Book Title: Jinabhashita 2008 06 07
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनभाषित श्री दि. जैन मन्दिर कलभावी (कर्नाटक) में विराजमान सात फुट ऊँची प्राचीन जिनप्रतिमा ज्येष्ठ-आषाढ़, वि.सं. 2065 वीर निर्वाण सं. 2534 जून-जुलाई, 2008 • मूल्य 15 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंह और श्वान आचार्य श्री विद्यासागर जी मूकमाटी महाकाव्य की निम्नलिखित काव्यपंक्तियों में मिट्टी के घड़े पर चित्रित सिंह और श्वान के चरित्र का वर्णन छल-कपट, चाटुकारिता और दासता आदि गर्हित प्रवृत्तियों के प्रति घृणा तथा साहस, स्वाभिमान एवं स्वातन्त्र्य आदि अभिनन्दनीय गुणों के प्रति अनुराग जगाता है। कुम्भ पर हुआ वह सिंह और श्वान का चित्रण भी सन्देश दे रहा हैदोनों की जीवन-चर्या, चाल परस्पर विपरीत है। पीछे से, कभी किसी पर धावा नहीं बोलता सिंह, गरज के बिना गरजता भी नहीं, और बिना गरजे किसी पर बरसता भी नहीं यानी मायाचार से दूर रहता है सिंह। परन्तु, श्वान सदा पीठ-पीछे से जा काटता है, बिना प्रयोजन जब कभी भौंकता भी है। जीवन सामग्री हेतु दीनता की उपासना कभी नहीं करता सिंह जब कि स्वामी के पीछे-पीछे पूँछ हिलाता श्वान फिरता है एक टुकड़े के लिए। सिंह के गले में पट्टा बँध नहीं सकता। किसी कारणवश बन्धन को प्राप्त हुआ सिंह पिंजड़े में भी बिना पट्टा ही घूमता रहता है, उस समय उसकी पूँछ ऊपर उठी तनी रहती है अपनी स्वतन्त्रता-स्वाभिमान पर कभी किसी भाँति आँच आने नहीं देता वह। और श्वान स्वतन्त्रता का मूल्य नहीं समझता, पराधीनता-दीनता वह श्वान को चुभती नहीं कभी, श्वान के गले में जंजीर भी आभरण का रूप धारण करती है। मूकमाटी (पृष्ठ १६९-१७०) से साभार Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रजि. नं. UPHIN/2006/16750 जून-जुलाई 2008 वर्ष 7, अङ्क 6-7 मासिक जिनभाषित सम्पादक प्रो.रतनचन्द्र जैन अन्तस्तत्त्व कार्यालय ए/2, मानसरोवर, शाहपुरा भोपाल-462 039 (म.प्र.) फोन नं. 0755-2424666 सहयोगी सम्पादक पं. मूलचन्द्र लुहाड़िया, मदनगंज किशनगढ़ || पं. रतनलाल बैनाड़ा, आगरा डॉ. शीतलचन्द्र जैन, जयपुर डॉ. श्रेयांस कुमार जैन, बड़ौत प्रो. वृषभ प्रसाद जैन, लखनऊ डॉ. सुरेन्द्र जैन 'भारती', बुरहानपुर शिरोमणि संरक्षक श्री रतनलाल कँवरलाल पाटनी (मे. आर.के.मार्बल) किशनगढ़ (राज.) श्री गणेश कुमार राणा, जयपुर . काव्य : सिंह और श्वान आ.पृ. 2 : आचार्य श्री विद्यासागर जी - मुनि श्री योगसागर जी की कविताएँ आ.पृ. 3 • मुनि श्री क्षमासागर जी की कविताएँ आ.पृ. 4 • सम्पादकीय : श्रुताराधना-शिविर : मूलचन्द लुहाड़िया 2 . प्रवचन • उन्नति की खुराक : अचौर्यव्रत : आचार्य श्री विद्यासागर जी 4 . लेख • केरल में जैनधर्म : मुनिश्री अभयसागर जी • मनस्थिर करने का उपाय : स्वाध्यायः परमं तपः : आर्यिका श्री सुप्रभावती जी 15 • धरणेन्द्र-पद्मावती : पं. मिलापचन्द्र कटारिया 17 • दिगम्बर जैन मुनि : श्री सुमेरचन्द्र जैन शास्त्री 19 • जैनदर्शन में संसार का स्वरूप : ब्र. प्यारेलाल जी बड़जात्या • कुन्दकुन्द की दृष्टि में असद्भूत-व्यवहारनय प्रो. रतनचन्द्र जैन • विद्वानों का मूल्याङ्कन : डॉ. शीतलचन्द्र जैन • कायोत्सर्ग एवं णमोकारमंत्र पं. सनतकुमार विनोदकुमार जैन • जैनपरम्परासम्मत 'ओम्' का प्रतीक चिह्न • साम्राज्ञी शान्तलादेवी : पं. कुन्दनलाल जैन 36 . जिज्ञासा-समाधान : पं. रतनलाल बैनाड़ा . 