરાતીમાં રજુ કરનાર કોઇ હોય તો તે વિનયપ્રભ છે એમ વિદ્વાનો કહે છે. એમણે આ વર્ણનો વિ. સં. ૧૪૧૨માં રચેલા ગૌતમસ્વામી રાસમાં આપ્યાં છે. (૯) વાણિજ્યમૂલક અને રૂપકગ્રન્થિરૂપ વિશિષ્ટતાથી વિભૂષિત આદ્ય ગુજરાતી કાવ્ય તે પ્રબોધચિન્તામણિ યાને ત્રિભુવનદીપકમબન્ધ છે. એના કર્તા જયશેખરસૂરિ છે અને એનો રચનાસમય વિ. સં. ૧૪૬૨ છે. (૧૦) ઉપર્યુક્ત જયશેખરના શિષ્ય માણિક્યસુન્દરે વિ.સં. ૧૪૭૮માં રચેલ પૃથ્વીચન્દ્રચરિત્ર યાને વાગ્વિલાસ ગુજરાતીમાં રચાયેલી પહેલી સવિસ્તર ગદ્યાત્મક ધર્મકથા છે. આનો ગદ્ય કાદમ્બરી તરીકે આપણા કવિઓ (પૃ. ૩૭૦)માં ઉલ્લેખ છે. આ ચરિત્ર પ્રા. ગુ. કા. સં. માં તેમજ પ્રા. ગુ. ગદ્ય સંદર્ભમાં છપાયેલું છે. (૧૧) વિ. સં. ૧૪૫૦માં કુલમંડનસૂરિએ મુગ્ધાવબોધ ઔક્તિક રચ્યું છે. એ તે સમયની ગુજરાતી ભાષા ઉપર પુષ્કળ પ્રકાશ પાડે છે. આ ઓક્તિકરૂપ સંસ્કૃત વ્યાકરણની, ગુજરાતી માધ્યમ દ્વારા, રચના કરાઈ છે. આ વ્યાકરણ મધ્યકાલીન ગુજરાતીના સીમાં પ્રાંત તરીકે દીપે છે. જુઓ આપણા કવિઓ (પૃ. ૩૫-૭), કોઈ સંગ્રામસિંહે આની પહેલાં બાલશિક્ષા નામનું ઔક્તિક રચ્યું છે. અને એની નકલ વિ.સં. ૧૩૩૬ જેટલી જૂની મળે છે. ૧૪મા શતકના ઉત્તરાર્ધમાં કે ૧૫મીના પૂર્વાર્ધમાં કોઈ ભટ્ટારક સોમપ્રભસૂરિએ ઔતિક રચ્યું છે. એ વિષેનો લેખ સ્વ. દલાલે લખ્યો છે. (જુઓ પાંચમો સાહિત્ય પરિષદ્ રિપોર્ટ). વિશેષમાં આ લેખમાં દેવભદ્રના શિષ્ય તિલકે ઉક્તિસંગ્રહ રચ્યનાનો ઉલ્લેખ છે. પણ સંસ્કૃત વ્યાકરણ ગુજરાતી માધ્યમથી સમજાવાયું છે. (૧૨) “અપભ્રંશ ભાષાનું વ્યાકરણ રચનારા તરીકે “કલિકાલસર્વજ્ઞ” હેમચન્દ્રસૂરિનું નામ જાણીતું છે. આની પહેલાંનું કોઈ વ્યાકરણ આ ભાષાને અંગે રચાયેલું હોય તો તે અત્યાર સુધી તો મળ્યું નથી. વિવાહલઉ-સુરતમાં “વિવાહ' શબ્દ “સગાઇ' એ અર્થમાં વપરાય છે. આવો અર્થ સંસ્કૃત કે પાઈય ભાષામાં નથી. ત્યાં તો એનો અર્થ “લગ્ન થાય છે. આ અર્થમાં જૂની ગુજરાતી ભાષામાં વિવાહલઉ, વિવાહલો, વીવાહલઉ ઇત્યાદી, શબ્દો વપરાયા છે. અહીં હું “વિવાહલઉ” સાહિત્ય તરીકે જે કૃતિઓ વિષે થોડોક ૨. આ કાવ્યો વિષે મેં “જૈન સત્ય પ્રકાશ” (વ. ૧૧, એ. ડ) માં કેટલાક નિર્દેશ કર્યો છે. For Private and Personal Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir yo सितम्बर - २०१३ ઉલ્લેખ કરવા ઇચ્છું છું તેમાં કેટલીયેમાં દીક્ષાસુન્દરીને-દીક્ષાશ્રીને પરણવાને મુમુક્ષુ જાય છે એવો ભાવ રહેલો છે. આના સમર્થનાર્થે જૈન ઐતિહાસિક ગૂર્જર કાવ્યસંચય (પૃ. ૨૨૯)માંથી આપણા કવિઓ (ભા. ૧, પૃ. ૧૯૦) માં ગુજરાતી છાયા સહિત અપાયેલી નીચે મુજબની પંક્તિઓ હું રજુ કરું છું - ઈણિ પરિ અંબડુ વરકુમારો પરિણઈ સંજમનારિ પરિણવા દિMસિરી પેડ નયરિ પેમેણ પાઉ “પરિણઇ સંજમસિરિ કુમર વજહિ નંદિય ભૂરા” વિવાહલઉ' સાહિત્યરૂપ કૃતિઓમાં જેમ દીક્ષાને કામિની કલ્પી તેની સાથેનાં લગ્નની વાત થઈ છે તેમ મુક્તિને મહિલા માનીને-અરે કેટલીય વાર તો એને “પણયાંગના' ગણીને મુક્ત થનારનાં-સિદ્ધિ પામનારનાં લગ્ન થયાનો ઉલ્લેખ કરાયો છે. વિશેષમાં આ ઉલ્લેખ કંઈ આજ કાલનો નથી. કૃતિઓ-એક સમય એવો હતો જ્યારે ભંડારોમાં પાઇય કૃતિઓ તરફ દુર્લક્ષ્ય સેવાતું હતું. સંસ્કૃત ગ્રંથો જ મળે તો એ નોંધવાની વૃત્તિ હતી. આવે સમયે “હું સા પૈસા ચાર” તરીકે વગાવાયેલી ગુજરાતી ભાષામાં રચાયેલી કૃતિઓની તો કોણ દરકાર કરે? સમય જતાં વિદ્વાનોનું લક્ષ્ય પાઈય સાહિત્ય તરફ ખેંચાયુ અને આજે તો “ગુજરાતી સાહિત્યને પણ યોગ્ય ન્યાય આપવા લાગ્યો છે. તેમ છતાં આજે એ સાહિત્ય હજી પૂર્ણ સ્વરૂપમાં જાણમાં આવ્યું નથી એટલે વિવાહલઉ” સાહિત્યની જેટલી કૃતિઓ મારા જાણવામાં આવી છે તે હું અહીં નોધુ છું અને એમાં ઉમેરો સૂચવવા વિશેષજ્ઞોને વિનવું છું. આ કૃતિઓ અકારાદિકમે નીચે મુજબ છે - કિર્તા નીંબો. ઋષભદાસ નામ ૧. આદિનાથવિવાહલો ૨. આદીશ્વરવિવાહલો ૩. આદ્રકુમારવિવાહિલ ૪. ઋષભદેવવિવાહલુધવલ ૫. કીર્તિરત્નસૂરિવિવાહલ ૬. ગુણરત્નસૂરિવિવાહલ ૭. જમ્બુઅન્તરંગરાસવિવાહલો | ૮. જબૂસ્વામીવિવાહલુ રચનાવર્ષ (વૈક્રમીય) ૧૯૭૫ પહેલાં સત્તરમી સદી. સોળમી સદી ૧પ૯૦ પહેલાં સેવક સેવક કલ્યાણચન્દ્ર પામન્દિર સહજસુન્દર હીરાનન્દ્રસૂરિ ૧૫૭૨ ૧૪૯૫ For Private and Personal Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir નામ श्रुतसागर • ३२ ૫૧ કર્તા રચનાવર્ષ (વક્રમીય) ૯. જિનચન્દ્રસૂરિવિવાહ સહજજ્ઞાન ૧૦. જિનેશ્વરસૂરિવિવાહલો સૌમમૂર્તિ ૧૩૩૧ની આસપાસ ૧૧. જિનદયસૂરિવિવાહલ | મેરુનન્દન ૧૪૩ર પછી ૧૨. નેમવિવાહ કેવળદાસ અમીચંદ, ૧૯૨૯ ૧૩. નેમનાથધવલવિવાહલ બ્રહ્મ વિનયદેવસૂરિ, ૧૬૧૫ પહેલાં ૧૪. નેમિનાથવિવાહલો ઋષભવિજય ૧૮૮૬ ૧૫. નેમિનાથવિવાહલો મહિમસુન્દર | ૧૬પ ૧૬. નેમિનાથ (નેમિનાથવિવાહગરબો) વીરવિજય ૧૮૬૦ ૧૭. પાર્શ્વનાથવીવાહલુ પેથો ૧પ૮૧ પહેલાં ૧૮. વેણીવત્સરાજવીવાહલ | ડાંગરા (દામોદર) | ૧૯૦૭ પહેલાં ૧૯. શાન્તિનાથવિવાહલોધવલ બ્રહ્મ વિનયદેવસૂરિ ૧૭મી સદી ૨૦. શાન્તિનાથવીવાહલુધવલપ્રબન્ધ આણન્દપ્રમોદ | ૧૫૯૧ ૨૧. સુપાર્શ્વજિનવિવાહલો બ્રહ્મ વિનયદેવ | ૧૯૩૨ ૨૨. સુમતિસાધુસૂરિવિવાહલો લાવણ્યસમય | સોળમી સદી આ કૃતિઓનો ક્રમશઃ વિચાર કરીએ તે પૂર્વે ત્રણ વાત નોંધી લઇશું - (૧) વેણીવત્સરાજવીવાહ એ જ એક અજૈન કૃતિ છે. એની હાથપોથી વિ. સં. ૧૯૦૭માં લખાયેલી મળે છે. એટલે આ કૃતિ ઓછામાં ઓછાં ચારસો વર્ષ જેટલી પ્રાચીન છે. એનો આદિમ અને અંતિમ ભાગ જૈન ગૂર્જર કવિઓ (ભા.૩, ખૂ. ૨, પૃ. ૨૧૨૪-૫)માં અપાયેલ છે. (૨) ઉપર્યુક્ત તમામ કૃતિઓમાં વિ. સં. ૧૩૩૧ પછી થોડાંક વર્ષોમાં સોમમૂર્તિને હાથે રચાયેલ જિનેશ્વરસૂરિવિવાહલો સૌથી પ્રાચીન છે. એના કરતાં કોઈ જૂની કૃતિ-જૈન કે અજૈનને હાથે રચાયેલી કૃતિ-અત્યાર સુધી તો મળી નથી. એવી રીતે સૌથી અર્વાચીન જૈન કૃતિ તે નેમવિવાહ છે. એના રચનાર કેવળદાસે એ કૃતિ અમદાવાદના નગરશેઠ સ્વ. પ્રેમાભાઈ હીરાભાઇને અર્પણ કરી છે. એ અમદાવાદના “ગુજરાત યુનીયન પ્રેસમા વિ. સં. ૧૯૩૦માં છપાઈ છે. (૩) આ તમામ કૃતિઓ પદ્યાત્મક છે. For Private and Personal Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ફર सितम्बर - २०१३ ૧. આદિનાથવિવાહલો - કર્તા નીબો આ કૃતિમાં ૨૪૫ ગાથા છે. એનો ગ્રંથાગ ૪૦૦ શ્લોક જેટલો છે. એ આદિનાથને અંગેની કૃતિ છે. જેન. ગુ. ક. (ભા. ૩, ખં. ૧, પૃ. ૯૭૧)માં આની નોંધ કરાયેલી છે. એ ઉપરથી આની એક હાથપોથી શ્રાવિકા ચંપાના પઠનાર્થે વિ. સં. ૧૯૭પમાં લખાયાનું આપણે જાણી શકીએ છીએ. ૨. આદીશ્વરવિવાહલો - કર્તા ઋષભદાસ આનો વિષય ઉપલી કૃતિથી ભિન્ન નથી. એના કર્તા ખંભાતના શ્રાવક છે. એમણે અનેક રાસ રચ્યા છે. તેમાં ઋષભદેવનો રાસ વિ. સં. ૧૯૯રમાં અને હીરવિજયસૂરિરાસ વિ. સં. ૧૯૮૫માં રચાયેલ છે. એ ઉપરથી આપણે પ્રસ્તુત કૃતિને સત્તરમી સદીની કૃતિ ગણીએ તો તે ખોટું નથી. ૩. આદ્રકુમારવિવાહલુ - કર્તા સેવક આ ૪૬ ગાથાની કૃતિ છે. એ આદ્રકુમારને અનુલક્ષીને રચાયેલી છે. આ આદ્રકુમાર તે બેબિલોનનો ઈ. સ. પૂર્વે ૬૦૪માં સમ્રાટુ બનનાર નેબુચદનેઝારનો પુત્ર થાય છે એમ કેટલાક માને છે. વિશેષમાં પ્રભાસપાટણના એક તામ્રપત્ર ઉપરથી ડો. પ્રાણનાથ એમ કહે છે કે આ નેબુચદનેઝારે નેમિનાથના મંદિરનો જીર્ણોદ્ધાર કરાવ્યો હતો. અંચળ-વિધિ ગચ્છના ગુણનિધાનસૂરિના પ્રસાદથી વિ. સં. ૧૫૯૦માં આદિનાથદેવરાસધવલ તેમ જ એ પૂર્વે ઋષભદેવવિવાહલુધવલબંધ રચનારા સેવકે આ આદ્રકુમારવિવાહલુ રચેલ છે. એમણે સીમંધરસ્વામિશોભાતરંગ નામની કૃતિ પણ રચી છે. ૪. ઋષભદેવવિવાહલુધવલ – કર્તા સેવક પહેલી બે કૃતિનો વિષય એ જ આનો વિષય છે. આદિનાથનું બીજું નામ ઋષભદેવ છે. આ ધવલ એક મહાકાય કૃતિ છે. એમાં ચુમ્માલીસ ઢાલ છે. એની રચના ઉપર્યુક્ત સેવકને હાથે વિ.સં. ૧૫૯૦ પૂર્વે થયેલી છે એમ એની વિ. સં. ૧પ૯૦ની હાથપોથી ઉપરથી જાણી શકાય છે. જે. ગૂ. ક. (ભા. ૩, ખં. ૧, પૃ. ૫૮૨-૩) માં આ કૃતિની શરૂઆતની ચાર ૧. જે. ગૂ. ક. ભા. ૭, પૃ. ૧૮૮, ૨. જે. ગૂ.