Book Title: Prakrit Path Chayanika Ucchatar Pathyakram
Author(s): B L Institute of Indology
Publisher: B L Institute of Indology
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ qন। पाठ-चयनिका Jorfol उच्चतर पाठ्यक्रम SUSCULEUSNS SERICS LUTROSantil ԿԱօԱՆՆՆՆշը MASHUPAUGU * भोगीलाल लहेरचन्द इन्स्टीट्यूट ऑफ इण्डोलॉजी, दिल्ली राष्टिय संस्कत संस्थान, नई दिल्ली मानित विश्वविद्यालय | Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Cover Design: Madhumangal Singh The image on the cover is an Ashokan inscription in Prakrit language dating back to the third century BC. The inscription is on display in the Bhubaneshwar Museum. Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत पाठ-चयनिका उच्चतर पाठ्यक्रम Page #4 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-चयनिका उच्चतर पाठ्यक्रम अखिल भारतीय ग्रीष्मकालीन प्राकृत भाषा / / एवं साहित्य अध्ययनशाला भोगीलाल लहेरचन्द इन्स्टीट्यूट ऑफ इण्डोलॉजी, दिल्ली - राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान, नई दिल्ली मानित विश्वविद्यालय Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक भोगीलाल लहेरचन्द इन्स्टीट्यूट ऑफ इण्डोलॉजी, दिल्ली एवम् राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान (मानित विश्वविद्यालय), 56-57, इन्स्टीट्यूशनल एरिया, जनकपुरी, नई दिल्ली 110058 प्रथम संस्करण मई 2012 प्राप्ति स्थान बी. एल. इन्स्टीट्यूट ऑफ इण्डोलॉजी विजय वल्लभ स्मारक, जैन मन्दिर कॉम्पलेक्स, २०वाँ किमी. जी. टी. करनाल रोड, पोस्ट अलीपुर, दिल्ली 110036 फोन : 011-27202065, 27206630 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका प्राचीन भारतीय भाषाओं में प्राकृत भाषा अनेक शताब्दियों तक भारतीय जनमानस की प्रमुख जनभाषा रही है। सम्पूर्ण भारतीय भाषायें इनका साहित्य, इतिहास, संस्कृति परम्परायें, लोक-जीवन और जन-मन-गण इससे प्रभावित एवं ओत-प्रोत है। यही कारण है कि प्राकृत भाषा को अनेक भारतीय भाषाओं की जननी होने का गौरव प्राप्त है। साहित्य सर्जना के रूप में सर्वाधिक प्राचीन वैदिक भाषा में भी प्राकृत भाषा के अनेक तत्त्व प्राप्त होते हैं। इससे लगता है कि उस समय भी बोलचाल की लोक-भाषा के रूप में प्राकृत जैसी कोई जन-भाषा निश्चित ही प्रचलन में रही होगी। इसी जन-भाषा को अपने उपदेशों और धर्म प्रचार का माध्यम बनाकर तीर्थंकर महावीर और भगवान बुद्ध भाषायी क्रान्ति के पुरोधा कहलाये। यही कारण है कि ईसा पूर्व छठी शताब्दी से लेकर वर्तमान काल तक प्राकृत भाषा में धर्म-दर्शन, तत्त्वज्ञान, अलंकार-शास्त्र, सामाजिक विज्ञान, इतिहास-कला-संस्कृति, गणित, ज्योतिष, भूगोल-खगोल, वास्तुशास्त्र, मूर्तिकला एवं जीवन मूल्यों आदि से संबन्धितअनेक विधाओं एवं आगम एवं इसकी व्याख्या से सम्बन्धित साहित्य की सर्जना समृद्ध रूप में होती आ रही है और यह क्रम आज भी प्रवर्तमान है। - किन्तु आश्चर्य है कि जो स्वयं अनेक वर्तमान भाषाओं की जननी है और लम्बे काल तक जनभाषा के रूप में राष्ट्रभाषा के पद पर प्रतिष्ठित रही-राष्ट्र की वह बहुमूल्य धरोहर प्राकृत आज इतनी उपेक्षित हैं क्यों इसे आज अपनी अस्मिता एवं पहचान बनाने और मूलधारा से जुड़ने हेतु संघर्ष करना पड़ रहा है? इन्हीं प्रश्नों के समाधान हेतु एक विनम्र प्रशस्त, किन्तु प्रयास पिछले चौबीस वर्षों से निरन्तर जारी रखते हुए एक इतिहास की सर्जना में बी. एल.इन्स्टीट्यूट ऑफ इण्डोलॉजी संलग्न है। . बी. एल. इन्स्टीट्यूट ऑफ इण्डोलॉजी के नाम से प्रसिद्ध दिल्ली के विजय वल्लभ स्मारक जैन मंदिर के विशाल प्रांगण में स्थित “भोगीलाल लहेरचन्द इन्स्टीट्यूट ऑफ इण्डोलॉजी" भारतीय प्राच्य विद्याओं का एक अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त अध्ययन एवं शोध संस्थान है। अनेक राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय संगोष्ठियों, व्याख्यानमालाओं एवं पुरस्कारों के आयोजन, लगभग पच्चीस हजार से अधिक प्राचीन हस्तलिखित पाण्डुलिपियों के विशाल शास्त्र-भण्डार का संरक्षण, पुरातत्त्व संग्रहालय की स्थापना, अनेक दुर्लभ एवं महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों का प्रकाशन, मुद्रित ग्रन्थों के समृद्ध पुस्तकालय की सुविधा जैसी अनेक गतिविधियों द्वारा भारतीय विद्याओं एवं भाषाओं के व्यापक प्रचार-प्रसार के कारण इस संस्थान ने वैश्विक स्तर पर अपनी प्रतिष्ठापरक पहचान बनाई है। सम्पूर्ण देश में यही एकमात्र शोध संस्थान है, जिसने अपने स्थापन काल से ही प्राकृत भाषा एवं साहित्य के व्यापक प्रचार-प्रसार एवं इसके अध्ययन हेतु शिक्षण-प्रशिक्षण का प्रभावी कदम उठाया और पिछले चौबीस वर्षों से प्रतिवर्ष निरन्तर ग्रीष्मकालीन प्राकृत भाषा और साहित्य के गहन अध्ययन हेतु इक्कीस दिवसीय कार्यशालाओं का आयोजन कर सम्पूर्ण देश से समागत उच्च शिक्षा संस्थानों के प्राध्यापक, शोध-छात्र एवं प्राकृत Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 60 प्राकृत पाठ-चयनिका अध्ययन के इच्छुक अन्य सुयोग्य प्रतिभागियों को यह संस्थान अपनी ओर से सभी सुविधाएँ प्रदान करता है। इन्हीं प्राकृत अध्ययन शालाओं में विद्वानों के लम्बे अनुभव और अनेक बदलाओं के बाद प्राकृत भाषा और साहित्य के अध्ययन हेतु यह उच्चतर (Advanced) पाठ्यक्रम तैयार किया गया है। इस पाठ्यक्रम की अपनी यह विशेषता है कि इसे व्याकरण के मुख्य आधार पर पढ़ाया जाता है, जिससे उस पाठ के भाव ग्रहण के साथ ही उसमें सन्निहित विभिन्न प्राकृतों का स्वरूप और उनके व्याकरण पक्ष का भी विशेष प्रशिक्षण हो जाए ताकि प्राकृत साहित्य के किसी भी ग्रन्थ को समझने का मार्ग प्रशस्त हो। ___ जब यहाँ से प्रशिक्षित और कालेजों, विश्वविद्यालयों में पढ़ाने वाले विद्वान् संस्कृत नाटकों में विद्यमान अधिकांश प्राकृत सम्वादों का उनकी संस्कृतच्छाया के आधार पर नहीं, अपितु मूल प्राकृत भाषा के ही आधार पर अर्थ समझाते हैं और गर्व से कहते हैं कि हमने प्राकृत भाषा और साहित्य का यह प्रशिक्षण बी. एल. इन्स्टीट्यूट ऑफ इण्डोलॉजी से प्राप्त किया है, तब हमें गौरवपूर्ण प्रसन्नता और सार्थकता का विशेष अनुभव होता है। पिछले चौबीस वर्षों में प्रशिक्षित ऐसे ही शताधिक विद्वानों में अनेक विद्वानों से जब हम यह भी सुनते हैं कि प्राकृत भाषा और साहित्य में इक्कीस दिनों में हम जो प्रवीणता यहाँ प्राप्त कर लेते हैं, वह 2-3 वर्षों में भी अन्यत्र सम्भव नहीं है, तब हमें इस दिशा में विशेष कार्य करने का अनुपम उत्साह प्राप्त होता है। प्रस्तुत पाठ्यक्रम की पुस्तक के रूप में प्रकाशन की काफी समय से प्रतीक्षा रही जो अब राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान (मानित विश्वविद्यालय नई दिल्ली, मानव संसाधन मंत्रालय, .. भारत सरकार के अधीन) के सर्वविध सहयोग से पूर्ण हो रही है। इस हेतु यशस्वी एवं माननीय कुलपति प्रो. राधावल्लभ त्रिपाठी के हम सभी बहुत कृतज्ञ हैं। __ इसे तैयार करने में प्राकृत-संस्कृत एवं अपभ्रंश भाषा और साहित्य के अनेक अनुभवी एवं उच्च कोटि के विद्वानों का विशेष सहयोग प्राप्त रहा है। प्राच्य भारतीय विद्याओं के सुविख्यात मनीषी प्रो. गयाचरण त्रिपाठी (राष्ट्रीय अध्येता, भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला) के विशिष्ट मार्गदर्शन एवं सहयोग के प्रति हम सभी के मन में कृतज्ञता के भाव विद्यमान हैं। हमारे संस्थान के सम्माननीय उपाध्यक्ष एवं सुप्रसिद्ध विद्वान् डॉ. जितेन्द्र बी. शाह एवं अन्य सभी ट्रस्टियों के विशेष आभारी हैं। हमें उन सुझावों की भी प्रतीक्षा रहेगी, जिनसे यह पाठ्यक्रम और भी बहुउद्देशीय बन सके। श्रुत पंचमी, 2012 - प्रो. फूलचन्द जैन प्रेमी निदेशक, बी. एल. इन्स्टीट्यूट ऑफ इण्डोलॉजी, दिल्ली - 36 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SYLLABUS FOR Advanced Course विषय सूची Text Page No. POETRY 1. Prakrta Dhammapada प्राकृत धम्मपद - बम्मण वग्ग 2. Uttaradhyayana-sutra उत्तराध्ययनसूत्र - नमिपवज्जा 3. Dasavaikalika-sutra दशवैकालिकसूत्र - आयारपणिही 4. Gatha Saptasati गाथासप्तशती - गाथा चयनिका . 5. Setubandha सेतुबन्धे - वर्षावर्णनम् 6. Gaudavaho (Vakpatiraja) गउडवहो - काव्यारम्भः 7. Panchastikaya (Kundakunda) पंचास्तिकाय संग्रह 8. Bhagavati-Aradhana भगवती आराधना - मुख्य गाथा संग्रह 9. Kumarapalacarita कुमारपालचरितम् - प्रथमः सर्गः PROSE 10. Asokan Inscriptions Girnar Rock अशोक के गिरनार प्रस्तर अभिलेख Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 प्राकृत पाठ-चयनिका 11. Kalsi Inscriptions कालसी अभिलेख 12. Dhauli Inscriptions धौली अभिलेख 13. Hathigumpha Cave Inscription of Kharavela चेदिवंशीय खारवेल का हाथीगुम्फा अभिलेख 14. Inscriptions of Central Asia मध्य एशिया के अभिलेख 15. Upasakadasa-sutra उवासगदसाओ - पढमं आणन्दज्झयणं 16. Kuvalayamala-kaha कुवलयमालाकहा 17. Jacobi's Selected Narratives मूलदेव कहा - मण्डियचोरो 18. Sakhandagama षट्खण्डागम - आचार्य पुष्पदंत-भूतबलि विरचित DRAMA 19. Mrcchakaika मृच्छकटिकम् - गाथा संग्रह 20. Mrcchakaika मृच्छकटिकम् - वसन्तसेनामुदिदश्य शकारस्योक्तिः 21. Karpuramanjari - First Act कर्पूरमञ्जरी - प्रथम जवनिकान्तर 22. स्फुट गाथा संग्रह 23. Ratnavali (Maharastri Prakrit) रत्नावली (महाराष्ट्री प्राकृत) 24. यशोवर्मचरितम् Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत धम्मपद ब्रम्मण वग्ग 1. न जडइ न गोत्रेण, न यच भोदि ब्रमणो / यो दु बहेत्व पवण, अणु-थुलणि सर्वशो // बहिदरे व पवण, ब्रमणो दि प्रवुचदि // 1 // 2. कि दि जडइ दुमेध, कि दि अयिण शडिअ / अदर गहण कित्व, बहिरे परिमजसि // 2 // 3. यस धर्मो विअणेअ, समे-सबुध-देशिद / सखच ण नमसे अ, अगि होत्र व ब्रह्मणो // 3 // 4. न यच ब्रह्मणो भोदि न त्रेविज न शोत्रि अ / - न अगि-परिकिर्यइ, उदके ओरुहणेण व // 4 // 5. पुर्वे निवस यो उवेदि, स्वग अवय य पशदि / ' अथ जदि-क्षय प्रतो, अभिञ-वोसिदो मुणि // 5 // 6. एदहि त्रिहि विजहि, त्रेविजु भोदि ब्रम्मणु / विजचरण-सवर्णो, ब्रम्मणो दि प्रवुचदि // 6 // 7. त्रिहि विजहि सवर्णो, शदु क्षिण-पुनर्भवु / असिदो सर्व-लोकस्य, ब्रम्मणो दि प्रवुचिदि // 7 // Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 प्राकृत पाठ-चयनिका 8. तवेण ब्रम्म-यिर्येण, सत्रमेण दमेण च / एदेण ब्रम्मणो भोदि, एद ब्रम्मत्र उतमु // 8 // 9. छिन सोदु प्रकमु, कम प्रणुयु ब्रमण / - न अप्रहइ मुणि कम, एकत्वु अधिकछदि // 9 // 10. छिन सोदु परकमु, कम प्रणुयु ब्रमण / सघरण क्षयञ्त्व, अकदञो सि ब्रम्मण // 10 // 11. न ब्रम्मणस प्रहरेअ, नस मजेअ ब्रमणि / धि ब्रमणस हृदर, तद वि धि यो ण मुजदि // 11 // 12. मदर पिदर जत्व. रयण द्वयु शोत्रिअ (सणु) / रठ सणयर जत्व, अणिहो यदि ब्रम्मणो // 12 // 13. रयण प्रधमु जत्व, परिष ज अणदर / दोषि स-सेञक जत्व, अणिहो यदि ब्रम्मणो // 13 // 14. यद एषु धर्मेषु, परको भोदि ब्रम्मणो। अथस सर्वि सञोक, अस्त-गछदि जणद.॥१४॥ 15. न ब्रमण सेदिण किजि भोदि, यो न निसेधे मणस प्रि अणि / यदो यदो यस मणो निवर्तदि तदो तदो समुदि अहसच // 15 // 16. ब्रहेत्व पवणि ब्रम्मणो, समइरिय श्रमणो दि वुचदि / पर्वहि अ अत्वणो मल, तस पर्वइदो दि वुचदि // 16 // 17. न अहो ब्रम्मण ब्रोमि, योणेक-मत्र-सभमु / भो-वइ नमु सो भोदि, सयि भोदि सकिजणो / अकिजण अणदण, तं अहो ब्रोमि ब्रम्मण // 17 // 18. निहई दण भुदेषु, सेषु थवरेषु च / यो न हदि न धधेदि, तं अहो ब्रोमि ब्रमण // 18 // 19. यो दु द्रिध चि रस जि, अणो-थुलु शुहाशु हु / लोकि अदिण न अदि अदि, तं अहो ब्रोम्मि ब्रमण / / 19 / / Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत धम्मपद 11 20. यो दु कम प्रहत्वण, अणकरे परिवय / * कम-भोक-परिक्षिण, तं अहो ब्रोमि ब्रमण // 20 // 21. वरि पुष्कर-पत्रे व, अरगे-रिव सर्षव। भारे धार पर सरसोरतरह यो न लिपदि कमेहि, तं अह ब्रोमि ब्रम्मण // 21 // Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्र नमिपवज्जा नवमाध्ययनम् 1. चइऊण देवलोगाओ, उववन्नो माणुसम्मि लोगम्मि / उवसन्तमोहणिज्जो सरई पोराणियं जाइं // 1 // 2. जाई सरित्तु भयवं, सयंसंबुद्धो अणुत्तरे धम्मे / पुत्तं ठवेत्तु रज्जे, अभिणिक्खमई नमी राया // 2 // 3. सो देवलोगसरिसे, अन्तेउरवरगओ वरे भोए / भुंजित्तु नमी राया, बुद्धो भोगे परिच्चयई // 3 // 4. मिहिलं सपुरजणवयं, बलमोरोहं च परियणं सव्वं / चिच्चा अभिनिक्खन्तो, एगन्तमहिड्डिओ भयवं // 4 // 5. कोलाहलगभूयं, आसी मिहिलाए पव्वयन्तम्मि / तइया रायरिसिम्मि नमिम्मि, अभिणिक्खमन्तम्मि // 5 // 6. अब्भुट्ठियं रायरिसिं, पव्वज्जाठाणमुत्तमं / सक्को माहणरूवेणं, इमं वयणमब्बवी // 6 // 7. किणु भो अज्ज मिहिलाए, कोलाहलगसंकुला / सुव्वन्ति दारुणा सद्दा, पासाएसु गिहेसु य // 7 // Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्र 13 8. एयम₹ निसामित्ता, हेउकारणचोइओ। तओ नमी रायरिसी, देविन्दं इणमब्बवी // 8 // 9. मिहिलाए चेइए वच्छे, सीयच्छाए मणोरमे / पत्तपुप्फफलोवेए, बहूणं बहुगुणे सया // 9 // 10. वाएण हीरमाणम्मि, चेइयम्मि मणोरमे / दुहिया असरणा अत्ता, एए कन्दन्ति भो! खगा // 10 // 11. एयमद्वं निसामित्ता, हेउकारणचोइओ। तओ नमि रायरिसिं, देविन्दो इणमब्बवी // 11 // 12. एस अग्गी य वाऊ य, एयं डज्झ्इ मन्दिरं / भयवं ! अन्तेउरं तेणं, कीस णं नावपेक्खह / / 12 / / 13. एयमटुं निसामित्ता, हेउकारणचोइओ। तओ नमिं रायरिसिं, देविन्दं इणमब्बवी // 13 // 14. सुहं वसामो जीवामो, जेसिं मो नत्थि किंचणं / मिहिलाए डज्झ्माणीए, न मे डज्झइ किंचणं // 14 // 15. चत्तपुत्तकलत्तस्स, निव्वावारस्स भिक्खणो। पियं न विज्जई किंचि, अप्पियं पि न विज्जई॥१५॥ . बहुं खु मुणिणो भई, अणगारस्स भिक्खुणो। सव्वओ विप्पमुक्कस्स, एगन्तमणुपस्सओ // 16 // 17. एयमद्वं निसामित्ता, हेउकारणचोइओ। तओ नमिं रायरिसिं, देविन्दो इणमब्बवी // 17 // 18. पागारं कारइत्ता णं, गोपुरट्टालगाणि य / उस्सूलगसयग्घीओ, तओ गच्छसि खत्तिया // 18 // 19. एयमटुं निसामित्ता, हेउकारणचोइओ। तओ नमी रायरिसी, देविन्दं इणमब्बवी / / 19 / / Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 प्राकृत पाठ-चयनिका 20. सद्धं नगरं किच्चा, तवसंवरमग्गलं / खन्तिं निउणपागारं, तिगुत्तं दुप्पधंसयं // 20 // Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिकसूत्र आयारपणिही 1. आयारप्पणिहिं लद्धं, जहा कायव्व भिक्खुणा / तं भे उदाहरिस्सामि, आणुपुव्विं सुणेह मे // 1 // 2. पुढवि-दग-अगणि-मारुय-, तण-रुक्ख-सबीयगा / तसा य पाणा जीव त्ति, इइ वुत्तं महेसिणा // 2 // 3. पुढविं भित्तिं सिलं लेखें, नेव भिंदे न संलिहे / तिविहेण करणजोएण, संजए सुसमाहिए // 3 // 4. सद्धपढविए न निसिए, ससरक्खम्मि य आसणे / पमज्जित्तु निसीएज्जा, जाइत्ता जस्स ओग्गहं // 4 // 5. सीओदगं न सेवेज्जा, सिलावुलु हिमाणि य / उसिणोदगं तत्तफासुयं, पडिगाहेज्ज संजए // 5 // 6. इंगालं अगणिं अच्चिं, अलायं वा सजोइयं / न उंजेज्जा न घडेज्जा, नो णं निव्वावए मुणी // 6 // 7. तालियंटेण पत्तेण, साहाविहुयणेण वा। न वीएज्ज अप्पणो कायं, बाहिरं वा वि पोग्गलं // 7 // Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 प्राकृत पाठ-चयनिका 8. तणरुक्खं न छिंदेज्जा, फलं मूलं च कस्सई / आमगं विविहं बीयं, मणसा वि न पत्थए // 8 // 9. तसे पाणे न हिंसेज्जा, वाया अदुव कम्मुणा / उवरओ सव्वभूएसु, पासेज्ज विविहं जगं / / 9 / / 10. अट्ठ सुहुमाइं पेहाए, जाई जाणित्तु संजए / दयाहिगारी भूएसु, आस चिट्ठ सएहि वा // 10 // 11. कयराइं अट्ठ सुहुमाई, जाई पुच्छेज्ज संजए / इमाई ताई मेहावी, आइक्खेज्ज वियक्खणो // 11 // 12. सिणेहं पुष्फसुहुमं च, पाणुत्तिंगं तहेव य / पणगं बीयहरियं च, अंडसुहुमं च अट्ठमं // 12 // धवं च पडिलेहेज्जा, जोगसा पायकंबलं / सेज्जमुच्चारभूमिं च, संथारं अदुवासणं // 13 // 14. उच्चारं पासवणं, खेलं सिंघाण-जल्लियं / फासुयं पडिलेहित्ता, परिट्ठावेज्ज संजए // 14 // 15. पविसित्तु परागारं, पाणट्ठा भोयणस्स वा / जयं चिट्टे मियं भासे ण य रूवेसु मणं करे // 15 // 16. बहु सुणेइ कण्णेहिं, बहुं अच्छीहिं पेच्छइ / न य दिलृ सुयं सव्वं, भिक्खू अक्खाउमरिहइ // 16 // 17. न य भोयणमि गिद्धो, चरे उछ अयंपिरो / अफासुयं न भुंजेज्जा, कीयमुद्देसियाहडं // 17 // 18. सन्निहिं च न कुवेज्जा, अणुमायं पि संजए / मुहाजीवी असंबद्धे, हवेज्ज जगनिस्सिए // 18 // 19. लूहवित्ती सुसंतुढे, अप्पिच्छे सुहरे सिया / आसुरत्तं न गच्छेज्जा, सोच्चाणं जिणसासणं // 19 // 20. अत्थंगयम्मि आइच्चे पुरत्था य अणुग्गए / आहारमइयं सव्वं, मणसा वि न पत्थए / // 20 // Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथासप्तशती गाथा चयनिका 1. पसुवइणो रोसारुणपडिमासंकन्तगोरिमुहअन्दम् / गहिअग्घपङ्कअं विअ संझासलिलञ्जलिं णमह // 1 // 2. अमिअं पाउअकव्वं पढिउं सोउं अ जे ण आणन्ति / कामस्स तत्ततन्तिं कुणन्ति ते कहँ ण लज्जन्ति // 2 // 3: सत्त सताई कइवच्छलेण कोडीअ मज्झआरम्मि / ___ हालेण विरइआई सालङ्काराणं गाहाणम् // 3 // 4. उअ णिच्चलणिप्पन्दा भिसिणीपत्तम्मि रेहइ बलाआ / णिम्मलमरगअभाअणपरिट्टिआ संखसुत्ति व्व॥ // 4 // 5. तावच्चिअ रइसमए महिलाणं बिव्भमा विराअन्ति / जाव ण कुवलअदलसेछ आइँ मउलेन्ति णअणाई॥५॥ 