38 . ग्रन्थसमीक्षा • आत्मानुशासन : समीक्षक-प्रा. अभयकुमार जैन 43 • आन-बान-शान की धरोहर बेटियाँ : समीक्षक- श्रीसुरेश जैन सरल समाचार 3, 14, 16, 18, 22, 29, 42, 46, 47, 48 प्रकाशक सर्वोदय जैन विद्यापीठ 1/205, प्रोफेसर्स कॉलोनी, आगरा-282 002 (उ.प्र.) फोन : 0562-2851428, 2852278| सदस्यता शुल्क शिरोमणि संरक्षक 5,00,000 रु. परम संरक्षक 51,000 रु. संरक्षक 5,000 रु. आजीवन 1100 रु. वार्षिक 150रु. एक प्रति 15 रु. सदस्यता शुल्क प्रकाशक को भेजें। लेखक के विचारों से सम्पादक का सहमत होना आवश्यक नहीं है। 'जिनभाषित' से सम्बन्धित समस्त विवादों के लिये न्यायक्षेत्र भोपाल ही मान्य होगा। Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय श्रुताराधना-शिविर मध्यप्रदेश के एक छोटे से कस्बे सिलवानी में प.पू. आचार्य श्री विद्यासागर जी के ससंघ सान्निध्य में द्वितीय श्रुताराधना शिविर का भव्य आयोजन दिनांक 6 जून से 8 जून 2008 तक हुआ। यद्यपि सिलवानी के लिए आवागमन की सीधी एवं सुविधाजनक बस आदि की व्यवस्था नहीं है, तथापि कुण्डलपुर में गत वर्ष सम्पन्न प्रथम श्रुताराधना-शिविर की प्रसिद्धि की सुगंध ने विद्वानों, ब्रह्मचारी-ब्रह्मचारिणियों एवं स्वाध्यायशील भाई-बहिनों को प्रचुर संख्या में शिविर में आकृष्ट किया। प्रातः कालीन सत्र 7:30 बजे से 9: 30 बजे तक एवं द्वितीय सत्र मध्याह्न 2:30 बजे से 5 बजे तक चलता था। तीन दिनों में 5 सत्रों में 5 प्रवचन प.पू. आचार्यश्री के हुए। अन्तिम सत्र समापन सत्र था। मध्याह्न के सत्र में 4 बजे से 5 बजे तक का समय शंकासमाधान के लिए रखा गया। विद्वान् श्रोतागणों के निमित्त से पू. आचार्यश्री की वाणी की अविरल धारा निराबाध रूप से प्रवाहित हुई। प. पू. आचार्यश्री ने चर्चित सैद्धांतिक विषयों पर अपना महत्त्वपूर्ण विश्लेषण प्रदान किया। अपने सम्मुख विद्वानों को देखकर पू. आचार्यश्री ने वाणी के द्वारा पठन एवं चिंतन से प्रसूत आगमिक विषय को रुचि से श्रोताओं को परोसा और उसको श्रोताओं ने पूर्ण मनोयोग एवं एकाग्रता से ग्रहण किया। पूरे समय में शिविर-सभा में शांतिपूर्ण सन्नाटा छाया रहा। श्रोतागण सुनने में इतने तन्मय हो रहे थे कि संभवतः किसी को आसन बदलने तक का भी विकल्प नहीं आया। ___अंतिम दिन का द्वितीय सत्र समापन सत्र के रूप में आयोजित था। उस दिन आगंतुक कतिपय विद्वानों ने शिविर के अपने अनुभव, अपने मन की बात अपनी भाषा में सुनाई। लगभग सभी ने यह कहा कि हम शिविर में आकर धन्य हो गए। हमको जो विषय प. पू. आचार्यश्री के द्वारा प्राप्त हुआ वह अभूतपूर्व था, अब तक हमारे ज्ञान में ये बातें इस रूप में नहीं आई थीं। पू. आचार्यश्री के उद्बोधन से हमारी अनेक