ક. ભા. ૧, પૃ. ૩૧૦, ૩. જે. ગૂ. ક. ભા. ૧, પૃ. ૩૧૧. નવી આવૃત્તિમાં આ કૃતિ કર્તા શ્રીવંતના નામ સાથે જોડાયેલી છે. For Private and Personal Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर • ३२ ५३ લીટીઓ અને અંતની સોળ લીટીઓ “ઢાલ ઘોડીની, રાગ ગાડી' એવા ઉલ્લેખ પૂર્વક ઉદ્ધત કરાયેલી છે. વિશેષમાં પૂ. પ૮૩-૪ માં આની સોળ હાથપોથીઓ નોંધાયેલી છે. આ કૃતિ કોઈ સ્થળેથી પ્રસિદ્ધ થયેલી જણાતી નથી. જો તેમ જ હોય તો એ સત્વર પ્રકાશિત થવી ઘટે. એની છેલ્લી લીટીઓ હું અહીં રજૂ કરું એહ ધવલ ગાઈ જિન આરાઈ જેહ નરનારી સદા તે મુગતિ જાઇ સુખીય થાઇ બોલઈ સેવક ઈમ સદા.” અહીં વપરાયેલ “ધવલ' શબ્દ ધવલગીતોની નોંધ આપણા કવિઓ (પૃ. ૨૨૯) માં તેનું સ્મરણ કરાવે છે. ૫. કિર્તિરત્નસૂરિવિવાહલઉ - કર્તા કલ્યાણચન્દ્ર “જૈન સત્ય પ્રકાશ” (વ. ૧૧, અં. ૪) માં “અન્યત્ર અપ્રાપ્ય ગ્રંથોની સૂચી નામના લેખમાં જે ત્રણ વિવાહલઉ નોંધાયેલા છે તે પૈકી આ એક છે અને એના ચરિત્રનાયક કીર્તિરત્નસૂરિ છે. બાકીના બે વિવાહલઉ તે ગુણરત્નસૂરિવિવાહલ અને જિનચન્દ્રસૂરિવિવાહ છે. પ્રસ્તુત કૃતિમાં ચોપ્પન ગાથા છે. એના કર્તા કલ્યાણચન્દ્ર તે કોણ તે જાણવું બાકી રહે છે. દેવચન્દ્રના શિષ્ય કલ્યાણચન્દ્ર વિ. સં. ૧૯૪૯માં ચિત્રસેનપદ્માવતી રાસ રચ્યો છે. એ જ શું આ કલ્યાણચન્દ્ર છે? ક. ગુણરત્નસૂરિ વિવાહલઉ - કર્તા પવમદિર આ ઓગણપચાસ ગાથાની કૃતિ કે એના કર્તા વિષે મને કશી વિશેષ માહિતી નથી, સિવાય કે એ કેવળ નોંધાયેલી છે. ધર્મઘોષસૂરિએ જે ઋષિમડલપ્રકરણ રચ્યું છે એના ઉપર વિ. સં. ૧૫૫૩માં પદ્મમન્દિરગણિએ સંસ્કૃતમાં ટીકા રચી છે. શું આ ગણિ તે પ્રસ્તુત વિવાહલઉના કર્તા છે? ૭. જબૂઅત્તરંગરાસવિવાહલો - કર્તા સહજસુન્દર જૈન સાહિત્યનો સંક્ષિપ્ત ઇતિહાસ (પૃ. પ૩૦, કંડિકા ૩૮૩)માં આ કૃતિ વિ. સં. ૧૫૭૨માં રચાયાનો ઉલ્લેખ છે. ૮. જબૂસ્વામીવિવાહલ – કર્તા હીરાનન્દસૂરિ આ કૃતિની રચના સાચોરમાં વિ. સં. ૧૪૯૫માં થયેલી છે અને એના ૧. જે. ગૂ. ક. ભા. ૧, પૃ. ૨૪ For Private and Personal Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सितम्बर - २०१३ રચનાર “પીપલ ગચ્છના વીરપ્રભસૂરિના શિષ્ય થાય છે એ હકીકત આ કૃતિની છેલ્લી કડીઓ ઉપરથી જાણી શકાય છે. જૈ. ગૂ. ક. (ભા. ૩, ખં. ૧, પૃ. ૪૨૮-૯) માં આદ્ય ત્રણ કડીઓ તેમ જ અંતિમ ચાર (પર થી પપ) કડીઓ અપાયેલી છે. આની ઉપન્ય કડીમાં “રચીઉં હીરાણંદિ જંબૂઅસામિવીવાહલું એ' એવો ઉલ્લેખ છે. આ તેમ જ ઉપલી કૃતિના ચરિત્રનાયક મહાવીરસ્વામીના પ્રશિષ્ય થાય છે. હીરાનન્દસૂરિએ વિ. સં. ૧૪૮૫માં વિદ્યાવિલાસપવાડો રચ્યો છે અને તે આજે વર્ષો થયાં ગાયકવાડ પૌત્ય ગ્રન્થમાળામાં સંપાદિત થવાની વાત સંભળાયા કરે. આ સૂરિએ દશાર્ણભદ્રરાસ અને કલિકાળ રચેલ છે. ૯. જિનચન્દ્રસૂરિવિવાહ – કર્તા સહજજ્ઞાન આ કતિની નોંધ “જૈન સત્ય પ્રકાશ' (વ. ૧૧, અં. ૪) માં છે એ ઉપરાંત આ વિષે મને વિશેષ માહિતી નથી. ૧૦. જિનેશ્વરસૂરિવિવાહલો - કર્તા સોમમૂર્તિ આ ૩૩ કડીનું કાવ્ય છે. એની રચના વિ. સં. ૧૩૩૧ પછી થોડેક વર્ષે સોમમૂર્તિને હાથે થયેલી છે. જૈન ઐતિહાસિક ગુર્જર કાવ્યસંચય (પૃ. ૨૨૪૨૨૭)માં આ સમગ્ર કૃતિ છપાયેલી છે. વિશેષમાં એમાં (પૃ. ૧૧૪માં) આનો સાર પણ અપાયેલો છે. આપણા કવિઓ (પૃ. ૧૯૧) માં આ કૃતિને અંગે નીચે મુજબ ઉલ્લેખ છે - આમાં ચોપાયા અને દોહરા ઉપરાંત ઝૂલણા અને વસ્તુ છંદ ધ્યાન ખેંચે છે... શુદ્ધ ઝૂલણા છંદ સૌથી પ્રથમ ને આ સં. ૧૩૩૧ લગભગના કાવ્યમાં જણાયો છે.' ૧૧. જિનોદયસૂરિવિવાહલઉં – કર્તા મેરુનન્દન જૈન ઐતિહાસિક ગૂર્જર કાવ્યસંચય (પૃ. ૨૩૩-૨૩૭)માં આકૃતિ છપાયેલી છે. ઐતિહાસિક જૈન કાવ્યસંગ્રહ (પૃ. ૩૯૮-૩૯૯) માં પણ આ પ્રસિદ્ધ થયેલું છે. એની રચના વિ. સં. ૧૪૩રની પછી થોડેક વર્ષે થયેલી છે. એ હિસાબે પ્રાચીનતાની દૃષ્ટિએ એનો ક્રમાંક બીજો છે. જિનોદયસૂરિ એ મેરુનન્દનના ગુરુ થાય છે અને એમને ઉદ્દેશીને આ કૃતિ રચાઇ છે. ૧. જે. ગૂ. ક. ભા. ૧, પૃ.૪૧૨ For Private and Personal Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर • ३२ ૧૨. નેમવિવાહ – કર્તા કેવળચંદ આ સૌથી અર્વાચીન કૃતિ છે. એ તેતાલીસ ઢાલમાં કેવળચંદે રચી છે. આની પહેલી બે કડી અને છેલ્લી સાત કડી જૈન ગૂ. ક. (ભા. ૩, ખં. ૧, પૃ. ૩૭૯)માં અપાયેલી છે. આ તેમ જ એની પછીની ચાર કૃતિઓ નેમિનાથને અંગેની છે. ૧૩. નેમિનાથધવલવિવાહલુ - કર્તા બ્રહ્મ વિનયદેવસૂરિ આ કૃતિ ચુમ્માલીસ ઢાલમાં રચાયેલી છે. જે. ગુ. ક. (ભા. ૩, ખ. ૧, પૃ. ઉ૦૬)માં એની વિ.સં ૧૯૧૫માં લખાયેલી હાથપોથીની નોંધ છે એટલે આ કૃતિ મોડામાં મોડી આ વર્ષમાં રચાઇ હશે. એના ક્તએ વિ.સં. ૧૯૩૨માં સુપાર્શ્વજિનવિવાહલો અને એ સત્તરમી સદીમાં શાન્તિનાથવિવાહલોધવલ રચેલ છે. ૧૪. નેમિનાથવિવાહલો - કર્તા ઋષભવિજય આ કૃતિમાં સત્તર ઢાલ છે. એની પહેલી કડી છેલ્લી પાંચ કડીઓ દેશી’ એવા ઉલ્લેખપૂર્વક જે. ગૂ. ક. (ભા. ૩, નં. ૧, પૃ. ૨૯૨)માં અપાયેલી છે. એ ઉપરથી ઋષભવિજય તે વિજયાનન્દસૂરિના વંશજ રામવિજયના શિષ્ય થાય છે અને આ કૃતિ વિ. સં. ૧૮૮૬માં રચાઇ છે એ બાબત જાણી શકાય છે. ૧૫. નેમિનાથવિવાહલો – કર્તા મહિમસુન્દર ખરતરગચ્છના સાધુ કીર્તિના શિષ્ય મહિમસુન્દરે આ કૃતિ વિ.સં. ૧૯૬૫માં રચી છે. ૧૭. નેમિનાથવિવાહલો - કર્તા વીરવિજય આ કૃતિની પહેલી ઢાલની બે કડી અને છેલ્લી-બાવીસમી ઢાલની છ કડી જૈ. ગૂ. ક. (ભા. ૭, નં. ૧, પૃ. ૨૧૪-૫) માં છપાયેલી છે. આ કૃતિની બાવીસ ઢાલ છે. આની છેલ્લી ઢાલમાં ‘તસ શિષ્ય ગરબિ દેશિમાંહે લાલ, ગાયો નેમવિવાહ ઉછાહે લાલ' એ પંક્તિમાં સૂચવ્યા મુજબ આ કૃતિને નેમિનાથવિવાહગરબો પણ કહેવામાં આવે છે. શુભવિજયના શિષ્ય વીરવિજયે આ કૃતિ વિ.સં. ૧૮૬૦માં (નભ-ભોજન-ગજ-ચન્દ્ર) રચી છે. શ્રી નેમીસર ભગવાનો વિવાહલો' એ નામથી આ કૃતિ શિલાલેખમાં છપાઇ છે. ૧. જે. ગૂ. ક. ભા. ૧, પૃ. ૩૮૨, ૪. . ક.માં કર્તાનું નામ કેવળદાસ અમીચંદ તરીકે નોંધેલ છે. ૨. જે. ગુ. ક. ભા. ૧, પૃ. ૩૨૩, ૩. જે. ગૂ. ક. ભા. ૭, પૃ. ૧૯૩, ૪. જે. ગુ. ક. ભા. ૭, પૃ. ૨૨૬. For Private and Personal Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ५६ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सितम्बर २०१३ ૧૭. પાર્શ્વનાથ વીવાહલુ – કર્તા પેથો આ કૃતિ ૨૦૬ ગાથાની છે. જૈ. ગૂ. ક. (ભા, ૩, ખં. ૧, પૃ. ૪૮૪)માં આની વિ. સં. ૧૫૮૧ની એક હાથપોથી નોંધાયેલી છે એટલે એનાથી મોડી આ કૃતિ રચાઈ નથી એમ બે ધડક કહી શકાય, ત્રેવીસમા તીર્થંકર પાર્શ્વનાથને-જેમનો ઐતિહાસિક પુરુષ તરીકે સૌ કોઇ સ્વીકાર કરે છે તેમને ઉદ્દેશીને આ કૃતિ રચાયેલી છે. ૧૮. વેણીવત્સરાજ વીવાહલુ – કર્તા ડાંમરર (દામોદર) આ કૃતિનો આદિમ અને અન્તિમ ભાગ જૈ. ગૂ. ક. (ભા. ૩, ખં. ૨, પૃ. ૨૧૨૪-૫) માં અપાયેલો છે. અહીં નોંધાયેલો તમામ કૃતિઓમાં આ એક જ અર્જુન કૃતિ છે. એ દામોદર બ્રાહ્મણે રચી છે. એની વિ. સં. ૧૬૦૭ની એક હાથપોથી અને બીજી વિ. સં. ૧૯૨૭ની હાથપોથી પૃ. ૨૧૨૫માં નોંધાયેલી છે. આવી અજૈન પ્રાચીન કૃતિઓ બીજી કઇ કઇ છે તેની તપાસ કરવી બાકી રહે છે. ૧૯. શાન્તિનાથવિવાહલોધવલ - કર્તા બ્રહ્મ વિનયદેવસૂરિ સોળમાં તીર્થંકર શાન્તિનાથનો વિવાહ એ આ તેમ જ વીસમી કૃતિનો વિષય છે. જૈ. ગૂ. ક. (ભા. ૩, ખં. ૧, પૃ. ૬૧૧)માં આની પહેલી અને છેલ્લી ચચ્ચાર લીટીઓ અપાયેલી છે. એની રચના ઉત્તરજ્જીયણની વૃત્તિ વગેરેને આધારે કરાયેલી છે એવો અંતમાં ઉલ્લેખ છે. વિશેષમાં એમાં કર્તાએ પોતાને માટે ‘બ્રહ્મ' એનો નિર્દેશ કર્યો છે. ‘સોલમ જિનવરનું ધવલ રચિતુ હઉં સારું' એમ કર્તાએ પ્રારંભમાં નિવેદન કર્યું છે. ૨૦. શાન્તિનાથવીવાહલુધવલપ્રબન્ધ - કર્તા આણન્દપ્રમોદ હર્ષપ્રમોદના શિષ્ય આણન્દપ્રમોદે આ કૃતિ વિ. સં. ૧૫૯૧માં રચી છે. એમાં એકંદર ત્રેસઠ ઢાલ છે. શરૂઆતની છ લીટીઓ અને ૬૩મી ઢાલની અરાઢ લીટીઓ જૈ. ગૂ. ક. (ભા. ૩, ખં. ૧, પૃ. ૬૦૨-૩)માં અપાયેલી છે. વિશેષમાં પૃ. ૬૦૩-૪માં ‘નવરસરંગસાગર નામા ધવલપ્રબંધ શાંતિનાથ વીવાલું' એવો ઉલ્લેખ છે. For Private and Personal Use Only ૨૧. સુપાર્શ્વજિન વિવાહલો – બ્રહ્મ વિનયદેવસૂરિપ આ કૃતિનો ગ્રન્થાગ્ર ૫૮૧ શ્લોક જેટલો છે. એની પહેલી બે કડી અને ૧. જૈ. ગૂ. ૭. ભા. ૧, પૃ. ૧૬૧, ૨. જૈ. ગૂ. ક. ભા. ૬, પૃ. ૫૧૨, ૩. જૈ. ગૂ. ક. ભા. ૧, પૃ. ૩૩૦, ૪. જૈ. ગૂ. કે. ભા. ૧, પૃ. ૩૧૬, ૫. જૈ. . ક. ભા. ૧, પૃ. ૩૨૯ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर • ३२ પછ છેલ્લી સાત કડી જૈ. ગૂ. ક. (ભા. ૩, નં. ૧, પૃ. ૯૦૮-૯)માં અપાયેલી છે. છેલ્લી કડીનો પૂર્વાર્ધ નીચે મુજબ છે – એહ રચ્યઉ વિવાહલઉ એ નાંદઉ જ જિણધર્મ ભo' આ કૃતિની રચના “યુગલ-ભુવન-રસ ચન્દ્રમા' એ વર્ષમાં એટલે કે વિ. સં. ૧૬૩૨માં થયેલી છે. આ અઠાવન કડીની કૃતિ હોય એમ લાગે છે. એની