6. णोहलिअमप्पणो किं ण मग्गसे मग्गसे कुरवअस्स / एअं तुह सुहग हसइ वलिआणणपङ्कअं जाआ // 6 // 7. ताविज्जन्ति असोएहिँ लडहवणिआओं दइअविरहम्मि / किं सहइ कोवि कस्स वि पाअपहारं पहुप्पन्तो // 7 // Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 प्राकृत पाठ-चयनिका 8. अत्ता तह रमणिज्जं अह्म गामस्स मण्डणीहूअम् / लुअतिलवाडिसरच्छिं सिसिरेण कअं भिसिणिसण्डम् / / 8 / / 9. किं रुअसि ओणअमुही धवलाअन्तेसु सालिछेत्तेसु / हरिआलमण्डिअमुही णडि व्व सणवाडिआ जाआ // 9 // 10. सहि ईरिसि व्विअ गई मा रुव्वसु तिरिअवलिअमुहअन्दम् / एआण बालबालुङ्कितन्तुकुडिलाण पेम्माणम् / / 10 / / 11. पाअपडिअस्स पइणो पुष्टुिं पुत्ते समारुहत्तम्मि / दढमण्णुदुण्णिआएँ वि हासो धरिणी' णेक्कन्तो // 11 // 12. सच्चं जाणइ दटुं सरसम्मि जणम्मि जुज्जए राओ / मरउ ण तुमं भणिस्सं मरणं वि सलाहणिज्जं से // 12 // Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेतुबन्धे वर्षावर्णनम् 1. णमह अवड्डिअतुझं अवसारिअवित्थअं अणोणअगहिरम् / अप्पलहुअपरिसहूं अणाअपरमत्थपाअडं महुमहणम् // 1 // 2. दणुएन्दरुहिरलग्गे जस्स फुरन्ते णहप्पहाविच्छड्डे / गुप्यन्ती विवलाआ गलिअ व्व थणंसुए महासुरलच्छी // 2 // 3. पीणत्तणदुग्गेझं जस्स भुआअन्तणिट्टरपरिग्गहिअम् / रिट्ठस्स विसमवलिअं कण्ठं दुःखेण जीविअं बोलीणम् // 3 // 4. ओआहिअमहिवेढो जेण परूढगुणमूललद्धत्थामो / उम्मूलन्तेण दुमं पारोहो व्व खुडिओ महेन्दस्स जसो // 4 // 5. णमह अ जस्स फुडरवं कण्ठच्छाआघडन्तणअणग्गिसिहम् / फुरइ फुरिअट्टहासं उद्धपडित्ततिमिरं विअ दिसाअक्कम् // 5 // 6. वेवइ जस्स सविडिअं वलिउं महइ पुलआइअत्थणअलसम् / पेम्मसहावविमुहिअं वीआवासगमणूसुअं वामद्धम् // 6 // 7. जस्स विलग्गन्ति णहं फुडपडिसद्दा दिसाअलपडिक्खलिआ / जोण्हाकल्लोला विअ ससिधवलास रअणीस हसिअच्छेआ // 7 // Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 प्राकृत पाठ-चयनिका 8. णट्टारम्भक्खुहिआ जस्स भडब्भन्तमच्छपहअजलरआ / होन्ति सलिलुद्धमाइअधूमाअन्तवडवामुहा मअरहरा // 8 // 9. अहिणवराआरद्धा चुक्कक्खलिएषु विहडिअपरिट्ठविआ / मेत्ति व्व पमुहरसिआ णिव्वोढुं होइ दुक्करं कव्वकहा // 9 // 10. परिवड्डइ विण्णाणं संभाविज्जइ जसो विढप्पन्ति गुणा / सुव्वइ सुउरिसचरिअं किं तं जेण ण हरन्ति कव्वालावा // 10 // 11. इच्छाइ व धणरिद्धी जोव्वणलद्ध व्व आहिआईअ सिरी / दुःखं संभाविज्जइ बन्धच्छाआइ अहिणवा अत्थगई // 11 // 12. तं तिअसबन्दिमोक्खं समत्थतेल्लोक्कहिअअसल्लुद्धरणम् / सुणह अणुराअइण्हं सीआदुक्खक्खअं दहमुहस्स वहम् // 12 // 13. अह पडिवण्णविरोहे राहववम्महसरेण माणब्भहिए / विद्धाइ वालिहिअए राअसिरीअ अहिसारिए सुग्गीवे // 13 // 14. ववसाअरइपओसो रोसगइन्ददिढसिङ्खलापडिबन्धो / कह कह वि दासरहिणो जअकेसरिपञ्जरो गओ घणसमओ // 14 // 15. गमिआ अकलम्बवाआ दिदं मेहन्धआरिअंगअणअलम् / सहिओ गज्जिअसद्दो तह वि हु से णत्थि जीविए आसङ्गो // 15 // 16. तो हरिवइजसवन्थो राहवजीअस्स पढमहत्थालम्बो / सीआबाहविहाओ दहमुहवज्झदिअहो उवगओ सरओ // 16 // 17. रइअरकेसरणिवहं सोहइ धवलब्भदलसहस्सपरिगअम् / महुमहदसणजोग्गं पिआमहुप्पत्तिपङ्कअं व णहअलम् // 17 // 18. दिणमणिमोहप्फुरिअं गलिअं घणलच्छिरअणरसणादामम् / उदुमअणबाणवत्तं णहमन्दारणवकेसरं इन्दध्रणुम् // 18 // 19. धुअमेहमहुअराओ घणसमआअड्डिओणअविमुक्काओ / णहपाअवसाहाओ णिअअट्ठाणं व पडिगआओ दिसाओ // 19 // Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेतुबन्धे 21 20. अहिणवणिद्धालोआ उद्देसासारदीसमाणजललवा / णिम्माअमज्जणसुहा दरवसुआअच्छविं वहन्ति व दिअहा / / 20 / / 21. सुहसंमाणिअणिद्दो विरहालुजिअसमुद्ददिण्णुक्कण्ठो / असुवन्तो वि विबुद्धो पढमविबुद्धसिरिसेविओ महुमहणो // 21 // 22. सोहइ विसुद्धकिरणो गअणसमुद्दम्मि रअणिवेलालग्गो / तारामुत्तावअरो फुडविहडिअमेहसिप्पिसंपुडमुक्को // 22 // 23. सत्तच्छआणं गन्धो लग्गइ हिअए खलइ कलम्बामोओ। कलहंसाण कलरओ ठाइ ण संठाइ परिणअं सिहिविरुअम् // 23 // 24. पीणपओहरलग्गं दिसाण पवसन्तजलअसमअविइण्णम् / सोहग्गपढमइण्ह पम्माअइ सरसणहवअं इन्दधणुम् / / 24 // Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गउडवहो - काव्यारम्भः वाक्पतिराज विरचित 1. अत्थि णिअत्तिअ-णीसेस-भुवण-दुरिआहिणंदिअ-महिंदो / सिरि-जसवम्मो त्ति दिसा-पडिलग्ग-गुणो महीणाहो // 1 // 2. घोलइ समुच्छलती जम्मि चलंतम्मि रेणु-भावेण / वसुहा अमुक्क-सेस-प्फण व्व धवलाअवत्तेसु // 2 // 3. वेहव्व-दुक्ख-विहलाण जस्स रिउ-कामिणीण पम्मुक्का / कर-ताडण-भीएंहिँ व हारेहिँ पओहरुच्छंगा // 3 // 4. कबरी-बंधा अज्ज वि डिला ते जस्स वेरि-बंदीण / हढ-कङ्कण-खत्तंगुलि-णिवेस-मग्ग व्व दीसंति // 4 // 5. चलिअम्मि जम्मि विअणा-विहुअ-फणा-मंडलो वि णो मुअइ / महि-वेढं बल-भर-खुत्त-रअण-संदाणि सेसो // 5 // 6. णीसंदइ जस्स रणाइरेसु कीलालिओ गअ-मएण / आहअ-वम्माणल-दर-विराअ-धारो व्व कर-वालो // 6 // 7. सेवंजलि-मिलिअ-णडाल-मंडला होंति हढ-पणामेसु / णूमिअ-भिउडी-भंग व्व जस्स पडिवक्ख-सामंता // 7 // Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गउडवहो - काव्यारम्भः 23 8. जो ववसाआवसरेसु दप्प-दर-दिट्ठ-दाहिणंस-अडो / दंसण-पसाअ-सुहिरं कुणइ व्व भुअ-ट्ठि लच्छि // 8 // 9. कोउव्वत्त-ठिअ-विसम-तार-पहा-भेअ-कलुसिआइं व / सामाअंति णडालाई जस्स पडिवक्ख-बंदीण // 9 // 10. पासम्मि पआवालुंखिअस्स जस-पाअवस्स व महल्लो / अअसो रिऊणं दीसइ छाआ-णिवहो व्व संकंतो // 10 // 11. गंभीर-महारंभा संभाविअ-साअरं परिब्भमइ / भुवणंतरेसु भाईरहि व्व सा भारही जस्स // 11 // 12. जस्स अ वलंत-जअ-गअ-सीअर-धारा-सहस्स-लुलिआओ / संभम-संचारिअ-चामराओ धावंति व दिसाओ // 12 // अवि / 13. सोहइ विणिवेसिअ-पसिढिलंगुली-कोडि-कट्ठणुत्थल्लो / पाअडिअब्भंतर-वण-णिवेस-दर-दंतुरो अहरो // 13 // 14. मुच्चंति पेल्लिउव्वेल्ल-केसरा मूल-लुलिअ-मअरंदा / ‘णिहुअं लीला-कुवलअ-पडित्थिआ कह वि णीसासा // 14 // 15. वाम-कराअड्डिअ-सुण्ण-मलिअ-विक्खित्त-कुंतल-सिहाण / . अरई-विलास-विसुराविआण णिव्वडइ सोहग्गं // 15 // 16. अग्घइ मंगल-गहिएक्क-कुसुम-पेसिअ-पसाहणामेलं / विमुह-णअणावहीरिअ-दर-वंदिअ-चंदणं वअणं // 16 // 17. इअ जस्स समर-दसण-लीला-णिम्मविअ-वम्मह-विआरा / तिअस-तरुणीओ अज्जवि मण्णे णिहुअंकिलम्मति // 17 // अहवा 18. सिहर-णपहुत्त-गअणा दिसा-पडिप्फलिअ-कडअ-विणिअत्ता / डझंति दरुप्पइआ अलद्ध-गमणंतरा गिरिणो / / 18 / / 19. तं स-गुहा-मुह-णिव्वडिअ-धूम-वलआवलंबिअ-णिअंबा / वज्जाणल-धम्मंता लोहं व मुअंति धरणि-हरा // 19 // Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 प्राकृत पाठ-चयनिका 20. लक्खिज्जइ धूमाअंत-पक्ख-णिक्खंत-सिहि-सिहा-णिवहो। संभम-संचलिअ-चलंत-रअणि-दिअसो व्व सुर-सेलो / / 20 / / 21. जेसुंचिअ कुंठिज्जइ रहसुब्भिडण-मुहलो महि-हरेसु / तेसुंचेअ णिसिज्जइ पडिरोहंदोलिरो कुलिसो // 21 // 22. वेल्लंति कंदरोअर-णिव्वडिअ-वलंत-विअड-विहआओ। सहसव्व सेल-सीमंतिणीओ भअ-मुक्क-गब्भाओ // 22 // 23. विज्झवइ वेल्लणोणअ-महि-वेढोभअ-दिसागअ-समुद्दो / ठाण-परिसंठिओच्चिअ पक्ख-च्छेआणलं सेलो // 23 // 24. तद्दियसं रवि-मंडल-संचलणुम्हाअमाण-कडएण। उअयाचलेण कुलिसो मिलिओ वि चिरेण विण्णाओ // 24 // 25. डझंति विसाणल-वाअ-विसहरामुक्क-चंदण-क्खंधा / तिअस-विअसाविअंसुअ-सेविअ-धूमा मलअ-वक्खा // 25 / / 26. णिसुढिअ-पक्ख-पडंता महीऍ दल-विब्भमेण भज्जंति / तक्खण-तरल-पलाअंत-विसहरा महिहरुग्घाआ // 26 // 27. कहवि धरेइ महि-अलं णिप्पक्ख-पडंत-गिरि-णिसुंभंतं / दाढा-भिण्ण-ससोणिअ-मुह-णिवहारोसिओ सेसो // 27 // 28. दीसइ जलंत-सेलं तावोसारिअ-वलंत-सुर-लोअं। धूमुप्पित्थ-पिआमह-कमलालि-करंबिअंगअणं // 28 // Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचास्तिकाय संग्रह कुन्दकुन्दाचार्य विरचित 1. इंदसदवंदियाणं तिहुवणहिदमधुरविसदवक्काणं / अंतातीदगुणाणं णमो जिणाणं जिदभवाणं // 1 // 2. समणमुहुग्गदमटुं चदुग्गदिणिवारणं सणिव्वाणं / एसो पणमिय सिरसा समयमिणं सुणह वोच्छामि // 2 // 3. समवाओ पंचण्हं समउ त्ति जिणुत्तमेहिं पण्णत्तं / सो चेव हवदि लोगो तत्तो अमओ अलोगो खं // 3 // 4. जीवा पोग्गलकाया धम्माधम्मा तहेव आगासं / अत्थित्तम्हि य णियदा अणण्णमइया अणुमहंता // 4 // 5. जेसिं अत्थिसहाओ गुणेहिं सह पज्जएहिं विविहेहिं / ते होंति अत्थिकाया णिप्पण्णं जेहिं तइलोक्कं // 5 // 6. ते चेव अत्थिकाया तिक्कालिय भावपरिणदा णिच्चा / गच्छंति दवियभावं परियट्टणलिंगसंजुत्ता // 6 // 7. अण्णोण्णं पविसंता देंता ओगासमण्णमण्णस्स / मेलंता विय णिच्चं सगं सभावं ण विजहंति // 7 // Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26 प्राकृत पाठ-चयनिका 8. सत्ता सव्वपयत्था सविस्सरूवा अणंतपज्जाया / भंगुष्पादधुवत्ता सप्पडिवक्खा हवदि एक्का // 8 // 9. दवियदि गच्छदि ताई ताइं सब्भावपज्जयाइं जं / दवियं तं भण्णंति हि अणण्णभूदं तु सत्तादो // 9 // 10. दव्वं सल्लक्खणयं उप्पादव्वयधुवत्तसंजुत्तं / गुणपज्जयासयं वा जं तं भण्णंति सव्वण्हू // 10 // उप्पत्ती व विणासो दव्वस्स य णत्थि अस्थि सब्भावो / विगमुप्पादधुवत्तं करेंति तस्सेव पज्जाया // 11 // 12. पज्जयविजुदं दव्वं दव्वविजुत्ता य पज्जया णत्थि / दोण्हं अणण्णभूदं भावं समणा परूवेंति / / 12 / / 13. दव्वेण विणा ण गुणा गुणेहिं विणा दव्वं ण संभवदि / अव्वदिरित्तो भावो दव्वगुणाणं हवदि तम्हा // 13 // 14. सिय अत्थि णत्थि उहयं अव्वत्तव्वं पुणो वि तत्तिदयं / दव्वं खु सत्तभंगं आदेसवसेण संभवदि // 14 // भावस्स णत्थि णासो णत्थि अभावस्स चेव उप्पादो / गुणपज्जएसु भावा उप्पादवए पकुव्वंति // 15 // 16. भावा जीवादीया जीवगुणा चेदणा य उवओगो / सुरणरणारयतिरिया जीवस्स य पज्जया बहुगा // 16 // 17. मणुसत्तणेण णट्ठो देही देवो हवेदि इदरो वा / / उभयत्थ जीवभावो ण णस्सदि ण जायदे अण्णो // 17 // 18. सो चेव जादि मरणं जादि ण णट्ठो ण चेव उप्पण्णो / उप्पण्णो य विणट्ठो देवो मणुसो त्ति पज्जाओ // 18 // 19. एवं सदो विणासो असदो जीवस्स णत्थि उप्पादो / तावदिओ जीवाणं देवो मणुसोत्ति गदिणामो // 19 // 20. णाणावरणादीया भावा जीवेण सुठु अणुबद्धा / तेसिमभावं किच्चा अभूदपुव्वो हवदि सिद्धो / / 20 / / Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना आचार्य शिवार्य विरचित 1. सिद्धे जयप्पसिद्धे चउब्विहाराहणाफलं पत्ते / वंदित्ता अरहते वोच्छं आराहणं कमसो // 1 // 2. उज्जोवणमुज्जवणं णिव्वहणं साहणं च णिच्छरणं / दंसणणाणचरित्ततवाणमाराहणा भणिया // 2 // 3. दुविहा पुण जिणवयणे भणिया आराहणा समासेण / .. सम्मत्तम्मि य पढमा विदिया य हवे चरितमि // 3 // 4. दंसणमाराहतेण णाणमाराहियं हवे णियमा / णाणं आराहतेण दंसणं होइ भयणिज्जं // 4 // सुद्धणया पुण णाणं मिच्छादिट्ठिस्स वेंति अण्णाणं / तम्हा मिच्छादिट्ठी णाणस्साराहओ णेव // 5 // 6. संजममाराहंतेण तओ आराहिओ हवे णियमा / आराहतेण तवं चारित्तं होइ भयणिज्जं // 6 // 7. सम्मादिस्सि वि अविरदस्स ण तवो महागुणो होदि / होदि हु हत्थिण्हाणं चुंदच्चुदकम्म तं तस्स // 7 // Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28 प्राकृत पाठ-चयनिका 8. अहवा चारित्ताराहणाए आराहियं हवइ सव्वं / आराहणाए सेसस्स चारित्ताराहणा भज्जा // 8 // 9. कायव्वमिणमकायव्वयत्ति णाऊण होइ परिहारो / तं चेव हवइ णाणं तं चेव य होइ सम्मत्तं // 9 // 10. चरणम्मि तम्मि जो उज्जमो आउंजणा य जो होई। सो चेव जिणेहिं तवो भणिदो असढं चरंतस्स // 10 // 11. णाणस्स दंसणस्स य सारो चरणं हवे जहाखादं / चरणस्स तस्स सारो णिव्वाणमणुत्तरं भणियं // 11 // 12. चक्खुस्स दंसणस्स य सारो सप्पादिदोसपरिहरणं / चक्खू होइ णिरत्थं दळूण बिले पडंतस्स / / 12 / / 13. णिव्वाणस्स य सारो अव्वाबाहं सुहं अणोवमियं / कायव्वा हु तदळं आदहिदगवेसिणा चेट्ठा // 13 // 14. जम्हा चरित्तसारो भणिया आराहणा पवयणम्मि / सव्वस्स पवयणस्स य सारो आराहणा तम्हा // 14 // 15. सुचिरमवि णिरदिचारं विहरित्ता णाणदंसणचरित्ते / मरणे विराघयित्ता अणंतसंसारिओ दिठो // 15 // Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारपालचरितम् प्रथमः सर्गः 1. अह पाइआहिँ भासाहिँ संसयं बहुलम् आरिसं तं तं / अवहरमाणं सिरि-वद्धमाण-सामि नमसामो // 1 // 2. अत्थि अणहिल्ल-नगरं अन्ता-वेईसमाइ-निव-निचिअं। सत्तावीसइ-मुत्तिअ-भूसिअ-जुवइ-जण-पइ-हरयं // 2 // 3. तिअस-वई-हर-वहु-मुह-आदरिसीहूय-फलिह-सिल-सिहरो / जस्सि पुहइ-वहू-मुह-अवयंसो सहइ पायारो // 3 // 4. निव-सह-मुहावयंसा बिइया गुरुणो अबीय-गुण-निवहा / निवसन्ति अणेग-बुहा जस्सि पुहवीस-सलहिज्जे // 4 // 5. न हु अत्थि न वि अ हूअं इह लोए-अइसएण जस्स समं / सुउरिस-ठाणमअसूरिस-रहिअं सालाहण-पुरंपि // 5 // 6. जस्सि नमन्त-सीसो तियसीसो वि हु तवं तवन्ताण / तेलुक्क-सज्जणाणं थुणइ स-भिक्खूण सद्धाए // 6 // 7. जत्थोन्नय-थण-नीसह-वहु-दसण-निस्सहं नरा जन्ति / दुसहाउ दुस्सहेणं मयणेण हयन्तरप्पाणो // 7 // Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30 प्राकृत पाठ-चयनिका 8. तेअ-दुरालोएहिं अन्तो-उवरिं घराण रयणेहिं / छूढ व्व निरवसेसा सरिआहिव-संपया जत्थ // 8 // 9. विज्जु-चलं महुर-गिरो दिन्तो लच्छि जणो छुहत्ताण / भिसओ खु जहा सरओ दिसाण पाउस-किलन्ताण // 9 // 10. जत्थच्छरस-मण-हरो वहूहि रमिरोवि अच्छर-समाहिं / दीहाऊवि अदीहाउस-माणी सइ विवेइ-जणो / / 10 / / 11. कुसुम-धणू धणुह-धरो कउहा-मुह-मण्डणम्मि चन्दंमि / रज्जं तम् एगॅ-छत्तं असंकमवउवभुंजए जत्थ // 11 // Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशोक के गिरनार प्रस्तर अभिलेख पंचम अभिलेख धर्ममहामात्र 1. देवानं प्रियो पियदसि राजा एवं आह [1] कलाणं दुकरं [2] यो आदिकरो कल्याणस सो दुकरं करोति [3] 2. त मया बहु कलाणं कतं [4] त मम पुता च पोता च परं च तेन य मे अपचं आव संवटकपा अनुवतिसरे तथा 3. सो सुकतं कासति [5] यो तु एत देसं पि हापेसति सो दुकतं कासति [6] सुकरं हि पापं [7] अतिकातं अंतरं 4. न भूतप्रुवं धंममहामाता नाम [8] त मया त्रैदसवासाभिसितेन धंममहामाता कता [9] ते सव पाषंडेसु व्यापता धंमाधिस्टानाय .............. धंमयुतस च योण-कंबोज-गंधारानं रिस्टिकपेतेणिकानं ये वा पि अंडे अपराता [10] भतमयेसु व 6. ................. सुखाय धंमयुतानं अपरिगोधाय व्यापता ते [11] बंधनबधस पटि-विधानाय Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32 प्राकृत पाठ-चयनिका 7. ................ प्रजा कताभीकारेसु वा थैरेसु वा व्यापता ते [12] पाटलिपुते च बाहिरसु च ............... ये वा पि मे अजे जातिका सर्वत व्यापता ते [13] यां अयं धमनिसितो . ति व ते धंममहामाता 14 एताय अथाय अयं धमलिपी लिखिता नवम अभिलेख (धर्म-मङ्गल) 1. देवानंपियो प्रियदसि राजा एव आह [1] अस्ति जनो उचावचं मंगलं करोते आबाधेसु वा 2. आवाहवीवाहेसु वा पुत्रलाभेसु वा प्रवासंम्हिवा एतम्ही च अअम्हि च जनो उचावचं मंगलं करोते [2] 3. एत तु महिडायो बहुकं च बहुविधं च छुदं च निरथं च मंगलं करोते [3] त कतव्यमेव तु मंगलं [4] अपफलं तु खो 4. एतारिसं मंगलं [5] अयं तु महाफले मंगले य धंममंगले [6] ततेतं दासभतकम्हि सम्यप्रतिपती गुरूनं अपचिति साधु 5. पाणेसु सयमो साधु बम्हणसमणानं साधु दानं एत च अञ च एतारिसं धंममंगलं नाम [7] त वतव्यं पिता व 6. पुतेन वा भात्रा वा स्वामिकेन वा इदं साधु इदं कतव्य मंगलं आव तस अथस निस्टानाय [8] अस्ति च पि वुतं 7. साधु दानं इति [9] न तु एतारिसं अस्ता दानं व अनगहो व यारिसं धंमदानं व Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशोक के गिरनार प्रस्तर अभिलेख 33 धमनुगहो व [10] त तु खो मित्रेन व सुहृदयेन वा 8. अतिकेन व सहायेन व ओवदितव्यं तम्हि पकरणे इदं कचं इदं साधु इति इमिना सक 9. स्वगं आराधेतु इति [11] कि च इमिना कतव्यतरं यथा स्वगारधी [12] संस्कृतच्छाया 1. देवानां प्रियः प्रियदर्शी राजा एवम् आह। कल्याणं दुष्करम्। यः आदिकरः कल्याणस्य सः दुष्करं करोति। . " 2. तत् मया बहु कल्याणं कृतम्। तत् मम पुत्राः च पौत्राः च परं च तेभ्यः यत् मम अपत्यं यावत्संवत्कल्पम् अनुवर्तिष्यन्ते तथा 3. ते सुकृतं करिष्यन्ति। यः तु एतत् देशम् अपि हापयिष्यति सः दुष्कृतं करिष्यति। सुकरं हि पापम्। अतिक्रान्तम् अन्तरम् 4. न भूतपूर्वाः धर्ममहामात्राः नाम। तत् मया त्रयोदशवर्षाभिषिक्तेन धर्ममहामात्राः कृताः। ते सर्वपाषण्डेषु व्यापृताः धर्माधिष्ठानाय ............. धर्मयुक्तस्य यवन-कम्बोज-गन्धाराणां राष्ट्रिकपैत्र्यणिकानां ये वा अपि अन्ये अपरान्ताः। भृतार्येषु वा 6. ............. सुखाय धर्मयुक्तानाम् अपरिबाधाया व्यापृताः ते। बन्धनवद्धस्य प्रति-विधानाय 7. ............ प्रजा कृताभिचारेषु वा स्थविरेषु वा व्यापृताः ते। पाटलिपुत्रे च बाह्येषु च 8. ............ ये वा पि मे अन्ये ज्ञातिकाः सर्वत्र व्यापृता ते। यः अयं धर्मनिस्रितः इति वा ............. ते धर्म महामात्रा। एतस्मै अर्थाय इयं धर्मलिपिः लिखिता। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34 प्राकृत पाठ-चयनिका संस्कृतच्छाया 1. देवानां प्रियः प्रियदर्शी राजा एवम् आह। अस्ति जनः उच्चावचं मङ्गलं करोति। आबाधे वा 2. आवाहे विवाहे वा पुत्रलाभे वा प्रवासे वा एतस्मिन् च अन्यस्मिन् च जनः उच्चावचं मङ्गलं करोति। 3. अत्र तु महिलाः बहुकं च बहुविधं च क्षुद्रकं च निरर्थकं च मङ्गलम् कुर्वन्ति। तत् कर्तव्यं तु मङ्गलम्। अल्पफलं तु खलु 4. एतादृशं मङ्गलं। इदं तु महाफलं मङ्गलं यत् धर्ममङ्गलम्। तत् इदं दासभृतकेषु सम्प्रतिपत्तिः गुरुणाम् अपचितिः साधु 5. प्राणेसु संयमः साधु ब्राह्मणश्रमणेभ्यः साधु दानम्। एतत् च अन्यत् च एतादृशं धर्ममङ्गलं नाम। तत् वक्तव्यं पित्रा वा। 6. पुत्रेण वा भ्रात्रा वा स्वामिकेन वा इदं साधु इदं कर्तव्यं मङ्गलम् यावत् तस्य अर्थस्य निष्ठानाय। अस्ति च अपि उक्तं 7. साधु दानम् इति। न तु एतादृशं अस्ति दानं वा अनुग्रहो वा यादृशं धर्म दानं वा धर्मानुग्रहो वा। तत् तु खलु मित्रेण व सुहृदयेन वा 8. ज्ञातिकेन वा सहायेन वा वक्तव्यं तस्मिन् प्रकरणे इदं कृत्यं इदं साधु इति। एतेन शक्यं 9. स्वर्गम् आराधयितुम् इति। किश्च अनेन कर्तव्यतरं यथा स्वर्गालब्धिः। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशोक के गिरनार प्रस्तर अभिलेख | 35 दशम अभिलेख (धर्म-शुश्रूषा) 1. देवानं पियो प्रियदसि राजा यसो व कीति व न महाथावहा मञते अञत तदात्पनो दिघाय च मे जनो 2. धंमसुसुंसा सुस्रुसता धंमवुतं च अनुविधियतां [1] एतकाय देवानं पियो पियदसि राजा यसो व किति व इछति [2] 3. यं तु किचि परिकमते देवानं प्रियदसि राजा त सव पारत्रिकाय किंति सकले अपपरिस्रवे अस [3] एस तु परिसवे य अपुंजं [4] 4. दुकरं तु खो एतं छुदकेन व जनेन उसटेन व अञत्र अगेन पराक्रमेन सवं परिचजित्या [5] एत तु खो उसटेन दुकरं [6] संस्कृतच्छाया 1. देवानां प्रियः प्रियदर्शी राजा यशः वा कीर्ति वा न महार्थावहां मन्यते-अन्यत्र तदात्मनः दीर्घाय च मे जनः 2. धर्म-शुश्रूषा शुश्रूषतां धर्मोक्तं च अनुविधीयताम् एतस्मै देवानांप्रियः प्रियदर्शी राजा यशः वा कीर्ति वा इच्छति 3. यत् च किञ्चित् प्रक्रमते देवानां प्रियदर्शी राजा तत् सर्वं पारत्रिकाय किमिति? सकलः अल्पपरिस्रव स्यात्। एषः तु परिस्रवः यत् अपुण्यम्। 4. दुष्करं तु खलु एतत् क्षुद्रकेण वा जनेन उच्छ्रितेन (उत्कृष्टेन) वा अन्यत्र अग्रयात् पराक्रमात् सर्वं परित्यज्य। एतत् तु खलु उच्छ्रितेन दुष्करम्। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36 प्राकृत पाठ-चयनिका एकादश अभिलेख (धर्म-दान) 1. देवानं प्रियो पियदसि राजा एवं आह [1] नास्ति एतारिसं दानं यारिसं धंमदानं धंमसंस्तवो वा धंमसंविभागो [2] धंमसंबंधो व [3] 2. तत इदं भवति दासभतकम्हि सम्यप्रतिपती मातरि पितरा खपतरि, साधु सुमुसा मितसस्तुत- आतिकानं बाम्हणस्रमणानं साधु दानं 3. प्राणानं अनारंभो साधु [4] एत वतव्यं पिता व पुत्रेन व भाता व मितसस्तुतञातिकेन व आव पटिवेसियेहि इदं साधु इदं कतव्यं [5] 4. सो तथा करु इलोकचस आरधो होति परत च अनंतं पुइयं [पुंजं भवति तेन धंमदानेन [6] संस्कृतच्छाया 1. देवानां प्रियः प्रियदर्शी राजा एवम् आह। नास्ति एतादृशं दानं यादृशं धर्मदानं धर्मसंस्तवः वा धर्मसंविभागः वा धर्मसम्बन्धः वा। 2. तत् इदं भवति दासभृतकेषु सम्प्रतिपत्तिः मातरि पितरि साधु शुश्रूषा मित्र-संस्तुत ज्ञातिकेभ्यः ब्राह्मण-श्रमणेभ्यः साधु दानं 3. प्राणानाम् अनालम्भः साधु। एतत् वक्तव्यं पित्रा वा पुत्रेण वा भ्रात्रा वा मित्र-संस्तुत-ज्ञातिकैः वा यावत् प्रतिवेश्यैः 'इदं साधु इदं कर्तव्यम्। 4. सः तथा कुर्वन् (तस्य तथा कुर्वतः) इहलोकः आलब्ध भवति परत्र च अनन्तं पुण्यं भवति तेन धर्मदानेन। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशोक के गिरनार प्रस्तर अभिलेख 37 द्वादश अभिलेख (सार-वृद्धि) 1. देवानं पिये पियदसि राजा सव पासंडानि च पवजितानि च घरस्तानि च पूजयति दानेन च विविधाय च पूजाय पूजयति ने [1] 2. न तु तथा दानं व पूजा व देवानं पियो मंञते यथा किति सारवढी अस सबपासंडानं [2] सारवढी तु बहुविधा [3] 3. तस तु इदं मूलं य वचगुती किंति आत्पपासंडपूजा व पर पासंड गरहा व नो भवे अप्रकरणम्हि लहुका व अस 4. तम्हि तम्हि प्रकरणे [4] पूजेतया तु एवपर पासंडा तेन तेन प्रकरणेन। एवं करूं आत्मपासंडं च बढयति पासंडस च उपकरोति [5] 5. तदंञथा करोतो आत्मपाषंड च छणति परपासंडस च पि अपकरोति [6] यो हि कोचि आत्पपासंडं पूजयति परपासंडं व गरहति 6. सवं आत्पपासंडभतिया किंति आत्पपासंडं दीपयेम इति सो च पुन तथ करातो . आत्पपासंडं बाढतरं उपहनाति [7] त समवायो एव साधु 7. किंति अञमंजस धंमं सुणारु च सुसुंसेर च [8] एवं हि देवानंपियस इछा किंति - सवपासंडा बहुसुता च असुकलाणागमा च असु [9] 8. ये च तत्र तत् प्रसंना तेहि वतव्यं [10] देवानंपियो नो तथा दानं व पूजां व मंत्रते यथा किंति सारवढी अस सर्वपासंडानं [11] बहका च एताय 9. अथा व्यापता धंममहामाता च इथीझखमहामाता च वचभूमीका च अत्रे च निकाया [12] अयं च एतस फल य आत्पपासंडवढी च होति धंमस च दीपना [13] Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 386 प्राकृत पाठ-चयनिका संस्कृतच्छाया 1. देवानां प्रियः प्रियदर्शी राजा सर्वान् पाषण्डान् च प्रव्रजितान् च गृहस्थान् च पूजयति दानेन च विविधया च पूजया पूजयति। 2. न तु तथा दानं वा पूजां वा देवानां प्रियः मन्यते यथा किमिति? सारवृद्धिः स्यात् सर्वपाषण्डानाम्। सारवृद्धिः तु बहुविधाः। 3. तस्य तु इदं मूलं यत् वचोगुप्तिः किमिति? आत्मपाषण्ड पूजा वा परपाखण्डगर्दा वा न भवेत् अप्रकरणे लघुका वा स्यात् 4. तस्मिन् तस्मिन् प्रकरणे। पूजयितव्या तु एव परपाषण्डाः तस्मिन् तस्मिन् प्रकरणे। एवं कुर्वन् आत्मपाषण्डं च वर्द्धयति परपाषण्डं च उपकरोति। 5. तदन्यथा कुर्वन् आत्मपाषण्डं च क्षिणोति परपाषण्डं चापि अपकरोति। यः हि कश्चित् आत्मपाषण्डं पूजयति परपाषण्डं च गर्हयति 6. सर्वम् आत्मपाषण्डभक्त्या किमिति? 'आत्मपाषण्डं च दीपयेम' इति सः च पुनः तथा कुर्वन् आत्मपाषण्डं बाढतरम् उपहन्ति। तत् समवायः एव साधु 7. किमिति? अन्योन्यस्य धर्मं शृणुयुः च शुश्रुषेरन् च। एवं हि देवानां प्रियस्य इच्छा। किमिति? सर्वे पाषण्डाः बहुश्रुताः च स्युः कल्याणागमाः च स्युः। 8. ये च तत्र तत्र प्रसन्नाः तैः वक्तव्यम्। देवानां प्रियः न तथा दानं वा पूजां वा मन्यते यथा किमिति? सारवृद्धिः स्यात् सर्वपाषण्डानाम्। बहुका च एतस्मै 9. अर्थाय व्यापृताः धर्ममहामात्राः च स्त्र्यध्यक्षमहामात्रा च व्रजभूमिका च अन्ये च निकायाः। इदं च एतस्य फलं यत् आत्मपाषण्डवृद्धिः च भवति धर्मस्य च दीपना। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालसी अभिलेख प्रथम अभिलेख जीव-दया : पशु-याग तथा मांस-भक्षणनिषेध 1. इयं धंमलिपि देवानं पियेना पियदसिना लेखिता [1] हिदा नो किछि जिवे _आलभितु पजोहितविये [2] 2. नो पि चा समाजे कटविये [3] बहुका हि दोसा समाजसा ... देवानंपिये पियदसी लाजा देखति [4] अथि पि चा एकातिया समाजा साधुमता देवानं पियसा पियदसिसा लाजिने [5] 3. पुले महानससि देवानं पियसा पियदसिसा लाजिने अनुदिवसं बहुनि पानसहसाणि अलंभियिसु सुपठाये [6] से इदानि यथा इयं धमलिपि लेखिता तदा तिंनि येवा पानानि अलंभियंति 4. दुवे मजूला एके मिगे से पि चु मिगे नो धुवे [7] एतानि पि चु तानि पानानि ना अलाभियिसंति [8] Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40 प्राकृत पाठ-चयनिका संस्कृतच्छाया 1. इयं धर्मलिपिः देवानां प्रियेण प्रियदर्शिना लेखिता। इह न कश्चित् जीवः आलभ्य प्रहोतव्यः। 2. न अपि च समाजः कर्त्तव्यः। बहुकान् हि दोषान् समाजस्य देवानां प्रियः प्रियदर्शी राजा पश्यति। सन्ति अपि च एकतराः समाजाः साधुमता देवानां प्रियस्य प्रियदर्शिनः राज्ञः। 3. पुरा महानसे देवानां प्रियस्य प्रियदर्शिनः राज्ञः अनुदिवसं बहूनि प्राणशतसहस्राणि आलभ्यन्त सूपाथाय। तत् इदानीं यदा इयं धर्मलिपिः लेखिता तदा त्रयः एव प्राणाः आलम्यन्ते 4. द्वौ मयूरौ एकः मृगः सः अपि च मृगः न धुवः। एते अपि च त्रयः प्राणाः न आलप्स्यन्ते। कालसी अभिलेख (द्वितीय अभिलेख) (लोकोपकारी कार्य) 4. सवता विजतसि देवानं पियस पियदसिसा लाजिने ये च अंता अथा नोडा पंडिया सातियपुतो केतलपुतो तंबपनि 5. अंतयोग नाम योनलाजा ये चा अंने तसा अंतियोगसा सामंता लाजानो सवता देवानं प्रियसा पियदसिसा लाजिने दुवे चिकिसका कटा मनुसचिकिसा पसुचिकिसा चा [1] ओसधीनि मनुसोपगानि चा पसोपगानि चा अतता नथि 6. सवता हालापिता चा लोपापिता चा [2] एवमेवा मुलानि चा फलानि चा अतता नथि सवता हालापिता चा लोपापिता चा। मगेसु लुखानि लोपितानि उदुपानानि खानापितानि पटिभोगाये पसुमुनिसानं [3] Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालसी अभिलेख 41 संस्कृतच्छाया 4. सर्वत्र विजेते देवानं प्रियस्य प्रियदर्शिनः राज्ञः ये च अन्ताः यथा चोडाः पाण्ड्याः सत्यपुत्रः केरलपुत्रः ताम्रपर्णी 5. अंतियोकः नाम यवनराजः ये च अन्ये तस्य अंतियोकस्य सामन्ताः सर्वत्र राजानः देवानं प्रियस्य प्रियदर्शिनः द्वे चिकित्से कृते मनुष्यचिकित्सा च पशुचिकित्सा च। औषधानि मनुष्योपगानि च पशूपगानि च यत्र न सन्ति 6. सर्वत्र हारितानि च रोपितानि च। एवं एव मूलानि च फलानि च यत्र यत्र न सन्ति सर्वत्र हारितानि च रोपितानि च। मार्गेषु वृक्षाः रोपिता उदपानानि च खानितानि प्रतिभोगाय पशुमनुष्याणाम्। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धौली अभिलेख प्रथम पृथक् अभिलेख राजनीतिक आदर्श 1. देवानं पियस वचनेन तोसलियं महामात नगलवियोहालका 2. वतविय [1] अं किछि दखामि हकं तं इच्छामि किंति कंमन पटिपादयेहं 3. दुवालते च आलभेहं [2] एस च मे मोख्यमत दुवाल एतसि अठसि अं तुफेसु 4. अनुसथि [3] तुफे हि बहूसु पानसहसेसुं ध्यायत पनयं गछेम सु मुनिसानं [4] सवे 5. मुनिसे पजा ममा [5] अथा पजाये इछामि हकं किंति सवेन हितसखेन हिदलोकिक६. पाललोकिकेन यूजेवू ति तथा ... मुनिसेसु पि इछामि हकं [6] नो प पापुनाथ आवग७. मुके इयं अठे [7] केछ व एक पुलिसे ... नाति एतं से पि देसं नो सवं। देखत हि तुफे एवं वा पापुनाति [8] तत होति 8. सुविहिता पि नितियं एक पुलिसे पि अथि ये बंधनं वा पलिकिलेसं 9. अकस्मा तेन बधनंतिक अंने च ... हु जने दविये दुखीयति [9] तत इछितविये 10. तुफेहि किंति मझं पटिपादयेमा ति [10] इमेहि चु जातेहि नो संपटिपजति Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धौली अभिलेख 43 इसाय आसुलोपेन 11. निठूलियेन तूलनाय अनावूतिय आलसियेन किलमथेन [11] से इछितविये किंति एते 12. जाता नो हुवेषु ममा ति [12] एतस च सवस मूले अनासुलोपे अतूलना च [13] नितियं ये किलंते सिया 13. न ते उगछ संचलितविये तु वटितविये एतविये वा [14] हेवमेव ए दखेय तुफाक तेन वतविये 14. आनंने देखत हेवं च हेवं च देवानं पियस अनुसथि [15] से महाफले ए तस संपटिपाद 15. महा अपाये असंपटिपति [16] विपटिपादयमानेहि एतं नथि स्वगस आलधि नो लाजालधि [17] 16. दुआहले हि इमस कंमस मे कुते मनो अतिलेके [18] संपटिपजमाने चु एतं स्वगं 17. आलाधयिसथ मम च अननियं एहथ [19] इयं च लिपि तिस नखतेन सोतविया [20] 18. अंतला पि च तिसेन खनसि खनसि एकेन पि सोतविय [21] हेवं च कलंतं तुफे 19. चघथ संपटिपादयितविये [22] एताये अठाये इयं लिपि लिखित हिद एन 20.. नगलवियोहालका सस्वतं समयं यूजेवू ति ... नस अकस्मा पलिबोधे व 21. अकस्मा पलिकिलेसे व नो सिया ति [23] एताये च अठाये हकं ... मते पंचसु वसे 22. सु निखामयिसामि ए अखखसे अचंडे सखिनालंभे होसति एतं अठं जानितु ... तथा 23. कलंति अथ मम अनुसथी ति [24] उजेनिते पि चु कुमाले एताए व अठाये निखामयिस... 24. हेदिसमेव वगं नो च अति कामयिसति तिनि वसानि [25] हेमेव तखसिलाते पि [26] अदा अ... 25. ते महामाता निखमिसंति अनुसयानं तदा अहापयितु अतने कंमं एतं पि जानिसंति 26. तं पि तथा कलंति अथ लाजिने अनुसथी ति [27] Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44 प्राकृत पाठ-चयनिका संस्कृतच्छाया 1. देवानां प्रियस्य वचनेन तोसल्यां महामात्राः नगर-व्यवहारकाः (एवं) 2. वक्तव्याः। यत् किञ्चित् पश्यामि अहं तत् इच्छामि किमिति? कर्मणा प्रतिपादये अहम् 3. द्वारतः च आरभे अहम्। एतत् च मे मुख्यमतम् द्वारम् एतस्मिन् अर्थे यत् युष्माषु 4. अनुशास्तिः। यूयं हि बहुसु प्राणसहस्रेषु आयताः - 'प्रणयं गच्छेम स्वित् मनुष्याणाम्। सर्वे मनुष्याः प्रजाः मम। यथा प्रजायै। इच्छामि अहम् किमिति? सर्वेण हितसुखेन इहलौकिक 6. पारलौकिकेन युज्येरन् इति तथा (सर्व) मनुष्येषु इच्छामि अहम्। न च प्राप्नुथ . यावद्ग७. मकः। कश्चित् वा एकः पुरुषः मन्यते एतत् सः अपि देशं न सर्वम्। पश्यति हि यूयं एतत् 8. 'सुविहिता अपि नीतिः इयम्।' एकः पुरुषः अपि अस्ति यः बन्धनं वा परिक्लेशं वा प्राप्नोति। तत्र भवति 9. अकस्मात् तेन बन्धनान्तकम् अन्यः च [तत्र ब] हु जनः दवीयः दुःखायते। ततः एष्टऽवयं 10. युष्माभिः-किमिति? 'मध्यं प्रतिपादयेमहि' इति। एभिः तु जातैः नो सम्प्रति पद्यते - ईय॑या आशुलोपेन 11. नैष्ठुर्येण त्वरया अनावृत्या आलस्येन क्लमथेन (च)। तत् एष्टत्र्यम् किमि ति? "एतानि 12. जातानि नो भवेयुः मम' इति। एतस्य तु सर्वस्य मूलम् अनाशुलोपः अत्वरा च। नीत्यां यः क्लान्तः स्यात् Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धौली अभिलेख 45 13. न सः उद्गच्छेत्ः [तत् सञ्चलितव्यं तु वर्तितव्यम् एतव्यं वा। एवम् एव यः पश्येत्, युष्मभ्यं ते न वक्तव्यम् - 4. “अन्योन्यं पश्यत् एवं च देवानां प्रियस्य अनुशिष्टिः। तत् महाफलः एतस्य सम्प्रतिपादः 15. महापाया असम्प्रतिपत्तिः विप्रतिपद्यमानैः एतत् नास्ति स्वर्गस्य आलब्धिः न राजा-लब्धिः / 16. द्विफलः हि अस्य कर्मणः मया कृतः मनोऽतिरेकः। सम्प्रतिपद्यमाने तु अत्र स्वर्गम् 17. आराधयिष्यथ मम च आनृण्यम् एष्यथ। इयं च लिपिः तिष्य-नक्षत्रे श्रोतव्या 18. अन्तरा अपि च तिष्यं क्षणे क्षणे एकेन अपि श्रोतव्या। एवं च कुर्वन्तः यूयं 19. शक्ष्यथ सम्प्रतिपादयितुम्। एतस्मै अर्थाय इयं धर्मलिपिः लेखिता येन 20. नगरव्यवहारकाः शाश्वतं समयं युज्येरन् इति ...[नगरज] नस्य अकस्मात् परिबाधः वा 21. अकस्मात् परिक्लेशः वा न स्यात् इति। एतस्मै अर्थाय अहम् ख्महा, मात्रान् पञ्चसु पञ्चसु वर्षे - 22. षु निष्क्रामयिष्यामि ये अकर्कशाः अचण्डाः श्लक्षणारम्भाः वा भविष्यन्ति। एतत् 'अर्थं ज्ञात्वा ... तथा 23. कुर्वन्ति यथा मम अनुशिष्टिः। उज्जयिनीतः अपि तु कुमारः एतस्मै एव अर्थाय निष्क्रामयिष्यति ... 24. इदृशम् एव वर्गं न च अतिक्रामयिष्यति त्रीणि वर्षाणि। एवम् एव तक्षशिलातः अपि। यदा ... 25. ते महामात्रा निष्क्रमयिष्यन्ति अनुसंयानं तदा अहापयित्वा आत्मनः कर्म एतत् अपि ज्ञास्यन्ति 26. तत् अपि तथा कुर्वन्ति यथा राज्ञः अनुशिष्टिः इति। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 46 प्राकृत पाठ-चयनिका धौली अभिलेख (द्वितीय पृथक् अभिलेख) (सीमांत नीति) 1. देवानंपियस वचनेन तोसलियं कुमाले महामाता च वतविय [1] अं किछि दखामि हकं तं इ.... 2. दुवालते च आलभेहं [2] एस च मे मोख्यमत दुवाला एतसि अठसि अंतुफेसु ... मम ... [4] 3. अथ पजाये इछामि हकं किंति सवेन हितसुखेन हिदलोकिक पाललोकिकाये पूजेवू ति हेवं .... [5] 4. सिया अंतानं अविजितानं किछंदे सुलाज अफेसु ... [6] ... मव इछ मम अंतेसु ... ___ पिापुनेवु ते इति देवानंपिय ... अनुविगिन ममाये। 5. हुवेवू ति अस्वसेवु च सुखमेव लहेवु ममते नो दुखं हेवं ... नेवू इति खमिसतिने देवानंपिये अफाका ति ए चकिये खमितवे मम निमितं व च धंमं चलेवू . 6. हिदलोकिक पललोकं च आलाधयेवू [7] एतसि अठसि हकं अनुसासामि तुफे अनने एतकेन हकं अनुसासितु छंदं च वेदितु आ हि धिति पटिञां च ममा 7. अजला [8] से हेवं कटु कंमे चलितविये अस्वास ... चितानि एन पापुनेवू इति अथ __ पिता तथ देवानंपिये अफाक अथा च अतानं हेवं देवानंपिये अनुकंपित अफे 8. अथा च पजा हेवं मये देवानंपियस [9] से हकं अनुसासितु छंदं च वेदितु तुफाक दे __सावुतिके होसामि एताये अठाये [10] पटिबला हि तुफे अस्वासनाये हितसुखाये च तेस 9. हिदलोकिक पाललोकिकाये [11] हेवं च कलंतं तुफे स्वगं आलाधयिसथ मम च आननियं एहथ [12] एताये च अठाये इयं लिपि लिखिता हिद एन महामाता स्वसतं सम 10. पुजिसंति अस्वासनाये धंमचलनाये च तेस अंतानं [13] इयं च लिपि अनुचातुंमासं तिसेन नखतेन सोतविया [14] कामं चु खनासि खनसि अंतला पि तिसेन एकेन पि 11. सोतविय [15] हेवं कलंतं तुफे चघथ संपटिपादयितवे [16] Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धौली अभिलेख 47 संस्कृतच्छाया 1. देवानां प्रियस्य वचनेन तोसल्यां कुमारः महामात्रा च वक्तव्याः। यत् किञ्चित् पश्यामि अहं तत् इ (च्छामि) 2. द्वारतः च आरभे एतत् च मे मुख्यमतम् द्वारम् एतस्य अर्थस्य यत् युष्मासु ... मम [अनुशिष्टिः] 3. अथ प्रजायै इच्छामि अहम् किमिति? सर्वण हितसखेन इहलौकिपारलौकिकेन युज्येरन् इति एवं ... / 4. स्यात् अन्तानाम अविजितानाम् (इयं जिज्ञासा)- "किं छन्दः स्वित् राजा अस्मासु?' इति। ... एतका एव मे इच्छा अन्तेषु ... प्राप्णुयुः इति देवानां प्रियः [इच्छति अनुद्वि ग्नाः मया भवेयुः आश्वस्युः सुखम् एव च लभेरन् मत्तः न दुःखम्। एवं [प्रा] प्णुयुः इति" "क्षमिष्यते नः देवानां प्रियः यत् शक्यं क्षन्तुम्।" मम निमित्तं च धर्मं चरेयुः 6. इहलौकिकं पारलौकिकं च आराधयेयुः। एतस्मै अर्थाय अहं युष्मान् अनुशास्मि। - अनृणः अहम् एतकेन। युष्मान् अनुशिष्य छन्दं च वेदयित्वा या हि धृतिः प्रतिज्ञा .. च मम . 7. अचला। तत् एवं कृत्वा कर्म चरितव्यम्। आश्वासनीयाः च ते - येन प्राप्नुयुः - "यथा पिता तथा देवानां प्रियः युष्माकम्। यथा च आत्मानम् एव देवानां प्रियः अनुकम्पते 8. यथा प्रजाः एवं वयं देवानां प्रियस्य। तत् अहम् ख्युष्मान्, अनुशिष्य छन्दं च वेदयित्वा देश्यायुक्तिकः भविष्यामि एतस्मिन् अर्थे। प्रतिबलाः हि यूयम् आश्वासनाय हितसुखाय च तेषाम् 9. ऐहलौकिक-पारलौकिकाय। एवं च कुर्वन्तः यूयं स्वर्गम् आराधयिष्यथ मम च आनृण्यम् एष्यथ। एताय च अर्थाय इयं लिपिः लेखिता इह येन महामात्राः शाश्वतं समयं 10. युज्येरन् आश्वासनाय च धर्माचरणाय च तेषाम् अन्तानाम्। इयं च लिपिः Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 प्राकृत पाठ-चयनिका अनुचातुर्मासं तिष्ये नक्षत्रे श्रोतव्या। कामं तु क्षणे क्षणे अन्तरा अपि तिष्यात् एकेन अपि 11. श्रोतव्या। एवं कुर्वन्तः यूयं शक्ष्यथ सम्प्रतिपादयितुम्। संस्कृतच्छाया 1. देवानां प्रियस्य वचनेन तोसल्यां कुमारः महामात्रा च वक्तव्याः। यत् किञ्चित् पश्यामि अहं तत् इ (च्छामि) 2. द्वारतः च आरभे एतत् च मे मुख्यमतम् द्वारम् एतस्य अर्थस्य यत् युष्मासु ... मम [अनुशिष्टिः] 3. अथ प्रजायै इच्छामि अहम् किमिति? सर्वण हितसुखेन इहलौकिपारलौकिकेन युज्येरन् इति एवं ... / 4. स्यात् अन्तानाम अविजितानाम् (इयं जिज्ञासा) - "किं छन्दः स्वित् राजा अस्मासु?" इति। ... एतका एव मे इच्छा अन्तेषु ... प्राप्णुयुः इति देवानां प्रियः [इच्छति]. अनुद्विग्नाः मया 5. भवेयुः आश्वस्युः सुखम् एव च लभेरन् मत्तः न दुःखम्। एवं [प्रा] प्मुयुः इति" "क्षमिष्यते नः देवानां प्रियः यत् शक्यं क्षन्तुम्।" मम निमित्तं च धर्मं चरेयुः 1. इहलौकिकं पारलौकिकं च आराधयेयुः। एतस्मै अर्थाय अहं युष्मान् अनुशास्मि। अनृणः अहम् एतकेन। युष्मान् अनुशिष्य छन्दं च वेदयित्वा या हि धृतिः प्रतिज्ञा च मम 7. अचला। तत् एवं कृत्वा कर्म चरितव्यम्। आश्वासनीयाः च ते - येन प्राप्नुयुः - “यथा पिता तथा देवानां प्रियः युष्माकम्। यथा च आत्मानम् एव देवानां प्रियः अनुकम्पते 8. यथा प्रजाः एवं वयं देवानां प्रियस्य। तत् अहम् [युष्मान् अनुशिष्य छन्दं च Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धौली अभिलेख कि 49 वेदयित्वा देश्यायुक्तिकः भविष्यामि एतस्मिन् अर्थे। प्रतिबलाः हि यूयम् आश्वासनाय हितसुखाय च तेषाम् 9. ऐहलौकिक-पारलौकिकाय। एवं च कुर्वन्तः यूयं स्वर्गम् आराधयिष्यथ मम च आनृण्यम् एष्यथ। एताय च अर्थाय इयं लिपिः लेखिता इह येन महामात्राः शाश्वतं समयं 10. युज्येरन् आश्वासनाय च धर्माचरणाय च तेषाम् अन्तानाम्। इयं च लिपिः अनुचातुर्मासं तिष्ये नक्षत्रे श्रोतव्या। कामं तु क्षणे क्षणे अन्तरा अपि तिष्यात् एकेन अपि 11. श्रोतव्या। एवं कुर्वन्तः यूयं शक्ष्यथ सम्प्रतिपादयितुम्। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेदिवंशीय खारवेल का हाथीगुम्फा अभिलेख उदयगिरि, भुवनेश्वर 1. नमो अरहंतानं (*) नमो सव-सिधानं ( // *) ऐरेण महाराजेन महामेघवाहनेन चेति-राज-व [वं] स-वधनेन पसथ-सुभ-लखनेन चतुरंतलुठ [ण]-गुण-उपितेन कलिंगाधिपतिना सिरि-खारवेलेन 2. [पं]दरस-वसानि सीरि-[कडार]-सरीर-वता कीडिता कुमार-कीडिका ( // *) ततो लेख-रूप-गणना-ववहार-विधि-विसारदेन सव-विजावदातेन नव-वसानि योवरज [प] सासितं (*) संपुणं-चतुवीसति-वसो तदानि वधमानसेसयो-वेनाभिविजयो ततिये 3. कलिंग-राज-वसे(स)-पुरिस-युगे महाराजाभिसेचनं पापुनाति ( / / *) अभिसितमतो च पधमे वसे वात-विहत-गोपुर-पाकार-निवेसनं पटिसंखारयति कलिंगनगरि खिबी [2] (I*) सितल-तडाग-पाडियो च बंधापयति सवूयान-प [टि संथपनं च 4. कारयति पनसि(ति)साहि सत-सहसेहि पकतियो च रंजयति (*) दुतिये च वसे अचितयिता सातकनि पछिम-दिसं हय-गज-नर-रध-बहुलं दंडं पठापयति (1*) कन्हबेंणां-गताय च सेनाय वितासिति असिकनगरं (*) ततिये पुन वसे 5. गंधव-वेद-वुधो दप-नत-गीत-वादित-संदसनाहि उसव-समाज-कारापनाहि च Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 51 चेदिवंशीय खारवेल का हाथीगुम्फा अभिलेख कीडापयति नगरिं (*) तथा चवुथे वसे विजाधराधिवासं अहतपुवं कलिंग (?)-पुव-राज-[निवेसितं] ....... वितध-म [कुट ....... च निखित-छत (?) 6. भिंगारे हि] त-रतन-सपतेये सव-रठिक-भोजके पादे बंदापयति (*) पंचमे च दानी वसे नंदराज-तिवससत-ओ[घाटितं तनसुलिय-वाटा पणाडि नगरं पवेस [य]ति सो ....... (1*) [अ*] भिसितो च [छठे वसे*] राजसेयं संदंसयंतो सवकर-वण७. अनुगह-अनेकानि सत-सहसानि विसजति पोर-जानपदं ( / / *) सतमं च वसं [पसा] सतों वजिरघर ....... स मतुक पद .......[कु] म ........ ( // *)....... अठमे च वसे महता सेन ....... [T] गोरधगिरिं 8. घातापयिता राजगहं उपपीडपयति (1*) एतिन [T] च कंमपदान-स [सं नादेन ...... सेन-वाहने विपमुचितुं मधुरं अपयातो यवनरा [ज] [डिमित?] ......यछति ......पलव... 9. कपरुखे हय-गज-रथ-सह यति सव-घरावास ...... सव-गहणं च कारयितुं बह्मणानं ज [य-परिहारं ददाति (*) अरहत ... [नवमे च वसे*]... 10. ....... महाविजय-पासादं कारयति अठतिसाय सत-सहसेहि ( // *) दसमे च वसे ... दंड-संधी-सा [ममयो](?) भरधवस-पठा (?)नं मह [1]. जयनं (?) ....... कारापयति (*) [एकादसमे च वसे*] .......प[7]यातानं च म [नि-रतनानि उपलभते (*) 11. ....... पुवं राज-निवेसितं पीथंडं गदभ-नंगलेन कासयति (1*) जन[प]द-भावनं च तेरस-वस-सत-कतं भि [भिं]दति त्रमिर-दह (?)-संघातं (*) बारसमे च वसे ..... .. [सह सेहि वितासयति उतरापध-राजानो 12. म [T]गधानं च विपुलं भयं जनेतो हथसं गंगाय पाथयति (1*) म [ग]ध [*] च राजानं बहसतिमितं पादे वंदापयति (*) नंदराज-नीतं च का लि] 'ग-जिनं संनिवेस ....... अंग-मगध-वसुं च नयति (*) 13. ....... [क] तु [तुं] जठर-लखिल-][गोपु]राणि सिहराणि निवेसयति सत विसिकनं [प] रि-हारेहि (1*) अभुतमछरियं च हथो-निवा [स] परिहर ...... हय-हथि-रतन-[मानिकं] पंडराजा ...... [मु]त-मनि-रतनानि आहरापयति Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 52 प्राकृत पाठ-चयनिका इध सत [सहसानि] 14. ....... सिनो वसीकरोति (1*) तेरसमे च वसे सुपवत-विजय-चके कुमारीपवते अरहते (हि*) पखिन-सं [सि] तेहि कायनिसीदियाय यापूजावकेहि राजभितिनि चिन-वतानि वास [1][सितानि पूजानुरत-उवा [सग-खारवेलसिरिना जीवदेह-सियिका परिखाता (*) 15. ....... सकत-समण सुविहितानं च सव-दिसानं अनि]नं [?]तपसि-इ[सि] न संघियनं अरहतनिसीदिया-समीपे पाभारे वराकार-समुथापिताहि अनेकयोजना-हिताहि ....... सिलाहि ........ 16. ....... चतरे च वेडुरिय-गभे थंभे पतिठापयति पानतरीय-सत-सहसेहि (1*) मु [खिय-कल-वोछिनं च चोय [ठि]-अंग संतिक [*] तुरियं उपादयति (1*) खेम-राजा स वढ-राजा स भिखु-राजा धम-राजा पसं [तो सुनं [तो अनुभव तो कलानानि 17. ....... गुण-विसेस-कुसलो सव-पासंड-पूजको सव-दे[वाय] तन-सकार-कारको अपतिहत-चक-वाहनबलो चकधरो गुत-चको पवत-चको राजसि-वसू-कुलविनिश्रितो महाविजयो राजा खारवेल-सिरि (*) संस्कृतच्छाया नमः अर्हद्भयः। नमः सर्व-सिद्धेभ्यः। आर्येण महाराजेन माहामेघवाहनेन चेदि-राजवंशवर्द्धनेन प्रशस्त-शुभ-लक्षणेन चतुरन्तलुण्ठन-गुणोपेतेन (-सकलभुवन-व्यापिगुणगणालङ्कतेन कलिङ्गाधिपतिना श्रीखारवेलेन पञ्चदश-वर्षाणि श्रीकडार-शरीरवता (-श्रीमत्पिङ्गलदेह-भाजा) क्रीडिता कुमार-क्रीडिका (-बालक्रीडा)। ततः लेख-रूपगणना-व्यवहार-विधि-विशारदेन (= लेखनविद्यायां मुद्रापरिचये गणिते विवादमीमांसा-विद्यायां प्रवर्त्तना-निवर्त्तनात्मकशास्त्रेषु च निष्णातेन), सर्वविद्यावदातेन नव-वर्षाणि यौवराज्यं (-युवराजत्वेन) प्रशिष्टम् (-शासितम्)। सम्पूर्ण-चतुर्विंशतिवर्षः तदानीं वद्ध 'मानाशैशव-वैण्याभिविजयः (= वेणतनयस्य राजर्षेः पृथोः इव यस्य जयश्रीः शिशोः कालात् Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेदिवंशीय खारवेल का हाथीगुम्फा अभिलेख 53 प्रभृति प्रचीयमाना आसीत्, सः) तृतीये कलिङ्गराज-वंश-पुरुषयुगे (-कलिङ्गराजान्वयस्य तृतीयपुरुषे) महाराजाभिषेचनं प्राप्नोति (-प्राप्नोत्)। अभिषिक्तवान् (= अभिषेकवान् = अभिषिक्तः) च प्रथमे वर्षे वात-विहत-गोपुर-प्राकार-निवेशनं प्रतिसंस्कारयति (= प्रतिसमकारयत्) कलिङ्गनगरी खिबीरम्, शीतलतडागपाल्यः (= ०पारान्) च बन्धयति (= अबन्धयत्); सर्वोद्यान-प्रांतेसंस्थापनं च कारयति (= अकारयत्); पञ्चत्त्रिंशता शतसहसैः [मुद्राणां = कार्षापणानां?] प्रकृती: च रञ्जयति (= अरञ्जयत्)। द्वितीये च वर्षे अचिन्तयित्वा (= अगणयित्वा) शातकर्णिं पश्चिमदिशं हय-गज-नर-रथ-बहुलं दण्डं (= सेनादलं) प्रस्थापयति (= प्रास्थापयत्); कृष्णवेण्वा-गतया (= कृष्णानदीतीरगतया) च सेनया वित्रासयति ऋषिकनगरम् // तृतीये पुनः वर्षे गन्धर्व-वेद-बुधः [खारवेलः] दर्पनृत्यगीतवादित्र-सन्दर्शनैः उत्सव-समाज-कारणाभिः च क्रीडयति (=अक्रीडयत्) नगरीम् (= राजधानीम्॥ तथा चतुर्थे वर्षे विद्याधराधिवासम् अहत-पूर्वं कलिङ्ग-पूर्वराज-निवेशितं ....... वितथमुकुट ..... च निक्षिप्तच्छत्रभृङ्गारं हृतरत्नसम्पत्तिकं सर्व-राष्ट्रिक-भोजक पादौ वन्दयति॥ पञ्चमे व इदानीं वर्षे नन्दराज-त्रिवर्षशतोद्घाटितां (= त्रिशतवर्षो०) तन-सुलिय (= तुण-सूर्य?)-वर्त्मनः प्रणाली नगरं (= राजधानी) प्रवेशयति ....... / अभिषिक्तः च षष्ठे वर्षे राजैश्वर्यं सन्दर्शयन् सर्वाकारवर्णानुग्रहानेकानि शतसहस्राणि [मुद्राणां] विसृजति पौर-जानपदम् [उद्दिश्य]॥ सप्तमं च वर्ष प्रशासत् ....... // अष्टमे च वर्षे महता सेना ..... गोरथ-गिरिं घातयित्वा (= धर्षणानन्तरं) राजगृहम् उपपीडयति (= उपापीडयत्); एतेन कर्मापदान-संनादेन (= दुष्करकर्मसम्पादन-शब्देन) ....सेनावाहनं विप्रमोक्तुं [भयात् मधुरां (= मथुराम्) अपयातः (= पलायितः) यवनराजः डिमितः (?) .....