भ्रांतियाँ दूर हुई हैं। कतिपय व्यक्तियों द्वारा आगम के विपरीत अर्थ का सहारा लेकर धार्मिक लोगों में एकांत मान्यताओं का जो प्रचार किया जा रहा है, हम उसका सप्रमाण निरसन कर मूल दिगम्बर सिद्धान्तों की रक्षा करने में प्रयत्नशील रहेंगे। प. पू. आचार्यश्री ने जिनवाणी का गहन अध्ययन किए बिना तथा जैनदर्शन में प्ररूपित नयव्यवस्था का ज्ञान प्राप्त किए बिना प्रवचन करनेवालों के प्रति खेद प्रकट करते हुए कहा कि उन्हें पहले प्रवचनभक्ति करना सीखना चाहिए, जिससे कि सम्यज्ञान का विकास हो। प्रवचन करने का अधिकार तो बाद में प्राप्त होता है। पहले परमात्मा की बात करनी चाहिए, परमात्मा की भक्ति से ही आत्मा का परिचय प्राप्त होता है। जिनेन्द्र-परमात्मा की भक्ति से शुभबंध होता है, किन्तु साथ ही संवर-निर्जरा भी होती है। एक कारण से अनेक कार्य होते हैं, अतः जिनेन्द्र भक्ति से पुण्यबंध के साथ भावों की विशुद्धि के द्वारा संवर-निर्जरा भी होती है। मनुष्यपर्याय में जिनविम्बदर्शन को सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति में कारण बताया गया है। इसके अतिरिक्त अन्य अनेक विषयों जैसे पारिणामिकभाव, क्षायोपशामिक ज्ञान, प्रवचनभक्ति, निश्चय-व्यवहार-रत्नत्रय, द्रव्यश्रुत, भाव श्रुत, मोक्षमार्ग में प्रशस्त राग का अवदान आदि पर प. पू. आचार्यश्री ने आगमाधार-पूर्वक तलस्पर्शी उदबोधन प्रदान किए। सभी विद्वानों ने इस पारमार्थिक मार्ग-दर्शन के लिए प. प. आचार्यश्री के प्रति विनयपूर्वक आभार व्यक्त किया और साग्रह निवेदन किया कि अगले वर्षों में भी प्रतिवर्ष ऐसा अनुग्रह करने की अवश्य कृपा करें। अधिकांश विद्वानों की यह भावना थी कि शिविर का समय तीन दिन अपर्याप्त रहता है, अतः आगामी शिविर पाँच या सात दिन के लिए आयोजित हों। प. पू. आचार्यश्री के तात्कालिक चर्चित महत्त्वपूर्ण बिदुओं पर धारावाहिक मार्मिक उद्बोधन प्राप्त कर सभी प्रबुद्ध श्रोतागण भावविभोर हो गए। सभी को ऐसा प्रतीत हुआ मानों प. पू. आचार्यश्री ने जिनवाणी 2 जून-जुलाई 2008 जिनभाषित Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के गहन अध्ययन को चिंतन की मथनी से मथकर प्राप्त तत्त्वरूप नवनीत को श्रोताओं को वितरित किया है। पू. आचार्यश्री ने आगम के कुछ ऐसे स्थलों की ओर विद्वानों का ध्यान आकर्षित किया, जहाँ मूल संस्कृत टीका और उसके हिंदी अनुवाद में भिन्नता है। पू. आचार्यश्री ने विद्वानों को यह सलाह दी कि वे जहाँ तक संभव हो, ग्रंथों का स्वाध्याय मूल एवं प्राचीन संस्कृत टीकाओं के आधार पर ही करें। पू. आचार्यश्री ने सम्पन्न हुए दो श्रुताराधना शिविरों के माध्यम से सबको अपना चिंतन एवं अनुभूतिप्रसूत प्रवचन प्रदान कर उपकृत किया है। इस शिविर में एक वीतरागी संत के चरणों में बैठकर विद्वानों एवं स्वाध्यायशील व्यक्तियों के द्वारा श्रुत की आराधना की गई है, अतः यह शिविर सही अर्थ में श्रुताराधनाशिविर कहा जाना चाहिए। ऐसे तत्त्वदर्शक उपयोगी शिविर का संयोग हमें बार-बार प्राप्त हो यही भावना है। मूलचन्द लुहाड़िया प्रथम