પંચાવનમી કડીમાં “વિનયદેવસૂરિ’ એમ કર્તાએ પોતાનું નામ સૂચવ્યું છે. આ કૃતિ સાતમા તીર્થંકર સુપાર્શ્વનાથ સંબંધી છે. ૨૨. સુમતિસાધુસૂરિવિવાહલો – કર્તા લાવણ્યસમય વિ. સં. ૧૫૬૮માં વિમલપ્રબન્ધ, વિ. સં. ૧૫૭૫માં કરસંવાદ અને વિ. સં. ૧૫૮પમાં અન્તરિક્ષ પાર્શ્વનાથ સ્તવન રચનાર લાવણ્યસમયની આ કૃતિ છે. આ પ્રમાણે સમય અને સાધન અનુસાર મેં “વિવાહલઉ' સાહિત્ય વિષે સંક્ષિપ્ત નોંધ લખી છે. એટલે અંતમાં આ કૃતિઓને અંગે કેટલીક બાબતો હું તારવણી રૂપે રજૂ કરી આ લેખ પૂર્ણ કરીશ - (૧) ચોથી, તેરમી અને વીસમી એ કૃતિઓ ઘણી મોટી ગણાય. (૨) જૈન કૃતિઓ પૈકી ૧, ૨ અને ૪ એ કૃતિઓ ઋષભદેવને અંગેની, ૧૨૧૬ નેમિનાથને અંગેની, ૧૭મી પાર્શ્વનાથને અંગેની, ૧૯મી અને ર૦મી શાન્તિનાથને અંગેની અને ૨૧મી સુપાર્શ્વનાથને અંગેની છે. આમ બાર કૃતિઓ તીર્થકરોને ઉદ્દેશીને છે. આ પૈકી સત્તરમી સિવાયની કૃતિઓને પૌરાણિક ગણીએ તો બાકીની અગ્યાર ઐતિહાસિક ગણાય. વિશેષમાં આદ્રકુમાર અને જબૂસ્વામી એ તો લગભગ મહાવીર સ્વામીના સમયના ગણાય. એ સિવાયના મુનિઓ (જેમનો અહીં નિર્દેશ કરાયો છે. એમની વચ્ચે ઓછામાં ઓછું એક હજાર વર્ષનું અંતર છે. (૩) બહુ થોડી કૃતિઓ પ્રસિદ્ધ થયેલી છે. (૪) ચૌદમા સૈકાની પહેલાની કોઈ કૃતિ મળી નથી. એ સૈકાની એક જ કૃતિ મળી છે. પંદરમા સૈકાની બે કૃતિ છે આઠમી અને અગ્યારમી. ત્રીજી, ચોથી, સાતમી, સત્તરમી અને વીસમી કૃતિઓ સોળમા સૈકાની છે. સત્તરમી સદીની કૃતિઓ તે બીજી, તેરમી, પંદરમી, અઢારમી, ઓગણીસમી અને એકવીસમી એમ છ કૃતિઓ છે. આ કૃતિઓ જૂની ગુજરાતી ભાષાના અભ્યાસીને ઉપયોગી થાય તેમ છે એટલે એ તો એક સંગ્રહરૂપ સત્વર પ્રસિદ્ધ થવી ઘટે. (જૈન સત્યપ્રકાશ, વર્ષ-૧૧, અંક નં. ૧૦-૧૧માંથી સાભાર) For Private and Personal Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संग्रहालयना प्रतिमा लेखो आजे आपणी पासे परंपरा अने श्रमण संस्कृतिनो क्रमबद्ध इतिहास प्राप्त नथी, इतिहासना अप्रकाशित केटलाय तत्त्वो ग्रंथ भंडारो, ताम्रपत्रो, शिलालेखो, अने प्रतिमालेखोमां धरबायेला छे. प्रतिलेखन पुष्पिकाओ, ताम्रपत्रो, शिलालेखो, अने प्रतिमालेखो आवी केटलीय ऐतिहासिक सामग्रीओथी ऐतिहासिक तत्त्वनं अनुसंधान करी शकाय छे. आवी ऐतिहासिक साधन साम्रगीओमा प्रतिमालेखो अग्रता क्रमे छे. प्रतिमा लेखोमां सामान्यथी बे प्रकार मळे छे. १ पाषाण प्रतिमा लेखो २ धातु प्रतिमा लेखो, धातु प्रतिमानी अपेक्षाए पाषाण प्रतिमामां लेखो बहु ओछा प्राप्त थाय छे. प्रतिमा लेखोमां श्रमण परंपरा अने तत्कालीन श्राद्ध परंपरा अखंड रूपे प्राप्त थाय छे. श्रमण परंपराना ईतिहासमां खूटती कडीओनुं अनुसंधान करवामां प्रतिमा लेखो बहु महत्त्वनो भाग भजवे छे. पूज्यपाद् गुरूदेव श्रीमद् आचार्य श्रीपद्मसागरसूरीश्वरजी महाराज प्रभु शासनना आवा ऐतिहासिक मूल्योनी काळजी अने जतन माटे सतत उद्यमशील अने कांईक करी छूटवानी भावना धरावी, प्रभु शासननी शान अने गरिमाने हृष्ट पुष्ट करता रहे छे. पूज्य गुरुमहाराजना अथाग प्रयत्नथी निर्मित आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर अने सम्राट् संप्रति संग्रहालयमा आवी केटलीय ऐतिहासिक सामग्रीओ संकलित, संग्रहीत अने सुरक्षित छे. संग्रहालयमा रहेला धातु अने पाषाण प्रतिमाना लेखो अहीं प्रस्तुत छे. आ लेखोने उतारी आपवानुं पुण्यकार्य परम पूज्य शासनसम्राटश्री नेमिसूरिजी म.सा.ना समुदायना आचार्य भगवंत श्रीसोमचंद्रसूरीश्वरजी महाराज साहेब अने एमना शिष्य परिवारे करी आप्युं छे. संग्रहालयमां जे क्रमांके धातु-प्रतिमाओ नोंधायेल छे. ते क्रमानुसार ज प्रतिमाना लेखो प्रकाशित करीए छीए. संपा. १.विभागीय नं. ४१ पार्श्वनाथ भगवान, एकतीर्थी .................प्रतिष्ठितं श्रीपरमानंदसूरिभिः । १. विभागीय नं. ४१, पार्थनाथ भगवान, एकतीर्थी सं. १२१६ मार्ग सुदि ७ श्रीपार्श्वनाथप्रतिमा सेवक ताराचंद जिसहडेन श्रीआनंदसूरिप्रतिष्ठिता। १. बाकीनो लेख घसाई जवाथी स्पष्ट वंचातो नथी. For Private and Personal Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर - ३२ ३. विभागीय नं. ४३, पार्श्वनाथ भगवान, एकतीर्थी १० १३४६ व. फागुण सुदि १० सोमे श्रीमालज्ञातीय श्रे. देवसीह मा०. सोमाकेन श्रीपार्श्वनाथबिंबं कारितं प्रतिष्ठितं श्रीसूरिभिः ४. विभागीय नं. ४४, महावीर स्वामी भगवान, पंचतीर्थी सं. १३६८ ज्येषठ शुदि १२ रवौ प्राग्वाटज्ञातीय व्यव. साजण भातृ राजाश्रेयसे भार्या लूणादेवि वधू लखमादेवि श्रीमहावीरबिंबं प्रतिमा कारापिता ६. विभागीय नं. ४५, कुंथुनाथ भगवान, पंचतीर्थी सं. १५०९ वर्षे माघ सुदि १० शनौ ऊपकेशवंशे साल........ ४ गोत्रे सा. नेणा भा. नुणादे सा. मूराकेन श्रीसहवदयुतेन श्रेयोर्थं श्रीकुंथबिंबं का. प्र . स ( ख ) रतरगछे श्री ......... सागरसूरिभिः ।। श्रीरस्तू || ७. विभागीय नं. ४६, पार्श्वनाथ भगवान, पंचतीर्थी संवत् १३०७ वर्षे माघ सुदि १० गुरौ ऊकेसीयवंशे साधु तिहुण सुत भीमसीहडाकेन बाई खेटू श्रेयसे श्रीपार्श्वनाथबिंबं का प्रतिष्ठितं श्रीपरमानंदसूरिभिः ८. विभागीय नं. ४७, शीतलनाथ भगवान, पंचतीर्थी ५९ सं. १५२७ वर्षे माघ. व. ८ प्राग्वाटज्ञातीय श्रे. पेथा भार्या मची पुत्र श्रे. देवराजेन भा. हर्षू पुत्र नागा भ्रातृजाया नडूअंकी प्रमुखकुटुंबयुतेन भ्रातृसहमानरसिंगश्रेयोर्थं श्रीशीतलबिंबं कारितं प्रतिष्ठितं तपा श्री लक्ष्मीसागरसूरिभिः ।। ९. विभागीय नं. ४८, कुंथुनाथ भगवान, पंचतीर्थी सं. १५२४ वर्षे मागसिर वदि ४ रवौ उपकेशज्ञातीय लिंगागोत्रे सा. पाथा भा. ऊदी पु. सचडेन भा. सुहवादे पु. शेषा-सुरज - बंजर - अमरासहितेन स्वपु. श्री कुंथुनाथबिंबं का. प्र. श्री उपकेशगच्छे कुकुदाचार्यसंताने श्रीसिद्धसूरिपट्टे श्रीकक्कसूरिभिः ।। For Private and Personal Use Only १०. विभागीय नं. ४९, सुपार्श्वनाथ भगवान, पंचतीर्थी संवत् १४९१ वर्षे माघ सुदि ११ बुध उकेशवंशे छाजडहगोत्रे सा. तेजा भार्या पोइणि पुत्र सांघा ....... स भा० वि२५ श्रीयोर्थं श्रीसुपार्श्वनाथबिंबं कारितं श्रीखरतरगच्छे श्रीजिनसागरसूरिभिः Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सितम्बर - २०१३ १.विभागीय नं. ७१, मुनिसुव्रतस्वामी भगवान, पंचतीर्थी ____सं. १४८५ वर्षे माह शुदि ११ शनी श्रीश्रीमालज्ञातीय महं. पूनसीह भा. बीलणदे पितृव्य. वयरसीहश्रियोर्थ जेसा-समधराभ्यां श्रीमुनिसुव्रतस्वामिबिंब कारापितं प्र. पूर्णिमा प. भ० श्रीविमलचंद्रसूरीणामुपदेशेन १२. विभागीय नं. ७२, अजितनाथ भगवान, पंचतीर्थी संवत् १४७६ वर्षे माघ शु. ३ सोमे श्री उप. ज्ञा. सोमोदय पू. लाला भा. पाहीपु. महीणा भा. वीरिणि पु. ऊदा-रामाभ्यां पूर्वजनि. श्रीअजितनाथवि. का. श्रीसंडेरगच्छे श्रीयशोभद्रसूरिसंताने प्रतिष्ठितं श्रीशांतिसूरिभिः श्रीः।। शुभं भवतु १३. विभागीय नं. ५३,मुनिसुव्रतस्वामी भगवाम, एकतीर्थी संवत १५३० वर्षे माह व. ९ दिने प्रा. भा. सुरा भा. सारू पुत्र सा. झझाकेन सा. राजू सुता लींबायुतेन स्वश्रेयसे कारितं श्रीमुनिसुव्रतबिंबं प्रतिष्ठितं श्रीलक्ष्मीसागरसूरिभिः ||ठ | श्री।। १४. विभागीय नं. ४४, आदिनाथ भगवान, एकतीर्थी संवत् १५४६ वर्षे माघ शुदि १३ रवौ श्रीश्रीवंशे व्य. हरपति भार्या धनी पुत्र व्य. भोजा भा. भरमादे सु. व्य. कुरा सुश्रावकेण श्रीअंचलगच्छेश श्रीसिद्धांतसागरसूरीणामुपदेशेन मातुः पुण्यार्थं । श्रीआदिनाथबिंब कारितं प्र. श्री संघेन । श्रीः ।। १७. विभागीय नं. ७५, पार्श्वनाथ भगवान, पंचतीर्थी। सं. १६६४ वर्षे पोष वदि ७ बुधे सुराणागोत्रे जयतारणवासी सा. पुकेराजा भा. वीप सं. जोवा भा. जावादि प्र. सं., जगमालकेन श्रीधर्मनाथबिंबं का. प्र. श्री तपागच्छ श्रीविजयसेनसूरि श्रीविजयदेवसूरि सुदि ६ रविदिने संकेतसूचि आचा. = आचार्य ठ. = ठक्कुर श्रे. = श्रेष्ठी प. = पक्षे सं. = संधवी, संवत व्य., व्यव. = व्यवहारी कृ. = कृत (?) भा. = भार्या बिं. = बिंब सा. = साह म. = मंत्री सु. = सुत का. = कारितं ज्ञा. = ज्ञातीय प्र. = प्रतिष्ठित पल्ली. = पल्लीवाल पु. = पुत्र व. = वद For Private and Personal Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir શ્રી સિયાં તીર્થઃ એક પરિચય કનુભાઈ એલ. શાહ રાજસ્થાનના પ્રાચીન કલા વારસામાં ઓસિયાતીર્થનું જૈન મંદિર એક અમૂલ્ય રત્ન સમાન છે. રાજસ્થાનના ઐતિહાસિક નગર જોધપુરથી ૬૧ કિ.