यच्छति ... पल्लव .... कल्प-वृक्षः हय-गज-रथैः सह याति [खारवेलः] सर्व-गृहावास ....... सर्वग्रहणं च कारयितुं ब्राह्मणेभ्यः जय-परिहारं ददाति (= अददात्)। ...... [नवमे च वर्षे] .... [राज-सन्निवासं] महाविजय-प्रासादं कारयति अष्टत्रिंशता शतसहसैः [मुद्राणाम् // दशमे च वर्षे दण्ड-सन्धि-साम-मयः [खारवेलः] भारतवर्ष-प्रस्थानां .... .. कारयति (= अकारयत्)। एकादशे च वर्षे ..... अपयातानां (= पलायितशत्रूणां) च मणिरत्नानि उपलभते (= उपालभत)। ... पूर्वं राजनिवेशितं (= कस्यचित् राज्ञः राजधानी) पीथुण्डं गईभ-लाङ्गलेन कर्षयति (= अकर्षयत्); जनपदभावनं च त्रयोदशवर्षशतकृतं (= वर्ष-त्रयोदशशत-कृतं) भिनत्ति (=अभिनत्) तिमिर-हृद-सङ्घातं (यद्वा - त्रमिरदेश-सङ्घातम्?)। द्वादशे च वर्षे ....... सहसैः वित्रासयति उत्तरापथ-राजान् ..... मागधानां च विपुलं भयं जनयन् हस्त्यश्वं गङ्गायां पाययति; मागधं च राजानं बृहस्पतिमित्रं पादौ वन्दयति नन्दराज-नीतं च कलिङ्ग-जिनं सन्निवेश ........ अङ्ग-मगध-वसुं च नयति; Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54 प्राकृत पाठ-चयनिका ....... कर्तुं जठर-लक्ष्मील-गोपुराणि ( दृढसुन्दरतोरणसमन्वितानि) शिखराणि निवेशयति [मुद्राणां] शत-विंशकानां परिहारैः; अद्भुतम् आश्चर्यं च हस्तिनिवासं (= वस्त्रसज्जां) प्रतिहरति ..... हयहस्तिरत्न-माणिक्यं; पाण्ड्य राजात् ..... मुक्ता-मणि- रत्नानि आहारयति / इह शतसहस्राणि ... वासिनः वशीकरोति। त्रयोदशे च वर्षे सुप्रवृत्त-विजयचक्रे (= सुप्रतिष्ठितविजयान्वित-शासन- ' समृद्ध) कुमारीपर्वते (न्कलंहपतप-जींदकंहपतप भ्पससे) अर्हद्धयः प्रक्षीण-संश्रितेभ्यः (= क्षीणाश्रयेभ्यः) काय-निषद्यायै (= वर्षासु विश्राम-लाभाय) यापोद्यापकेभ्यः राजभृतानां चीर्णव्रतानां (= राजपुष्टानां व्रताचरकाणां) वर्षाश्रितानां पूजानुरक्तोपासक-खारवेलश्रिया जीवदेहाश्रयिकाः (= आश्रयगुहाः) परिखानिताः। ... सत्कृतश्रमणः [खारवेलः] सुविहितानां च सर्वदिशानां ज्ञानिनां तपस्वृ-ऋषीणां संङ्घीयानाम् अर्हन्निषद्या-समीपे प्राग्भारे (= पर्वतपृष्ठे) वराकार-समुत्थापिताभिः अनेकयोजनाहृताभिः ....... शिलाभिः चत्वरे च वैदूर्यगर्भं स्तम्भं प्रतिष्ठापयति पञ्चोत्तरशत-सहौः [मुद्राणां]; मुख्यकलावच्छिन्नं (=गीतनृत्यादिसमन्वितं) चतुःषष्ठयङ्ग (= चतुःषष्टिप्रकारवाद्यविशिष्टं) शान्तिकं तौर्य (रणरहितकालोपयोगितौर्यत्रिकम्) उत्पादयति। क्षेमराजः सः वृद्धराजः (= उन्मत०) सः भिक्षुराजः धर्मराजः पश्यन् शृण्वन् अनुभवन् कल्याणानि ....गुणविशेष-कुशल: सर्वपार्षद-पूजकः सर्वदेवायतन-संस्कार-कारकः अप्रतिहत-चक्रवाहिनीबलः (= अपराजयेन राज्येन सैन्यबलेन च सनाथः) चक्रधरः (= धृतराजचक्रः, सुशासितचक्रः) गुप्त-चक्रः (= सुरक्षितराजमण्डलः) प्रवृत्त-चक्रः (= अप्रतिहतशासनः) राजर्षि-वसु-कुल-विनिःसृतः (= चेदिराजोपरिचरवसु०) महाविजयः खारवेलश्रीः (= श्रीमान् खारवेलः)॥ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्य एशिया के अभिलेख (खरोष्ठी, लिपि में लिखित, स्थानीय भाषा से प्रभावित प्राकृत) प्रथमोभिऽलेखः , चोझूबो-भिमय षोठंग-ल्यिपे(य*) च स ददवो (*) 2. महनुअव महरय लिहति चोझूबो-भिमय-षोठंग-ल्यिपेय३. स च मंत्र देति (1*) स च अहोनो इश षमेक बिंबवे ति यथ एष खोतंनमि दुतियाय गद (1*) चल्मदनदे 4. वलग दितंति याव सचंमि गद (1*) सचदे वलग दितंति 5. याव निमि गद (1*) निनदे याव खोतंनमि चड़ोददे वलग ददवो होअति [याव] [खो] तं ....... 6. यहि एद किलमुद्र अत्र एशति प्रठ यहि-पूर्विक निनदे खोतंनंमि वलगस परिक्रेय 7. तेन विधनेन सध अयोगे न ददवो (*) यथधर्मेन निश्चि कर्तवो (*) 8. षमेकस ( / ) Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 56 प्राकृत पाठ-चयनिका संस्कृतच्छाया चोझूबो-भिमय (= भिमयाख्यः चोझूबो इति मुख्यकर्मचारिविशेषः) - षोठंग-ल्यिपेयाभ्यां (= षोठंगाख्य-मुख्यकर्मचारी ल्यिपेय-नामा) च [द्वाभ्यां] दातव्यम्। महानुभावः महाराजः लिखति, चोझूबोभिमय-षोठंगल्यिपेयाभ्यां च मन्त्रं ददाति। तत् (= यत्) च-"अधुना अस्मिन् [स्थाने षमेकः (-षमेकाख्य-जनः) विज्ञापयति-यथा एषः (= सः) खोतम्ने (= खोतम्नाख्यं देशं;) दौत्याय गतः। चल्मदानतः (= चल्म-दानाख्यस्थानात्;) पालकं (= अश्वयायिनं रक्षिणं) ददाति यावत् साचं (= साच-नामकं स्थानम्)। गतः। साचतः पालकं ददाति यावत् निनं (= निनाख्यं स्थानं;) गतः। निनतः यावत् खोतम्नं [गमनाय] चडोदतः (= चडोदाख्यात् स्थानात्) पालकः दातव्यः भवति यावत् खोत [म्नं गतः।] ...यदा एषा कीलमुद्रा (= मुद्राङ्कित-कीलाकार-काष्ठखण्ड-लिखितादेशः अत्र ( तत्र) एष्यति, प्रष्ठं (= अविलम्बेन) यथापौर्विकं (= यथापूर्वं निर्दिष्ट) निनतः खोतम्ने (= यावत् खोतम्न) पालकस्य परिक्रेयं (= वर्तनं) तेन विधानेन (= यथाविधानं) सार्द्धम् आयोगेन (= वृद्धचा; यद्वा-पारितोषिकेन) दातव्यम्। यथाधर्मेण निश्चयः (= परिक्रेयायोगयोः अवधारणं) कर्तव्यः।" षमेकस्य (= षमेक-सम्बन्धीया कील-मुद्रा) // द्वितीयोऽभिलेखः 1. चोझूबो-यितक-तोंग-वुक्तोस च ददवो ( // *) 2. महनुअव महरय लिहति चोझूबो-यितक-तोंग-वुक्तोस च मंत्र देती (1*) 3. स च अहोनो इश वसु-ल्यिपेय विंञवेति यथ एदस दझि चिमिकए धितु रुत्रयस उनिति गिटए इश रय-द्वरंमि 4. कुठ-विक्षरस ति (व*)र्ष-अश्प व्योछिनिदग (1*) एद प्रचे द्विति त्रिति वर किल-मुद्र गछति (1*) यव अजक-दिवस निश्चे न करितु (1) Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्य एशिया के अभिलेख 57 5. यहि एद किलमुद्र अत्र एशति प्रठ अत्र समुह अनद प्रोछिदवो यथ रयतरंमि 6. व्योछिनिदग सियति तेन विधनेन अत्र विभशितव्य (1*) यदि अंञ विवद किंचि सियति अत्र यथ-धर्मेन निश्चे कर्त्तवो (1*) अत्र न परिबु७. जिशतु हस्तगद रय-द्वरंमि विसजिदेवो (1*) इशेमि समुह निश्चे भविष्यति ( / ) 8. वसु-ल्यिपे रुत्रयेन सध (1*) संस्कृतच्छाया चोझूबोयितक-तोंगवुक्तोभ्यां च दातव्यम् [एतत् लेखनम्। महानुभावः महाराजः लिखति, चोझूबोयितक-तोंगवुक्तोभ्यां मन्त्रं ददाति [च। तत् (= यत्) च - "अधुना अस्मिन् खस्थाने, वसु-ल्यिपेयः विज्ञापयति यथा - एतस्य (= ल्यिपेयस्य) दास्याः चिमिकायाः दुहिता त्रयस्य उन्नीतिः (= पालनं = पालनार्थं गृहीता कन्या) गृहीतिका ख्सती, अस्मिन् राज-द्वारे कृष्ट-क्षीराय (=मातृस्तन्य-धारशोधनाय) त्रिवर्षाश्वः व्यवछिन्नकः (= निर्धारितः)। एतत्-प्रत्यये (= एतद्विषये) द्वितीयं तृतीयं वारं कीलमुद्रा (= लेखः) गच्छति यावत् अद्यक-दिवसम् (= अद्यतन) युवाभ्यां निश्चयः न कृतः। यदा एतत्-कीलमुद्रा अत्र (= तत्र) एष्यति, प्रष्ठम् अत्र (= तत्र) सम्मुखं [यथा तथा युवाभ्याम् उभयपक्षः] आज्ञप्तं (= राजाज्ञा) प्रष्टव्यः। यथा राजद्वारे व्यवच्छिन्नकः स्यात् तेन विधानेन अत्र (= तत्र) विभाषितव्यं (= वक्तव्यं) [युवाभ्याम् / यदि अन्यः विवादः कश्चित् स्यात् अत्र (= तत्र) यथाधर्मेण निश्चयः कर्त्तव्यः। [यदि कः अपि] अत्र (= तत्र) न परिबोधिष्यते (= मीमांसां प्रमाणयति), हस्तगतं [कार्य] राजद्वारे विसर्जयितव्यं (= प्रेरयितव्यम्)। अस्मिन् [स्थाने] सम्मुखः (= साक्षाद्भावेन) निश्चयः भविष्यति // " वसु-ल्यिपेयः रुत्रयेण सार्द्धम् // Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 58 प्राकृत पाठ-चयनिका तृतीयोऽलेखः प्रियदर्शनस देव-मनुश-संपुजितस प्रियभ्रतु षोठंघ-ल्यिपेयस वियलिदवो (1) 1. प्रियदर्शनस देव-मंनुश-संपुजितस प्रियभ्रतु षोठंघ-ल्यिपेयस 2. चोझूबो नस्तिंत नमकेरो करेति दिव्य-शरिर अरोगियो प्रेषेति बहु अप्रमेय (1*) एघं 3. च स च अदेहि गदेमि तहि प्रसदेन अरोगेमि (I*) [को]लियंमि श्वसु ... न... इदनि (*) 4. अहुनो अत्र रयक उटियन विसजिदेमि (1*) तत्र त्रे-वर्षग उट 1 (1*) एष भूय रज्यमि 5. अझतु ओड़िदवो (1*) किलमुंत्र अत्र ह ... सगमोयस वंति (1*) एद किलमुंत्र वजिति पु६. नु मगमोयस ददवो धरंनए अवश (*) एदे किल्मेचिये सर्वभवेन झेनिग सि७. यंति (1*) प्रथदे एत लेख अत्र प्रहिदेमि (1*) प्रहुड़-अर्थय न तिमिदवो (1*) अवि एदस सुमतस 8. एष उटियन पिचविदेमि (1*) इतु उवु तय अचोविन अचोयदे तुर निखलिदवो (1*) अवि 9. अंमनं धर्मपिय-नम सलुवअए गोठमि वुच्यति (1*) यहि एष सुमत अत्र एश्यति 10. तपदय एद अंमन सुमतस हस्तमि अनविदवो पिचवंनए (*) एष अंमंन भरि-मष्ढि 11. गेय-नि-प्रोड्रेयस दझ असि (I*) महि वंति पद विक्रित (1*) सर्व निश्चेय किड़म (*) एष श्रमंन 12. अहुनो दहि होतु (1*) Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्य एशिया के अभिलेख जर 59 संस्कृतच्छाया प्रियदर्शनस्य देवमनुष्य-सम्पूजितस्य प्रियभ्रातुः षोठंग-ल्यिपेयस्य [समीपे] विजालयितव्या (= निर्ग्रन्थीकर्तव्या) [एषा कीलमुद्रा॥ प्रियदर्शनाय देवमनुष्यसम्पूजिताय प्रियभ्रात्रे षोठंग-ल्यिपेयाय चोझ्वो-नस्तिन्तः (= चोझ्बो-पदाधिष्ठित-नस्तिन्ताख्यः जनः) नमस्कारं करोति दिव्यशरीरम् आरोग्यं [च]। (= तद्विषयकं आशीर्वचनं) प्रेषयति बहु अप्रमेयं [च]। एवं च तत् (= यत्) च - “अतः (= ततः) [आ]गतोऽस्मि, तव प्रसादेन अरोगोऽस्मि। कोलिये (= कोलियाख्ये स्थाने) ..... इदानीम् ... / अधुना अत्र (= तत्र) [यं] राजकं (= राजकीयं) उष्ट्री-गणं विसर्जितवानस्मि, तत्र (= तन्मध्ये) त्रैवर्षकः (= त्रिवर्ष-वयस्कः) उष्ट्रः 1 / एषः भूयः राज्याय (= राष्ट्राय) अध्यातं (= निर्विचारं) उद्दातव्यः (= प्रतिदातव्यः)। कीलमुद्रा (= मुद्राङ्कित-कीलकाकार-काष्ठखण्डस्थः लेख:) अत्र हेतौ शक-मोगस्य उपान्ते (= शक-मोगं प्रति) एतत्-कीलमुद्रा वाचयित्वा पुनः शक-मोगाय दातव्या धारणाय (= रक्षणार्थम्) अवश्यम्॥ एते किल्मेकीयाः (= किल्मे-सम्बन्धिनः जनाः; यद्वा-किल्मे-वासिनः) सर्वभावेन [तव। ध्यानिकाः (= ध्यान-विषयाः - परिचरणार्हाः) स्युः। प्रथतः (= प्रथ-नामक-स्थानतः; यद्वा-पथितः) एतं लेखं अत्र (=तत्र) (प्रहितवान् अस्मि; [अतः] प्राभृतार्थाय (= पुरस्कारार्थाय) न स्तिमितव्यम् [इति विचिन्त्य]॥ अपि [च] - एतस्य सुमतस्य (= सुमताख्यस्य जनस्य) [हस्तेन एतम् उष्ट्रीगणं प्रत्यर्पितवानस्मि। इतः उपादाय (= वर्तमानात् प्रभृति) अचोविनाः (- पुरुष-विशेषाः) अचोयतः (= गुल्मात्?) त्वरया निष्काळयितव्याः (= प्रेषयितव्याः) // अपि [च] - श्रमणः धर्मप्रियः नाम सलुवयायाः (= सलुवया-नाम्न्याः नार्याः) गोष्ठे [अस्ति इति] उच्यते। यदा एषः सुमतः अत्र (= तत्र) एष्यति तत् उपादाय (= ततः प्रभृति = तदा) एतस्य श्रमणस्य सुमतस्य हस्ते आज्ञापयितव्यं प्रत्यर्पणाय। एषः श्रमणः भरिमष्टिगेय-नि-(=oमष्टिगेयापरनामा)-मोक्रेयस्य दासः आसीत्। मां प्रति पादः (= तस्य भृत्यस्य [=भृत्यसम्बन्धिनः श्रमस्य। चतुर्थः भागः) विक्रीतः। [क्रय-विषयक]। सर्वं निश्चयं कृतवन्तः स्म। एषः श्रमणः अधुना तव भवतु [पादेन?]"॥ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 60 प्राकृत पाठ-चयनिका चतुर्थोऽभिलेखः 1. प्रियदर्शन-चोझ्बो-क्रनय-षोठंघ-ल्यिपेयस च ओगु-किर्तिशर्म अरोग्य परि२. प्रोछति पुनपुनो बहो अप्रमेयो (1*) एवं च स च प्रथमदरो इमदे मगेन-पगोस च 3. हस्तमि लेख प्रहुड़ प्रहिदेमि (1*) तदे अदर्थ भविदवो (1*) अवि-पेत-अवनंमि पल्यि परु४. वर्षि शेष यं च इम-वर्षि पल्यि तह सर्व स्वोर तोमिहि सध इश विसजिदवो (1*) यति 5. तदे पुरिम-पश्चिम विसजिष्यतु पंथंमि परस भविष्यति तुओ षोठंग-ल्यिपेय 6. तनु गोठदे व्योषिशसि नधन भगेन (1*) यं च भुम-नवक-अनेन निद अतिबहो 7. क्रिनिदवो इश प्रहदवो (1*) वेय-किल्म-स्त्रियन पल्यि भुम-नवक-अंन स्वोर विसजित८. वो (1*) अवि पल्यि उट तेनेव सध इश विसजितवो (1*) म इंचि तोंगन परिदे उट विथिष्यतु (*) 9. तस उट-प्रवेय रय-सक्क्षि लिहिदय क्रिदय (1*) लिविस्तरंमि अनति-लेख अत्र गद (*) 10. तहि चोझ्बो-क्रनयस लिहमि एद कयंमि तुओ चित कर्तव्य (1*) एष ल्यिपेय न चित 11. करेति (1*) यो पुन तहि कर्यनि हक्क्षंति शक्क्ष्यमि अहो करंनय (1*) यो अत्र शुभाशुभ१२. स प्रवृति हक्क्षति एसेव लेह-हरगस हस्तमि लेख इश प्रहतवो (1*) यो इश वर्तमान 13. ल्यिम्सुअस परिदे अदर्थ भविदवो (|) Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्य एशिया के अभिलेख 61 संस्कृतच्छाया प्रियदर्शन-चोझबोक्रणय-षोठंघल्यिपेयौ (=0 चोझबोपदाधिष्ठित-क्रणयनामानं षोठंघपदाधिष्ठित-ल्यिपेयनामानं च) ओगु-कीर्तिशर्मा (= ओगूपाधिक०) आरोग्य परिपृच्छति पुनःपुनः बहु अप्रमेयम्। एवं च तत् (= यत्) च - प्रथमतरं (= प्रथमतः) इतः मगेन-पग्वोः च (= मगेनाख्यस्यपगुनाम्नः च पुरुषयोः) हस्तेन लेखं प्राभृतम् (=उपहारं [च] प्रहित [वान् अस्मि। [अहम्। ततः ज्ञातार्थाभ्यां युवाभ्यां भवितव्यम् अवि-पेत्वापणे (= नानाजातीय-मेष-विक्रय-स्थाने; यद्वा - अपि....[च 0) [लभ्यः] बलि: (= करः) पूर्ववर्षीय-शेषः (=पूर्ववर्षीयकरस्य अवशिष्टांशः) यः च (= एवं च) एतद्वर्षीय बलिः तथा सर्वं स्फुर (= स्फूर्तियुक्तं = त्वरया) तोम्मिभिः (= तोम्मिसंज्ञैः राजभृत्यैः? सार्धम् [अस्मिन् स्थाने] - विसर्जयितव्यम्। यदि ततः पूर्व-पश्चिमम् (= अग्रतः पश्चात् च = असकृत् [बलिं] विसर्जयिष्यथः, पथि परस्य (= दस्युतस्करादेः = दस्युतस्करादिहृतः) भविष्यति [च], [ततः] त्वं षोठंघ-ल्यिपेयः तनुगोष्ठतः (= आत्मनः०) व्यवशेक्षसि (= क्षतिपूरणं करिष्यसि) नद्धानां (= बद्धानां पशूनां; यद्वा - शस्यभाराणां) भागेन (= अंशानुसारेण)॥ यत् च - भूमिनवकान्नेन (= भूमिजात-नवशस्येन) घृतम् अतिबहु (=बहुपरिमाणं) क्रेतव्यम्, अस्मिन् [स्थाने] प्रहेतव्यं [च]। वेगकिल्विस्त्रीणां (= भारवाहि -घोटक-स्वामिनीनां?) बलिः भूमि-नवकान्नंस्फुरं( त्वरित) विसर्जयितव्यः। अपि [च] बलिः उष्ट्र: (= बलि-स्वरूपः उष्ट्रः) तैः (= तोम्मिभिः) एव सार्द्धम् अस्मिन् [स्थाने विसर्जयितव्यः। न किञ्चित् [कालं] तोङ्गानां (= राजभृत्यविशेषान्) परितः (= सकाशे) उष्ट्रः वितिष्ठतु (= उष्ट्रः रक्षितव्यः)। तस्य उष्ट्र-प्रत्यये (= उष्ट्रस्य विषये) राज-साक्षि[क] लिखितकं (= लेख:) कृतकं (= कृतः); लिपि-स्तरे (= लिपिविस्तारेण) आज्ञप्ति-लेखः अत्र (= तत्र) गतः [च / त्वां चोझ्बो-क्रणयं लिखाभि-एतत्-कार्ये त्वया चित्तं (= मनोयोगः) कर्तव्यम्। एषः ल्यिपेयः न चित्तं करोति। यानि पुनः तव कार्याणि [अपराणि] सन्ति, शक्ष्यामि अहं करणाय [तेषाम् / या अत्र शुभाशुभस्य प्रवृत्तिः (= वार्ता) अस्ति, एवम् एव लेखहारकस्य हस्ते [तद्विषयक], लेखः अस्मिन् [स्थाने] प्रहेतव्यः (= प्रेषयितव्यः)। यः अस्मिन् [स्थाने] वर्तमानः [व्यापारः], ल्यिम्सुयस्य (= लिम्सुयनामकस्य जनस्य) परितः [= सकाशात्] [तद्विषये ज्ञातार्थेन भवितव्यं त्वया।" Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 62 प्राकृत पाठ-चयनिका पंचमोऽभिलेखः 1. भटरगस चोझूबो-सोंचकस 2. पदमुलंमि वियलिदवो ( // *) 3. भटरगस प्रिय-देव-मनुशस देव-मंनुश-संपुजितस प्रचक्ष-बोधिसत्वस महचोझ्बो-सोंचक- . 4. स पदमुलंमि चोझ्बो-यिलि नमिल्गअए सच नमकेरो करेंति दिव्य-शरिर अरोगिय च 5. प्रेषेति बहु अप्रमेगो (1*) एवं च विति स च बहु-चिर-कल हुद न शकिदम तेहि वंति लेख६. प्रहुड़-प्रेषंनए। (1*) तेन करंन सुठ संञवे यम न-इंचि य दिव्यञ अंजत हक्क्षति (1*) एष षमने७. र चक्व ...[क] अत्र विसजिद तेहि दिव्यशरिर-अरोगि-प्रेषनए (*) यो से अत्र वेधन 8. किंचि करिशति अवश मंत्र श्रुनिदवो (1*) से श्रमंनेर तेहि झेनिग स्यति (I) न-इंचि अबो९. मत किंचि करेंति (1*) प्रहुड़स अर्थ येन न दिमिदवो लहुग प्रहुड़ प्रहित (1*) पश्चदर धर्मप्रि१०. यस् हस्तमि लेख-प्रहुड़ प्रेशिषम यो तेहि पिचर स्यति (*) यिलियस परिदे रजु 1 नमिल्ग११. अए परिदे लस्तुग 1 (1*) अपरिमित-गुनंस मंम-गतस प्रियभ्रतु चोझ्बो बुधरक्क्षियस 12. पदेभ्य धर्मप्रिय अरोगि संप्रेषयति बहु (*) 13. समनेर (|) Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्य एशिया के अभिलेख 63 संस्कृतच्छाया भट्टारकस्य चोझ्बो-सोंचकस्य (= चोझ्बोपदाधिष्ठित-सोंचकाख्यस्य) पादमूले विजालयितव्यम् (= उन्मोचयितव्यं) खलखित-काष्ठ-द्वय-बन्धनम्॥ भट्टारकस्य प्रिय-देवमनुष्यस्य देव-मनुष्य-सम्पूजितस्य प्रत्यक्ष-बोधिसत्त्वस्य महाचोम्बो-सोंचकस्य पादमूले चोझ्बो-यिलियः नमिल्गयया (= यिलियपन्या नमिल्गयाख्यया) सचा (= सार्द्ध) नमस्कारं करोति दिव्यशरीरम् आरोग्यं च प्रेषयति बहु अप्रमेयम्। एवं च विज्ञायते तत् (= यत्) च - बहुचिरकालः भूतः, न शक्ताः स्मः तव उपान्ते (= सकाशे) लेख-प्राभृत-प्रेषणाय। तेन कारणेन सुष्ठु संज्ञापयामः - न काचित् (= न) च दिव्याज्ञा (= भवतः आज्ञप्तानि) [आवाभ्याम् अज्ञाता अस्ति। एषः श्रमणेरः चक्व कः अत्र (=तत्र) विसर्जितः तव दिव्यशरीरारोग्य-प्रेषणाय (= स्वास्थ्यादि-ज्ञापनाय)। यत् सः अत्र (= तत्र) वैधानं (= विधान-समूहं = कर्मजातं) किञ्चित् करिष्यति, अवश्यं [तव] मन्त्रः ख्नेन, श्रोतव्यः। सः श्रमणेरः तव ध्यानिकः (=ध्यान-विषयः) स्यात्। मा किञ्चित् (= न) अभ्यवमतं (= अनभिप्रेतं त्वया; यद्वा-अननुज्ञातं त्वया) किञ्चित् करोतु। प्राभृतस्य अर्थे येन (=यथा) न स्तिमितव्यम् (= विलम्बः न स्यात्), [तत्-कारणात् मया] लघुकं (= किञ्चिन्मात्र) प्राभृतं प्रहितम्। पश्चात्तरं (= पश्चात्) धर्मप्रियस्य हस्ते लेख-प्राभृतं प्रेषयिष्यामः यत् तव प्रत्यहं (यद्वा - प्रीत्यर्ह) स्यात्। यिलियस्य परितः (= सकाशात्) रज्जुः 1, नमिल्गयायाः परितः लस्तुकः (= बन्धन-विशेषः; यद्वा - लस्तूकः = धनुर्मध्यम्) 1 // " अपरिमित-गुणस्य मर्मगतस्य (= हृदये दत्त-स्थानस्य = प्रियस्य) प्रियभ्रातुः चोझूबो-बुद्ध रक्षितस्य पदाभ्यां धर्मप्रियः आरोग्यं संप्रेषयति बहु॥ श्रमणेरः (= श्रामणेर-सम्बन्धि-लेखः)। षष्ठोऽभिलेखः (चर्मपटोपरि) 1. महनुअव महरय लिहति चोझूबो-सोंजकस मंत्र देति (1*) एवं च जनंद भविदव्य यो लिहमि (1*) सच यहि रज-किचस क्रि Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 64 प्राकृत पाठ-चयनिका 2. देन अनदि दित तह रज-कर्यमि ओसुक अवजिदव्य (1*) अवि स्वस जिविद-परिचगेन अनद रविक्षदव्य यहि खेम खोतंनदे वर्तमन सियति (1*) एम चेव महि महरयस पदमुलंमि विंञविदव्य (1*) यो च अदेहि लेहरग-चढियस ह 3. स्तमि विंञति-लेख प्रहितेसि तह सर्व-अदर्थो स्मि (1*) अपि च विंञवेतु कल पुर्णबलस उट 2 न इश थियंति पलयंति (1*) एदे उट अत्र लंचग परिपळितव्य (1*) पिवरए होतु (1*) शरतमि न-इंचि इश अनिदवो (1*) 4. अवि विंञवे सि यथ कल-पुर्णबल-नि-चमकस मनुशन अंजे जन कर्मवेति (1*) लिहिदग सक्क्षि नस्ति (1*) से मनुश कल-पुर्णबलस नमेन निखलिदवो (*) येष विवद सियति रय-द्वरंमि गरहिदव्य (I*) 5. अवि च यो इश ख्अवर,धि हुयंति इशेव तेष मर्तव्य हुअति इत्यर्थ अत्र विसजिदम (1*) श्रुयति विहरवल अत्र दनु-किल्मिचियन मसु-मंत्सेन सुठ विहेड़ेति विन [जे ति] (1*) [दिवसि] निसग विहरवल६. स सध पत्र-परिवर.स्य च दन-किल्मियदे ददवो अट यं च सत वचरि 4 (*) यथ-अवरधि-धर्मेन रक्क्षिदवो न हस्त पददे ओडिष्यति न बलस्त भविष्यति (1*) अवि सुदर्शनस इमदे कुड़ 7. [2] विसजितंति (1*) एदे तस वंति ओडिदवो (1*) तेन विधनेन तनु किल्मेयदे भत ददव्य (1*) एम चेव सुरक्क्षिद कर्त्तव्य (1*) अवि अत्र सुदर्शनस अत्र किल्मेचि-गोठ 2 (*) एदे जन 8. शवथ शवाविदन्य न इमदे पप कर्य मंत्र जल्पिदव्य न अदेहि श्रुनिदव्य (1*) वेल वेलय एदे जंन सुदर्शनस वंति ओड़िदवो (1*) अवि वहुवर अञदि-लेख गद षोठंग-सन्लवियस पलयंने-अनुंश-देयंनए (1*) यत्र अत्रक न देनसि खंनवटगेसि (*) चवल ददवो (1*) यदि अहुनो भुय चवल न दस्यसि मनसंमि हुतु (I*) सिहधर्मस पुत्र चवल श्रमनेर दनु 10. निखलिदवो (*) कुतिश-धर्म श्रमन अंग्रेस दझ ददवो (1*) मसे. 4(+*2) दिवसे. 10(+*)3 ( / ) 11. चोझ्बो सोंजकस ददवो ( / / *) Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्य एशिया के अभिलेख बल 65 संस्कृतच्छाया महानुभावः महाराजः लिखति, चोझ्बो-सोंजकस्य मन्त्रं ददाति। - "एवं च जानता भवितव्यं [त्वया] यत् लिखामि। तत् (= यत्) च - यथा राज-कृत्यस्य कृतेन आज्ञप्तिः दत्ता, तथा राजकार्य औत्सुकस् आवर्जयितव्यं (= विधेयम्)। अपि [च] स्वस्य जीवित-परित्यागेन आज्ञप्तम् (= आज्ञा) रक्षितव्यं, यथा (= येनः) क्षेमं (= मङ्गलं) खोतम्नतः (= नदाख्य राजधानीतः = राजसकाशात्) व नसानं स्यात् (= आगच्छेत्)॥ एवं च एव [सर्वं मम महाराजस्य पादमूले विज्ञापयितव्यम्। यं च अतः (= अमुष्मात् स्थानात्) लेख-हारक-चढियस्य हस्ते [त्वं] विज्ञप्तिलेखं प्रहितवानसि, तथा (= तत्पाठात्) सर्वज्ञातार्थोऽस्मि। अपि च [त्वया विज्ञापितं [यत् कल-पूर्णबलस्य (= कलोपाधि-कपूर्णबलस्य।) उष्ट्रौ 2 न अस्मिन् [स्थाने] श्रयतः (= तिष्ठतः), [परन्तु] पलायेते। एतौ उष्ट्रौ अत्र (= तत्र) रजक (= रंजयित्वा) पालयितव्यौ। पीवरौ भवताम्। शरदि [तौ उष्ट्रौ] नकिञ्चित् (= न) अस्मिन् [स्थाने आनेतव्यौ। अपि [च] [त्वं मां] विज्ञापयसि यथा कल-पूर्णबल-नि (कल-पूण बिलापराख्य)-चमकस्य मनुष्येण (भृत्येन) अन्ये जनाः कर्मयन्ति (= भुत्यकर्म कारयन्ति)। .. लिखितकं (= स्वामित्व-प्रत्यायकं पत्रादि) साक्षी [च नास्ति। सः मनुष्यः कल-पूर्णबलस्य नाम्ना निष्खालयितव्यः (= परेषां भृत्यकर्मणः बहिष्कर्त्तव्यः)। येषां विवादः स्यात्, राजद्वारे गर्हयितव्यम् (= अभियोक्तव्यं) [तैः] / अपि च 'यैः अस्मिन् [धर्माधिकरणे अपराधिभिः भूयते, अस्मिन् [धर्माधिकरणे] एव तैः मर्त्तव्यम् भवति' इत्यर्थम् (= त्वया एवं विज्ञापितत्वात्) अत्र (= तत्र [अपराधिनः] विसर्जितवान् अस्मि। श्रूयते, विहारपालः अत्र (= तत्र) तनु (= आत्मनः)-किल्मे-कीयानां मद्यमांसेन सुष्ठु विहृतयति (= विशेषेण विहारं करोति = अपचिनोति) विनाशयति [च / दिवसीयः निश्रयः (= दैनिकं खाद्यादिक) विहार-पालाय सार्द्धं पुत्र-परिवारेण तनु-किल्मियतः (= विहारपालस्य स्व-विषयतः) दातव्यः-अटें (= गोधूमचूर्ण) यत् च शक्तु वचर्यः 4 (= चतुर्वचरी-परिमानम् अट्टशक्तुकम्)। [सः] यथापराधिधर्मेण रक्षितव्यः; न हस्तपादतः उद्धास्यते (= वञ्चयिष्यते = पाणिपादं न कतिष्यते); न तस्य बलास्तं (शक्तिक्षयः) भविष्यति॥ अपि सुदर्शनाय अतः कुटौ (= पात्रे) 2 विसर्येते। एतौ तस्य उपान्ते उद्दातव्यौ। तेन विधानेन (= पूर्वोक्त-विधानेन) [सुदर्शनाय] तनु-किल्मियतः भक्तं (= आहार्यं) दातव्यम्। एवं च एव सुरक्षितः कर्त्तव्यः [सः]। अपि [च] अत्र [= तत्र) सुदर्शनस्य अत्र किल्मकीय-गोष्ठे 2 / एतैः जनैः (= किल्मेकीयैः) शपथः शापयितव्यः 'न अतः पापं कार्यं, मन्त्रः [च] जल्पितव्यः, न अमुतः (= कारास्थ-सुदर्शनात्) [मन्त्रः] श्रोतव्यः।' वेला [यां] वेलायां (= काले काले) एते जनाः सुदर्शनस्य Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 66 प्राकृत पाठ-चयनिका उपान्ते उद्दातव्याः॥ अपि च बहु-वारं आज्ञप्ति-लेखः गतः (= प्रेषितः) सोठंग-सलुवियाय पलायन-मनुष्य-दानाय (= पलायित०)। यावत् अद्य न दत्तवान् असि। क्षणवर्तकः (= कालक्षेपकः) असि। चपलं दातव्यः [मनुष्यः त्वया / यदि अधुना भूयः चपलं न दास्यसि, मनसि [ते मनुष्य-दानकथा] भवतु॥ सिंह धर्मस्य पुत्रः चपलं श्रामणेरः [त्वया] तनुः (= स्वयं) निष्खालयितव्यः। [सिंहधर्म-पुत्रस्य कृतेशधर्मः (= प्रभुधर्मी = प्रभुः) श्रमणः [अस्ति चेत् तस्मै, अन्यस्य दासः दातव्यः॥" मासि 6, दिवसे 13 // चोझबो-सोजकाय दातव्या कील-मुद्रा॥ सप्तमोऽभिलेखः 1. एष प्रवनग मोगत-नि-भुमस प्रचेय (1*) 2. तिविर-रमषोत्सस अनद धरिदवो ( // *) 3. संवत्सरे 4 (+*) 4 (+*) 1 महरय-रयतिरयस महंतस जयंतस धर्मियस सच-धर्म-स्थिदस 4. महनुअव-महरय-अंक्वग-देवपुत्रस क्क्षुनंमि मसे. 4(+*)2 तिवसे: 10 (+*) 4 (+*)1 (1*) अस्ति मनु५. श चर-पुरुष मोगत-नम (1*) से उथिदतिविर-रम्सोत्सस वंति अक्रि-भुम विक्रिद अड़ि६. नि-भिज़-पयति मिलिम 1 खि 10 गिड मुलि तवस्तग हस्त 10 (+*)3 बदश (1*) ___मुलिये७. न संम संम सरजितंति (1*) तह एदस भुमस वंति तिविर-रम्सोत्सस एष्वर्थ हु 8. द ववंनए किषंनए अंजस प्रहुड़ देयंनए सर्व-बोग-परिभुछनए 9. किकम करंनि सियति (*) सद क्रय-विक्र किटंति पुरठिद महात्मन (1*) सक्क्षि जनं Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्य एशिया के अभिलेख 67 10. ति रज-दरो कित्सैत्स पितेय काल-करंत्स (1*) स च सक्क्षि अप्सुअन अप्षिय-शांचख,(*) स च 11. सक्क्षि भियो अंञ सक्क्षि-तोघ-कुवय सक्क्षि वसु-चढिय सक्क्षि 12. अप्सु-करंस सक्क्षि चोझ्बो-लुस्तु सक्क्षि वुर्यग-प्ति सक्क्षि सघि [नव कपोत सक्क्षि 13. कोरि-ष्वल्य यस वटयग शिरास सक्क्षि (1*) को पश्चिम-कलंमि वेतेयति चोतेयति 14. सजेयति तह रयद्वरंमि मो चोदंति अप्रमनं च सियति (*) एष प्रवंनग लिखि 15. दग़ महि दिविर-तमस्व-पुत्रेन दिविर-मोगतस तख्न, महत्वन अनतेन (1*) प्रमन व१६. र्ष-सहस्रमि (*) यवजिवो 17. सुत्र-छिनिदं कित्सैत्सस वटयग 18. श्रोङ्गः (स*) कर्सेनव-शोदि (ते?) ङ्गस च (1) संस्कृतच्छाया एतत् प्रपर्णकं (=पत्रम् = आज्ञापत्री) मोगत-निज-भूम्नः (= मोगत-भूम्नः) प्रत्यये (= सम्पर्के)। दिविर-रमुषोत्सस्य (= रमषोत्सेण) आज्ञप्तं धर्तव्यम्॥ संवत्सरे [नवमे] 9 महाराज-राजातिराजस्य महतः जयतः धार्मिकस्य सत्यधर्मस्थितस्य महानुभाव-महाराजांक्वग-देवपुत्रस्य क्षणे (= शासन-समये) मासे 6 दिवसे 14 / अस्ति मनुष्यः चर-पुरुषः (= गूढचारः) मोगतः नाम। सः उत्थाय (= स्वेच्छया) दिविर-रम्पोत्सस्य उपान्ते (रम्पोत्सं प्रति) आय भुम्नं (= उत्तम-भूमि) विक्रीतवान्) [अस्मिन् अडिनि-बीज-पर्याप्तिः (= अडिनिनामक-शस्यबीजानां वपनाय पर्याप्त-परिमाणं) मिलिम 1 खि० 10 गृहीतं मूल्यं तापवस्त्रकाणि हस्ताः 13 (= त्रयोदश-हस्त-परिमितानि) द्वादश (= द्वादश-संख्यकानि)। मूल्येन सम्यक् सम्यक् संरज्येते [क्रेतृ-विक्रेतारौ] तथा Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 68 प्राकृत पाठ-चयनिका एतस्य भूम्नः उपान्ते (= भूमि प्रति) दिविर-रम्पोत्सस्य ऐश्वर्यं (= स्वामित्वं) भूतं वपनाय कर्षणाय अन्यस्मै प्राभृत-दानाय सर्वभाग-परि भोगाय-किंकर्म (= यत्किमपि कर्म) करणीयं स्यात् [भूम्यां अस्याम्। [क्रेतृविक्रेतारौ] एतत् क्रयविक्रयं कुरुतः पुरःस्थितौ [सन्तौ] महात्मनोः (=मुख्यराजपुरुषयोः); [महात्मानौ] साक्षिणौ तौ च एतत् जानीतः - राज-दार [कः] कित्सैत्सः, पितृव्यः (= राज पितृव्यः) कल-करंत्सः [च]। तौ च साक्षिणौ अप्सूनां (अप्सूयवंश्यानां?) अप्षीय-शांचौ (= तदाख्यौ)। ते च साक्षिणः भूयः अन्ये - साक्षी तोंघ-कुवयः, साक्षी वसु-चढियः, साक्षी अप्सु-करंत्सः, साक्षी चोझ्बो-लुस्तुः, साक्षी वुयंग-प्णितः, साक्षी त्सघिनव-कपोतः, साक्षी कोरि-ष्वल्यः यस्य वर्तकः (= स्थलवर्ती = प्रतिनिधिः) शिरासः साक्षी। कः (= यः कश्चित्) पश्चिमकाले विवादयति (यद्वा - वेदयति); चोदयति (= विवादयितुं प्रोत्साहयति), सज्जायते (विवादयितुं) [यद्वा - संजयति भूक्रेतारं)] तथा राजद्वारे मुखं चोदयति (= राजकुले निवेदयति), [तस्य विवाद-चोदना-संजयनादिकं सर्वम्] अप्रमाणम् (= अयथार्थं = प्रमाणविरुद्धं) स्यात्। एतत् प्रपर्णकं लिखितकं (= लिखितं) मया दिविर-तमस्व-पुत्रेण दिविर-मोगतेन तेषां महात्मनां (= साक्षि-भूतानां राजदारक-राजपितृव्यादीनाम्) आज्ञप्तेन (= आज्ञया)। [अस्य] प्रमाणं (= प्रामाण्यं) वर्ष-सहस्रे (= ०सहस्रं व्याप्य) [भविष्यति]। यावज्जीवं (= चिराय) सूत्र-चिह्नितं (क्षेत्र) . . [= क्षेत्रसीमा] कित्सैत्सस्य वर्तकेन श्रोड्रेण, कर्षेणव-शोदिङ्गेन च। अष्टमोऽभिलेखः 1. संवत्सरे 10 मसे 3 धिवझ 10(+*) 4(+*) 4(1*) इज़ क्षुनमि खोतन-महरय-रयति रय-हिनझदेव-विजि 2. दसिंहस्य (1 =) त-कलि अस्ति मनुश (= शे) नगरग(= ग) ख्वर्नर्से-नम (1*) तथ मद्र (= द्रे) दि (*) अस्ति मयि उटः (*) तनुवगः सो उटः अ 3. ब्हिानु हरदि धहि-अधि तद्रिजु वशो (1*) त इदनि सो उटो विक्रिनामि मुल्य (ल्ये) न मष (= षे)-सहस्र अष्टि 4 (+*) 4. 4 (ग*) 1000 सुलिग-वगिति-वधगस्य सगजि (1*) तस्य उटस्य किद (= दे) Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्य एशिया के अभिलेख 69 वगिति-वधग (= गे) निरवशिषो मुल्यो मस (= से) धितु ख्व५. नर्सस्य ग्रहिदु शुधि उवगदु (1*) अजि उवदयि सो उटः वगिति वधगस्य तनुवगः संव्रितः (1*) यथ-गम गरनीयः (1*) 6. सर्वकिच करनीयः (1*) यो पचेम-कलि तस्य उटस्य किद (= दे) चुदियदि विदियदि विवदु उथवियदि त (= ते) न तथ 7. धडु धिनदि यथ रजधM स्यदि (1*) मय धलववगु बहुधिव (= वे) लिखिदु ख्वर्नर्सस्य अजिषनयि पुददु स्प श न 8. रस 9. ननिव्रधग (= गे) सक्षि शशिवक (= के) सक्षि स्पनियक (= के) सक्षि ( // *) संस्कृतच्छाया संवत्सरे 10 मासे 3 दिवसे 18 / इह (=अस्मिन्) क्षणे खोतन्न-महाराजराजातिराज-हीनाध्यदेव-विजितसिंहस्य (= हीनाध्यदेवनाम्नः विजितसिंहोपनामकस्य)। तत्काले अस्ति मनुष्यः नागरकः (= नगरवासी) ख्वर्णर्स-नामा। [सः तथा मन्त्रयते - “अस्ति में उष्ट्र। तनुवकः (=स्वकः) सः उष्ट्रः अभिज्ञानं धरति दाहाङ्कं तादृशं 'वशो' (= वशो इति दाहाङ्कम्)। तत् इदानीं तम् उष्ट्र विक्रीणामि मूल्येन माष-सहस्राष्ट[केन] 8000 सुलिक-वगिति-वधगस्य (= सुलिकजातीय-वगितिनामकस्थानवासिवधगा-[यस्य?) सकाशे।" तस्य उष्ट्रस्य कृते वगिति-वधगेन निरवशेषः मूल्य-माषः धृतः(= दत्तः)] ख्वर्णर्सेन [च] गृहीतः, [विक्रयसम्बन्धीयाः] शुद्धिः (= परिशोधः) उपगता। अद्य उपादाय (= अद्य प्रभृति) सः उष्ट्रः वगिति-वधगस्य तनुवकः (= स्वकः) संवृत्त; यथाकामं करणीयः (= व्यवहरणीयः [उष्ट्रः वधगेन)। सर्व-कृत्यं करणीयम् [अनेन उष्ट्रेण] वधगेन,। यः पश्चिम-काले तस्य उष्ट्रस्य कृते चोदयति (= विवादयितुं प्रोत्साहयति), वेदयति (= राजकुले निवेदयति), विवादम् उत्थापयति [च], तस्य तथा दण्डः दीयेत (= तेन विधानेन दण्डः देयः) यथा राजधर्मः स्यात्। मया धलवगु-बहुधिवे [न Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 70 प्राकृत पाठ-चयनिका (= धलवगुग्रामस्य तदाख्यवंशस्य वा बहुधिव-नाम्ना) लिखितः [लेखः] [वर्णर्सस्य अध्येषणया (= प्रार्थनया) पुरतः स्प०, श०, न०, 20, स० (=स्प-शादि-नामपूर्वभागानां साक्षिणाम्)। ननि-वधगः साक्षी, शशिवकः साक्षी, स्पनियकः साक्षी॥ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवासगदसाओ पढमं आणन्दज्झयणं तेणं कालेणं तेणं समएणं चम्पा नामं नयरी होत्था वण्णओ। पुण्णभद्दे चेइए। वण्णओ॥१॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं अज्जसुहम्मे समोसरिए जाव जम्बू पज्जुवासमाणे एवं वयासी। "जइ णं, भन्ते, समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं छट्ठस्स अङ्गस्स नायाधम्मकहाणं अयम? पण्णत्ते, सत्तमस्स णं, भन्ते, अङ्गस्स उवासगदसाणं समणेणं जाव संपत्तेणं के अटे पण्णत्ते?" / एवं खलु, जम्बू, समणेणं जाव संपत्तेणं सत्तमस्स अङ्गस्स उवासगदसाणं दस अज्झयणा पण्णत्ता। तं जहा। आणन्दे॥१॥ कामदेवे य॥२॥ गाहावइचुलणीपिया॥३॥ सुरादेवे॥४॥चुल्लसयए॥५॥गाहावइ-कुण्डकोलिए॥६॥सद्दालपुत्ते॥७॥ महासयए॥८॥ नन्दिणीपिया॥९॥ सालिहीपिया॥१०॥ "जइ णं, भन्ते, समणेणं जाव संपत्तेणं सत्तमस्स अङ्गस्स उवासगदसाणं दस अज्झयणा पण्णत्ता, पढमस्स णं, भन्ते समणेणं जाव संपत्तेणं के अटे पण्णत्ते?"॥२॥ एवं खलु, जम्बू, तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणियगामे नामं नयरे होत्था। वण्णओ॥ तस्स वाणियगामस्स नयरस्स बहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए दूइपलासए नामं चेइए॥ तत्थ णं वाणियगामे नयरे जियसत्तू नाम राया होत्था। वण्णओ॥ तत्थ णं वाणियगामे आणन्दे नाम गाहावई परिवसइ, अड्डे जाव अपरिभूए॥३॥ तस्स णं आणन्दस्स गाहावइस्स चत्तारि हिरण्णकोडीओ निहाणपउत्ताओ, चत्तारि Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 72 प्राकृत पाठ-चयनिका हिरणकोडीओ वडिपउत्ताओ, चत्तारि हिरण्णकोडीओ पवित्थरपउत्ताओ, चत्तारि वया दसगोसाहस्सिएणं वएणं होत्था // 4 // से णं आणन्दे गाहावई बहूणं राईसर जाव सत्थवाहाणं बहूसु कज्जेसु य कारणेसु य मन्तेसु / य कुडुम्बेसु य गुज्झेसु य रहस्सेसु य निच्छएसु य ववहारेसु य आपुच्छणिज्जे पडिपुच्छणिज्जे सयस्स वि य णं कुडुम्बस्स मेढी पमाणं आहारे आलम्बणं चक्खू, मेढीभूए जाव सव्वकज्जवड्ढावए यावि होत्था // 5 // तस्स णं आणन्दस्स गाहावइस्स सिवनन्दा नाम भारिया होत्था, अहीण जाव सुरूवा। आणन्दस्स गाहावइस्स, इट्ठा, आणन्देणं गाहावइणा सद्धिं अणुरत्ता अविरत्ता इट्ठा, सद्द जाव पञ्चविहे माणुस्सए कामभोए पच्चणुभवमाणी विहरइ // 6 // तस्स णं वाणियगामस्स बहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए एत्थ णं कोल्लाए नामं संनिवेसे होत्था, रिद्धत्थिमिय जाव पासादिए 4 // 7 // तत्थ णं कोल्लाए संनिवेसे आणन्दस्स गाहावइस्स बहुए मित्तनाइनियग-सयणसंबंधिपरिजणे परिवसइ, अड्डे जाव अपरिभूए // 8 // तेण कालेणं तेणं समएणं भगवं महावीरे जाव समोसरिए। परिसा निग्गया। कूणिए / राया जहा तहा जियसत्तू निग्गच्छइ, 2 त्ता जाव पज्जुवासइ // 9 // तए णं से आणन्दे गाहावई इमीसे कहाए लद्धटे समाणे, "एवं खलु समणे जाव विहरइ, तं महाफलं, गच्छामि णं जाव पज्जुवासामि" एवं संपेहेइ, २त्ता ण्हाए सुद्धप्पपावेसाइं जाव अप्पमहग्घाभरणालंकियसरीरे सयाओ गिहाओ पडिणिक्खमइ, 2 त्ता सकोरेण्टमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं मणुस्सवग्गुरापरिखित्ते पायविहारचारेणं वाणियगामं नयरं मज्झमज्झेणं निग्गच्छइ। 2 त्ता जेणामेव दूइपलासे चेइए, जेणेव समणे भगवं महावीरे, तेणेव उवागच्छइ। 2 त्ता तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ, 2 त्ता वन्दइ नमसइ जाव पज्जुवासइ // 10 // तए णं समणे भगवं महावीरे आणन्दस्स गाहावइस्स तीसे य महइमहालियाए परिसाए जाव धम्मकहा। परिसा पडिगया राया य गए // 11 // तए णं से आणन्दे गाहावई समणस्स भगवओ महावीरस्स अन्तिए धम्म सोच्चा निसम्म हट्ठतुट्ठ जाव एवं वयासी। “सद्दहामि णं भन्ते निग्गन्थं पावयणं, पत्तियामि णं भन्ते निग्गन्थं पावयणं, रोएमि णं भन्ते निग्गन्थं पावयणं, एवमेयं भन्ते, तहमेयं भन्ते, अवितहमेयं भन्ते, इच्छियमेयं भन्ते, पडिच्छियमेयं भन्ते, इच्छियपडिच्छियमेयं भन्ते, से जहेयं तुब्भे वयह त्ति कट्ट जहा णं देवाणुप्पियाणं अन्तिए बहवे राईसरतलवरमाडम्बियकोडुम्बियसेट्ठिसत्थवाहप्पभिइया मुण्डा भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइया, नो खलु अहं तहा संचाएमि मुण्डे Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवासगदसाओ 4 73 जाव पव्वइत्तए। अहं णं देवाणुप्पियाणं अन्तिए पञ्चाणुव्वइयं सत्तसिक्खावइयं दुवालसविहं गिहिधम्म पडिवज्जिस्सामि।" अहासुह, देवाणुप्पिया, मा पडिबन्धं करेह // 12 // तए णं से आणन्दे गाहावई समणस्स भगवओ महावीरस्स अन्तिए तप्पढमयाए थूलगं पाणाइवायं पच्चक्खाइ। “जावज्जीवाए दुविहं तिविहेणं न करेमि न कारवेमि मणसा वयसा कायसा" // 13 // तयाणन्तरं च णं थूलगं मुसावायं पच्चक्खाइ "जावज्जीवाए दुविहं तिविहेणं न करेमि न कारवेमि मणसा वयसा कायसा" // 14 // तयाणन्तरं च णं थूलगं अदिण्णादाणं पच्चक्खाइ “जावज्जीवाए दुविहं तिविहेणं न करेमि न कारवेमि मणसा वयसा कायसा" // 15 // तयाणन्तरं च णं सदारसन्तोसीए परिमाणं करेइ। “नन्नत्थ एक्काए सिवनन्दाए भारियाए, अवसेसं सव्वं मेहुणविहिं पच्चक्खामि३" // 16 // __ तयाणन्तरं च णं इच्छाविहिपरिमाणं करेमाणे, हिरण्णसुवण्णविहिपरिमाणं करेइ। "नन्नत्थ चउहिं हिरण्णकोडीहिं निहाणपउत्ताहिं, चउहिं वडिपउत्ताहिं, चउहिं पवित्थरपउत्ताहिं, अवसेसं सव्वं हिरण्णसुवण्णविहिं पच्चक्खामि३" // 17 // तयाणन्तरं च णं चउप्पयविहिपरिमाणं करेइ, “नन्नत्थ चउहिं वएहिं दसगोसाहस्सिएणं वएणं, अवसेसं सव्वं चउप्पयविहिं पच्चक्खामि 3" // 18 // - तयाणन्तरं च णं खेत्तवत्थुविहिपरिमाणं करेइ। "नन्नत्थ पञ्चहिं हलसएहिं नियत्त सिइएणं हलेणं, अवसेसं सव्वं खेत्तवत्थुविहिं पच्चक्खामि 3" // 19 // - तयाणन्तरं च णं सगडविहिपरिमाणं करेइ। "नन्नत्थ पञ्चहिं सगडसएहिं दिसायत्तिएहिं, पञ्चहिं सगडसएहिं संवाहणिएहिं, अवसेसं सव्वं सगडविहिं पच्चक्खामि 3" // 20 // तयाणन्तरं च णं वाहणविहि परिमाणं करेइ। “नन्नत्थ चउहिं वाहणेहिं दिसायत्तिएहिं, चउहिं वाहणेहिं संवाहणिएहिं, अवसेसं सव्वं वाहणविहिं, पच्चक्खामि 3" // 21 // तयाणन्तरं च णं उवभोगपरिभोगविहिं पच्चक्खाएमाणे उल्लणियाविहिपरिमाणं करेइ। "नन्नथ एगाए गन्धकासाईए, अवसेसं सव्वं उल्लणियाविहिं पच्चक्खामी 3" // 22 // तयाणन्तरं च णं दन्तवणविहिपरिमाणं करेइ। “नन्नत्थ एगेणं अल्ललट्ठीमहुएणं, अवसेसं दन्तवणविहिं पच्चक्खामि 3" // 23 // तयाणन्तरं च णं फलविहिपरिमाणं करेइ। “नन्नत्थ एगेणं खीरामलएणं, अवसेसं फलविहिं पच्चक्खामि 3" // 24 // Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 74 प्राकृत पाठ-चयनिका तयाणन्तरं च णं अब्भङ्गणविहिपरिमाणं करेइ। “नन्नत्थ सयपागसहस्सपागेहिं तेल्लेहिं, अवसेसं अब्भङ्गणविहिं पच्चक्खामि 3" // 25 // तयाणन्तरं च णं उव्वदृणविहिपरिमाणं करेइ। “नन्नत्थ एगेणं सुरहिणा गन्ध-वट्टएणं, अवसेसं उव्वट्टणविहिं पच्चक्खामि 3" // 26 // तयाणन्तरं च णं मज्जणविहिपरिमाणं करेइ। “नन्नत्थ अट्ठहिं उट्टिएहिं उदगस्स घडएहिं, अवसेसं मज्जणविहिं पच्चक्खामि 3" // 27 // Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुवलयमालाकहा उज्जोयणसूरिविरइया 1. पढमं णमह जिणिंदं जाए णच्चंति जम्मि देवीओ। उव्वेल्लिर-बाहु-लया-रणंत-मणि-वलय-तालेहिं।। 3. पुरिस-कर-धरिय-कोमल-णलिणी-दल-जल-तरंग-रंगत। णिव्वत्त-राय-मज्जण-बिंब जेणप्पणो दिद। वसिउं चिरं कुलहरे कला-कलाव-सहिया णरिंदेसु। धूय व्व जस्स लच्छी अज्ज वि य सयंवरा भमइ।। जेण कओ गुरु-गुरुणा गिरि-वर-गुरु-णियम-गहण-समयम्मि। स-हरिस-हरि-वासद्धंत-भसणो केस-पब्भारो।। 6. तव-तविय-पाव-कलिणो णाणुप्पत्तीए जस्स सुर-णिवहा। संसार-णीर-णाहं तरिय त्ति पणच्चिरे तुट्ठा। जस्स य तित्थारंभे तियस-वइत्तण-विमुक्क-माहप्पा। कर-कमल-मउलि-सोहा चलणेसु णमंति सुर-वइणो। तं पढम-पुहइ-पालं पढम-पवत्तिय-सुधम्म-वर-चक्कं। णिव्वाण-गमण-इंदं पढमं पणमह मुणि-गणिंदं। अहवा। 9. उब्भिण्ण-चूय-मंजरि-रय-मारुय-विलुलियंबरा भणइ। माहव-सिरी स-हरिसं कोइल-कुल-मंजुलालावा।। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 765 प्राकृत पाठ-चयनिका अहिणव-सिरीस-सामा आयंबिर-पाडलच्छि-जुयलिल्ला। दीहुण्ह-पवण-णीसास-णीसहा गिम्ह-लच्छी वि।। उण्णय-गरुय-पओहर-मणोहरा सिहि-फुरंत-धम्मिल्ला। उब्भिण्ण-णवंकुर-पुलय-परिगया पाउस-सिरी वि।। 12. वियसिय-तामरस-मुही कुवलय-कलिया विलास-दिट्ठिल्ला। कोमल-मुणाल-वेल्लहल-बाहिया सरय-लच्छी वि।। हेमंत-सिरी विस-रोद्ध-तिलय-लीणालि-सललियालइया मल्लिय-परिमल-सुहया णिरंतरुब्भिण्ण-रोमंचा। अणवरय-भमिर-महुयरि-पियंगु-मंजरि-कयावयंसिल्ला। विप्फुरिय-कुंद-दसणा सिसिर-सिरी सायरं भणइ।। दे सुहय कुण पसायं पसीय एसेस अंजली तुज्झ। णव-णीलुप्पल-सरिसाएँ देव दिट्ठीएँ विणिएसु॥ इय जो संगमयामर-कय-उउ-सिरि-राय-रहस-भणिओ वि। झाणाहि णेय चलिओ तं वीरं णमह भत्तीए॥ अहवा। जाइ-जरा-मरणावत्त-खुत्त-सत्ताण जे दुहत्ताणं। भव-जलहि-तारण-सहे सव्वे च्चिय जिणवरे णमह॥ सव्वहा, 18. बुझंति जत्थ जीवा सिज्झंति य के वि कम्म-मल-मुक्का। जं च णमियं जिणेहि वि तं तित्थं णमह भावेण।। 2. इह कोह-लोह-माण-माया-मय-मोह-महाणुत्थल्ल-मल्ल-णोल्लणावडण-चमढणा -मूढ-हिययस्स जंतुणो तहा-संकिलिट्ठ-परिणामायास-सेय-सलिल-संसग्ग-लग्ग-कम्म -पोग्गलुग्ग-जाय-घण-कसिण-कलंक-पंकाणुलेवणा-गरुय-भावस्स गुरु-लोह-पिंडस्स व जलम्मि झत्ति णरए चेव पडणं। तत्थ वि अणेय-कस-च्छेय-ताव-ताडणाहोडण-घडणविहडणाहिं अवगय-बहु-कम्म-किट्टस्स जच्च-सुवण्णस्स व अणटू-जीव-भावस्स किंचि-मेत्त-कम्म-मलस्स तिरिय-लोए समागमणं। तत्थ वि कोइल-काय-कोल्हुयाकमल-केसरी-कोसिएसु वग्घ-वसह-वाणर-विच्चुएसु गय-गवय-गंडय-गावी-गोणगोहिया-मयर-मच्छ-कच्छभ-णक्क-चक्क-तरच्छ-च्छभल्ल-भल्लुंकि-मय-महिस -मूसएसुं सस-सुणउ-संबर-सिवा-सुय-सारिया-सलभ-सउणेसु, तहा पुहइ-जलजलणाणिल-गोच्छ-गुम्म-वल्ली-लया-वणस्सइ-तसाणेय-भव-भेय-संकुलं भव-संसार-सागरमाहिंडिऊण तहाविह-कम्माणुपुव्वी-समायडिओ कह-कह वि मणुय Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुवलयमालाकहा 77 त्तणं पावइ जीवो त्ति। अवि य। 3. बहु-जम्म-सहस्स-णीरए बहु-वाहि-सहस्स-मयरए। बहु-दुक्ख-सहस्स-मीणए बहु-सोय-सहस्स-णक्कए।। एरिसए संसार' जलहि-समे हिंडिऊण पावऍहिं। पावइ माणुस-जम्मय जीवो कह-कह वि पुव्व-पुण्णऍहिं॥ तत्थ वि सय-जवण-बब्बर-चिलाय-खस-पार-भिल्ल-मुरंडो-बोक्कस-सबरपुलिंद-सिंघलाइसु परिभमंतस्स दुल्लहं चिय सुकुल-जम्मं ति। तत्थ वि काण-कुंट-मुंटअंध-बहिर-कल्ल-लल्लायंगमो होइ। तओ एवं दुल्लह-संपत्त-पुरिसत्तणेण पुरिसेण पुरिसत्थेसु आयरो कायव्वो त्ति। अवि य।। रुद्दम्मि भव-समुद्दे तुलग्ग-लद्धम्मि कह वि मणुयत्ते। पुरिसा पुरिसत्थेसुं णिउणं अह आयरं कुणह॥ 