जैन तीर्थंकर का निर्वाण स्थल कैलाश मानसरोवर में कपिल दवे. अहमदाबाद। जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर श्री आदिनाथ का निर्वाणस्थल कैलाश मानसरोवर के पास अष्टापद पर्वत पर कहीं होने संबंधी धारणाओं के बीच अंतरिक्षवैज्ञानिकों और न्यूयार्क के प्रमुख जैन सेंटर ने दावा किया है कि उन्होंने श्री आदिनाथ के निर्वाण स्थलवाले मूल अष्टापद पर्वत और उनका मंदिर खोज निकाला है। सेंटर द्वारा कराए गए शोध के मुताबिक सेटेलाइट आई. आर. एस. एल. आई. एस. एस.-4 से मिले चित्रों में ज्ञानद्राग मठ के पास कुछ चौकोर ओर आयताकार आकृतियाँ दिखाई देती हैं। साथ ही इस स्थल का दौरा करने पर भी इसके खंडहर दिखाई देते हैं। हालांकि इस स्थल की पुष्टि अभी बाकी है। दरअसल, सेंटर न्यूर्याक के जैनमंदिर में अष्टापद का मॉडल बनाने की योजना पर काम कर रहा है। इस सिलसिले में उसने दो वर्ष पहले मूल अष्टापद का पता लगाने के लिए शोध करना शुरू किया था। सेटेलाइट इमेजिंग की ली मदद : सेंटर की ओर से शोध कर रहे अंतरिक्ष वैज्ञानिक डॉ. पी.एस. ठक्कर ने बताया कि धर्मराज नारसांग के पास स्थित पहाड़ के, प्रभु आदिनाथ के निर्वाणस्थल होने की ज्यादा संभावना दिखती है। यह शोध जैनसाहित्य और वैज्ञानिक- दृष्टिकोण के आधार पर दो चरणों में हुआ था, पहला मई से जून 2006 और फिर जुलाई से अगस्त 2007 तक। अलग-अलग अष्टापद : कैलाश मानसरोवर के पास अनेक स्थानों पर 'अष्टापद महातीर्थ' होने की मान्यता है, लेकिन इनके कोई वैज्ञानिक साक्ष्य नहीं है। इसलिए शोध करने के लिए भेजे गए दल ने सभी संभावित स्थलों का अध्ययन किया। इसमें कैलाश, बारखा तराई सारबोचे के पास अष्टापद, नंदी पर्वत, ज्ञानद्राग मठ या गंगता मठ और सेरलोंग गोंपा के बीच स्थित अष्टापद पर्वत, ज्ञानद्राग या गंगता मठ और इसके उत्तर में स्थित छोटी पहाड़ी, कैलाश के नीचे स्थित 13 द्रीगुंग और त्रिनेत्र या गोंबो मैंग का अध्ययन किया गया। कहाँ है नारसांग- डॉ. ठक्कर के मुताबिक संभावित अष्टापद स्थल, कैलाश पर्वत के दक्षिण पूर्व में है। इस स्थान पर सेरदुंग चुकसुम ला या गंगपो संगलम ला से आसानी से पहुंचा जा सकता है। "सेटेलाइट डाटा से धर्मराज नारसांग के अलावा किसी दूसरे स्थल को अष्टापद पर्वत या अष्टापद महातीर्थ मानने का कोई आधार नहीं है। यह स्थान अष्टापद का सबसे निकटतम संभावित स्थल लगता है, जिसकी पुष्टि की जरूरत है।" -डॉ. पीएस ठक्कर वरिष्ठ अंतरिक्ष वैज्ञानिक, 'दैनिक भास्कर', भोपाल, २३ मई २००८ से साभार - जून-जुलाई 2008 जिनभाषित 3 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन उन्नति की खुराक : अचौर्यव्रत आचार्य श्री विद्यासागर जी जिन्होंने इस विश्व के बारे में ज्ञान प्राप्त कर लिया,। है, हमारा देखना-देखना तो है ही, साथ में लेना भी ऐसे सर्वज्ञ वीतरागियों ने सर्वज्ञत्व की प्राप्ति के लिये | है, हमारी दृष्टि में लेने के भाव हैं, प्राप्ति के भाव हमें एक सूत्र दिया है- वह है 'अस्तेय' (अचौर्यव्रत)।