મી. દૂર ઓસિયાં તીર્થ આવેલું છે. હાલમાં આ એક નાના નગર જેવું સ્થળ છે. લોકોક્તિઓ અનુસાર આજથી ૨૫૦૦ વર્ષ પૂર્વે આ નગર વસાવવામાં આવેલું હતું. આ એક વ્યાપાર પ્રધાન સમૃદ્ધ નગર હતું અને જાલોર દ્વારા ગુજરાત પ્રદેશ સાથે જોડાયેલું હતું. પ્રશસ્તિઓ તથા શિલાલેખોમાં “ઓસિયાં'ના પ્રાચીન નામો ઉવસીસ, ઉકેશ, ઉપકેશપુર અને “ઓસાં' - નો ઉલ્લેખ મળે છે. ડૉ. આર ભાંડારકરના મતે આ નગરનું “ઓસિયા'નામ મારવાડી શબ્દ “સલા' પરથી પડ્યું છે જેનો અર્થ આશય થાય છે. પાછળથી “ઓસલા' પરથી “ઓસિયાં પરિવર્તિત થયું લાગે છે. શ્રી સિદ્ધસેનસૂરિએ બારમી શતાબ્દીમાં રચેલા “સકલતીર્થસ્તોત્ર'માં “ઓસિયાં'નો ઉલ્લેખ તીર્થના રૂપમાં કર્યો છે. - જિનશાસનના પ્રભાવક જૈનાચાર્ય શ્રી રત્નપ્રભસૂરીશ્વરજીએ અહીંના રાજાપ્રધાન સહિત લોકોને પોતાના તપના પ્રભાવે અહિંસાના માર્ગે વાળ્યા હતા. એમ પણ કહેવાય છે કે ક્ષેત્રદેવી ચામુંડાને પણ પ્રતિબોધ પમાડીને શ્રી સચ્ચાઈમાં માતાના નામથી પ્રસિદ્ધ બનાવી. રાજા ઉપલદેવ અને મંત્રી ઉહડે આચાર્યશ્રીના પ્રતિબોધથી જૈન ધર્મ અંગીકાર કર્યો હતો. રાજા ઉપલદેવે મંદિરનું નિર્માણ કર્યું અને તેમાં આચાર્યશ્રીના હસ્તે પ્રભુ પ્રતિમા પ્રતિષ્ઠિત કરાવ્યાનો ઉલ્લેખ મળે છે. જ્યારે ઉહડ મંત્રીએ આ નગર વસાવ્યું ત્યારે મંદિરના નિર્માણ સમયે ખોદકામ કરતી વખતે આ પ્રતિમા ભૂગર્ભમાંથી પ્રગટ થઇ હતી. મંદિરનું નવનિર્માણ કરાવી સં. ૧૦૧૭, મહા વદિ ૮ના દિવસે પ્રતિષ્ઠિત કરાવ્યાનો ઉલ્લેખ છે. ઓસવાલ ઉત્પત્તિ' નામના શીર્ષકવાળા પત્રમાં ઉહડ મંત્રીએ સંવત ૧૦૧૧માં ઓસિયાં વસાવ્યાનો અને સં. ૧૦૧૭માં મંદિર નિર્માણનો ઉલ્લેખ છે. કોરટાના ઇતિહાસમાં વીરપ્રભુ નિર્માણના ૭૦ વર્ષ પછી આચાર્યશ્રી રત્નપ્રભસૂરીશ્વરજીએ એક જ મુહૂર્તમાં કોરટા અને ઓસિયાં નગરીમાં જિનમંદિરોની પ્રતિષ્ઠા એક જ સમયે કરાવ્યાનો ઉલ્લેખ છે. ભિન્નમાલના ઇતિહાસમાં પણ રાજકુમાર ઉપલદેવ અને મંત્રી ઉહડે આ જ સમયમાં અહીં ઉપકેશ નગર વસાવ્યાનો ઉલ્લેખ છે. For Private and Personal Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ६२ सितम्बर २०१३ ઓસિયાંનું જૈન મંદિર ગુર્જર-પ્રતિહાર રાજા વત્સરાજના રાજ્યકાળ દરમિયાન આઠમી શતાબ્દીના ઉત્તરાર્ધમાં જૈન વ્યાપારીઓએ બનાવ્યું હતું. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - ઓસિયાં જૈન મંદિરમાં મૂળનાયક તરીકે શ્રી મહાવીરસ્વામિ બિરાજમાન છે. પદ્માસનસ્થ, સ્વર્ણ વર્ણ, ૮૦ સે. મી. (શ્વેત મંદિર). ઓસિયાં ગામની મધ્યમાં આ તીર્થસ્થળ આવેલું છે. આ પૂર્વે અહીં શૈવ-વૈષ્ણવ, શાક્ત આદિ સંપ્રદાયોના મંદિરો પણ હતાં, આ સ્થળ માત્ર પૂજા-પ્રાર્થના માટેનું ન હતું પરંતુ લોકજીવન-સમાજજીવન અને સાંસ્કૃતિક ગતિવિધિઓનું કેન્દ્ર પણ હતું. આ મંદિર નગર પ્રતિહાર રાજાઓની રાજધાની જાલોર (જાબાલિપુર) તથા મંડોર (માનવપુર) કરતાં પણ અતિ મહત્ત્વના સ્થાન તરીકે લેખાતું હતું. મંદિરની શ્રી મહાવીર સ્વામિ ભગવાનની પ્રતિમા શ્રી સચ્ચાઇયાં માતાની દિવ્ય શક્તિથી ગૌદુધ અને રેતીથી બનાવેલ અને આચાર્યશ્રી એ પ્રતિષ્ઠિત કરેલી એ જ પ્રતિમા હજુ મૂળનાયકના રૂપમાં આજે પણ વિદ્યમાન છે. ઓસિયાંની પ્રાચીનતા લોકોક્તિઓ કરતાં પુરાતાત્વિક પુરાવાઓથી પ્રાપ્ત થાય છે. શ્રી મહાવીરસ્વામિના મંદિરમાંથી પ્રાપ્ત થયેલા અભિલેખથી ઓસિયાં નગરીની પ્રાચીન સમૃદ્ધિનું તથા સૂર્યમંદિરનું અનુમાન થઇ શકે છે. આઠમી સદીમાં આ નગર સમૃદ્ધ હતું. શિલ્પકળા અને સૌંદર્ય : ઓસિયાં એક ધર્મતીર્થ છે અને સાથે સાથે કલાતીર્થ પણ છે. શિલ્પ અને કલાની દૃષ્ટિએ ઓસિયાં વિશ્વમાં પ્રસિદ્ધ છે. પત્થરો પર કોતરેલી અહીંની કલાત્મક પ્રતિમાઓ અદ્વિતીય છે. અહીંનું પ્રભુ મહાવીરસ્વામિનું મંદિર અને અન્ય મંદિરો પોતાની વિશાળતા, કલાગત વિશેષતા અને સૌંદર્યને લીધે વિશ્વવિખ્યાત છે. રંગમંડપમાં સ્તંભો ઉપર નાગકન્યાઓનાં દૃશ્ય અને દિવાલો પરનાં દેવ-દેવતાઓનાં દૃશ્યો ખૂબ જ સુંદર રીતે ચિત્રિત થયેલ છે. એ સિવાય દેરીઓમાં બહાર ભગવાન નેમિનાથનું જીવનચરિત્ર, ભગવાન મહાવીરસ્વામિનો અભિષેક મહોત્સવ અને ગર્ભહરણનું દૃશ્ય બહુ જ સજીવ અને હુબહુ છે મંડપમાં આચાર્યશ્રી પોતાના સાધુઓ અને શ્રાવકોને ઉપદેશ દે છે એ ચિત્ર પણ એટલું જ સુંદર છે. નૃત્યમંડપમાં ગુંબજની નર્તિકાઓ સાજ સાથે નૃત્ય For Private and Personal Use Only १. पी. पी. नाहर अभिलेख संख्या ७८८ महावीर जैन मंदिर (ओसियां) से प्राप्त जैनलेख संग्रह પૃ. ૧૬૨, શ્લો-૨ ૨. પૂરનવન્દ્ર નાહર, નૈન અમિતેષ મા-૧, સં. ૭૮૮, પૃ. ૧૬૨ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर - ३२ કરતી બતાવી છે. તે ખૂબ જ આકર્ષક અને રમણીય મુદ્રાથી અંકિત છે મંદિરની ભમતીમાં પ્રસિદ્ધ તોરણની કારીગરી પણ ખૂબ જ આકર્ષક છે. ભારતીય પ્રતિમા વિજ્ઞાન, જૈન કલા અને મન્દિર સ્થાપત્યની દૃષ્ટિએ ઓસિયાંનું જૈન મંદિર ભારતીય પુરાતત્ત્વ સામગ્રીમાં મહત્ત્વપૂર્ણ સ્થાન ધરાવે છે. એ એક સર્વસ્વીકૃત સત્ય છે. સંદર્ભ સૂચિ १. प्राचीन जैन तीर्थ ओसियाँजी (ओशवाल वंश का इतिहास) - संकलनकर्ता : देशलहरा, मिश्रीमल, श्री रार्धमान जैन शिक्षणसंघ, ओसियां, आ. ४, २००८ २. ओसियाँ का जैन मन्दिर - वशिष्ठ, नीलिमा वर्धमान जैन शिक्षणसंघ, ओसियाँ ૧૨૮૮, ૩. ઓસિયાજી તીર્થની યશોગાથા - પ. પૂ. આ. શ્રી કલ્યાણસાગરસૂરીશ્વરજી મ. સા. શ્રી સિમન્વરસ્વામિ જિનમંદિર કાર્યાલય, ભિલાડ. ૪. તીર્થદર્શન, ખંડ-૨, શ્રી જૈન પ્રાર્થના મન્દિર ટ્રસ્ટ, ચેન્નઈ પ્રણતિના સાત નિયમ ૨. સકારાત્મક વલણ અપનાવો, જીવનની જવાબદારી પોતે લો. ૨. કોઈ પણ કાર્યના ધ્યેયને નજરમાં રાખી કામ કરો. ૩. અગત્યના કાર્યોને પહેલાં કરો. ૪. પરસ્પર ફાયદાનો વિચાર કરો, સ્વાર્થી ના બનો. ૫. પહેલાં બીજી વ્યક્તિને સાજો, પછી બીજાને તમારા વિચાર જણાવો. ૬. સહકારથી કાર્ય કરતાં શીખો. ૭. તમારા જ્ઞાન અને આવડતને સુધારતા રહો. ३. पारसराज शाह. पूर्व प्रोफेसर जोधपुर विश्वविद्यालय, ओसियां जैन मन्दिर, आमुख For Private and Personal Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir પાસાગણ ગુણપ્રાર્થના હિરેન દોશી નમું આપના ઉપકારને, નમું આપના ઔદાર્યને નમું આપનાથી મેળવેલી પુણ્યની સમૃદ્ધિને વંદન હજારો આપને, વાત્સલ્યના દાતારને હે પદ્મસાગર પરમ ગુરુવર, પામવા આજે તને મારા ગુરુ હે પદ્મસાગર પામવા આજે તને છે યાચના આજે ગુરુ તારા ચરણને ચૂમીને છે ઝંખના આજે ગુરુ તારા શરણને પામીને વિશ્વાસ છે મારા ગુરુ મુજ આશને અવધારીને હે પદ્મસાગર પરમ ગુરુવર, પામવા આજે તને સંતપ્ત આ સંસારમાં જિનવચન શીતળ જળ બન્યું. આ જિનવચન તારા પ્રતાપે આત્મ તૃપ્તિકર બન્યું. તારા વિના આ દિવ્યષધ પ્રાપ્ત કદીય ના થયું હે પદ્મસાગર પરમ ગુરુવર, પામવા આજે તને છે કાળનું વિચિત્રને, મુજ મન તણી જે કુટિલતા છે દુર્ગુણો સઘળા ગુરુ, અવિનય અને અપવિત્રતા બસ એક છે વિશ્વાસ તારો કામનો ને કિંમતી હે પદ્મસાગર પરમ ગુરુવર, પામવા આજે તને સૂરજ અને વળી ચંદ્ર જળને પુષ્યમાં જે સરસતા એ સરસતાથી અધિકતા ગુરુ આપમાં જીવતી સદા તવ જીવનથી વિલસે સદા ઉપકારભાવ તણું ઝરણ હે પધસાગર પરમ ગુરુવર, પામવા આજે તને For Private and Personal Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर - ३२ મારા જીવનનું ધન તમે, મુજ જીવના છો સ્વજન તમે મારા જીવનમાં સ્વાર્થ વિણ અંધાર દૂર કર્યો તમે મુજ જીવનના સૌંદર્યને શણગાર આપ્યો છે તમે હે પદ્મસાગર પરમ ગુરુવર, પામવા આજે તને ક્યારેક નબળી પળમહીં મુંઝાઉં તો તમે આવજો ક્યારેક મારા પૈર્યની સ્થિરતા વધારી આપજો ક્યારેક મારા ત્રસ્ત મનને સાંત્વના તમે આપજો હે પાસાગર પરમ ગુરુવર, પામવા આજે તને હું ભાગ્યવંત બની ગયો, તુજ ચરણના શરણાં મળ્યાં દુર્ભાગ્ય ગયું મુજ આથમી, તુજ તેજના કિરણો મળ્યાં ખરેખર ! ગુરુ મુજ જનમ આ સાર્થક થયો તુજ મિલનથી હે પદ્મસાગર પરમ ગુરુવર, પામવા આજે તને ત્રણ યુવાકથ વ્યાજ, શરીરનો ઘા, અનિ, અને કષાય આ ચારેય થોડા હોય તો પણ ભરોસો કરવા જેવા નથી. ક વ્યસન બે વાર તલવાર જેવું છે. એક વારથી તમારા આરોગ્ય અને લક્ષ્મીને કાપે છે. તો બીજી ધારથી તમારા મનોબળને કાપે છે. જીવનની પવિત્રતા એ ઘર્મનો પાયો છે. અને જીવ માત્ર પ્રત્યે મૈત્રી એ ઘર્મનું શિખર છે. For Private and Personal Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir क्षमा की शक्ति सुरेश जैन, आई.