4. सो पुण तिविहो / तं जहा। धम्मो अत्थो कामो, केसि पि मोक्खो वि। एएहिं विरहियस्स उण पुरिसस्स महल्ल-दंसणाभिरामस्स उच्छु-कुसुमस्स व णिप्फलं चेय जम्मं ति। अवि य। धम्मत्थ-काम-मोक्खाण जस्स एक्कं पि णत्थि भुयणम्मि। किं तेण जीविएणं कीडेण व दव-पुरिसेणं। एए च्चिय जस्स पुणो कह वि पहुप्पंति सुकय-जम्मस्स। सो च्चिय जीवइ पुरिसो पर-कज्ज-पसाहण-समत्थो।। इमाणं पि अहम-उत्तिम-मज्झिमे णियच्छेसु। तत्थत्थो कस्स वि अणत्थो चेव केवलो, जल-जलण-णरिंद-चोराईणं साहारणो। ताण चुक्को वि धरणि-तल-णिहिओ चेव खयं पावइ। खल-किविण-जणस्स दुस्सील-मेच्छ-हिंसयाणं च दिण्णो पावाणु-बंधओ होइ। कह वि सुपत्त-परिगहाओ धम्म-कलं पावइ काम-कलं च। तेण अत्थो णाम पुरिसस्स मज्झिमो पुरिसत्थो। कामो पुण अणत्थो चेव केवलं। जं पि एयं पक्खवाय-गब्भ-णिब्भर-मूढ-हियएहिं भणियं कामसत्थयारेहिं जहा 'धम्मत्थ-कामे पडिपुण्णे संसारो जायइ' त्ति, तेसिं तं पि 'परिकप्पणा-मेत्तं चिय। जेण एयंत-धम्म-विरुद्धो अत्थ-क्खय-कारओ य कामो, तेण दुग्गय-रंडेकल्ल-पुत्तओ विव अट्ठट्ठ-कंठयाभरण-वलय-सिंगार-भाव-रस-रसिओ ण तस्स धम्मो ण अत्थो ण कामो ण जसो ण मोक्खो त्ति। ता अलं इमिणा सव्वाहमेण Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 78) प्राकृत पाठ-चयनिका पुरिसाणत्थेणं ति। धम्मो उण तुलिय-धणवइ-धण-सार-धण-फलो। तहा णरिंद-सुरसुंदरी-णियंब-बिंबुत्तुंग-पओहर-भर-समालिंगण- सुहेल्लि-णिब्भरस्स कामो वि धम्माणुबंधी य। अत्थो धम्माओ चेव, मोक्खो वि। जेण भणियं। लहइ सुकुलम्मि जम्मं जिणधम्मं सव्व-कम्म-णिज्जरणं। सासय-सिव-सुह-सोक्खं मोक्खं पि हु धम्म-लाभेण।। तेण धम्मो चेव एत्थ पुरिसत्थो पवरो, तहिं चेव जुज्जइ आयरो धीर-पुरिसेण काउं जे। अवि य। अत्थउ होइ अणत्थउ कामो वि गलंत-पेम्म-विरसओं य। सव्वत्थ-दिण्ण-सोक्खउ धम्मो उण कुणह तं पयत्तेण॥ 5. सो उण गोविंद-खंद-रुंदारविंदणाह-गइंद-णाइंद-चंद-कविल कणाद-वयण विसेस-वित्थर-विरयणो बहुविहो लोय-पसिद्धो। ताणं च मज्झे मणीण व कोत्थुहो, गयाण व सुर-गओ, समुद्दाण व खीरोवही, पुरिसाण व चक्कहरो, दुमाण व कप्पपायवो, गिरीण व सुरगिरी, सुराण व पुरंदरो, तहा सव्व-धम्माणं उवरिं रेहइ जिणयंदभासिओ धम्मो त्ति। सो उण चउव्विहो। तं जहा। दाणमइओ, सीलमइओ, तवोमइओ, भावणामइओ त्ति। तत्थ पढमं चिय पढम तित्थयर-गुरुणा इमिणा चेव चउव्विह-धम्म-कमेण सयल-विमल-केवलं . वर-णाणं पि पावियं। जेण अविभाविय-णिण्णुण्णय-जल-थल-विवराइ-भरिय-भुवणेणायालकाल-जलहरेण विय वरिसमाणेण णीसेस-पणइयण-मणोरहब्भहिय-दिण्ण-विहव-सारेण पवत्तिओ पढमं तेलोक्कबंधुणा 'भो भो पुरिसा दाणमइओ धम्मो' त्ति। पुणो ‘सुर-सिद्धगंधव्व-किण्णरोग्य-णर-दइच्च-पच्चक्खं सव्वं मे पावं अकरणिज्जं' ति पइण्णा-मंदरमारुहंतेण पयासिओ तेलोक्क-गुरुणा सीलमइओ धम्मो त्ति। पुणो छट्ठट्ठम-दसम-दुवालस-मासद्ध-माससंवच्छरोववास-परिसंठिएण पयसिओ लोए 'तवोमइओ धम्मो' त्ति। तहिं चिय एगत्तासरणत्त-संसार-भाव-कम्म-वग्गणायाण-बंध-मोक्ख-सुह-दुक्ख-णारय-णरामर-तिरिय-गइ -गमणागमण-धम्म-सुक्क-ज्झाणाइ-भावणाओ भावयंतेण भासिओ भगवया 'भावणामइओ धम्मो' त्ति। तओ ताव अम्हारिसा तारिसेहिं दाण-सील-तवेहिं दूरओ चेव परिहरिया, जेण धण-सत्त-संघयण-वज्जिया संपयं। एसो पुण जिणवर-वयणावबोहओ जाय-संवेगकारणो भावणामइओ सुह-करणिज्जो धम्मो त्ति। कहं। जाव महा-पुरिसालिय-दोस-सय-वयण-वित्थराबद्ध-हलबोल-वड्डिय-पहरिसस्स दुज्जण-सत्थस्स मज्झ-गया पर-मम्म-मग्गण-मणा चिट्ठम्ह, ताव वरं जिणयंद-समण Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुवलयमालाकहा79 सुपुरिस-गुण-कित्तणेण सहलीकयं जम्मं ति। अवि य। जा सुपुरिस-गुण-वित्थार-मइलणा-मेत्त-वावडा होमो। ता ताव वरं जिणयंद-समण-चरियं कयं हियए। इमं च विचिंतिऊण तुब्भे विणिसामेह साहिज्जमाणं किंचि कहावत्थु ति। अवि य। मा दोसे च्चिय गेण्हह विरले वि गुणे पयासह जणस्स। अक्ख-पउरो वि उयही भण्णइ रयणायरो लोए।। 6. तओ कहा-बंधं विचिंतेमि त्ति। तत्थ वि पालित्तय-सालाहण-छप्पण्णय-सीह-णाय-सद्देहि। संखुद्ध-मुद्ध-सारंगओ व्व कह ता पयं देमि।। णिम्मल-मणेण गुण-गरुयएण परमत्थ-रयण-सारेण। पालित्तएण हालो हारेण व सहइ गोट्ठीसु।। चक्काय-जुवल-सुहया रम्मत्तण-राय-हंस-कय-हरिसा। जस्स कुल-पव्वयस्स व वियरइ गंगा तरंगवई।। भणिइ-विलासवइत्तण-चोल्लिक्के जो करेड हलिए वि। कब्वेण किं पउत्थे हाले हाला-वियारे व्व।। पणईहि कइयणेण य भमरेहि व जस्स जाय-पणएहिं। कमलायरो व्व कोसो विलुप्पमाणो वि हुण झीणो। सयल-कलागम-णिलया सिक्खाविय-कइयणस्स मुहयंदा। कमलासणो गुणड्डो सरस्सई जस्स वड्डकहा। जे भारह-रामायण-दलिय-महागिरि-सुगम्म-कय-मग्गे। लंघेइ दिसा-करिणो कइणो को वास-वम्मीए।। छप्पण्णयाण किंवा भण्णउ कइ-कुंजराण भुवणम्मि। अण्णो वि छेय-भणिओ अज्ज वि उवमिज्जए जेहिं। लायण्ण-वयण-सुहया सुवण्ण-रयणुज्जला य बाणस्स। चंदावीडस्स वणे जाया कायंबरी जस्स। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 80 प्राकृत पाठ-चयनिका जारिसयं विमलको विमलं को तारिसं लहइ अत्थं। अमय-मइयं व सरसं सरसं चिय पाइयं जस्स। ति-पुरिस-चरिय-पसिद्धो सुपुरिस-चरिएण पायडो लोए। सो जयइ देवगुत्तो वंसे गत्ताण राय-रिसी।। बुहयण-सहस्स-दइयं हरिवंसुप्पत्ति-कारयं पढमं। वंदामि वंदियं पि हु हरिवरिसं चेय विमल-पयं।। संणिहिय-जिणवरिंदा धम्मकहा-बंध-दिक्खिय-णरिंदा। कहिया जेण सुकहिया सुलोयणा समवसरणं व।। सत्तूण जो जस-हरो जसहर-चरिएण जणवए पयडो। कलि-मल-पभंजणो च्चिय पभंजणो आसि राय-रिसी।। जेहि कए रमणिज्जे वरंग-पउमाण चरिय-वित्थारे। कह व ण सलाहणिज्जे ते कइणो जडिय-रविसेणे।। जो इच्छइ भव-विरहं भवविरहं को ण वंदए सुयणो। समय-सय-सत्थ-गुरुणो समरमियंका कहा जस्स। अण्णे वि महा-कइणो गरुय-कहा-बंध-चिंतिय-मईओ। अभिमाण-परक्कम-साहसंक-विणए विइंतेमि।। एयाण कहा-बंधे तं णत्थि जयम्मि जं कह वि चुक्कं। तह वि अणंतो अत्थो कीरइ एसो कहा-बंधो। 7. ताओ पुण पंच कहाओ। तं जहा। सयलकहा, खंडकहा, उल्लावकहा, परिहासकहा, तहा वरा कहिय त्ति। एयाओ सव्वाओ वि एत्थ पसिद्धाओं सुंदर-कहाओ। / एयाण लक्खण-धरा संकिण्ण-कह त्ति णायव्वा।। कत्थई रूवय-रइया कत्थइ वयणेहि ललिय-दीहेहिं। कत्थइ उल्लावहिं कत्थइ कुलएहि णिम्मविया।। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुवलयमालाकहा81 कत्थइ गाहा-रइया कत्थइ दुवईहिँ गीइया-सहिया। दुवलय-चक्कलएहिं तियलय तह भिण्णएहिं च।। कत्थइ दंडय-रइया कत्थइ णाराय-तोडय-णिबद्धा। कत्थइ वित्तेहि पुणो कत्थई रइया तरंगेहिं।। कत्थइ उल्लावेहिं अवरोप्पर-हासिरेहिँ वयणेहि। माला-वयणेहिँ पुणो रइया विविहेहिँ अण्णेहि। पाइय-भासा-रइया मरहट्ठय-देसि-वण्णय-णिबद्धा। सुद्धा सयल-कह च्चिय तावस-जिण-सत्थ-वाहिल्ला।। कोऊहलेण कत्थइ पर-वयण-वसेण सक्कय-णिबद्धा। किंचि अवब्भंस-कया दाविय-पेसाय-भासिल्ला॥ सव्व-कहा-गुण-जुत्ता सिंगार-मणोहरा सुरइयंगी। सव्व-कलागम-सुहया संकिण्ण-कह त्ति णायव्वा।। एयाणं पुण मज्झे एस च्चिय होइ एत्थ रमणिज्जा। सव्व-भणिईण सारो जेण इमा तेण तं भणिमो।। 8. पुणो सा वि तिविहा। तं जहा। धम्म-कहा, अत्थ-कहा, काम-कहा। पुणो सव्व लक्खणा संपाइय-तिवग्गा संकिण्ण त्ति। ता एसा धम्म-कहा वि होऊण कामत्थ-संभवे संकिण्णत्तणं पत्ता। ता पसियह मह सुयणा खण-मेत्तं देह ताव कण्णं तु। अब्भत्थिया य सुयणा अवि जीयं देंति सुयणाण।। अण्णं च। सालंकरा सुहया ललिय-पया मउय-मंजु-संलावा। सहियाण देइ हरिसं उब्बूढा णव-वहू चेव।। सुकइ-कहा-हय-हिययाण तुम्ह जइ वि हु ण लग्गए एसा। पोढा-रयाओ तह वि हु कुणइ विसेसं णव-वह व्व।। अण्णं च। Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 82 प्राकृत पाठ-चयनिका णज्जइ धम्माधम्मं कज्जाकज्जं हियं अणहियं च। सुब्वइ सुपुरिस-चरियं तेण इमा जुज्जए सोउ।। 9. सा उण धम्मकहाणाणा-विह-जीव-परिणाम-भाव-विभावणत्थं सव्वोवाय-णिउणेहिं जिणवरिंदेहिं चउव्विहा भणिया। तं जहा। अक्खेवणी, विक्खेवणी, संवेग-जणणी, णिव्वेय-जणणि त्ति। तत्थ अक्खेवणी मणोणुकूला, विक्खेवणी मणो-पडिकूला, संवेग-जणणी णाणप्पत्ति-कारणं, णिव्वेय-जणणी उण वेरग्गुप्पत्ती। भणियं च गुरुणा सुहम्म-सामिणा। अक्खेवणि अक्खित्ता पुरिसा विक्खेवणीएँ विक्खिता। संवेयणि संविग्गा णिव्विण्णा तह चउत्थीए।। जहा तेण केवलिणा अरण्णं पविसिऊण पंच-चोर-सयाइं रास-णच्चण-च्छलेण महा-मोह-गह-गहियाइं अक्खिविऊण इमाए चच्चरीए संबोहियाइं। अवि य। संबुज्झह किं ण बुज्झइ एत्तिए वि मा किंचि मुज्झह। कीरउ जंकरियव्वयं पुण ढुक्कइ तं मरियव्वयं।। इति धुवयं। कसिण-कमल-दल-लोएण-चल-रेहंतओ। पीण-पिहुल-थण-कडियल-भार-किलंतओ। ताल-चलिर-वलयावलि-कलयल-सद्दओ। रासयम्मि जइ लब्भइ जुवई-सत्थओ।। संबुज्झह किं ण बुज्झह। पुणो धुवयं ति। तओ अक्खित्ता। असुइ-मुत्त-मल-रुहिर-पवाह-विरूवयं। वंत-पित्त-दुग्गंधि-सहाव-विलीणयं। मेय-मज्ज-वस-फोप्फस-हड-करंकयं। चम्म-मेत्त-पच्छायण-जुवई-सत्थय।। संबुज्झह किं ण बुज्झह। तओ विक्खित्ता। कमल-चंद-णीलुप्पल-कंति-समाणयं। मूढएहि उवमिज्जइ जुवई-अंगयं। थोवयं पि भण कत्थइ जइ रमणिज्जयं। असुइयं तु सव्वं चिय इय पच्चक्खयं॥ संबुज्झइ किं ण बुज्झइ। तओ संविग्गा। जाणिऊण एयं चिय एत्थ असारए। असुइ-मेत्त-रमणूसव-कय-वावारए। कामयम्मि मा लग्गह भव-सय-कारए। विरम विरम मा हिंडह भव-संसारए। Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुवलयमालाकहा 83 संबुज्झह किं ण बुज्झह। एवं च जहा काम-णिव्वे ओ तहा कोह-लोह-माण-मायादीणं कुतित्थाणं च। समकालं चिय सव्व-भाव-वियाणएण गुरुणा सव्वण्णुणा तहा तहा गायंतेण ताइं चोराणं पंच वि सयाइं संभरिय-पुव्व-जम्म-वुत्तंताई पडिवण्ण-समण-लिंगाइं तहा कयं जहा संजमं पडिवण्णाई ति। ता एत्तियं एत्थ सारं। अम्हेहि वि एरिसा चउब्विहा धम्म-कहा समाढत्ता। तेण किंचि काम-सत्थ-संबद्धं पि भणिहिइ। तं च मा णिरत्थयं ति गणेज्जा। किंतु धम्म-पडिवत्तिकारणं अक्खेवणि त्ति काऊण बहु-मयं ति। तओ कहा-सरीरं भण्णइ। तं च केरिसं। 10. सम्मत्त-लंभ-गरुयं अवरोप्पर-णिव्वडंत-सुहि-कज्जं। णिव्वाण-गमण-सारं रइयं दक्खिण्णइंधेण॥ जह सो जाओ जत्थ वजह हरिओ संगएण देवेण। जह सीह-देव-साहू दिवा रणम्मि सुण्णम्मि।। जह तेण पुव्व-जम्मं पंचण्ह जणाण साहियं सोउं। पडिवण्णा सम्मत्तं सग्गं च गया तवं काउं। भोत्तूण तत्थ भोए पुणो वि जह पाविया भरहवासे। अण्णोण्णमयाणंता केवलिणा बोहिया सव्वे॥ सामण्णं चरिऊणं संविग्गा ते तवं च काऊणं। कम्म-कलंक-विमुक्का जह मोक्खं पाविया सव्वे।। एयं सव्वं भणिमो एएण कमेण इह कहा-बंधे। सव्वं सुणेह सुयणा साहिज्जतं मए एण्हि॥ एयं तु कहा-करणुज्जयस्स जह देवयाएँ मह कहियं। तह वित्थरेण भणिमो तीऍ पसाएण णिसुणेह। तत्थ वि ण याणिमो च्चिय केरिस-रूवं रएमि ता एयं। किं ता वंकं रइमो किं ता ललियक्खरं काहं। जेण, मुद्धो ण मुणइ वंकं छेओ पुण हसइ उज्जुयं भणियं। उज्जुय-छयाण हियं तम्हा छेउज्जुयं भणिमो।। अलं च इमिणा विहव-कल-बालियालोल-लोयण-कडक्ख-विक्खेव-विलास Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 84 प्राकृत पाठ-चयनिका वित्थरेण विय णिरत्थएणं वाया-पवित्थरेणं। एयं चियं कहावत्थं ता णिसामेह। अत्थि चउसागरुज्जल-मेहला। 11. अहह, पम्हुटुं म्हुटुं किंचि, पसियह, तं ता णिसामेह। किं च तं। हूं, समुहमइसुंदरो च्चिय-पच्छा भायम्मि मंगुलो होइ। विंझ-गिरि-वारणस्स व खलस्स बीहेइ कइ-लोओ॥ तेण बीहमाणेहिं तस्स थुइ-वाओ किंचि कीरइ त्ति। सो व दुज्जणु कइसउ। हूं, सुणउ जइसउ, पढम-दंसणे च्चिय भसणसीलो पट्ठि-मासासउ व्व। तहेव मंडलो हि अपच्चभिण्णायं भसइ, मयहिं च मासाइं असइ। खलो घई मायाहि वि भसइ। चडप्फडंतहं च पट्ठि-मासाई असइ त्ति। होउ काएण सरिसु, णिच्च-करयरण-सीलो छिड्डु-पहारि व्व। तहेव वायसो हि करयरेंतो पउत्थ-वइया-यणहो हियय-हरो, छिड्डेहिं च आहार-मेत्तं विलुपइ। खलो घई पउत्थ-वइया कुल-बालियाण विज्झ-संपयाणेहिं दुक्ख-जणउ, अच्छिड्डे वि जीवियं विलुप्पड़। जाणिउ खरो जइसउ, सुयण-रिद्धि-दसणे' झिज्जइ, णिल्लज्जो महल्लेणं च सद्दे उल्लवइ। तहेव रासहो हि इमं तण-रिद्धि-महल्लं असिउंण तीरइ त्ति चित्तए झिज्जइ, अविभाविंज्जत-अक्खरं च उल्लवइ। खलो घइं आयहो / किर एमहल्ल-रिद्धि जायल्लिय त्ति मच्छरेण झिज्जइ, पयड-दोसक्ख-रालावं च उल्लवइ। अवि कालसप्पु जइसउ, छिड्ड-मग्गण-वावडो कुडिल-गइ-मग्गो व्व। तहेव भुयंगमो हि पर-कयाई छिड्डाइं मग्गइ, सव्वहा पोट्टेणं च कसइ। खलो घई सई जे कुणइ छिड्डाइं, थड्डो व्व भमइ। चिंतेमि, हूं, विसु जइसउ, पमुहरसिउ जीयंतकरो वि। तहेव महुरउ मुहे, महुरं मंतेहिं च कीरइ रसायणं। खलो घइं मुहे ज्जे कडुयउ मंतइ, घडियइ वि विसंघडइ। हूं, बुज्झइ, वट्टइ खलु खलो ज्जि जइसउ, उज्झिय-सिणेहु पसु-भत्तो या तहेव खलो वि वराओ पीलिज्जतो विमुक्क-णेहु अयाणंतो य पसूहिं खज्जइ। इयरु घई, एक्कपए ज्जे मुक्क-णेहु, जाणतो जे पसु तह वि खज्जइ। किं च भण्णउ। सव्वहा खलु असुइ जइसउ, विसिट्ठ-जण-परिहरणिज्जो अपरिप्फुड-सद्दाबद्ध-खड-मंडली-गिणिगिणाविउ व्व। 9. तहे सो वि वरउ किं कुणउ अण्णहो ज्जि कस्सइ वियारु। खलो घई सई जे बहु-वियार-भंगि-भरियल्लउ त्ति॥ सव्वहा मह पत्तियासु एयं फुडं भणंतस्स संसयं मोत्तुं। मा मा काहिसि मेत्तिं उग्ग-भुयंगेण व खलेण।। जेण, Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुवलयमालाकहा 85 जारज्जायहो दुज्जणहो दुट्ठ-तुरंगमहो ज्जि। जेण ण पुरओ ण मग्गओ हूं तीरइ गंतुं जि।। अवि य अकए वि कुणइ दोसे कए वि णासेइ जे गुणे पयडे। विहि-परिणामस्स व दुज्जणस्स को वा ण बीहेइ।। अहवा। कीरउ कहा-णिबंधो भसमाणे दुज्जणे अगणिऊण। किं सुणएहिँ धरिज्जइ विसंखलो मत्त-करिणाहो।। 12. होति सुयण च्चिय परं गुण-गण-गरुयाण भायणं लोए। मोत्तूण णई-णाहं कत्थ व णिवसंतु रयणाइं॥ तेण सज्जण-सत्थो च्चेय एत्थ कहा-बंधे सोउमभिउत्तो त्ति। सो व सज्जणो कइसउ। रायहंसो जइसउ, विसुद्धो-भय पक्खो पय-विसेसण्णुओ व। तहेव रायहंसो वि उब्भड-जलयाडंबर-सद्देहिँ पावइ माणसं दुक्खं। सज्जणु पुण जाणइ ज्जि खल-जलयहं सभावाई।। तेण हसिउं अच्छइ। होइ पुण्णिमाइंदु जइसउ, सयल-कला-भरियउ जणमणाणंदो व्व। तहे पुण्णिमायंदो वि कलंक-दूसिओ अहिसारियाण मण-दूमिओ व। सज्जणो पुण अकलंको सव्व-जण-दिहि-करो ब्व। अवि मुणालु जइसउ, खंडिज्जंतो वि अक्खुडियणेह-तंतु सुसीयलो व, तहेव मुणालु वि ईसि-कंडूल-सहाउ जल-संसग्गि वढिओ व्व। सज्जणु पुणु महुरसहावु वियड्ढ-वड्डिय-रसो व्व। हूं, दिसागओ जइसउ, सहावुण्णउ अणवरय-पयट्ट-दाण-पसरो व्व। तहे दिसागओ वि मय-वियारेण घेप्पड़, दाण-समए व्व सामायंत-वयणो होइ। सज्जणु पुणि अजाय-मय-पसरु देंतहो व्व वियसइ वयण-कमलु। होउ मुत्ताहारु जइसउ, सहाव-विमलो बहु-गुण-सारो व्व। तहेव मुत्ताहारो वि छिड्ड-सय-णिरंतरो वण-वड्डिउ व्व। सज्जणो पुण अच्छिड्ड-गुण-पसरो णायरउ व्व। किं बहुणा, समुद्दो जइसओ, गंभीर-सहाओ-महत्थो व्वा तहेव समुद्दो वि उक्कलिया-सय-पउरो णिच्च-कलयलारावुब्वेविय-पास-जणो व्व दुग्गय-कुडुंबहो जि अणुहरइ। सज्जणु पुण मंथर-सहाओ महु-महुर-वयण-परितोसिय-जणवउ व्व त्ति। अवि य। सरलो पियंवओ दक्खिण्णो चाई गुणण्णुओ सुहवो। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 86 प्राकृत पाठ-चयनिका मह जीविएण वि चिरं सुयणो च्चिय जियउ लोयम्मि।। अहवा। गुण-सायरम्मि सुयणे गुणाण अंतं ण चेव पेच्छामि। रयणाइँ रयण-दीवे उच्चेउं को जणो तरइ।। एत्थं च उण ण कोइ दुज्जणो, उप्पेक्खह सज्जणं च केवलयं। तहे णिसुणेतु भडरय त्ति। 13. अत्थि दढ-मेरु-णाहिं कुल-सेलारं। समुद्द-मिल्लं। जंबुद्दीवं दीवं लोए चक्कं व णिक्खित्तं।। अवि य। तस्सेय दाहिणद्धे बहुए कुल-पव्वए विलंघेउं। वेयड्डेण विरिक्कं सासय-वासं भरहवासं।। वेयड्ड-दाहिणेणं गंगा-सिंधूय मज्झयारम्मि। अत्थि बहु-मज्झ देसे मज्झिम-देसो त्ति सुपसिद्धो।। वेयड्ड-दाहिणेणं गंगा-सिंधूय मज्झयारम्मि। अस्थि बहु-मज्झ-देसे मज्झिम-देसो त्ति सुपसिद्धो।। सो य देसो बहु-धण-धण्ण-समिद्धि-गव्विय-पामर-जणो, पामर-जण-बद्धावाणयगीय-मणहरो, मणहर-गीय-रव-रसुक्कुंठिय-सिहिउलो, सिहिउल-केंया-रवाबद्ध -हलबोलुब्भिज्जमाण-कंदल-णिहाओ, कंदल-णिहाय-गुंजंत-भमिर-भमरउलो, भमरउल-भमिर-झंकार-राव-वित्तत्थ- हरिणउलो, हरिणउल-पलायंत-पिक्क-कलमकणिस-कय-तार-रवो, तार-रव-संकिउड्डीण-कीर-पंखा-भिघाय-दलमाण-तामरसो तामरस-के सरुच्छलिय-बहल-तिंगिच्छि-पिंजरिज्जंत-कलम-गोवियणो-गोवियण-महुरगीय-रव-रसा-खिप्पमाण-पहिययणो, पहिययण-लडह-परिहास-हारि-हसिज्जमाण-तरुणियणो, तरुणियणाबद्ध-रास-मंडली-ताल-वस-चलिर-लय-कलयलारावुद्दीविज्जंत-मयणमणोहरो त्ति। अवि य। बहु-जाइ-समाइण्णो महुरो अत्थावगाढ-जइ-जुत्तो। देसाण मज्झदेसो कहाणुबंधो व्व सुकइ-कओ।। Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुवलयमालाकहा 87 14. तस्स देवस्स मज्झ-भाए दूसह-खय-काल-भय-पुंजियं पुण्णुप्पत्ति- सूसमेक्क-बीयं पिव, बहु-जण-संवाह-मिलिय हला-हलारावुप्पाय-खुहिय-समुद्द-सद्द-गंभीर-सुव्वमाण-पडिरवं, तुंग-भवण-मणितोरणाबद्ध-धवल-धयवद्धव्वमाण-संखद्ध-मुद्ध-रवि-तुरय-परिहरिज्जत-भुवण-भागं, णाणा-मणि-विणिम्मविय-भवण-भित्ति-करंबिज्जंत-किरणाबद्ध-सुर-चाव-रम्म-णहयलं, महा-कसिण-मणि-घडिय-भवण-सिहर-प्पहा-पडिबद्ध-जलहर-वंद्रं, णिद्दय-करयल- ताडि य-मुरव-रविज्जंत-गीय-गज्जिय-णिणायं, तविय-तवणिज्ज-पुंजुज्जल-ललिय-विलासियणसंचरंत-विज्जु-लयं तार-मुत्ताहलुद्ध-पसरंत-किरण-वारि-धारा-णियरं णव-पाउस-समयं पिव सव्व-जण-मणहरं सुव्वए णयरं। जं च महापुरिस-रायाभिसेय-समय-समागमवासवाभिसेय- समणंतर-संपत्त-णलिणि-पत्त-णिक्खित्त-वारि-वावड-कर-पुरिस-मिहुणपल्हत्थिय-चलण-जुयलाभिसेय-दंसण-सहरिस-हरि-भणिय-साहु-विणीय-पुरिसविणयंकिया विणीया णाम णयरि त्ति। 15. सा पुण कइसिय। समुदं पिव गंभीरा महा-रयण-भरिया य, सुर-गिरी विय थिरा कंचणमया य, भुवणं पिव सासया बहु-वुत्तंता य, सग्गं पिव रम्मा सुर-भवणणिरंतरा य, पुहई विय वित्थिण्णा बहु-जण-सय-संकुला य, पायालं पिव सुगुत्ता रयण-पदीवुज्जोइया य त्ति। अवि य। चंद-मणि-भवण-किरणुच्छलत्त-विमल-जल-भएण। घडियो जीए विहिणा पायारो सेउबंधो व्व।। जत्थ य विवणि-मग्गेसु वीहीओ वियड्ड-कामुय-लीलाओ व्विय कुंकुम-कप्पूरागरुमयणाभिवास-पडवास-विच्छडाओ। काओ वि पुण वेला-वण-राईओ इव एला-लवंगकक्कोलय-रासि- गब्भिणाओ। अण्णा पुण इब्भ-कुमारिया इव मुत्ताहल-सुवण्णरयणुज्जलाओ। अण्णा ,छइओ इव पर-पुरिस-दसणे विस्थारियायंब-कसण-धवल-दीहरणेत्त-जुयलाओ। अण्णा खलयण-गोट्ठि-मंडली इव बहु-विह-पर-वसण-भरियाओ। तहा अण्णाअहो उण खोर-मंडलिओ इव संणिहिय-विडाओ कच्छउड-णिक्खित्त-सरस-णहवयाओ य। अण्णा गाम-जुवईओ इव रीरिय-संख-वलय-काय-मणिय-सोहाओ कच्चूर-वयणणिम्महंत-परिमलाओ य। अण्णा रण-भूमीओ इव सर-सरासणब्भसं-चक्क-संकुलाओ मंडलग्ग-णिचियाओ य। अण्णा मत्त-मायंग-घडाउ इव पलं बंत-संख-चामर घंटा-सोहाओ-ससेंदूराओ य। अण्णा मलय- वण-राईओ इव संणिहिय-विविह-ओसहीओ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 888 प्राकृत पाठ-चयनिका बहु-चंदणाओ य। अण्णा सज्जण-पीईओ इव सिणेह-णिरंतराओ बहु-खज्ज-पेज्जमणोहराओ य। अण्णा मरहट्ठिया इव उद्दाम-हलिद्दी-रय-पिंजराओ पयड-समुग्गय-पओहरमणोहराओ य। अण्णा णंदण-भूमिओ इव ससुराओ संणिहिय-महुमासाओ त्ति। 16. अवि य। जं पुहईऍ सुणिज्जइ दीसइ जं चिंतियं च हियएण। तं सव्वं चिय लब्भइ मग्गिज्जंतं विवणि-मग्गे॥ जत्थ य। जुवईयण-णिम्मल-मुह-मियंक-जोण्हा-पवाह-पसरेण। घर-वावी-कुमुयाइं मउलेउं णेय चाएंति॥ णिम्मल-माणिक्क-सिहा-फुरंत-संकंत-सूर-कंतेहिं। दिय-राइँ-णिव्विसेसाइँ णवरि वियसंति कमलाई। जल-जंत-जलहरोत्थय-णहंगणाहोय-वेलविज्जंता। परमत्थ-पाउसे वि हुण माणसं जंति घर-हंसा।। कर-ताडिय-मुरव-रवुच्छलंत-पडिसद्द-गज्जिउक्कंठा। गिम्हम्मि वि हलबोलेंति जत्थ मत्ता घर-मऊरा।। णेउर-रव-रस-चलिया मग्गालग्गंत-रेहिरा हंसा। जुवईहिँ सिक्खविज्जति जत्थ बाल व्व गइ-मग्गे।। भणिए विलासिणीहिं विलास-भणियम्मि मंजुले वयणे। पडिभणिएहिँ गुणेइ व घर-पंजर-सारिया-सत्थो। जत्थ य पुरिसो एक्केक्कमो वि मयरद्धओ महिलियाण। महिला वि रई रइ-वम्महेहिँ ठाणं चिय ण लखें। इय जं तत्थ ण दीसइ तं णत्थि जयम्मि किंचि अच्छरियं। जं च कहासु वि सुव्वइ तं संणिहियं तहिं सव्वं / / अह एक्को च्चिय दोसो आउच्छ-णियंत-बाह-मइलाइं। दइया-मुहाइँ पहिया दीणाइँ ण संभरंति जहिं।। 17. जत्थ य जणवए ण दीसइ खलो विहलो व। दीसइ सज्जणो समिद्धो व, वसणं Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुवलयमालाकहा 89 णाणा-विण्णाणे व, उच्छाहो धणे रणे व, पीई दाणे माणे व, अब्भासो धम्मे धम्मे व त्ति। जत्थ य दो-मुहउ णवर मुइंगो वि। खलो तिल-वियारो वि। सूयओ केयइ-कुसुमुग्गमो वि। फरुसो पत्थरो वि। तिक्खओ मंडलग्गो वि। अंतो-मलिणो चंदो वि। भमणसीलो महुयरो वि। पवसइ हंसो वि। चित्तलओ बरहिणओ वि। जलु कीलालो वि। अयाणओ बालओ वि। चंचलो वाणरो वि। परोवयावी जलणो वित्ति। जत्थ य पर-लोय-तत्ती-रय णवर दीसंति साहु-भडरय। कर-भग्गइं णवर दीसंति वर-करिहिं महहमइं। दंडवायाइं णवरि दीसंति छत्ताण य णच्चणहं। माया-वंचणाई णवरि दीसंति इंदियालिय-जणहं॥ विसंवयंति णवर सुविणय-जंपियइं। खंडियइं णवरि दीसंति कामिणियणहो अहरई। दढ-बद्धई णवरि दीसंति कणय-संगहेहिं महारयणइं। वलामोडिय घेप्पंति णवर पणय-क लह-कय-कारिम-कोव-कुविय-कंत-कामिणियणहो अहरइं वियड्ड-कामुएहिं ति। अहवा। कह वणिज्जइ जा किर तियसेहिं सक्क-वयणेण। पढम-जिण-णिवासत्थं णिम्मविया सा अउज्झ त्ति। 18. तम्मि य राया ... दरियारि-वारण-घडा-कुंभ-स्थल-पहर-दलिय-मुत्ताहलो। मुत्ताहल-णिवह- दलंत-कंत-रय-धूलि-धवल-करवालो। करवाल-सिहा-णिज्जिय-महंत-सामंत-णिवह-णय-चलणो। चलण-जुयल- मणि-विणव्विय-कंत-महा-मउड-घडिय-सुपीढो॥ त्ति। ___णवरं पुण संसि-वंस-संभवो वि होऊण सयं चेय सो चोरो मुद्धड-लडह-विलासिणिहियय-हरणेहिं, सयं चेय पर कलत्त रओ दरिय-रिवु-सिरी-बलामोडिय समाकड्डणेहि, सयं चेय सो वाडो पडिवक्ख-णरिंद-वंद्र-वाडणेहिं ति। जो य दोग्गच्च-सीय-संतावियाण दहणो, ण उण दहणो। णियय-पणइणि-वयण-कमयायराणं मयलंछणो, ण उण मय-लंछणो। विणिज्जयासेस-पुरिस-रूवेणं अणंगो, ण उण अणंगो। दरियारि-महिहर-महावाहिणीणं जलही, ण उण जलही। सुयण-वयण-कमलायराणं तवणो, ण उण तवणो त्ति। जो य घण समओ बंधुयण-कयंबयाणं, सरयागमो पणइयण-कुमुय-गहणाणं, हेमंतो पडि-वक्ख-कामिणी -कमलिणीणं, सिसिर-समओ णिय-कामिणी-कुंद-लइयाणं, सुरहि-मासो मित्तयण-काण Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 90 प्राकृत पाठ-चयनिका णाणं, गिम्हायवो रिवु-जलासयाणं, कय-जुओ णियय-पुहइ-मंडले, कलि-कालो वइरि-णरिंद-रज्जेसं ति। अण्णं च। सरलो महुरो पियंवओ चाई दक्खो दक्खिणो दयालू। सरणागय-वच्छलो संविभागी पुव्वाभिभासि त्ति॥ संतुट्ठो सकलत्तेसु, ण उण कित्तीसु। लुद्धो गुणेसु, ण उण अत्थेसु। गिद्धो सुहासिएसु, ण उण अकज्जेसु। सुसिक्खिओ कलासु, ण उण अलिय-चाडु-कवड-वयणेसु। असिक्खिओ कडुय-वयणेसु, ण उण पणईयण-संमाणणेसु त्ति। अहवा। गहिय-सगाह-दलम्मि तम्मि अचुण्णए वियड-वच्छे। णंदण-वणे व्व कत्तो अंतो कुसुमाण व गुणाणं॥ अह सो णिय-साहस-खग्ग-मेत्त-परिवार-पणय-सामंतो। वच्छत्थल-दढ-वम्मो दढवम्मो णाम णरणाहो। 19. तस्स य महुमहस्स व लच्छी, हरस्स व गोरी, चंदस्स व चंदिमा, एरावणस्स व मय-लेहा कोत्थुहस्स व पभा, सुरगिरिस्स व चूला, कप्पतरुणो इव कुसुम-फल-समिद्ध तरूण-साहिया, पसंसिया जणेणं अवहसिय-सुर-सुंदरी-वंद्र-लायण्ण-सोहस्स अंतेउरिया-जणस्स मज्झे एक्क च्चिय पिययमा पियंगुसामा णाम सयंवर-परिणीया भारिय त्ति। अह तीए तस्स पुरंदरस्स व सईए भुंजमाणस्स विसय-सुहे गच्छइ कालो, वच्चंति दियहा य। 20. अह अण्णम्मि दिवसे अब्भंतरोवत्थाण-मंडवमुवगयस्स राइणो कइवय-मेत्त-मंति पुरिस-परिवारियस्स पिय-पणइणी-सणाह-वाम-पासस्स संकरस्स व सव्वजण-संकरस्स एक्क-पए च्चेय समागया पिहुल-णियंब-तडप्फिडण-विस मंदोल-माण-मंडलग्ग- सणाह-वामंस-देसा वेल्लहल-णियय-बाहु-लइयाकोमलावलंबिय-वेत्तलया पडिहारी। तीय य पविसिऊण कोमल-करयलंगुली-दल-कमल-मउलि-ललियंजलिं उत्तिमंगे काऊण गुरू-णियंब-बिंब-मंथरं उत्तुंग-गरुय-पओहर-भरोवणामियाए ईसि णमिऊण राइणो विमल-कमल-चलण-जुवलयं विण्णत्तं देवस्स। 'देव, एसो सबर-सेणावइ-पुत्तो सुसेणो णाम। देवस्स चेय आणाए तइया मालव-णरिंद-विजयत्थं गओ। सो संपयं एस दारे देवस्स चलण-दसण-सुहं पत्थेइ त्ति सोउं देवो पमाणं' ति। तओ मंतियण-वयण-णयणावलोयण-पुव्वयं भणियं राइणा 'पविसउ' त्ति। तओ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुवलयमालाकहा91 'जहाणवेसि' त्ति ससंभम-मुट्ठिऊण तुरिय-पय-णिक्खेवं पहाइया दुवार-पाली उयसप्फिऊण य भणिओ 'अज्ज पविससु' त्ति। +DC Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 219 मूलदेव कहा मण्डियचोरो वेण्णाडये णयरे मण्डिओ णाम तुण्णाओ पर-दव्व हरण-पसत्तो आसी। सो य दुट्ठ-गण्डो मि त्ति जणे पगासेन्तो जाणु-देसेण णिच्चं एव अद्दावलेव-लित्तेण बद्ध-वण-पट्टो राय-मग्गे तुण्णाग-सिप्पं उवजीवइ। चक्कमन्तो वि य दण्ड-धरिएणं पाएणं किलिम्मन्तो कहंचि चक्कमइ। रत्तिं च खत्तं खणिऊण दव्वजायं घेत्तूण नगर-सण्णिहिए उज्जाणेग-देसे भूमि-घरं तत्थ निक्खिवइ। तत्थ य से भगिणी कण्णगा चिट्ठइ। तस्स भूमि-घरस्स मज्झे कूवो। जं च सो चोरो दव्वेण पलोभेउं सहायं दव्व-वोढारं आणेइ, तं सा से भगिणी अगड-समीवे पुव्वनत्थासणे णिवेसिउं पाय-सोय-लक्खेण पाए गेण्हिऊण तंमि कूवए पक्खिवइ। तओ सो विवज्जइ। एवं कालो वच्चइ णयरं मुसन्तस्स। चोर-ग्गाहा तं ण सक्केन्ति। गेण्हिउं। तओ णयरे बहुरवो जाओ। तत्थ य मूलदेवो राया पुव्वभणिय-विहाणेण जाओ। कहिओ य तस्स पउरेहिं तक्कर-वइयरो जहा, एत्थ णयरे पभूय-कालो मुसन्तस्स वट्टइ कस्सइ तक्करस्स, ण य तीरइ केणइ गेण्हिउं। ता करेउ किंपि उवायं। ताहे सो अन्नं नगरारक्खियं ठवेइ, सो वि ण सक्कइ चोरं गेण्हिउं। ताहे मूलदेवो सयं नीलपडं पाउणिऊण रत्तिं णिग्गतो। मूलदेवो अणज्जन्तो एगाए सभाए णिवण्णो अच्छइ जाव, सो मण्डिय-चोरो आगन्तुं भणइ, को एत्थ अच्छइ? मूलदेवेण भणियं, अहं कप्पडिओ। तेण भण्णइ, एहि, मणूसं करेमि। मूलदेवो उढिओ। एगमि ईसर-घरे खत्तं खयं। सुवहुं दव्व-जायं णीणेऊण मूलदेवस्स उवरिं चडावियं। पयट्टा णयरवाहिरियं। मूलदेवो पुरओ चोरो असिणा कड्डिएण पिट्ठओ एइ। Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलदेव कहा 893 सम्पत्ता भूमिघरं। चोरो तं दव्वं णिहणिउं आरद्धो। भणिया य णेण भगिणी, एयस्स पाहुणयस्स पाय सोयं देहि! ताए कूव-तड-सन्निविटे आसणे णिवेसिआ। ताए पाय-सोय-लक्खेण पाओ गहिओ कूवे छुहामि त्ति। जाव अतीव-सुकुमारा पाया, ताए णायं जहेस कोइ अणुभूय-पुव्व-रज्जो विहलियंगो। तीए अणुकम्पा जाया। तओ ताए पाय-तले सण्णिओ, णस्स त्ति मा मारिज्जिहिसि त्ति। पच्छा सो पलाओ। ताए वोलो कओ; णट्ठो णट्ठो त्ति। सोयसिं कड्डिऊण मग्गे ओलग्गो। ___मूलदेवो राय-पहे अइसन्निकिट्ठ णाऊण चच्चर-सिवन्तरिओ ठिओ। चोरो तं सिवलिङ्गं एस पुरिसो त्ति काउं कंकमएण असिणा दुहा-काउं पडिनियत्तो गओ भूमिघरं। तत्थ वसिऊण पहायाए रयणीए तओ निग्गन्तूण गओ वाहि। अन्तरावणे तुण्णागत्तं करेइ। ___ राइणा पुरिसेहिं सद्दाविओ। तेण चिन्तियं जहा, सो पुरिसो णूणं ण मारिओ, अवस्सं च एस राया भविस्सइ त्ति। तेहिं पुरिसेहि-आणिओ। राइणा अब्भुट्ठाणेण पूइओ आसणे णिवेसाविओ, सु-वहं च पियं आभासिओ संलत्तो, मम भगिणिं देहि त्ति। तेण दिण्णा, विवाहिया राइणा। भोगा य से संपदत्ता। कइसुवि दिणेसु गएसु राइणा मण्डिओ भणिओ, दव्वेण कज्ज त्ति। तेण सु-वहुं दव्व-जायं दिण्णं। राइणा संपूजिओ। अण्णया पुणो मग्गिओ, पुणो वि दिण्णं। तस्स य चोरस्स अतीव सक्कार-सम्माणं पउञ्जइ। एएण पगारेण सव्वं दव्वं दवाविओ। भगिणिं से पुच्छइ; तीए भण्णति, एत्तियं चेव वित्तं। तओ पुव्वावेइय-लेक्खाणुसारेण सव्वं दव्वं दवावेऊण मण्डिओ सूलाए आरोविओ। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षटखण्डागम आचार्य पुष्पदंत-भूतबलि विरचित णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं / णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्व साहूणं // 1 // एत्तो इमेसिं चोद्दसण्हं जीवसमासाणं मग्गणट्ठदाए तत्थ इमाणि चोदस चेव द्वाणाणि णायव्वाणि भवंति // 2 // तं जहा // 3 // गइ इंदिए काए जोगे वेदे कसाए णाणे संजमे दंसणे लेस्सा भविय सम्मत्त सण्णि आहारए चेदि // 4 // एदेसिं चेव चोद्दसण्हं जीवसमासाणं परूवणट्ठदाए तत्थ इमाणि अट्ठ अणियोगद्दाराणि णायव्वाणि भवंति ॥५॥तं जहा // 6 // संतपरूवणा दव्वपमाणाणुगमो खेत्ताणुगमो फोसणाणुगमो कालाणुगमो अंतराणुगमो भावाणुगमो अप्पा बहुगाणुगमो चेदि ॥७॥संतपरूवणदाए दुविहो णिद्देसो ओघेण आदेसेण य ॥८॥ओघेण अत्थि मिच्छाइट्ठी ॥९॥सासणसम्माइट्ठी // 10 // सम्मामिच्छाइट्ठी // 11 // असंजदसम्माइट्ठी // 12 // संजदासंजदा // 13 // पमत्तसंजदा // 14 // अप्पमत्तसंजदा // 15 // अपुव्वकरण-पविट्ठ सुद्धि संजदेसु अत्थि उवसमा खवा // 16 // अणियट्टि बादर सांपराइय पविट्ठ सुद्धि संजदेसु अत्थि उवसमा खवा ॥१७॥सुहुम सांपराइय पविट्ठ सुद्धि संजदेसु अत्थि उवसमा खवा // 18 // उवसंत कसाय-वीयराय छदुमत्था // 19 // वीयराय-छदुमत्था ॥२०॥संजोगकेवली // 21 // अजोगकेवली // 22 // सिद्धा चेदि // 23 // आदेसेण गदियाणुवादेण अत्थि णिरयगदी तिरिक्खगदी मणुस्सगदी देवगदी सिद्धगदी चेदी ॥२४॥णेरइया Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्खण्डागम, 95 चउट्ठाणेसु अत्थि मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्ठी असंजद सम्माइट्ठी // 25 // तिरिक्खा पंचसुट्ठाणेसु अत्थि मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्ठी असंजद सम्माइट्ठी संजदा संजदा त्ति // 26 // मणुस्सा चोदससु गुणट्ठाणेसु अत्थि मिच्छाइट्ठी, सासणसम्माइट्ठी, सम्मामिच्छाइट्ठी, असंजदसम्माइट्ठी, संजदासंजदा, पमत्तसंजदा, अप्पमत्तसंजदा, अपुव्वकरणपविट्ठ-सुद्धि-संजदेसु अत्थि उवसमा खवा, अणियट्टि बादर-सांपराइय-पविट्ठ-सुद्धि-संजदेसु अत्थि उवसमा खवा, सुहुम सांपराइय पविट्ठ सुद्धि संजदेसु अत्थि उवसमा खवा, उवसंत-कसाय-वीयराय-छदुमत्था, खीण-कसाय-वीयराय-छदुमत्था, सजोगकेवली, अजोगिकेवलि त्ति // 27 // देवा चदुसुट्ठाणेसु अत्थि मिच्छाइट्ठी सासण सम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्ठी असंजदसम्माइट्ठि त्ति ॥२८॥तिरिक्खा सुद्धा एइंदियप्पहुडि जाव असण्णि पंचिंदिया त्ति // 29 // तिरिक्खा मिस्सा सण्णि मिच्छाइद्विपहडि जाव संजदा संजदात्ति // 30 // Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृच्छकटिकम् (गाथा संग्रह) शूद्रक कवि विरचित किं याशि, धावशि, पलाअशि, पक्खलन्ती वाश! पशीद ण मलिश्शशि, चिट्ट दाव / कामेण दज्झदि हु मे हलके तवश्शी अङ्गाललाशिपडिदे विअ मंशखण्डे // 1 // उत्ताशिता गच्छशि अत्तिका मे शंपुण्णपच्छा विअ गिम्हमोरी / ओवग्गदी शामिअभट्टके मे वण्णे गडे कुक्कुडशावके व्व // 2 // मम मअणमणङ्गं मम्महं वड्ढअन्ती णिशि अ शअणके मे णिद्दअं आक्खिवन्ती / पशलशि भअभीदा पक्खलन्ती खलन्ती मम वशमणुजादा लावणश्शेव कुन्ती // 3 // एशा णाणक-मूशि-काम-कशिका, मच्छाशिका लाशिका, णीण्णाशा, कुलणाशिका, अवशिका, कामस्स मञ्जूशिका / एशा वेशवहू, शुवेशणिलआ वेशङ्गणा वेशिआ, एशे शे दशणामके मइ कले, अज्जावि मंणेच्छदि // 4 // Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृच्छकटिकम् (गाथा संग्रह) 97 झाणज्झणन्तबहुभूषणशद्दमिश्शं कि दोवदी विअ पलाअशि लामभीदा / एशे हलामि शहशत्ति जधा हणूमे विश्शावशुश्श वहिणिं विअ तं शुभदं // 5 // लामेहि अ लाअवल्लहं तो क्खाहिशि मच्छमंशकं / एदे हिं मच्छमंशकेहिं शुणआ मलअंण शेवन्ति // 6 // अम्हेहि चण्डं अहिशालिअन्ती वणे शिआली विअकुक्कुलेहिं / पलाशि शिग्धं तुलिदं शवेगं शवेण्टणं मे हल हलन्ती // 7 // किं भीमशेणे जमदग्गिपुत्ते कुन्तीशुदे वा दशकन्धले वा / एशे हगे गेण्हिअ केशहत्थे दुश्शाशणश्शाणुकिदिं कलेमि / / 8 // अशी शुतिक्खे, बलिदे अ मत्थके, कप्पेम शीशं उद मालएम वा। अलं तवेदेण पलाइडेण मुमुक्खु जे होदि, ण शे क्खु जीअदि // 9 // अन्धआले पलाअन्ती मल्लगन्धेण शूहदा / केशविन्दे पलामिट्टा चाणक्केणेब्व दोवदी // 10 // एशाशि वाशू ! शिलशिग्गहीदा केशेशु बालेशु शिलोलुहेशु / अक्कोश विक्कोश लवाहिचण्डं शम्भुं शिवं शंकलमीशलं वा // 11 // मा दुग्गदोत्ति परिहवो णत्थि कअन्तस्स दुग्गदो णाम / चारित्तेण विहीणो अडढो विअ दग्गदो होड // 12 // शले विक्किन्ते पण्डवे घशेदकेद पुत्ते लाधाए छलावणे इन्द्रपुत्ते / आहो कुन्तीए तेण लामेण जादे अश्शत्थामे धम्मपुत्ते लडाऊ // 13 // कक्कालुका गोच्छड़-लित्तवेण्टा, शाके अ शुक्खेतलिदे हु मांशे / भत्ते अ हेमन्तिअ-लत्ति शिद्धे लीणे अवेले ण ह होदि पूदी / / 14 / / णिव्वक्कलं मूलकपेशिवण्णं खन्धेण घेत्तूण अ कोशशुत्तं / कुक्केहि कुक्कीहि अ वुक्कअन्ते जधा शिआले शलणं पलामि // 15 // Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृच्छकटिकम् वसन्तसेनामुद्दिश्य शकारस्योक्तिः (ततः प्रविशति विटशकारचेटैरनुगम्यमाना वसन्तसेना।) विटः-वसन्तसेने, तिष्ठ तिष्ठ। किं त्वं भयेन परिवर्तितसौकुमार्या नृत्यप्रयोगविशदौ चरणौ क्षिपन्ती। उद्विग्नचञ्चलकटाक्षविसृष्टदृष्टि फ्धानुसारचकिता हरिणीव यासि // 17 // शकारः-च्यिष्ठ वशन्तशेणिए, च्यिष्ठ। किं याशि धावशि पलाअशि पक्खलन्ती वाशू पशीद ण मलिस्सशि चिट्ठ दाव। कामेण दज्झदि हु मे हडके तवश्शी अङ्गाललाशिपडिदे विअ मंशखण्डे // 18 // [तिष्ठ वसन्तसेनिके] तिष्ठ। किं यासि धावसि पलायसे प्रस्खलन्ती वासु प्रसीद न मरिष्यसि तिष्ठ तावत्। कामेन दह्यते खलु मे हृदयं तपस्वि अङ्गारराशिपतितमिव मांसखण्डम्॥] Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृच्छकटिकम् 99 चेटः-अज्जुके, चिट्ठ चिट्ठ। उत्ताशिता गच्छशि अन्तिका मे शंपुण्णपच्छा विअ गिम्हमोरी। ओवग्गदी शामिअभश्टके मे वण्णे गडे कुक्कुडशावके व्व / / 19 / / [आर्ये] तिष्ठ तिष्ठ। [अझुके, चिट्ठ चिट्ठ] उतासिता गच्छस्यन्तिकान्मम संपूर्णपक्षेव ग्रीष्ममयूरी। अववल्गति स्वामिभट्टारको मम वने गतः कुक्कुटशावक इव।। विटः-वसन्तसेने, तिष्ठ तिष्ठ। किं यासि बालकदलीव विकम्पमाना रक्तांशुक पवनलोलदशं वहन्ती। रक्तोत्पलप्रकरकुड्मलमुत्सृजन्ती टङ्कर्मनःशिलगुहेव विदार्यमाणा // 20 // शकारः-चिट्ठ वशन्तशेणिए, चिट्ठ। मम मअणमणकं मम्मथं वड्डअन्ती। णिशि अशअणके मे णिद्दअं आक्खिवन्ती। पशलशि भअभीदा पक्खलन्ती खलन्ती। मम वशमणुजादा लावणश्शेव कुन्ती / / 21 / / [तिष्ठ वसन्तसेने] तिष्ठ। मम मदनमनङ्ग मन्मथं वर्धयन्ती निशि च शयनके मम निद्रामाक्षिपन्ती। प्रसरसि भयभीता प्रस्खलन्ती स्खलन्ती मम वशमनुयाता रावणस्येव कुन्ती॥ विट:-वसंतसेने, किं त्वं पदैर्मम पदानि विशेषयन्ती व्यालीव यासि पतगेन्द्रभयाभिभूता। वेगादहं प्रविसृतः पवनं न रुन्ध्यां त्वन्निग्रहे तु वरगात्रि न मे प्रयत्नः / / 22 / / शकारः-भावे, भावे, एशा णाणकमूशिकामकशिका, मच्छाशिका लाशिका Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100 प्राकृत पाठ-चयनिका णिण्णाशा कुलणाशिका अवशिका कामस्स मज्जूशिका। एशा वेशवहू शुवेशणिलआ वेशङ्गणा वेशिआ एशे शे दश णामके मइ कले अज्जावि मं णेच्छदि // 23 // [भाव भाव] एषा नाणकमोषिकामकशिका मत्स्याशिका लासिका निर्नासा कुलनाशिका अवशिका कामस्य मञ्जूषिका। एषा वेशवधूः सुवेशनिलया वेशाङ्गना वेशिका एतान्यस्या दश नामिकानि मया कृतान्यद्यापि मां नेच्छति॥ विटःप्रसरसि भयविक्लवा किमर्थं प्रचलितकुण्डलघृष्टगण्डपार्धा। विटजननखघट्टितेव वीणा जलधरगर्जितभीतसारसीव / / 24 / / शकारःझाणज्झणन्तबहुभूषणशद्दमिश्शं किं दोवदी विअ पलाअशि लामभीदा। एशे हलामि शहशत्ति जधा हणूमे विश्शावशुश्श ब्रहिणिं विअ तं शुभद्दम् / / 25 / / चेट:लामेहि अलाअवल्लहं तो क्खाहिशि मच्छमंशकम्। एदेहिं मच्छमंशकेहिं शुणआ मलअंण शेवन्ति // 26 // (रमय च राजवल्लभं ततः खादिष्यसि मत्स्यमांसकम्। एताभ्यां मत्स्यमांसाभ्यां श्वानो मृतकं न सेवन्ते।) विट:-भवति वसन्तसेने, किं त्वं कटीतटनिवेशितमुद्वहन्ती ताराविचित्ररुचिरं रशनाकलापम्॥ वक्रेण निर्मथितचूर्णमनः शिलेन त्रस्ताद्भुतं नगरदैवतवत्प्रयासि // 27 // शकार: अम्हेहि चण्डं अहिशालिअन्ती वणे शिआली विअ कुक्कुलेहिं। Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 101 मृच्छकटिकम् पलाशि शिग्धं तुलिदं शवेग्गं शवेण्टणं मे हलअं हलन्ती // 28 // (अस्माभिश्वण्डमभिसार्यमाणा वने शृगालीव कुक्करैः। पलायसे शीघ्रं त्वरितं सवेगं सवृन्तं मम हृदयं हरन्ती।।) वसन्तसेना-पल्लवआ पल्लवआ, परहुदिए परहुदिए। (पल्लवक पल्लवक, परभृतिके परभृतिके।) शकार:-(सभयम्।) भावे भावे, मणुश्शे मणुश्शे। (भाव भाव, मनुष्या मनुष्याः।) विटः-न भेतव्यं न भेतव्यम्। वसन्तसेना-माहविए माहविए। (माधविके माधविके।) विट:-(सहासम्।) मूर्ख, परिजनोऽन्विष्यते। शकार:-भावे भावे, इत्थिआं अण्णेशदि। (भाव भाव, स्त्रियमन्वेषयति।) विट:-अथ किम्। शकारः-इत्थिआणं शदं मालेमि। शूले हगे (स्त्रीणां शतं मारयामि। शूरोऽहम्।) वसन्तसेना-(शून्यमवलोक्य।) हद्धी हद्धी, कधं परिअणो वि परिब्भट्टो एत्थ मए अप्पा शअं ज्जेव रक्खिदव्वो। [हा धिक् हा धिक्। कथं परिजनोऽपि परिभ्रष्टः। अत्र मयात्मा स्वयमेव रक्षितव्यः।] विट:-अन्विष्यतामन्विष्यताम्। शकार:-वशन्तशेणिए, विलव विलव परहुदिअंवा पल्लवअंवा शव्वं एव्व वशन्तमाशम् मए अहिशालिअन्तीं तुमं को पलित्ताइश्शदि। किं भीमशेणे जमदग्गिपुत्ते कुन्तीशुदे वा दशकन्धले वा। एशे हगे गेण्हिय केशहत्थे दुश्शाशणश्शाणुकिदिं कलेमि // 29 // णं पेक्ख णं पेक्ख। अशी शुतिक्खे वलिदे अ मत्थके कप्पेम शीशं उद मालएम वा। अलं तवेदेण पलाइदेण मुमुक्खु जे होदि ण शे क्ख जीअदि // 30 // वसन्तसेनिके, विलप विलप परभतिकां वा पल्लवकं वा सर्व वा वसन्तमासम्। मयाभिसार्यमाणां त्वां कः परित्रास्यते। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1020 प्राकृत पाठ-चयनिका किं भीमसेनो जमदग्निपुत्रः कुन्तीसुतो वा दशकन्धरो वा। एषोऽहं गृहीत्वा केशहस्ते दुःशासनस्यानुकृतिं करोमि।। ननु प्रेक्षस्व ननु प्रेक्षस्व। असिः सुतीक्ष्णो वलितं च मस्तकं कल्पये शीर्षमुत मारयामि वा। अलं तवैतेन पलायितेन मुमूर्षुर्यो भवति न स खलु जीवति।।? वसन्तसेना-अज्ज, अबला क्खु अहम्। [आर्य अबला खल्वहम्।। विटः-अतएव ध्रियसे। शकारः-अदो ज्जेवण मालीअशि। [अतएव न मार्यसे। वसन्तसेना-(स्वगतम्।) कथं अणुणओ वि शे भअं उप्पादेदि। भोदु। एव्वं दाव। (प्रकाशम्।) अज्ज, इमादो किंपि अलंकरणं तक्कीअदि। [कथमनुनयोऽप्यस्य भयमुत्पादयति। भवतु। एवं तावत्। आर्य, अस्मात्किमप्यलंकरणं तय॑ते।] विटः-शान्तम्। भवति वसन्तसेने, न पुष्पमोषर्हत्युद्यानलता। तत्कृतमलंकरणैः। वसन्तसेना-ता किं क्खु दाणिम्। [तत्किं खल्विदानीम्।। शकारः-हगे वरपुलिशमणुश्शे वाशुदेवके कामइदब्वे [अहं वरपुरुष-मनुष्यो वासुदेवः कामयितव्यः] वसन्तसेना-(सक्रोधम्।) शन्त शन्तम्। अवेहि। अणज्जं मन्तेशि। [शान्तं शान्तम्। अपेहि अनार्यं मन्त्रयसि] शकार:-(सतालिकं विहस्य।) भावे भावे पेक्ख दाव। मं अन्तलेण शुशिणिद्धा एशा गणिआदालिआ णम्। जेण मं भणादि ‘एहि। शन्तेशि किलिन्तेशि' त्ति। हगे ण गामन्तलं ण णगलन्तलं वा गडे। अज्जुके, शवामि भावश्श शीशं अत्तणकेहिं पादेहि। तव ज्जेव पश्चाणुपश्चिआए आहिण्डन्ते शन्ते किलिन्ते म्हि शंवुत्ते [भाव भाव, प्रेक्षस्व तावत्।मामन्तरेण सुग्निग्धैषा, गणिकादारिका ननु। येन मां भणति - 'एहि। श्रान्तोऽसि' क्लान्तोऽसि' इति। अहं न ग्रामान्तरं न नगरान्तरं वा गतः। भट्टालिके, शपे भावस्य शीर्षमात्मीयाभ्यां पादाभ्याम्। तवैव पृष्ठानुपृष्ठिकयाहिण्डमानः श्रान्तः क्लान्तोऽस्मि संवृत्तः]। विट:-स्वगतम्। अये, कयं शान्तमित्यभिहिते श्रान्त इत्यवगच्छति मूर्खः। (प्रकाशम्।) वसन्तसेने, वेशवासविरुद्धमभिहितं भवत्या। पश्य, तरुणजनसहायश्चिन्त्यतां वेशवासो विगणय गणिका त्वं मार्गजाता लतेव। Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृच्छकटिकम् 103 वहसि हि धनहार्यं पण्यभूतं शरीरं सममुपचर भद्रे सुप्रियं चाप्रियं च // 31 // अपि च - वाप्यां स्नाति विचक्षणो द्विजवरो मोपि वर्णाधमः फुल्लां नाम्यति वायसोऽपि हि लतां या नामिता बर्हिणा। ब्रह्मक्षत्रविशस्तरन्ति च यया नावा तयैवेतरे त्वं वापीव लतेव नौरिव जनं वेश्यासि सर्वं भज // 32 // वसन्तसेना-गुणो क्खु अणुराअस्स कारणम्, ण उण बलक्कारो। (गुणः खल्वनुरागस्य कारणम्, न पुनर्बलात्कारः)। शकार:-भावे भावे, एशा गब्भदाशी कामदेवाअदणुज्जाणादो पहुदि ताह दलिद्दचालुदत्ताह अणुलत्ता ण मं कामेदि। वामदो तश्श घलम्। जधा तव मम अ हत्थादो ण एशा पलिब्भंशदि तधा कलेदु भावे।[भाव भाव, एषा गर्भदासी कामदेवायतनोद्यानात्प्रभृति तस्य दरिद्रचारुदत्त-स्यानुरक्ता न मां कामयते। वामतस्तस्य गृहम्। यथा तव मम च हस्तान्नैषा परिभ्रश्यति तथा करोतु भावः] विट:-(स्वगतम्।) यदेव परिहर्तव्यं तदेवोदाहरति मूर्खः। कथं वसन्तसेनार्यचारुदत्तमनुरक्ता। सुष्ठु खल्विदमुच्यते - 'रत्नं रत्नेन संगच्छते' इति। तद्गच्छतु। किमनेन मूर्खण। (प्रकाशम्।) काणेलीमातः, वामतस्तस्य सार्थवाहस्य गृहम्। शकारः-अध इं। वामदो तश्श घलम्। [अथ किम्। वामतस्तस्य गृहम्।। . वसन्तसेना-(स्वगतम् / ) अम्महे। वामदो तश्श गेहं त्ति जं शच्चम्, अवरज्झन्तेण वि दुज्जणेण उवकिदम्, जेण पिअशङ्गमं पाविदम्। [आश्चर्यम्। वामतस्तस्य गृहमिति यत्सत्यम्, अपराध्यतापि दुर्जनेनोपकृतम्, येन प्रियसंगमः प्रापितः।] शकारः-भावे भावे, बलिए क्खु अन्धआले माशलाशिपविट्टा विअ मशिगुडिआ दीशन्दी ज्जेव पणट्टा वशन्तशेणिआ।[भाव भाव, बलीयसि खल्वन्ध-कारे माषराशि-प्रविष्टेव मसीगुटिका दृश्यमानैव प्रनष्टा वसन्तसेना।] विट:-अहो, वलवानन्धकारः। तथाहि। आलोकविशाला मे सहसा तिमिरप्रवेशविच्छिन्ना। उन्मीलितापि दृष्टिर्निमीलितेवान्धकारेण // 33 // अपि च - लिम्पतीव तमोऽङ्गानि वर्षतीवाञ्जनं नभः। Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 104 प्राकृत पाठ-चयनिका असत्पुरुषसेवेव दृष्टिविफलतां गता // 34 // शकारः-भावे भावे, अण्णेशामि वशन्तशेणिअम्। [भाव भाव, अन्विष्यामि वसन्तसेनिकाम्। विट:-काणेलीमातः अस्ति किंचिच्चिहूं यदुपलक्षयसि। शकारः-भावे भावे, किं वि। [भाव भाव, किमिव।] विटः-भूषणशब्दं सौरभ्यानुविद्धं माल्यगन्धं वा। शकारः-शुणमि मल्लगन्धम्, अन्धआलपूलिदाए उण णाशिआए ण शुव्वत्तं पेक्खामि भूशणशद्दम्। [शृणोमि माल्यगन्धम्, अन्धकारपूरितया पुनर्नासिकया न सुव्यक्तं पश्यामि भूषणशब्दम्।। विट:-(जनान्तिकम्। वसन्तसेने, कामं प्रदोषतिमिरेण न दृश्यसे त्वं सौदामनीव जलदोदरसंधिलीना / त्वां सूचयिष्यति तु माल्यसमुद्भवोऽयं गन्धश्च भीरु मुखराणि च नूपुराणि // 35 // श्रुतं वसन्तसेने। वसन्तसेना-(स्वगतम्।) सुदं गहिदं अ। (नाट्येन नूपुराण्युत्सार्य माल्यानि चापनीय किंचित्परिक्रम्य हस्तेन परामश्य।) अम्भो, भित्ति-परामरिसूइदं पक्खदुआरअं क्खु एदम्। जाणामि असंजोएण गेहस्स संवुदं पक्खदुआरअम्। [श्रुतं गृहीतं च। अहो, भित्तिमरामर्शसूचितं पक्षद्वारकं खल्वेतत् / जानामि च संयोगेन गेहस्य संवृत्तं पक्षद्वारकम्।। चारुदत्तः-वयस्य, समाप्तजपोऽस्मि। तत्साम्प्रतं गच्छ। मातृभ्यो बलिमुपहर। विदूषकः-भो, ण गमिस्सम्। [भोः, न गमिष्यामि।] चारुदत्तः-धिक्कष्टम्। दारिद्यात्पुरुषस्य बान्धवजनो वाक्ये न संतिष्ठते सुस्निग्धा विमुखीभवन्ति सुहृदः स्फारीभवन्त्यापदः। सत्वं ह्रासमुपैति शीलशशिनः कान्ति परिम्लायते पापं कर्म च यत्परैरपि कृतं तत्तस्य संभाव्यते // 36 // अपि च Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृच्छकटिकम् | 105 सङ्ख नैव हि कश्चिदस्य कुरुते संभाषते नादरा - त्संप्राप्तो गृहमुत्सवेषु धनिनां सावज्ञमालोक्यते। दूरादेव महाजनस्य विहरत्यल्पच्छदो लज्जया मन्ये निर्धनता प्रकाममपरं षष्ठं महापातकम् // 37 // अपि च - दारिद्रय शोचामि भवन्तमेवमस्मच्छरीरे सुहृदित्युषित्वा। विपन्नदेहे मयि मन्दभाग्ये ममेति चिन्ता क्व गमिष्यसि त्वम् // 38 // विदूषकः-(सवैलक्ष्यम्) भो वअस्स, जइ मए गन्तव्यम्, ता एसावि मे सहाइणी रदणिआ भोदु। [भो वयस्य, यदि मया गन्तव्यम, तदेषापि मम सहायिनी रदनिका भवतु।। चारुदत:-रदनिके, मैत्रेयमनुगच्छ। चेटी:-जं अज्जो आणवेदि। (यदार्य आज्ञापयति)। विदषकः-भोदि रदणिए, गेण्ह बलिं पदीवं अ। अहं अपावुदं पक्खदुआरअं करेमि। [भवति रदनिके, गृहाण बलिं प्रदीपं च। अहमपावृतं पक्षद्वारकं करोमि।] (तथा करोति।) - वसन्तसेनाः-मम अब्भुववत्तिणिमित्तं विअ अवावुदं पक्खदुआरअम्। ता जाव पविसामि। (दृष्ट्वा।) हद्धी हद्धी। कधं पदीवो ममाभ्युपपत्तिनिमित्तमिवापावृतं पक्षद्वारकम्। तद्यावत्प्रविशामि। [हा धिक् हा धिक्। कथं प्रदीपः] (पटान्तेन निर्वाप्य प्रविष्टा।) चारुदत्तः-मैत्रेय, किमेतत्। विदूषकः-अवावुदपक्खदुआरएण पिण्डीभूदेण वादेण णिव्वाविदो पदीवो। भोदि रदणिए, णिक्कम तुमं पक्खदुआरएण। अहंपि अब्भन्तरचदुस्सालादो पदीवं पज्जालिअ आअच्छामि। [अपावृतपक्षद्वारेण पिण्डीभूतेन वातेन निर्वापितः प्रदीपः। भवति रदनिके, निष्काम त्वं पक्षद्वारकेण। अहमप्यभ्यन्तरचतुः शालातः प्रदीप प्रज्वाल्यागच्छामि।] (इति निष्क्रान्तः।) शकारः-भावे भावे, अण्णेशामि वशन्तशेणिअम्। [भाव भाव, अन्वेषयामि वसन्तसेनिकाम्। विट:-अन्विष्यतामन्विष्यताम्। शकारः-(तथा कृत्वा) भावे भावे, गहिदा गहिदा। [भाव भाव, गृहीता गृहीता]। विट:-मूर्ख, नन्वहम्। Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1067 प्राकृत पाठ-चयनिका शकारः-इदो दाव भविअ एअन्ते भावे चिट्ठदु। (पुनरन्विष्य चेटं गृहीत्वा)। भावे भावे, गहिदा, गहिदा (इतस्तावद्भूत्वा एकान्ते भावस्तिष्ठतु। भाव भाव, गृहीता गृहीता)। चेट:-भट्टके, चेडे हगे। [भट्टारक, चेटोऽहम्] शकारः-इदो भावे, इदो चेडे। भावे चेडे, चेडे भावे। तुम्हे दाव एअन्ते चिट्ठ। (पुनरन्विष्य रदनिकां केशेषु गृहीत्वा।) भावे भावे, शंपदं गहिदा गहिदा वशन्तशेणिआ। अन्धआले पलाअन्ती मल्लगन्धेण शूइदा। केशविन्दे पलामिट्टा चाणक्केणेव्व दोवदी // 39 // [इतो भावः, इतश्चेटः। भावश्चेटः, चेटो भावः। युवां तावदेकान्ते तिष्ठतम्। भाव भाव, सांप्रतं गृहीता गृहीता वसन्तसेनिका।] अन्धकारे पलायमाना माल्यगन्धेन सूचिता। केशवृन्दे परामृष्टा चाणक्येनेव द्रौपदी॥ विट:एषासि वयसो दर्पात्कुलपुत्रानुसारिणी। केशेषु कुसुमाढयेषु सेवितव्येषु कर्षिता // 40 // शकार:एशाशि वाशू शिलशि ग्गहीदा केशेशु वालेशु शिलोलुहेशु। अक्कोश विक्कोश लबाहिचण्डं शंभु शिवं शंकलमीशलं वा // 41 // एषासि वासु शिरसि गृहीता केशेषु बालेषु शिरोरुहेषु। आक्रोश विक्रोश लपाधिचण्डं शंभुं शिवं शंकरमीश्वरं वा।। रदनिकाः-(सभयम्) किं अज्जमिस्सेहिं ववसिदम्। [किमार्यमित्रैर्व्यवसितम्।। विट:-काणेलीमातः, अन्य एवैव स्वरसंयोगः। शकारः-भावे भावे, जधा दहिशरपलिलुद्धाए मज्जालिए शलपलिंवत्ते होदि तधा दाशीए धीए शलपलिवत्ते कडे। [भाव, भाव, यथा दधिसरपरिलुब्धाया मार्जारिकायाः स्वरपरिवृत्तिर्भवति, तथा दास्याः पुत्र्या स्वरपरिवृत्तिः कृता। विट:-कथं स्वरपरिवर्तः कृतः। अहो चित्रम्। अथवा किमत्र चित्रम्। इयं रङ्गप्रवेशेन कलानां चोपशिक्षया। वञ्चनापण्डितत्वेन स्वरनैपुण्यमाश्रिता // 42 // Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृच्छकटिकम् | 107 (प्रविश्य।) विदूषकः-ही ही भोः, पदोसमन्दमारुदेण पशुबन्धोवणीदस्स विअ छागलस्स हिअअम् फुरफुराअदि पदीओ। (उपसृत्य रदनिकां दृष्ट्वा।) भो रदणिए / [आश्चर्य भोः, प्रदोषमन्दमारुतेन पशुबन्धोपनीतस्येव छागलस्य हृदयम्, फुरफुरायते प्रदीपः। भो रदनिके।] शकार:-भावे भावे, मणुश्शे मणुश्शे। [भाव भाव, मनुष्यो मनुष्यः।] विदूषकः-जुत्तं णेदम्, सरिसं णेदम्, जं अज्ज-चारुदत्तस्स दलिद्ददाए संपदं परपुरिसा गेहं पविशन्ति। [युक्त नेदम् सदृशं नेदम्, यदार्यचारुदत्तस्य दरिद्रतया सांप्रतं परपुरुषा गेहं प्रविशन्ति] रदनिका:-अज्ज मित्तेअ, पेक्ख मे परिहवम्। [आर्य मैत्रेय, प्रेक्षस्व मे परिभवम्।। विदूषकः-किं तव परिहवो। आदु अम्हाणम्। [किं तव परिभवः। अथवास्माकम्।। रदनिकाः-णं तुम्हाणं ज्जेव। [ननु युष्माकमेव।] विदषकः-किं एसो बलक्कारो। [किमेष बलात्कारः] रदनिकाः-अध इं। [अथ किम्] विदूषकः-सच्चम्। [सत्यम्।] रदनिकाः-सच्चम्। [सत्यम्] विदूषकः-(सक्रोधं दण्डकाष्ठमुद्यम्य) मा दाव। भो, सके गेहे कुक्कुरो वि दाव चण्डो भोदि, किं उण अहं बम्हणो। ता एदिणा अम्हारिसजणभाअधेअकुडिलेण दण्डकटेण दुस्स विअ सुक्खाणवेणुअस्स मत्थअं दे पहारेहिं कुट्ठइस्सम्। [मा तावत्। भोः, स्वके गेहे कुक्कुरोऽपि तावच्चण्डो भवति, किं पुनरहं ब्राह्मणः। तदेतेनास्मादृशजनभागधेयकुटिलेन दण्डकाष्ठेन दुष्टस्येव शुष्कवेणुकस्य मस्तकं ते प्रहारैः कुट्टयिष्यामि।] विट:-महाब्राह्मण, मर्षय मर्षय। विदूषकः-(विटं दृष्ट्वा) ण एत्थ एसो अवरज्झदि। (शकारं दृष्टवा), एसो क्खु एत्थ अवरज्झदि। अरे रे राअसालअ संट्ठाणअ दुज्जण दुम्मणुस्स, जुत्तं णेदम्। जइ वि णाम तत्तभवं अज्जचारुदत्तो दलिदो संवुत्तो, ता किं तस्स गुणेहिं ण अलंकिदा उज्जइणी। जेण तस्स गेहं पविसिअ परिअणस्स ईरिसो उवमद्दो करीअदि। मा दुग्गदोत्ति परिहवो णत्थि कअन्तस्स दुग्गदो णाम। चारित्तेण विहीणो अड्डो वि अ दुग्गदो होइ // 43 // Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 108 प्राकृत पाठ-चयनिका [नात्र एषोऽपराध्यति। एष खल्वत्रापराध्यति। अरे रे राजश्यालक संस्थानक दुर्जन दुर्मनुष्यः, युक्तं नेदम्। यद्यपि नाम तत्रभवानार्यचारुदत्तो दरिद्रः संवृत्तः। तत्कि तस्य गुणैर्नालंकृतोज्जयिनी येन। तस्य गृहं प्रविश्य परिजनस्येदृश उपमर्दः क्रियते। मा दुर्गत इति परिभवो नास्ति कृतान्तस्य दुर्गतो नाम। चारित्र्येण विहीन आढ्योऽपि च दुर्गतो भवति॥] विट:-(सवैलक्ष्यम्) महाब्राह्मण, मर्षय मर्षय। अन्यजनशङ्कया खल्विदमनुष्ठितम्, न दर्यात्। पश्य, सकामान्विष्यतेस्माभिः। विदूषकः-किं इअम्। (किमियम्) विटः-शान्तं पापम्। काचित्स्वाधीनयौवना। सा नष्टा शङ्कया तस्याः प्राप्तेयं शीलवञ्चना // 44 // सर्वथा इदमनुनयसर्वस्वं गृह्यताम्। (इति खड्गमुत्सृज्य कृताञ्जलिः पादयोः पतति।) विदूषकः-सप्पुरिस, उद्वेहि उद्वेहि। अआणन्तेण मए तुम उवालद्धे। संपदं उण जाणन्तो अणुणेमि। (सत्पुरुष, उत्तिष्ठोत्तिष्ठ। अजानता मया त्वमुपालब्धः। सांप्रतं पुनर्जानन्ननुनयामि।) विट:-ननु भवानेवात्रानुनेयः। तदुत्तिष्ठामि समयतः। विदूषकः-भणादु भवम्। (भणतु भवान्।) विट:-यदीमं वृत्तान्तमार्यचारुदत्तस्य नाख्यास्यसि। विदूषकः-न कधइस्सम्। (न कथयिष्यामि।) विट:एष ते प्रणयो विप्र शिरसा धार्यते मया। गुणशस्त्रैर्वयं येन शस्त्रवन्तोऽपि निर्जिताः // 45 // शकारः-(सासूयम्।) किं णिमित्तं उण भावे, एदश्श दुट्टबंडुअश्श किविण-अञ्जलिं कदुअ पाएशु णिवडिदे। (किंनिमित्तं पुनर्भाव, एतस्य दुष्टबटुकस्य कृपणाञ्जलिं कृत्वा पादयोर्निपतितः।) विट:-भीतोऽस्मि। शकारः-कश्श तुमं भीदे। (कस्मात्त्वं भीतः।) Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृच्छकटिकम् | 109 विटः-तस्य चारुदत्तस्य गुणेभ्यः। शकार-के तश्श गुणा जश्श गेहं पविशिअ अशिदव्वं पि णत्थि। (के तस्य गुणा यस्य गृहं प्रविश्याशितव्यमपि नास्ति।) विट:-मा भैवम्। सोऽस्मद्विधानां प्रणयैः कृशीकृतो न तेन कश्चिद्विभवैर्विमानितः। निदाघकालेष्विव सोदको हृदो नृणां स तृष्णामपनीय शुष्कवान् // 46 // शकारः-(सामर्षम्।) के शे गब्भदासीए पुत्ते। शूले विक्कन्ते पण्डवे शेदकेदू पुत्ते लाधाए लावणे इन्ददत्ते। आहो कुन्तीए तेण लामेण जादे अश्शत्थामे धम्मपुत्ते जडाऊ // 47 // (कः स गर्भदास्याः पुत्रः।) [शूरो विक्रान्तः पाण्डवः श्वेतकेतुः पुत्रो राधाया रावण इन्द्रदत्तः। आहो कुन्त्या तेन रामेण जातः अश्वत्थामा धर्मपुत्रो जटायुः।] विट:-मूर्ख, आर्यचारुदत्तः खल्वसौ। दीनानां कल्पवृक्षः स्वगुणफलनतः सज्जनानां कुटुम्बी आदर्शः शिक्षितानां सुचरितनिकषः शीलवेलासमुद्रः। सत्कर्ता नावमन्ता पुरुषगुणनिधिदक्षिणोदारसत्त्वो ह्येकः श्लाघ्यः स जीवत्यधिकगुणतया चोच्छवसन्तीव चान्ये // 48 // तदितो गच्छामः। शकार:-अगेण्हिअ वशन्तशेणिअम्। (अगृहीत्वा वसन्तसेनाम्।) विट:-नष्टा वसन्तसेना। शकारः-कथं विअ। (कथमिव।) विट: अन्धस्य दृष्टिरिव पुष्टिरिवातुरस्य मूर्खस्य बुद्धिरिव सिद्धिरिवालसस्य। स्वल्पस्मृतेर्व्यसनिनः परमेव विद्या Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 110 प्राकृत पाठ-चयनिका त्वां प्राप्य सा रतिरिवारिजने प्रनष्टा // 49 / / शकारः-अगेण्हिअ वशन्तशेणिअंण गमिश्शम्। (अगृहीत्वा वसन्तसेनां न गमिष्यामि।) विट:-एतदपि न श्रुतं त्वया। आलाने गृह्यते हस्ती वाजी वल्गासु गृह्यते। हृदये गृह्यते नारी यदिदं नास्ति गम्यताम् // 50 // शकारः-यदि गच्छशि, गच्छ तुमम्। हगे ण गमिश्शम्। (यदि गच्छसि, गच्छ त्वम्। अहं न गमिष्यामि।) विट:-एवम्। गच्छामि। (इति निष्क्रान्तः।) शकारः-गडे क्खु भावे अभावम्। (विदूषकमुद्दिश्य।) अले काकपदशीश-मश्तका दुट्टबडुका, उवविश उवविश। (गतः खलु भावोऽभावम्। अरे काकपदशीर्ष-मस्तक दुष्टबटुक, उपविशोपविश।) विदूषकः-उववेसिदा ज्जेव अम्हे। (उपवेशिता एव वयम्।) शकारः-केण। (केन) विदूषकः-कअन्तेण (कृतान्तेन।) शकारः-उद्वेहि उडेहि। (उत्तिष्ठोत्तिष्ठ।) विदूषकः-उट्ठिस्सामो / (उत्थास्यामः।) शकारः-कदा। (कदा।) विदूषकः-जदा पुणो वि देव्वं अणुऊलं भविस्सदि। (यदा पुनरपि दैवमनुकूलं भविष्यति।) शकारः-अले, लोद लोद। (अरे, रुदिहि रुदिहि।) विदूषकः-रोदाविदा ज्जेव अम्हे। (रोदिता एव वयम्।। शकारः-केण। (केन।) विदूषकः-दुग्गदीए। (दुर्गत्या।) शकारः-अले, हश हश। (अरे, हस हस।) विदूषकः-हसिस्सामो। (हसिष्यामः।) शकारः-कदा। (कदा।) Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृच्छकटिकम् 111 विदूषकः-पुणो वि ऋद्धीए अज्जचारुदत्तस्स। (पुनरपि ऋध्द्यार्यचारुदत्तस्य।) शकारः-अले दुट्टबडुका, भणेशि मम वअणेण तं दलिद्दचालुदत्तकम्-'एशा शशुवण्णा शहिलण्णा णवणाडअदंशणुट्ठिदा शुत्तदालि व्व वशन्तशेणा णाम गणिआदालिआ कामदेवाअदणुज्जाणादो पहुदि तुम अणुलत्ता अम्हहिं बलक्कालाणुणीअमाणा तुह गेहं पविट्ठा। ता जड़ मम हत्थे शअं ज्जेव पट्टाविअ एणं शमय्येशि, तदो अधिअलणे ववहालं विणा लहुं णिज्जादमाणाह तव मए अणुबद्धा पीदी हुविश्शदि। आदु अणिज्जादमाणाह मलणन्तिके वेले हुविश्शदि। अवि अ पेक्ख। कश्चालुका गोच्छडडित्तवेण्टा शाके अ शुक्खे तलिदे हु मंशे। भत्ते अ हेमन्तिअलत्तिशिद्ध लीणे अवेले ण हु होदि पूदी // 51 // शोश्तकं भणेशि, लश्तकं भणेशि। तधा भणेशि जधा हगे अत्तणकेलिकाए पाशादबालग्ग-कवोदवालिआए उवविद्वे शुणामि। अण्णधा जदि भणेशि, ता कवालपविट्ठकवित्थगुडिअं विअ मश्तअं दे मडमडाइश्शम्। (अरे दुष्टबटुक, भणिष्यसि मम वचनेन तं दरिद्रचारुदत्तकम-'एषा ससवर्णा सहिरण्या नवनाटकदर्शनोत्थिता सूत्रधारीव वसन्तसेनानाम्नी गणिकादारिका. कामदेवायतनोद्यानात्प्रभृति त्वामनुरक्तास्माभिर्बलात्कारानुनीयमाना तव गेहं प्रविष्टा। तद्यदि मम हस्ते स्वयमेव प्रस्थाप्यैनां समर्पयसि, ततोऽधिकरणे, व्यवहारं विना लघु निर्यातयतस्तव मयानुबद्धा प्रीतिर्भविष्यति। अथवानिर्यातयतो मरणान्तिकं वैरं भविष्यति। अपि च प्रेक्षस्व। [कूष्माण्डी गोमयलिप्तवृन्ता शाकं च शुष्कं तलितं खलु मांसम्। भक्तं च हैमन्तिकरात्रिसिद्धं लीनायां च वेलायां न खलु भवति पूतिः।। शोभनं भणिष्यसि, सकपट भणिष्यसि। तथा भणिष्यसि यथाहमात्मकीयायां प्रासादबालाग्रकपोतपालिकायामुपविष्टः शृणोमि। अन्यथा यदि भणसि, तदा कपाटप्रविष्ट-कपित्थ गुलिकमिव मस्तकं ते मडमडायिष्यामि।] विदूषकः-भणिस्सम्। (भणिष्यामि।) शकारः-(अपवार्य।) चेडे, गडे शच्चकं ज्जेव भावे। (चेटः गतः सत्यमेव भावः।) चेट:-अध इं। (अथ किम्।) शकारः-ता शिग्धं अवक्कमम्ह। (तच्छीघ्रमपक्रमावः) चेटः-ता गेण्हदु भट्टके अशिम्। (तगृण्हातु भट्टारकोऽसिम्।) शकारः-तव ज्जेव हत्थे चिट्ठदु। (तवैव हस्ते तिष्ठतु।) Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1127 प्राकृत पाठ-चयनिका चेटः-एशे भट्टालके। गेण्हदु णं भट्टके अशिम्। (एष भट्टारकः। गृण्हात्वेनं भट्टारकोऽसिम्।) शकारः-(विपरीतं गृहीत्वा।) णिव्वक्कलं मूलकपेशिवण्णं खन्धेण घेत्तूण अ कोशशुत्तम्। कुक्केहि कुक्कीहि अ बुक्कअन्ते जधा शिआले शलणं पलामि // 52 // [निर्वल्ककमूलकपेशिवर्णं स्कन्धेन गृहीत्वा च कोशसुप्तम्। कुक्कुरैः कुक्कुरीभिश्च बुक्कचमानो यथा शृगालः शरणं प्रयामि॥] (परिक्रम्य निष्क्रान्तौ विदषकः-भोदि रदणिए, ण क्ख दे अअं अवमाणो तत्तभवदो चारुदत्तस्स णिवेदइदव्वो। दोग्गच्चपीडिअस्स मण्णे दिउणदरा पीडा हुविस्सदि। (भवति रदनिके, न खलु तेऽयमपमानस्तत्र-भवतश्चारुदत्तस्य निवेदयितव्यः। दौर्गत्यपीडितस्य मन्ये द्विगुणतरा पीडा भविष्यति।) रदनिकाः-अज्ज मित्तेअ, रदणिआ क्खु अहं संजदमुही। (आर्य मैत्रेय, रदनिका खल्वहं संयतमुखी।) विदूषकः-एवं प्रणेदम्। (एवमिदम्।) चारुदत्तः-(वसन्तसेनामुद्दिश्य।) रदनिके, मारुताभिलाषी प्रदोषसमयशीतार्तो रोहसेनः।। ततः प्रवेश्यतामभ्यन्तरमयम्। अनेन प्रावारकेण छादयैनम्। (इति प्रावारकं प्रयच्छति।) . वसन्तसेनाः-(स्वगतम्।) कधं परिअणोत्ति मं अवगच्छदि। (प्रावारकं गृहीत्वा समाघ्राय च स्वगतं सस्पृहम्।) अम्हहे, जादीकुसुमवासिदो पावारओ। अणुदासीणं से, ज्जोव्वणं पडिभासेदि। (कथं परिजन इति मामवगच्छति। आश्चर्यम्, जातीकुसुमवासितः प्रावारकः। अनुदासीनमस्य यौवनं प्रतिभासते।) [अपवारितकेन प्रावृणोति] चारुदत्तः-ननु रदनिके, रोहसेनं गृहीत्वाभ्यन्तरं प्रविश। वसन्तसेना-(स्वगतम्। मन्दभाइणी क्खु अहं तुम्हे अब्भन्तरस्स। (मन्दभागिनी खल्वहं चारुदत्तः-ननु रदनिके, प्रतिवचनमपि नास्ति। कष्टम्। यदा तु भाग्यक्षयपीडितां दशां नरः कृतन्तोपहितां प्रपद्यते। तदास्य मित्राण्यपि यान्त्यमित्रतां चिरानुरक्तोऽपि विरज्यते जनः // 53 // Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृच्छकटिकम् 113 (रदनिकामुपसृत्य।) विदूषकः-भो, इअंसा रदणिआ। (भोः, इयं सा रदनिका।) चारुदत्तः-इयं सा रदनिका। इयमपरा का। अविज्ञातावसक्तेन दूषिता मम वाससा। वसन्तसेनाः-(स्वगतम्।) णं भूसिदा। (ननु भूषिता।) चारुदत्तः-छादिता शरदभ्रेण चन्द्रलेखेव दृश्यते // 54 // अथवा, न युक्तं परकलत्रदर्शनम्।। विदूषकः-भो, अलं परकलत्रदंसणसङ्काए। एसा वसन्तसेणा कामदेवाअदनुज्जाणादो पहुदि भवन्तमणुरत्ता। (भोः, अलं परकलत्रदर्शनशङ्कया। एषा वसन्तसेना कामदेवायतनोद्यानात्प्रभृति त्वामनुरक्ता।) Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्पूरमञ्जरी (प्रथम जवनिकान्तर) राजशेखर विरचित 1. णीसासा हारलट्ठीसरिसपसरणा चन्दणं फोडकारी चन्दो देहस्स दाहो सुमरणसरिसी हाससोहा मुहम्मि / अङ्गाणं पण्डुभाओ दिअहससिकलाकोमलो किं च तीए णिच्चं बाहप्पवाहा तुह सुहअ किदे होन्ति कुल्लाहिं तुल्ला // 10 // 2. परं जोला उहा गरलसरिओ चन्दणरसो / खदक्खारो हारो रअणिपवणा देहतवणा / मुणाली बाणाली जलदि अ जलद्दा तणुलदा / वरिट्ठा जं दिट्ठा कमलवअणा सा सुणअणा // 11 // 3. णिसग्गचङ्गस्स वि माणुसस्स सोहा समुम्मीलदि भूसणेहिं / मणीण जच्चा] वि कश्चणेहिं विहसणे सज्जदि कावि लच्छी // 24 // 4. रणन्तमणिणेउरं झणझणन्तहारच्छडं कलक्कणिदकिङ्किणीमुहरमेहलाडम्बरम् / विलोलवलआवलीजणिदमञ्जसिञ्जारवं ण कस्स मणमोहणं ससिमुहीअ हिन्दोलणम् // 32 // 5. इअ एआइँ विलासुज्जलाइँ दोलाप्पवञ्चचरिआई / कस्स ण लिहेइ चित्ते णिउणो कन्दप्पचित्तअरो // 40 // Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 115 कर्पूरमञ्जरी (प्रथम जवनिकान्तर) 6. मरगअमणिजुट्ठा हारलट्ठि व्व तारा भमरकवलिअद्धा मालईमालिए व्व / रहसवलिअकण्ठी तीअ दिट्ठी वरिट्ठा सवणपहणिविट्ठा माणसं मे पविट्ठा // 2 // 7. मण्डले ससहरस्स गोरए दन्तपञ्जरविलासवचोरए / भादि लच्छणमिओ फुरन्तओ केलिकोइलतुलं धरन्तओ // 31 // Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22 स्फुट गाथा संग्रह 8. अणुदिअहं विफुरन्तो मणीसि-जण सअल-गुण विणास-अरो / रिओण्डण-दावग्गी विरमउ कमला-कड-क्ख वरिसेण / / जात्र परलोअ-गत्र तुम्मि ववसाअमत्त सुहदड्वव्वे ___हरिस-छाणे वि महं डज्झइ अदिङ दहमुहवहं हिअअं / 10. वाहं ण धरेइ मुहं आसावन्धो वि ये ण रुम्भइ हिअअं। रवरि अ चिन्तिज्जन्ते ण विणज्जइ केन जीविअं संरुद्धं / 11. वोलीणो मअर-हरो मज्झ कत्रण मरणं पि दे पभिवणं निब्बूढं पाह तुमे अज्ज वि धरइ अकन्नुअं मह हिअों। 12. उग्गाहिहि राम तुमं गुणे गणे ऊण पुरिस-मइअअ त्ति जरो / गलिअ-महिला-सहावं संभा ऊण अ समं रिअत्तिहिइ कहं / 13. तुह वाणा उक्खअ-रिहअंदच्छिम्मि दह-कण्ठ जुह-णिहाअंति कआ, मह भाअधेअ-भलिआ विवरा-हत्ता मणोरहा पलहत्था / 14. जं तणुअम्मि वि विरहे पेमा-वन्धेण सणक्इ जणस्स जणो / तं जारवर इमं पेच्छन्तीत्र अ तारिसं मज्झ फलं / Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नावली महाराष्ट्री प्राकृत 1. कुसुमाउह-पिय-दूअओ मउलाइअ-बहु-चूअओ। सिढिलिअ-माण-ग्गहणओ वाअइ दाहिण-पवणओ। विरह-विवड्डिअ-सोअओ कंखिअ-पिअ-अण-मेलओ पडिवालणासमत्थओ तम्मइ जुवई-सत्थओ / इह पढमं महुमासो जणस्स हिअआई कुणइ मउआइ / * पच्छा विज्झइ महुमासो जणस्स हिअआइं कुणइ मउआई। पच्छा विज्झइ कामो लद्ध-प्पसेरहिं कुसुम-बाणेहिं / 2. पणमह चलणे इन्दस्स इन्दआलम्मि लद्धणामस्स, तह अज्ज-सम्बरस्स वि माआ-सुपडिट्ठिअ-जसस्स / किं धरणीए मिअङ्को आआसे महिहरो जले जलणो, मज्झण्हम्मि पओसो, दाविज्जउ देहि आणत्तिं // 3. किं जप्पिएण बहुणा जं जं हिअएण महसि संदर्यु / तं तं दंसेमि अहं गुरुणो मन्त-प्पहावेण। 4. हरि-हर-बम्ह-प्पमुहे देवे दंसेमि देवराअंच गअणम्मि सिद्ध-विज्जाहर-वहु-सत्थं च णच्चन्तं / Shriharsa: Ratnavali (Act 1 and IV) Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशोवर्मचरितम् अत्थि णिअत्तिअ-णीसेस-भुवण-दुरिआहिणंदिअ-महिंदो / सिरि-जसवम्मो त्ति दिसा-पडिलग्ग-गुणो महीणाहो // 99 / / घोलइ समुच्छलती जम्मि चलंतम्मि रेणु-भावेण / वसुहा अमुक्क-सेस-प्फण व्व धवलाअवत्तेसु // 100 / / वेहव्व-दुक्ख-विहलाण जस्स रिउ-कामिणीण पम्मुक्का / कर-ताडण-भीएहिँ व हारेहिँ पओहरुच्छंगा / / झ।। कबरी-बंधा अज्ज वि कुडिला ते जस्स वेरि-बंदीण / हढ-कड्डण-खुत्तंगुलि-णिवेस-मग्ग व्व दीसंति // चलिअम्मि जम्मि विअणा-विहुअ-फणा-मंडलो वि णो मुअइ। . महि-वेढं बल-भर-खुत्त-रअण-संदाणिअं सेसो // 101 // णीसंदइ जस्स रणाइरेसु कीलालिओ गअ-मएण। आहअ-वम्माणल-दर-विराअ-धारो व्व कर-वालो // 102 // सेवंजलि-मिलिअ-णडाल-मंडला होति हढ-पणामेसु / मिअ-भिउडी-भंग व्व जस्स पडिवक्ख-सामंता // 103 / / Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशोवर्मचरितम् | 119 जो ववसाआवसरेसु दप्प-दर-दिट्ठ-दाहिणंस-अडो / दंसण-पसाअ सुहि कुणइ व्व भुज-ट्टि लच्छिं // 104 // Vakpatiraja: Gaudavaho (8th century AD) Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ feuquit (Notes) Page #123 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ horsiccoGE - भोगीलाल लहेरचन्द इन्स्टीट्यूट ऑफ इण्डोलॉजी, दिल्ली O राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान, नई दिल्ली मानित विश्वविद्यालय |