| हैं, और उनकी दृष्टि में लेने के भाव नहीं हैं, केवल 'स्तेय' कहते हैं अन्य पदार्थों के ऊपर अधिकार जमाने | देखने की क्रिया है। का वैचारिक भाव, जो असंभव है, उसे संभव करने | एक दर्शनिक ने जगत् की परिभाषा करते हुये की एक उद्यमशीलता, जो ब्रह्मा को भी संभव नहीं है, लिखा है कि- 'दूसरा जो भी है वही दुःख और नरक विषयकषायी उसे संभव करने का प्रयास कर रहा है। | है।' जो अपनी दृष्टि के माध्यम से उपजा हुआ 'सिद्धान्त' स्तेय का अर्थ है- चोरी, 'पर' का ग्रहण करना। जब | होगा वह 'सिद्धान्त' नहीं माना जा सकता, उन्होंने यह तक हम इस रहस्य को नहीं समझेंगे कि उसके ऊपर | घोषणा कर दी कि 'दूसरा' तुम्हारे लिये दुःख नहीं है, हमारा अधिकार हो सकता है? तब तक हमारा भवनिस्तार | अपितु दूसरे को पकड़ने की जो परिणति है, भाव है, नहीं होगा। 'स्व' के अलावा 'पर' के ऊपर हमारा अधिकार | वह हमारे लिये दु:ख और नरक का काम करता है। भी नहीं हो सकता। चोरी का अर्थ यही है कि हम | सिद्धान्त में यह परिवर्तन आया, यह अन्तर आया। वीर वस्तु के परिणमन को, वस्तुस्थिति को नहीं समझा पा | प्रभु सर्वज्ञ वीतरागी विश्व के अस्तित्व को मानते हैं, रहे हैं। 'स्व' क्या है और 'पर' क्या है, जब तक यह विश्व के अस्तित्व को जानते हैं, हमसे बहुत ऊँचा ज्ञान ज्ञान नहीं होगा तब तक संसारी जीव का निस्तार नहीं रखते हैं, तथा वे इनको जानते हुये भी पकड़ने का भाव होगा। नहीं रखते। पकड़ना चोरी है, जानना चोरी नहीं है। हमारी सुख के लिये उद्यम करना परमावश्यक है। किन्तु | दृष्टि लेने के भाव से भरी हुई है और उनकी दृष्टि सुख के लिये उद्यम करना परमावश्यक होते हुये भी | ज्ञान भाव से भरी हुई है। वे साहूकार हैं और शेष जितने सुख क्यों नहीं हो रहा है? इस बारे में विवेक-ज्ञान प्राप्त | भी लोग हैं वे सब चोर हैं। आप दूसरों को चोर सिद्ध करना भी परमावश्यक है। भगवान् महावीर ने बताया | नहीं कर सकते, नहीं तो स्वयं चोर बन जायेंगे। हम है कि विस्मृति संसारी जीव को 'स्व' की ही हुई है, | तो अपने आपको साहूकार सिद्ध कर देंगे, क्योंकि हमारे 'पर' की विस्मृति आज तक नही हुई। 'पर' को पर पास बहुमत है। आप बहुमत के माध्यम से, चाहो तो समझना अत्यन्त आवश्यक है। 'पर' को पर जानते हुये | साहूकार कहला सकते हो, तब तो विश्व का प्रत्येक भी यदि हम उसको लेने का भाव करते हैं, तो ध्यान | व्यक्ति साहूकार बन जायेगा, किन्तु साहूकारी में जो मजा रहे हम चोर बन जायेंगे। आप कह सकते हैं कि इस | आना चाहिये, वह मजा आपको एक क्षण के लिये भी प्रकार चोर बनने लगें, तो सभी चोर सिद्ध होंगे। तो | नहीं आ रहा है। क्या आप अपने आप को साहूकार मान रहे हैं? ध्यान दुनियाँ की आखिर उस वीर प्रभु की ओर ही रहे साहूकार वही है, जिसके पास धर्म है, साहूकार वही दृष्टि क्यों जा रही है? अर्थ यही है कि हम मात्र चोरी है, जो चोरी के भाव नहीं लाता और विशेष सेठ-साहूकार | से डरते हैं, अर्थात् मोक्षमार्ग सिद्धान्त में जो प्ररूपित तो वही है, जो पर की चीजों के ऊपर दृष्टिपात भी | शब्द हैं, उनसे कुछ ज्ञान प्राप्त करके हम कह सकते नहीं