ए.एस. (से.नि.) क्रोधित होना सरल है। कोई भी व्यक्ति आसानी से क्रोधित हो सकता है। किसी भी व्यक्ति या वस्तु पर अपना क्रोध प्रगट कर सकता है। हमारे लिए क्रोध का नियंत्रण एवं नियमन करना कठिन अवश्य दिखाई देता है, कठिन प्रतीत होता है किन्तु हम थोड़े से प्रयत्न, प्रशिक्षण और धैर्य से अपने क्रोध को नियंत्रित कर सकते है। ऐसे नियंत्रित क्रोध को हम कुछ सीमा तक कभी-कभी रचनात्मक स्वरूप भी प्रदान कर सकते है। कभी-कभी विशेष प्रयास कर क्रोध को उदित ही न होने दें। क्रोध उत्पन्न होने पर तुरंत ही क्रोध को शांत करें । मंद करें। क्षमा का प्रयोग करें। ___ क्षमा शिशु सुलभ सरलता एवं अद्भुत आनंद की जननी है। अनुभवी, परिपक्व सज्जन ओर वृद्ध जन की सजनी हैं! क्षमा करने की प्रवृत्ति अद्भुत मानसिक शक्ति और क्षमता की जननी है। क्षमा संयमित जीवन की उपलब्ध एवं अभिव्यक्ति है। क्षमा का भाव सहनशीलता, उदारता और सद्भाव का जनक है। महत्त्वपूर्ण नैतिक गुण है। आंतरिक चेतना का शोधक है। क्षमा हमारा भला करती है। क्षमा हमारा कल्याण करती है। दूसरे को क्षमा करना, अपनी गलती स्वीकार करना और दूसरे से क्षमायाचना करना महत्वपूर्ण कला है। इस कला को हम प्रयत्न पूर्वक सीखें। दैनिक जीवन में इस कला का उपयोग करें। हम अपने हृदय में क्षमा, मैत्री और करूणा को भरकर रखें। अपने हृदय से सदैव करूणा, क्षमा और मैत्री को छलकने दें। विश्व के सभी धर्मग्रन्थों द्वारा हमारे दैनिक व्यवहार में क्षमा की महत्ता एवं उपयोगिता को स्पष्ट शब्दों में स्वीकार किया गया है। प्राचीनकाल से ही भारत में क्षमा पर अनेक स्वतंत्र पुस्तकें लिखी गई है। ऐसा साहित्य प्रभावी ढंग से हमें क्षमा का यह पाठ पढ़ाता है कि किसी भी व्यक्ति के प्रति घृणा न रखें। मध्यप्रदेश सरकार द्वारा प्रकाशित कक्षा - ७ की भाषाभारती की निम्नांकित हिन्दी कविता की पंक्तियों को गुनगुनाएँ - मैत्री भाव में जगत में मेरा, सब जीवों से नित्य रहें। दीन-दुखी जीवों पर मेरे, उर से करूणा-स्त्रोत बहे ।। For Private and Personal Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रुतसागर - ३२ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दुर्जन-क्रूरकुमार्गरतों पर, क्षोभ नहीं मुझको आए । सौम्यभाव रक्खूं मैं उन पर ऐसी परिणिति हो जाए । # गुणीजनों को देख हृदय में, मेरे प्रेम उमड़ आए । बने जहाँ तक उनकी सेवा करके यह मन सुख पाए ।। होऊँ नहीं कृतघ्न कभी मैं, द्रोह न मेरे उर आए। गुण ग्रहण का भाव रहे नित, दृष्टि न दोषों पर जाए ।। फैले प्रेम परस्पर जग में, औरों का उपकार करें। अप्रिय कटुक कठोर शब्द नहीं, कोई मुख से कहा करें ।। ६७ क्षमा का भाव हमें विकास के पथ पर सदैव आगे बढ़ाता है। ऊँचा उठाता है । हम क्षमा करने से आर्थिक रूप से लाभान्वित होते है। अपितु शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक रूप से स्वस्थ रहते है । अपना कार्य कुशलता पूर्वक कर सकते है। जीवन में सदैव प्रगति करते है। अपनी भूल स्वीकार करने से भी यही लाभ प्राप्त होते है। हम ठेस पहुँचाने वाले व्यक्ति के साथ मित्रता का भाव रखें। ठेस पहुँचाने की घटना को यथाशीघ्र भुला दें। ठेस पहुँचाने वाले को क्षमा कर दें। ठेस पहुँचाने की घटना के बोझ को कभी न ढोऐं कल हुई घटना को कल पर ही छोड़ दें। ऐसी घटना को यथाशीघ्र विस्मृत कर दें । उसको कभी स्मरण नहीं करें । उसकी कभी चर्चा न करें । उसका कभी स्मरण न करें। ऐसी नकारात्मक घटना के स्मरण से हमको ही क्षति पहुँचती है। For Private and Personal Use Only क्षमा की सखी मैत्री के भावों के विकास के लिए अपनी विचारधारा को हम विशाल एवं संवेदनशील बनाएँ । प्रत्येक व्यक्ति के प्रति सद्भाव रखें। प्रत्येक व्यक्ति के साथ सद्व्यवहार करें। अपनी चेतना को उदार और व्यापक बनाएँ। अपनी चेतना को क्षुद्रता और संकीर्णता से बचाएँ। मैत्री केवल हमारे ऊपर ही निर्भर होती है। मैत्री किसी दूसरे व्यक्ति पर निर्भर नही होती है। मैत्री से हमारे मन में उल्लास और उत्साह का संचार होता है । अपने मित्र को देखते ही हमारे चेहरे पर मुस्कान खिल जाती है। हमारी आँखें चमकने लगती है। हमारा हाथ प्रसन्नता से मित्र के हाथ से मिलने के लिए आगे बढ़ जाता है । मैत्री भाव से हमारे मन की ग्रन्थियाँ खुल जाती है। हमारे व्यक्तित्व से दुराव, छिपाव, तनाव और अवसाद जैसे दुर्गुण दूर हो जाते है । हमारा व्यक्तित्व सहज, सरल, सरस और भारमुक्त हो जाता है । Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૬૮ सितम्बर - २०१३ __ मैत्री में क्रोध सदैव बाधक होता है। क्रोध की प्रवृत्ति बाधक होती है। अतः हम अफने व्यक्तित्व में क्रोधित होने की प्रवृत्ति को पनपने ही न दें। छोटी-छोटी बातों पर ध्यान न दें। यदि कोई व्यक्ति हमें चोट पहुँचाता है, हमारा अपमान करता है तो हम क्रोधित हो जाते है। ऐसी चोट और ऐसे अपमान को हम अपने क्रोध का कारण बना लेते है। इस प्रकार धीरे-धीरे क्रोधित होना हमारी स्वाभाविक प्रवृत्ति बन जाती है। चोट पहुँचाने वाले के प्रति हम अपने मन में द्वेष पाल लेते है। द्वेष हमारे शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक और आध्यात्मिक विकास को मंद कर देता है। कभी कभी रोक देता है। द्वेष से भरा व्यक्ति जीवन के पथ में अटक जाता है । वह झुंझलाने को तैयार रहता है। झगड़ने को तैयार रहता है। झुंझलाने एवं झगड़ाने में ही अपने समय और शक्ति का अपव्यय करता है। दुनिया को धुंधले चश्में से देखता है। वह सदैव दूसरे की कमियों को खोजता रहा है। अतः हम झगड़े को सुलझाने के गुण विकसित करें। विवाद सुलझाने की प्रवृत्ति विकसित करें। विवाद सुलझाने की क्षमता विकसित करें। अपने परिवार के सदस्यों के साथ कभी विवाद या झगड़ा न करें। यदि कभी छोटा मोटा विवाद हो जाए तो उसे तुरंत सुलझाएं। उस समय यदि हम क्रोध प्रगट करते है तो हमारा क्रोध क्रोध के रूप में ही हमारे पास तुरंत लौट आता है। यदि हम क्रोध का विचार भी करते है तो क्रोध से ओतप्रोत विचार तुरंत ही हमारे पास लौट आता है। अतः हम क्रोध का प्रभावी ढंग से प्रबंधन करें। क्रोध के भावी और दीर्घकालिक परिणामों पर विचार कर क्रोध को नियंत्रित करें। क्रोध हमारे लक्ष्य की प्राप्ति में बाधक होता है। यह विचार कर क्रोध को नियंत्रित करें। योग और ध्यान के माध्यम से क्रोध और क्रोधान्वित प्रतिक्रिया को शांत करें। ध्यान हमारे हृदय की धड़कन को उपशांत करता है। मस्तिष्क की प्रतिक्रिया को धीमी करता है। क्षमा करने का निर्णय लेने के लिए हम स्वयं सक्षम होते है। क्षमा करने के लिए हम पूर्णतः उत्तरदायी होते है। क्षमा कर हम अपनी प्रवृत्तियों को सकारात्मक बना सकते है। हम अपने सोच, व्यवहार और भावना को सरलता से नियमित कर सकते है। हम दूसरे व्यक्ति के सोच, व्यवहार और भावना को नियंत्रित नहीं कर सकते है | जब कभी हम सोचते है कि दूसरे व्यक्ति ने अपनी गलती स्वीकार नहीं की है। अतः हम उसे क्षमा क्यों करें ? क्षमा प्रदान करने के लिए यह आवश्यक नहीं है कि दूसरा व्यक्ति अपनी गलती स्वीकार करें। क्षमा क्षमाकर्ता के लिए आवश्यक होती है। For Private and Personal Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर - ३२ क्षमा करने से क्षमाकर्ता का स्वास्थ्य श्रेष्ठतर और श्रेष्ठतम हो जाता है। उसकी कार्यकुशलता में वृद्धि हो जाती है ! क्षमा का पूर्ण लाभ क्षमाकर्ता को ही प्राप्ति होता है। क्षमा क्षमाकर्ता का भला करती है। क्षमाकर्ता क्षमा कर अपने मस्तिष्क का बोझ उतारकर प्रसन्न होता है। क्षमा करने से पीड़ित व्यक्ति को अपराधी व्यक्ति की तुलना में अधिक लाभ होता है। दोषी को क्षमाकर हम स्वयं को ही राहत पहुँचाते है। क्षमा की औषधि गहराई में जाकर हमारी चोट और घाव का उपचार करती है। हमारे हृदय में प्रेम