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श्रुतसागर - ३२
हुँ थिउ वृद्धअपार रे, रिषभ यौवनकुमार रे ।।५।। राजि ठवु तुम्हे जाई रे, आव्या ते सज थाई रे ।।६।। उदकनइ कारणि पुहुता रे, कमलदले संजुत्ता रे । 10 | ! अवसरिइं तिहा आवइ रे, जिननइ राजि बइसारइ रे ।।८।। मस्तकि मुकुट पहिरावइ रे, आभरणे अंग भरावइ रे ।।९।। मस्तकि धरीयलां छत्र रे, बिहुँ पखि च(चा)मर पवित्र रे ।।१०।। युगलीआ उदक लेई आवइ रे, प्रभुनई अंगूठइ नहवरावइ रे ।।११।। देखी अतिहि विनीत रे, हरषिउं इंद्रनुं ची(चि)त रे ।।१२।। विनीतानयरीय थापीय रे, चतुरंगिणीसेना आपी रे ||१३ ।। सुरपति कीधउ काज रे, जिनराय भोगवइ राज रे ।।१४।।
|| ढाल-३१।।
इम छ लाखपूरव सार, राज भोगवइ गुण भंडार ||१|| तव बाहु पीढ तणा जंतु, सर्वारथ विमान हुंत ।।२।। सुमंगला कूखि अवतार, हऊआ ब्राह्मीअ भरथ(त)कुमार महापीढ सुबाहु दोइ. सुंदरी बाहूबलि होइ ||३|| अट्ठाणूं(गुं) पुत्र अनेरा वली, मात सुमंगला केरा ! शमशाखा इम परिवार, पसरिउ श्रीनाभिमल्हार |३|! इम पालइ नीतिइ राज, टालइ युगलधर्मना काज। ऊपाया श(शिल्प ते सोई, वडां पांच ते माहि जोई ।।४।।
इम पुरव त्रिआसीलाख, घरवासि रह्या शतशाख । हिव चारित्र अवसर जाणइ. मनि संयमभावनुं आणइ ।।५।।
॥ ढाल-३२ ।। अवसर जाणी इंद्रिइ जिनदीक्षा तणु, भंडारी बोलावी(वि)उ ए| सांभलि तूं महाभाग दानसंवत्सर, देवा अवसर आवीउ ए |1911
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