करता। आत्मा के पास दृष्टि है आत्मा के पास | हैं कि- हमको साहूकार बनना है, या कि यह कानून ज्ञान है, दर्शन है, उपयोग, जानने की, देखने की, संवदेन | लौकिक शास्त्र में भी है, चोरी करना तो एक बहुत करने की शक्ति है। यदि आप इनके लिये भी मना | बड़ा पाप है और चोरी करनेवाला सज्जन नागरिक नहीं करते हैं, तो फिर सर्वज्ञ भी चोर सिद्ध होंगे, क्योंकि कहला सकता। राजकीय सत्ता का आज्ञा के अनुरूप वे भी तीन लोक का देखने जाननेवाले हैं, किन्तु अन्तर | चलना है, इसलिये चल तो देते हैं, किन्तु चोरी से बचते 4 जून-जुलाई 2008 जिनभाषित Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं हैं क्योंकि पगडण्डी ढूँढ लेते हैं आप, भले आपको। कहाँ तक इस रूप से कि भाव भी उत्पन्न न हों, बचते यहाँ पर दण्डित न किया जाये, किन्तु सिद्धान्त के अनुरूप | हैं? यह या तो भगवान् ही जानता है या आपकी आत्मा तो आप द्रव्य-प्रधान हैं। आचार्य समन्तभद्र ने अभिनन्दन | ही जानती है। महाराज! बिना चोरी के तो कार्य ही नहीं भगवान् की स्तुति करते हुये लिखा हैं कि- हे भगवान् ! | चल सकता, कई लोगों से सुना है मैंने ऐसा, दंग रह यह संसारी प्राणी, राजा के भय से, माता-पिता के भय गया मैं। आप लोगों ने इसको इतना फैला दिया कि से, अपनों से बड़ों के भय से, बलवानों के भय से, इसके बिना काम नहीं चलता, एक प्रकार से राजमार्ग अन्याय-अत्याचार, पाप, नहीं करता किन्तु करने के भाव | पर ही रख दिया। 'उपर से तो आप कहते हैं कि चोरी नहीं छोड़ता। ऐसा विद्वान् जो कि बन्धव्यवस्था को | करना पाप है और अन्दर क्या घटाटोप है, यह तो आप जाननेवाला है. साथ ही अत्याचारी-अनाचारी भी हो. तो | ही जानते हैं।' वह ऊपर से बच जाये, पर अन्दर से नहीं बच सकत।। एक समय की बात है। एक ब्राह्मण प्रतिदिन नदी राजकीय सत्ता का अधिकार अपराध के ऊपर | पर स्नान करने जाया करता था। एक दिन उसकी पत्नी है और वह उस अपराधी को दण्डित भी करती है, | भी उसके साथ गयी। ब्राह्मण स्नान करने के बाद सूर्य पर उस अपराधी के शरीर के ऊपर ही उसका अधिकार | के सामने खड़े होकर जल समर्पण करने लगा और मुख है-भावों के ऊपर उसका अधिकार नहीं है। भावों के | से उच्चारण करने लगा- 'जय हर हर महादेव, जय ऊपर अधिकार चलानेवाला कौन है? भावों के ऊपर | हर हर महादेव, और मन में है सो है ही।' 'जय हर अधिकार चलानेवाला एक ही है और वह है 'आणिवक | हर महादेव' तो समझ में आ गया पर मन में है सो शक्ति' जिसे कर्म कहते हैं। वह कर्म आपके चारों ओर | तो है ही सूत्र समझ में नहीं आया। पास ही स्नान करते ही रहता है, सी.आई.डी. के गुप्तचरों के समान। गुप्तचर | हुये एक मित्र ने पूछा कि- भैया, आज आपने सूत्र बदल छिपे-छिपे हर कार्य को देखा करते हैं और जहाँ कहीं दिया, क्या बात है? कुछ खास नहीं भाई, मैं प्रतिदिन 'भी आपका स्खलन देखने में आया, तो आपको पकड़ | जय हर हर गंगे, हर हर गंगे कहता था, किन्तु आज लेते हैं। इसी प्रकार ज्यों ही आत्मा के अन्दर कोई भाव | मेरी पत्नी भी साथ में आयी है, पत्नी का नाम गंगा उठा, त्यों