और सौहार्द को उत्पन्न करती है, बढ़ाती है। क्षमा करने से हमारा जीवन स्वस्थ और लंबा हो जाता है। हम क्षमाकर बड़ी राहत प्राप्त करते है। दूसरी ओर दोषी व्यक्ति को क्षमा करने से उसके जीवन में नई किरण खिल जाती है। अपने व्यावहारिक जीवन में क्षमा का प्रयोग कर अनेक शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक एवं आर्थिक लाभ प्राप्त किया जा सकता है। यह सही है कि क्षमा करना प्रायः सरल नहीं होता है। वीर और अतिवीर व्यक्ति ही पूर्णतः क्षमा कर पाता है। क्षमा करने के लिए निजी साहस की आवश्यकता होती है। इसीलिए क्षमा को परम बल के रूप में स्वीकार किया गया है! समर्थ व्यक्तियों के आभूषण के रूप में स्वीकार किया गया है। क्षमा कनरे के लिए भगवान से प्राप्थना करना आवश्यकता होता है । क्षमा करने की शक्ति प्राप्त करने के लिए उपवास और आंशिक उपवास करना आवश्यक होता है। गहरी और गंभीर चोट को भरने के लिए धैर्यपूर्वक सतत प्रार्थना करना आवश्यक होता है। इसके लिए ईश्वर से शक्ति प्राप्त करना आवश्यक होता है। यदि हम क्षमा नहीं करते है। आवशे में रहते है। बदला लेने की योजनाएं बनाते रहते है। बदले की भावना को पैनी और तेज करते रहते है। इसके परिणाम स्वरूप हमारी हृदयगति बढ़ जाती है। हमारे ब्लडप्रेशर में वृद्धि हो जाती है। हमारे हाथ और पैर फूल जाते है। लड़खड़ाने लगते है। हम उदास और चिंतित हो जाते है। समुचित नींद नीहं ले पाते है। दोषी व्यक्ति को भुला देना क्षमा नहीं है। उसके साथ अपने संबंध समाप्त करना क्षमा नहीं है। उसके साथ दूरी रखना क्षमा नहीं है। दोषी व्यक्ति से आगे के लिए संबंध तोड़ लेना क्षमा नहीं है। क्षमा आंतरिक प्रक्रिया होती है! क्षमा पीड़ित व्यक्ति द्वारा दोषी व्यक्ति को प्रदत्त महत्वपूर्ण भेंट होती है। यह भेंट देकर For Private and Personal Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ७० सितम्बर २०१३ क्षमाकर्ता संतोष प्राप्त करता है। क्षमा करने के पूर्व पीड़ित व्यक्ति दोषी व्यक्ति की चोट से पहुँचे कष्ट को अपने हृदय से निकाल देता है। क्षमा की कोई शर्त नहीं होती है। क्षमा करते समय क्या ? कौन ? और कैसे ? जैसे प्रश्न उदित नहीं होते है | क्षमा के साथ किन्तु और परन्तु से नहीं जुड़ते है। अतः हम पूरी सही और सच्ची क्षमा प्रदान करें। ऐसी क्षमा के पश्चात् भविष्य में पुनः क्षमा करने की कभी भी आवश्यकता शेष नहीं रह जाती है। ऐसी क्षमा ही पवित्र क्षमा होती है। इस प्रकार क्षमा कर हम अपने संबंधों को घनीभूत बनाऐं पारस्परिक निकटता बढ़ाऐं । दोषी व्यक्ति के साथ दुर्भावना के स्थान पर सद्भावना विकसित करें । उसकी कभी बुराई न करें । उसकी सदा भलाई करें। उससे निकटता रखें । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only - जब हम क्षमा नहीं करते हैं तब नकारात्मक भावना को पाले रहते हैं । ठेस पहुँचाने वाले व्यक्ति के प्रति द्वेष और घृणा की भावना को अपने मन में बनाऐं रखते है । द्वेष ओर घृणा की ऐसी भावना हमारे शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक और आध्यात्मिक विकास को विपरीत रूप से प्रभावित करती है। अतः प्रतिशोध लेने के लिए गुस्से की आग को जलाऐं न रखें। ऐसी आग को बुझाने का प्रयत्न करें। यदि हम गुस्से की आग को बुझा नहीं पाते है तो यह आग हमें ही जलाने लगती हैं। इस आग से हम अनेक बीमारियों से पीड़ित हो जाते है | हमारी प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है। क्रोध का हमारे शरीर पर घातक प्रभाव पड़ता है । क्रोध विष की भांति हमारे शरीर को क्षति पहुँचाता है। क्षमा शक्तिशाली दवा की भाँति हमें शांति पहुँचाती है। क्षमा स्वास्थ्य, सुख और उपलब्धि की वैज्ञानिक और सुदृढ़ सीढ़ी है। सकारात्मक चिंतन की आधारभूमि है। क्षमा हमारी आंतरिक शक्तियों को उन्मुक्त करती है। उन्हें रचनात्मकता और प्रभावकता प्रदान करती है। क्षमा करने से हमें पूरी संतुष्टि और राहत प्राप्त होती है। क्षमा हमारी महत्वपूर्ण संवेदना है। क्षमा की संवेदना को सीखना और अपनाना अत्यावश्यक है । परिणामतः हम सदैव क्षमा करने का निर्णय लें। क्षमा करने का निर्णय लेने के पूर्व समुचित और सही समझ के भाव विकसित करें। गंभीरता और लगन पूर्वक क्षमा की भावना को अपने जीवन में उतारें। अपनी जीवन शैली को रचनात्मक बनाऐं | अपने जीवन को सुखी, संतुष्ट एवं सार्थक बनाऐं । क्षमा की शक्ति का उद्घाटन कर विकास के चतुर्मुखी पथ पर आगे बढ़े। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir योगपरम्परा में वर्णित आध्यात्मिक विकास एवं गुणस्थान डॉ. दीपा जैन (गतांक से आगे) योग वशिष्ठ में वर्णित चौदह गुण श्रेणियाँ - योग वशिष्ठ में वर्णित चौदह गुण श्रेणियों को दो प्रमुख उप-विभागों में रखा गया है। प्रथम विभाग में इन सात भूमियों का समावेश किया गया है जिनका सम्बन्ध अज्ञान से है तथा अंतिम सात भूमियों का समावेश किया गया है जिनका सम्बन्ध अज्ञान से है तथा अंतिम सात भूमियों में उन अवस्थाओं को सम्मिलित किया गया है जिनका सम्बन्ध ज्ञान या जाग्रत स्थिति से है। (अ) अज्ञान की सात अवस्थाऐं - अज्ञान की ये सात अवस्थाएं ज्ञानसार में निम्नवत् रुप में वर्णित की गई हैं - तत्रारिपिततमज्ञान तस्य भूमिरिमः श्रृणु । बीजजागृत्तथा-जागृतृमहाजागृत-सुशुप्तकम ।। जागृतस्वप्नस्तथा-स्वप्नःस्वप्नजागृत-सुशुप्तकम। इति सप्तविधी मोहः पुनरेव परस्परम् ।। (ज्ञानसार पूर्णताष्टक) (१) बीजजाग्रत अवस्था - भविष्यच्चित-दिनामशब्दार्थभाजनम् । वीजरूपं स्थितं जागृत बीज जागृतमुच्यते ।। यह चेतना की प्रसुप्त अवस्था है जो वनस्पति जगत की स्थिति के समकक्ष है। यहाँ अहम् भाव की अनुभूति जागृत नहीं होती ! जैन सिद्धान्त के अनुसार ऐसे वनस्पतिकाय जीवों में चेतना के और अधिक विकास की क्षमता होते हुए भी व्यक्त नहीं हो पाती मात्र बीजरुप में ही इसका अस्तित्व रहता है इसीलिए इसे बीजजागृत अवस्था कहा जाता है। (२) जाग्रत अवस्था - एषा ज्ञप्तेर्नवावस्था त्वं जागृत्संसृति श्रृणु। नवप्रसूतास्य परादयं चाहमिदमिदं च मम ।। For Private and Personal Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७२ सितम्बर - २०१३ अहम् और ममत्व के अत्यल्प विकास की अवस्था जाग्रत स्थिति मानी जा सकती है। यह पशुजगत के (त्रस या त्रियञ्च) कीट पतंगो आदि असंज्ञियों में पाई पाती है। यहाँ अल्पांश में ही अहम् भाव रहता है। (३) महाजाग्रत अवस्था - पीवरः प्रत्ययः प्रोक्तो महाजागृदिति स्फुरन्। अरूढमथवारूढं सर्वथा तन्मयात्मकम् ।। इस अवस्था में अहम् भाव की विशेष पुष्टि होती है। यहाँ ममत्व के पूर्ण विकास व आत्म चेतना (कार्य करने की शक्ति) की स्थिति को समझा जा सकता है। यह अवस्था देव यो सैनी पंचेन्द्रियों में होती है। (४) जाग्रत स्वप्न अवस्था - यज्जागृतो मनोराज्यं जागृतस्वनः स उच्यते । द्विचन्द्रशुक्तिकारूप्य मृगतृष्णादि-भेदतः ।। यह मनोकल्पना या दिवा स्वप्न की अवस्था है इसमें भ्रम युक्त व्यक्तित्व की उपस्थिति होने से मृगमरीचिका रहती है। इसके चलते वह जीव विषयवासनाओं में लीन रहता है। (७) स्वप्न (निद्रित) अवस्था - अभ्यासात् प्राप्य जागृत्यं स्वप्नोनेक विधोमभवेत्। अल्पकालं मया दृष्टं एवं नो सत्यमितयपित ।। इस अवस्था की अनुभूतियाँ को नींद के पश्चात् जागने की चेतना के रूप में समझा जा सकता है। इस दशा में स्वप्न में देखी वस्तु भी सत्य प्रतीत होती है। (६) स्वप्न जाग्रत अवस्था - निद्राकालानुभूतेर्ये निद्रान्ते प्रत्ययो हि यः। स स्वप्नः कथितस्यान् महाजागृत्स्थितेर्हदि ।। चिरसंदर्शनाभावाद् प्रफुल्लवृहदवपुः। स्वप्नो जागृतयारूढो महाजागृत्पदं ततः ।। अक्षते वा क्षते देहे स्वप्नजागृन्सतं हि तत्। षडवस्था परित्यागे जड़ा जीवस्य या स्थितिः ।। यह एक प्रकार की स्वप्निल चेतना है जो जागते हुए सपने देखने के समान For Private and Personal Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७३ श्रुतसागर • ३२ है। इसमें देखे हुए स्वप्नों की अनुभूति या स्मृति जीव के हृदय में लम्बे समय तक अंकित रहती है। (७) सुषुप्ति अवस्था - भविष्दुःखबोधादया सोषुप्ति शोच्यते गतिः। एते तस्यामवस्थायां तृण-लोष्ठ शिलादयः ।। आत्म चेतना की सत्ता होते हुए भी यह जड़ता (स्वप्न रहित निद्रा) की अवस्था है। जीव अपनी आत्मा के कर्मावरणों के प्रति शोक तो करता है किन्तु जड़ता के कारण वासनात्मक प्रवृत्तियाँ को हटा नहीं पाता। मंगतरायकृत बारह भावना में सारभूत रूप में अज्ञान की सात स्थितियों को लेकर इस प्रकार स्पष्टता की गई है - जल नहिं पावे प्राण गमावे भटक भटक मरता। वस्तु पराई माने अपनी भेद नहीं करता ।। (ब) ज्ञान की सात भूमिकाएँ - ज्ञान की ७ भूमिकाओं को निम्नलिखित श्लोकों के द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है ज्ञानभूमिः शुभेच्छाख्या प्रथमा समुदाहृता। विचारणा द्वितीया सु तृतीया तनुमानसा ।। सत्त्वापत्तिश्चतुर्थी स्यात्ततो संसक्ति नामिका। पदार्था-भाविनी षष्ठी सप्तमी तुर्यगा स्मृता ।। (उ.