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श्रुतसागर - ३२
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// त्रूटक //
भावसितं पाली जाण, पामीउं केवलनाण ।
हुं विषयनइ रसि रत्त, नवि लहिउ एह भवजत्त* !! एह भव न जाणिउ जाअतोनइ ", पांचइ इंद्री भोलविउ । आगइ श्रीजिनधर्म पाखइ, भवअनंता रोलविउ ||२||
हिव हूंअ घरि जई पुत्र राजइ ठवी, चारित्र, लेसिउंअ तिजीअ भोग। श्रीमती भइ तुम्ह साथि अम्हे लेइसिउ, संयम व्रत-तप तणा योग ||
// त्रुटक //
इम योग करिवा भाव, आवीउ निज घरि राउ (त) ! निसि नीं( निं) द्र नावइ सेजि", राणीअ राज हेजि ।। राणीअ राजा मनिहि चिंतइ, किमइ दिनकर ऊगमइ । घर-वास छांडी लिउं चारित्र, माहरइ मनि इम गमइ ||३||
इम करी पुढि रायनई री ( रा ) णीय, पुत्र न जाणइ तेह परि । राजनु लोभीअ निसिभरि आवीय, विषधूम्र कीधउ सूयणघरे ||४|
|| लूटक ।।
विषधूमनु थिउ व्याप, रायइं ते छांडिउ आप। दोइ जणा काल करंति, युगलीआं तिहाथी हुंति ।। युगलीआंथी काल करीनइ, हऊआ सोहम सुरवरा । आठमइ भव श्रीरिषभ जिनवर, थयां भोग भोगीसूरा ||
।। ढाला-चंदनबालानु || || नवमउ भव सां[भ]लु ए ।।
महाविदेह ए सखी क्षेत्र मझारि, वच्छ विजयधन कनकं भरी ए । प्रभंकरा ए पुरीअच्छ (छ) इ विशाल, केसव वैद्य तिहा कणि हउआ ए । मिलीया एतसु च्यारइ ए मित्र, रायसुत मंत्रीसुत श्रेष्टिपुत्र । चउथु ए सारथपति पुत्र, एकठा मिलइ ते वैद घरे 119 ||
// त्रूटक ||
वैदनइ घरि आविआ तव विहरता श्री मुनिवरा । कृमि कोढ सघलूं सइर" व्यापिउं, तोहि ऊषध नवि करा ।
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