ही वह कर्म अपने आपको (आपके साथ)| है, इसलिये आज कैसे कहूँ? अतः आज मैं कह रहा बाँध देता है, कर्म आपके प्रत्येक प्रदेश पर अपना अधिकार | हूँ 'जय हर हर महादेव और मन में है सो है ही।' जमा लेते हैं, आप फिर किसी भी प्रकार से बाहर नहीं इस प्रकार आप लोग भी राजकीयसत्ता से कहते । सकते. एक भावदण्ड है और दसरा द्रव्यदण्ड। मात्र हैं कि भई हम तो चोरी नहीं करेंगे. पर करे बिना भी वर्तमान में सांसारिक जेल में न जाना पड़े, इसके लिये | नहीं रहें, क्योंकि 'मन में है सो है ही' भगवान् जानते इस प्रकार के भावों से जब बचेंगे, तब वास्तविक रूप हैं आपकी स्थिति को, आपकी इस लीला को किस से उस चौर्यकार्य से बचेंगे और तभी साहूकार कहलायेंगे।| प्रकार हृदय में घटाटोप हो रहा है। बाहर से तो आपने उस साहूकारों का मजा भी आपको तभी मिल पायेगा। चोरी करना छोड़ दिया, बहुत अच्छा किया, पर अब आचार्य प्रश्न पूछते हैं कि- यहाँ पर भी और | अन्दर से भी छोड़ना आवश्यक है। अभी तक आप आगे भी इस बंध के माध्यम से दुःख-पीड़ा का अनुभव | लोगों ने छोड़ा थोड़े ही है। हम दूसरे पदार्थ का ग्रहण करना पड़ता है। ऐसा कौन-सा विद्वान् होगा जो कि राग- | कर भी नहीं सकते। अतः ऐसी स्थिति में उसका विमोचन द्वेष, मोह-मद करके, दूसरों को, पर को, अपने अन्दर | भी नहीं कर सकते, ऐसी धारणा बन गई है लोगों की। में रखने का भाव करके, बन्धन को सहर्ष स्वीकार करेगा? | पर जब वस्तु का परिणमन जानने में आ जायेगा, तब कोई नहीं है, इसका तात्पर्य यह हुआ कि विद्वान् तो | आप लोगों को विदित होगा कि वस्तुतः हम किसी को इस प्रकार के कार्य नहीं करेगा। ग्रहण नहीं कर सकते, किन्तु भावों के माध्यम से ग्रहण आप बाहर से बच रहे हैं और सत्ता भी बचने | किया जाता है। के लिये बाध्य कर रही है आप लोगों को, किन्तु आप जिस समय हम भावों का निर्माण करते हैं, उसी पगडण्डी तो ढूँढ ही लेते हैं, इसलिये आप चोरी से | समय जो हमारा कर्म सिद्धान्त है, उसके अनुरूप कार्य जून-जुलाई 2008 जिनभाषित 5 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुआ करता है, और वह एक बंधन हो जाता है। उस | वह लुटती चली जायेगी और हम उसको लुटाते चले बंधन को हम लोग नहीं समझ पाते, इसलिये हम अपने | जायेंगे। फलतः अपराधी बनते रहेंगे, दरिद्र बनते रहेंगे, आपको स्वतन्त्र अनुभव करना प्रारम्भ कर देते हैं, किन्तु | दीन बनते रहेंगे और भटकते रहेंगे। ध्यान रहे, राजकीय जब वह वचन से व काय से क्रियान्वित हो जाता है, सत्ता के माध्यम से जो चोर सिद्ध किया गया है, उस तब सोचते हैं कि कहीं जेल में बन्द न हो जायें। | चोर की व्यवस्था राजकीय सत्ता करती है और करती 'राजकीयसत्ता वह सत्ता है जो आपके शरीर व | आयी है, वह कम से कम दो समय खाना खिलाती वचन पर नियंत्रण रखती है और कर्मसिद्धान्त वह सत्ता | है। मैं पूछता हूँ कि इस (देह की) कारा में जो अनादि है जो आपके भावों के बारे में देखती रहती है।' इस काल से आत्मा बैठा है, इसके लिये क्या कोई ऐसी प्रकार आत्मा को इन दो सत्ताओं के बीच में रहकर | सत्ता