प्र.स. पृ. ११८) (१) शुभेच्छा अवस्था - स्थितः किं मूढ? एवास्मि प्रेक्ष्येहं शास्त्र-सज्जनैः। वैराग्य-पूर्व-मिच्छेति शुभेच्छेत्युच्यते बुधैः ।। इस भूमि में वैराग्य भावना के उदय से जीव शुभोपयोग का सम्यक् बोध प्राप्त करता है! इस अवस्था में वह स्वयं से संवाद करता है कि हे आत्मन्! तू इतना मूढ क्यों हो रहा है? हाँ, मैं सचमुच मूढ़ तो हूँ किन्तु अब शास्त्र व सदसंगति से निजस्वरूप को कल्याण की भावना के साथ समझूगा। (२) विचारणा अवस्था - शास्त्र-सज्जन-संपर्क-वैराग्याभ्यासपूर्वकम्। सदाचारप्रवत्तिर्या प्रोच्यते सा चिचारणा ।। इस दशा में साधक सदाचार में प्रवृत्त रहने का निर्णय करता है और अणुव्रतों के पालन में प्रवृत्त हो जाता है। इसकी तुलना ५वें देशविरत नामक For Private and Personal Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७४ सितम्बर - २०१३ गुणस्थान से की जा सकती है। (३) तनुमानसा अवस्था - विचारणा शभेच्छाभ्यामिनद्रियार्थे एवं सक्तता । वक्त्रं यात्र सा तनुताभावात् प्रोच्यते तनुमानसा ।। यह इच्छाओं और वासनाओं के क्षीण होने की अवस्था है। इस अवस्था में यह कहना उचित होगा कि साधक की इच्छाओं और वासनाओं के प्रति आसक्ति क्षीण-प्राय (तनुभाव शेष) हो जाती है। इसे छठवें गुणस्थान के समकक्ष माना जा सकता ह। (४) सत्वापत्ति अवस्था - भूमिकात्रितयाभ्यासाच्चित्तेर्थे विरतेर्वशात्। सत्यात्मनि स्थितिः शुद्धे सत्वापत्तिरुगाहृता ।। यह शुद्धात्म स्वरूप की वह अवस्था है जो जीव को बाह्य पदार्थों से विरक्ति के परिणामस्वरूप प्राप्त होती है। यह आत्मा में शुद्ध परिणामों की स्थिरता का प्रतीक है। (७) संसक्ति अवस्था - दशाचतुष्टयाभ्यासादंससर्ग-फलेन च। रूढसत्वचमत्कारात् प्रोक्ता संसक्तिनामिका ।। यह आसक्ति के विनाश की असंसर्ग या अनासक्ति के परिपाक की अवस्था है जिसमें चित्त के अन्दर निरातिशय आत्मानन्द का अनुभव हो जाता है। (६) पदार्थभावनी अवस्था - भूमिकापञ्चकाभ्यासात् स्वात्मारामतया दृढम्। आभ्यन्तराणां बाह्यानां पदार्थानामभावनात् ।। परप्रयुक्तेन चिरं प्रयत्नेनार्थ-भावनात्। पदार्थभावना नाम्नी षष्टी संजायते गतिः ।। यह भोगेच्छा के पूर्णतः विनाश की अवस्था है जिसमें बाह्य और अभ्यन्तर पदार्थों की भावना दृढ़तापूर्वक छूट जाती है और शरीर की स्थिति भी पर प्रयोग के निमित्त (त्रियोग जनित) से रहती है जीव की इच्छा पर संचालित नहीं होती। For Private and Personal Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर - ३२ ७५ (७) तुर्यगा अवस्था - भूमिषट्कचिराभ्यासाद् भेदस्यानुपलम्भतः। यत्स्वभावैकनिष्ठत्वं सा ज्ञेया तुर्यगागति ।। यह देहातीत विशुद्धि व आत्मरमण की अवस्था या मुक्तावस्था है। इसे जीवान्मुक्त अवस्था कहते हैं। इस भूमि की तुलना १३वें गुणस्थान के उत्तरार्ध से की जा सकती है। उपरोक्त चौदह भूमियों का गुणस्थान से तुलनात्मक विश्लेषण करने पर स्पष्ट होता है कि योगवशिष्ठ में वर्णित प्रथम सात अवस्थाएँ मिथ्यात्व गुणस्थान तथा अधिकतम तृतीय मिश्र गुणस्थान के साथ समतुल्यता रखती है जिसे आध्यात्मिक अविकास कहा जाता है। ज्ञान की सात भूमियों में से पहली तथा दूसरी का पूर्वार्ध चतुर्थ सम्यक्त्व गुणस्थान जैसा है जिसमें साधक सम्यग्दर्शन के साथ आध्यात्मिक यात्रा की ओर आरम्भिक कदम रखता है इस द्वितीय भूमि का उत्तरार्ध तथा तीसरी भूमि का पूर्वार्ध देशविरत, प्रमत्त संयत, अप्रमत्त गुणस्थान के समान प्रगति पथ पर बढ़ने का प्रयास है। तीसरी भूमि के उत्तरार्ध में ८-९वें गुणस्थान जैसी अनुभूति की अपेक्षा की जा सकती है। चौथी भूमि की समानता १०वें और ११वें गुणस्थान से कर सकते हैं जबकि पाँचवी असंशक्ति भूमि में जीव के परिणाम १२वें गुणस्थान के समकक्ष प्रतीत होते हैं। इसी क्रम में छठवी भूमि की लाक्षणिकताएँ सयोग केवली गुणस्थान से मिलती-जुलती हैं। समीक्षात्मक रूप स यह कहा जा सकता है कि योगवशिष्ठ में वर्णित १४ श्रेणियाँ भले ही ज्यों की त्यों मेल न खाती हों फिर भी दोनों दर्शनों के अभिगम लक्ष्य सिद्धि के पथ को लेकर उच्चस्तर पर साम्यता का परिमाण मिलता है। योग दर्शन में आध्यात्मिक विकास की अवस्थाएँ - योग साधना का अंतिम लक्ष्य है। चित्त निरोध अर्थात् (मन) योगिक चंचलता (मन, वचन, काय) को काबू में रखना ही योग निरोध है। इसलिए योग भी चित्त का धर्म है। दुःख और व्याकुलता से मुक्ति एवं शाश्वत सुख की अनुभूति हेतु इसका नष्ट होना अपरिहार्य है। 'चित्त में सत्व-रजस-तमस इन तीन गुणों की विद्यमानता रहती है। वास्तव में यह अस्थिरता राग-द्वेषादि, संकल्प-विकल्प के चलते उत्पन्न होती है। चित्त की विशिष्टता को उसकी पाँच अवस्थाओं अथवा भूमियों के माध्यम से समझा जा सकता है For Private and Personal Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ७६ सितम्बर - २०१३ (१) मूढ़ अवस्था - यह तमोगुण प्रधान अवस्था है जहाँ अज्ञान और आलस्य का साम्राज्य होता है। ऐसा जीव अधर्म व अवैराग्यादि विषयों में प्रवृत्त होता है। जैन दर्शन इसे मिथ्यात्व के रूप में वर्णित करता है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (२) क्षिप्त अवस्था यह रजोगुण प्रधान अवस्था है जिसमें भौतिकता के प्रति अनुराग, आसक्ति या मूर्छा होती है, विषय-वासना युक्त चंचलता होती है तथा जीव वासनाओं का दास होने से दुःखी रहता है। यह मिश्र गुणस्थान से तुलनीय है। (३) विक्षिप्त अवस्था - चित्त की थोड़ी कम चंचलता ही विक्षिप्त चित्तमय है । इसका आशय भोगों से विरति या निष्क्रियता अथवा प्रयास पूर्ण अल्पता की आरम्भिक स्थिति से लिया जा सकता है जहाँ तमो और रजोगुण का सत्वगुण संघर्ष आरम्भ होता है। साधक तमो-रजो प्रवृत्तिपरक भावों को दबाने का प्रयास करता है जबकि ये शुभाशुभ कर्म उसे विक्षोभित करते हैं। इसकी आरम्भिक दशा की तुलना सम्यग्दृष्टि गुणस्थान से तथा उत्तरार्ध को पाँचवें और छठवें गुणस्थान के समीप माना जा सकता है। बौद्ध परम्परा में यह स्त्रोतापन्न भूमि के निकट प्रतीत होती है। (४) एकाग्र अवस्था - रजो तमो वृत्तियाँ का निरोध करके सात्विक वृत्तियों की प्रधानता से सदैव एक ही विषय का ध्यान एकाग्र चित्त कहलाता है इससे रजो तथा तमो वृत्ति का निरोध होता है लेकिन सात्विक वृत्ति शेष रहती है। इसी में संप्रज्ञात योग होता है। यह चेतना की पूर्ण जाग्रत अवस्था है जहाँ वासनाओं को क्षीण (जीर्ण-शीर्ण) कर साधक सातवें से १२वें गुणस्थान समकक्ष तक की विकास यात्रा तय करता है। (५) निरुद्ध अवस्था - इस भूमि में साधक चेतन स्व-स्वरूप में स्थिर होकर हर तरह के परिणामों का पूर्ण निरोध करता है । त्रिविध वृत्तियों का निरोध करने पर जब चित्त संस्कार मात्र अवशिष्ट रहता है तब निरुद्ध कहा जाता है । १३वें और १४वे गुणस्थान की विशिष्टताओं के समकक्ष इसे रखा जा सकता है। उपसंहार अंत में यह कहा जा सकता है कि योग दर्शन विश्व और भारत के प्राचीन दर्शनों में से एक है। सैद्धान्तिक तौर पर इसमें भी आध्यात्मिक विकास की क्रमबद्ध व्यवस्थाओं का उल्लेख मिलता है जैसा कि जैन दर्शन में वर्णित गुणस्थान अभिगम में प्रवधान हैं । यद्यपि गुणस्थान श्रेणियाँ योग दर्शन में ज्यों की त्यों नहीं For Private and Personal Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर • ३२ ७७ मिलती तथापि समान भावना वाली आध्यात्मिक विशुद्धि की भिन्न अवस्थाओं कमेश इनके साथ व समकक्ष अवश्य रखा जा सकता है। इसका अर्थ इतना अवश्य मिलता है कि गुणस्थान आध्यात्मिक उत्थान पतन की जिन व्यवस्थों का उल्लेख करता है वह निरी कल्पना मात्र नहीं है अपित तार्किकता व नैतिकता की कसौटी से बाहर निकले सैद्धान्तिक व्यवहारों का सामान्यीकरण है। संदर्भ १. अद्वैतमार्तण्ड और शंकर वेदान्त २/४/५) २. अद्वै. मा. पृ. ९६, आयं च ध्येयाकार चित्तवृत्तिप्रवाहरूपध्यानस्यैव परिपाक इति ध्येयं । उक्तं चेदं पातंजले ३-३ मुक्तोनिषद २५३) ३. अद्वैतमार्तण्ड और शंकर वेदान्त पृष्ठ १००, १०२ ४. मंगतरायकृत बारह भावना ५. उमास्वामिकृत तत्त्वार्थसूत्र ६. पं. दौलतरामजीकृत छः ढाला ત્રણ મુવાડવા ક્ષમા આપવી ઉત્તમ છે. પણ ભૂલી જવું એના કરતા પણ ઉત્તમ છે. જ એક મનુષ્ય બીજા મનુષ્યના મનની વાત માત્ર સહાનુભૂતિથી અને પ્રેમથી જાણી શકે છે, ઉંમર અને બુદ્ધિથી નહીં. * ३॥ सावता वृक्षो न छे. વર્ષા વખતે વાદળો બને છે. સંપત્તિ આવતા સજન નર્ક છે. પરોપકારી જીવોનો સ્વભાવ જ નમ્ર હોય છે. For Private and Personal Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागरना केटलांक सुधाराओ केटलांक समयथी अप्रकाशित साहित्य आ पत्रिकाना माध्यमथी प्रकाशित थई रह्युं छे. छेल्लां २-३ अंकोमां विद्वान मुनि - भगवंतोए सुधारा सूचव्या छे. तेमांथी विशेष स्थानो अत्रे नोंध्या छे. आ प्रकारे अमारुं ध्यान दोरवा बदल ते मुनिभगवंतोनो खूब खूब आभार. संपा. अंक नं. २९मां छपायेल सम्यक्त्वमूल द्वादशव्रत स्वाध्याय ० कडी क्रमांक २२मां घाटना स्थाने थाट वांच. ० कडी क्रमांक ६४मां तेहना स्थाने जेह वांचवं. ० कडी क्रमांक ६९मां अथावना स्थाने अथवा वांच. अंक नं. २९मां छपायेल सरुपाइ बारव्रतोच्चार टीप ० कडी क्रमांक ८मां निखिखिदं ना स्थाने निखिपेइ वांचवं. ० कडी क्रमांक २२मां धणी अमिलइना स्थाने धणीअ मिलइ वांचवं. ० कडी क्रमांक ३१मां विषधर तु भयना स्थाने विषधरनुं भय एम वांच. ० कडी क्रमांक ५२मां तिल तू अरिधानना स्थाने तिल तूअरि धान वांचवं. ० कडी क्रमांक ८०मां रुद्रध्यन न सोसना स्थाने रुद्रध्यान न सोस अंक नं. २९मां छपायेल श्राविका गोरी बारव्रत इच्छा परिमाण टीप ० कडी क्रमांक ७मां अधसंचना स्थाने अघसंच वांचवं. अंक नं. २९मां प्रकाशित भरुचतीर्थना प्रतिमा लेखो. आलेखोमां अनुक्रम नं. २, ५, अने ७९ पर छपायेला लेखो पू. आचार्य श्री बुद्धिसागरसूरिजी महाराज द्वारा प्रकाशित धातुप्रतिमा लेखसंग्रहमां प्रकाशित होवा छतां अत्रे थोडा सुधारा साथे प्रकाशित कर्या छे. ए सिवायना बधा ज लेखो नवा छे. अंक नं. ३१मां उपदेशमाळा कृति सूचिमां नीचेनी त्रण कृति उमेरवी. ** उपदेशमाला बालावबोध मा. गु. मेरुसुंदर * उपदेशमाला शकुनावली * उपदेशमाला छप्पय मा. गु. नयचंद्र मा. गु. उदयधर्म For Private and Personal Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir આચાર્યશ્રી લાસસાગરસૂરિ જ્ઞાનમંદિર, કોબા સંક્ષિપ્ત કાર્ય અહેવાલ ઓગટ-૧૩ જ્ઞાનમંદિરના વિવિધ વિભાગોના કાર્યોમાંથી ઓગષ્ટ-૧૩માં થયેલાં મુખ્યમુખ્ય કાર્યોની ઝલક નીચે પ્રમાણે છે. ૧. હસ્તપ્રત કેટલૉગ પ્રકાશન કાર્ય અંતર્ગત કેટલૉગ નં. ૧૬ માટે કુલ ૫૪૯ પ્રતો સાથે ૧૮૧૯ કૃતિલિંક થઇ અને આ માસાંત સુધીમાં કેટલોગ નં. ૧૬ માટે ૬૬૩૧ લિંકનું કાર્ય પૂર્ણ થયું તથા કેટલોગ નં. ૧૭ માટે પ૯૮ લિંકનું કાર્ય કરવામાં આવ્યું. ૨. હસ્તપ્રતોના ૯૭૮૦૧ પૃષ્ઠો પ્રીન્ટેડ પુસ્તકોના ૨૪૮૭ મળી કુલ ૧૦૦૨૮૮નું સ્કેનીંગ કાર્ય કરવામાં આવ્યું. ૩. સાગરસમુદાય ગ્રંથ તથા વિશ્વ કલ્યાણ ગ્રંથ પુનઃ પ્રકાશન પ્રોજેક્ટ હેઠળ કુલ ૬૪૨ પાનાઓની ડબલ કરવામાં આવી. ૪. લાયબ્રેરી વિભાગમાં પ્રકાશન એન્ટ્રી અંતર્ગત કુલ ૧૫૦ પ્રકાશનો, ૭૬૩ પુસ્તકો, ૨૨૯ કૃતિઓ તથા પ્રકાશનો સાથે ૬૬૦કૃતિ લિંક કરવામાં આવી. આ સિવાય ડેટા શુદ્ધિકરણ કાર્ય હેઠળ જુદી-જુદી મહિતીઓના રેકૉર્ડોર્સમાં સુધાર કાર્ય કરવામાં આવ્યું. પ. મેગેઝીન વિભાગમાં ૭૦ મેગેઝીનોના અંકોની એન્ટ્રી કરવામાં આવી. ૬. ૧૨ વાચકોને ૧૮ ગ્રંથોના ૧૫૨૨ પૃષ્ઠોની ઝેરોક્ષ નકલ ઉપલબ્ધ કરાવવામાં આવી. આ સિવાય વાચકોને કુલ ૭૧૫ પુસ્તકો ઇશ્ય થયાં તથા ૭૪૬ પુસ્તકો જમા લેવામાં આવ્યાં. ૭. ભેટકર્તાઓ તરફથી ૭૧૮ પુસ્તકો ભેટ સ્વરૂપ પ્રાપ્ત થયાં. ૮. વાચક સેવા અંતર્ગત પ. પૂ. સાધુ-સાધ્વીજી ભગવંતો, સ્કૉલરો, સંસ્થાઓ વિગેરેને ઉપલબ્ધ માહિતીના આધારે જુદી-જુદી ક્વેરીઓ તૈયાર કરી આપવામાં આવી, એમાંથી ઉપયોગી પ્રકાશન સાહિત્ય અને હસ્તપ્રત સાહિત્ય એમને આપવામાં આવ્યું. ૯. સમ્રાટ્ સંપ્રતિ સંગ્રહાલયની મુલાકાતે પ૧૯ યાત્રાળુઓ પધાર્યા. ૧૦. શ્રતસાગરનો ઓગષ્ટ-૨૦૧૩નો અંક નં-૩૧ પ્રસિદ્ધ કરવામાં આવ્યો. For Private and Personal Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समाचार सार पर्युषणपर्वनी आराधना आंबावाडी श्री संघमां पू. गुरुभगवंतनी पावन निश्रामां पर्युषण पर्वनी आराधना खूब सुंदर रीते थई हती. पू. गुरुभगवंते मनोवैज्ञानिक आयामोथी पर्युषण पर्वना महात्म्यने उजागर कर्यु हतुं. तो मुनिवर्यश्री विमलसागरजी महाराजे कल्पसूत्र अने एमां दर्शावायेला आचार अने कर्तव्योने आधुनिक युगनी विटंबणाओ माटे औषध समान गणाव्या हता. तेओए पर्युषण पर्व दरम्यान श्री संघना तमाम भाविको दरेक आराधनामां आनंदसभर बन्या हता. पू. गुरुदेवश्रीनी पावननिश्रामां श्री संघनी आराधना खूब सुंदर रीते थवा पामी हती. श्रावकजीवनना कर्तव्योनुं श्रवण, कल्पसूत्रना प्रवचनो अने जन्मवांचन जेवा विशिष्ट प्रसंगो श्री संघ माटे यादगार संभारणा सम बनी रह्या हता. [ पांच अप्रकाशित ग्रंथोनो विमोचन समारोह | मुंबइ माटुंगा श्री संघना उपक्रमे आचार्य श्री कनकसूरि महाराजना स्वर्गारोहणना ५०मा वर्षनी पूर्णाहुति निमित्ते श्रुतोद्धार समारोहमां पांच ग्रंथो प्रकाशित थया हता, आ प्रसंगे श्री कुमारपाळभाई, श्री जीतुभाई, संस्थाना ट्रस्टीवर्य श्री मुकेशभाई, अने श्री बाबुभाई बेडावाळा विगेरे उपस्थित रह्या हता. प्राचीन हस्तप्रतोना आधारे आ कृतिओनुं धीरज अने धगशथी संपादन कार्य करनार तमाम मुनिभगवंतो अने कार्यकरोने उपस्थित सहुए अनैकशः धन्यवाद पाठव्या हता. अप्रकाशित साहित्यने प्रकाशित करवा माटे हस्तप्रत आपनार दरेक संस्थाओनो हार्दिक आभार मानवामां आव्यो हतो. विशेष करीने आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर प्रत्ये आभार व्यक्त को हतो. आ समग्र समारोहy संचालन श्री पारसभाई पंडितजीए कयूँ हतुं. कनकसूरि प्राचीन ग्रंथमाला अंतर्गत नीचे मुजबना ग्रंथो प्रकाशित थया हता. * अगडदत्त रासमाला (११ रासा साथे विस्तृत प्रस्तावना सहित) * मंगलकलश रासमाला (१२ रासा साथे विस्तृत प्रस्तावना सहित) * मदनधनदेव चरित्र (मदनधनदेवचरित्र संबंधी अप्रकाशित कृति संग्रह) * मंगलकलश चरित्रसंग्रह (११ कथाओना कृति परिचय साथे संपादन) * नेमिनाथ जिन स्तोत्र संग्रह (विविध भाषामय ११८ स्तोत्रोनो संग्रह) For Private and Personal Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री ओशियाजी तीर्थनी समीप रहेली टेकरी उपर आचार्य श्री रत्नप्रभसूरीजी महाराजना पगला अने देवकुलिका For Private and Personal Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पू. गुरुदेवश्री- शाश्वत सर्जन आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर-कोबा श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र-कोबा श्री विश्वमैत्रीधाम बोरीज, गांधीनगर श्री लोढा धाम जैन तीर्थ श्री गोडीजी महाराज जैन मंदिर-पायधुनी BOOK-POST / PRINTED MATTER प्रकाशक आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबा, गांधीनगर - 382007 फोन नं. (079) 23276204, 205, 252 फेक्स : (079) 23276249 E-mail: gyanmandir@kobatirth.org website : www.kobatirth.org For Private and Personal Use Only