है जो खाना खिला रही हो, पिला रही हो, अपनी अपने आप को सही-सही साहूकार स्थापित करना है। खुराक दे रही हो? आत्मा को इस कारा से निवृत्त करने जो ऐसा कर रहा है वह जिनेन्द्र भगवान् के मार्ग का | का प्रयास करें। महाराज! इसके लिये वकील भी तो प्रभावक है और साथ में अपनी आत्मा का भी उत्थान | चाहिये, फिर इसके लिये कोई कोर्ट भी तो चाहिये। कर रहा है। बाहर व आभ्यन्तर ये दोनों कार्य अनिवार्य | हाँ, आप वकील के माध्यम से इस कारा से तो छूट हैं। जब बाहर से भी जेल जाने से नहीं बच पाते तो, | सकते हो, सच-झूठ बोलकर छूट सकते हो, क्योंकि बहुमत ऐसी स्थिति में अन्दर क्या होगा? जब तक अन्दर नहीं का जमाना है, बहुमत हो जाये तो छूट जायेंगे और घूसखोरी पहुँचगे, तब तक हमारी निधि क्या है? यह आप लोगों | हो जायेगी तो छूट जायेंगे, किन्तु यहाँ पर कोई वकालत को विदित नहीं होगा। करनेवाला नहीं है, स्वयं चोर को वकालत करना स्वीकार एक व्यक्ति, जानता है कि कर्मसिद्धान्त क्या है | करना होगा। और किस प्रकार मुझे आचरण करना है, किन्तु वस्तुस्थिति वह आगे के लिये जब यह स्वीकृति ले लेता न समझने का परिणाम है कि वह इन दोनों सत्ताओं | है, अपनी आत्मा से कि मैं अब चोरी नहीं करूँगा, (राजकीय काम, कर्म) का उल्लघंन कर देता है। तब तक यह छोड़ा नहीं जायेगा। 'छूटे भव-भव जेल', राजकीयसत्ता कानून के अनुरूप आपको कुछ समय के | भव-भव में जो परिभ्रमण करना पड़ रहा है वह जेल लिए या आजीवन जेल में रख सकती है, किन्तु वह है, विस्तृत जेल। एक संकीर्ण, जेल हुआ करती है और कर्मसिद्धान्त? वहाँ पर भी कारा है? हाँ, वहाँ पर भी | एक विस्तृत जेल। विस्तृत जेल में घूमने के लिये भी कारा है और यहाँ पर भी कारा है। जहाँ कहीं मलिन- | कुछ सुविधायें होती हैं, किन्तु रहेगा तो जेल में ही। भाव हैं वहीं पर कारा है और कारा में रहनेवाला व्यक्ति | ये चार प्रकार की गतियाँ, चार प्रकार के भव क्या जेल कौन होता है चोर? हाँ तो आप लोग भी कारा में हैं। नहीं है? हम इस देहरूपी जेल में चोर के रूप में बैठकर एक व्यक्ति ने कहा कि- महाराज! जयपुर आये | भी दूसरे जेलवाले व्यक्तियों को (राजकीय सत्ता वाले हैं, तो एक प्रवचन कारागृह में भी दें, तो अच्छा होगा। कैदियों) जो कैदी हैं, उनको यदि उपदेश दें, तो एक तो क्या यह कारा नहीं है? संसार भी तो कारा है, यह | चोर दूसरे चोर को कभी डाँट नहीं सकता। चोर-चोर देह भी तो एक कारा है, जो व्यक्ति इसको कारा नहीं | को उपदेश नहीं दे सकता। वह कह सकता है कि समझता वह व्यक्ति महान भल में है। मैं कैसे कहँ कि आपसे अधिक शद्धता पवित्रता मेरे पास है, इसलिये मैं जेल में नहीं हूँ, क्योंकि यह देह भी तो जेल है, | उपदेश की कोई आवश्यकता नहीं हैं। कारा है। आप मात्र राजकीय सत्ता जेल को ही जेल हम अनादिकाल से अपराध करते आ रहे हैं, मानते हैं किन्तु वस्तुत: आत्मा के लिये विपरीत परिणमन | छूटने के भाव तो आज तक किसी ने किया ही नहीं। ही जेल है और हमारी वस्तु है 'आत्मतत्त्व', उसका प्रत्येक समय गलितयाँ होती चली जा रही हैं, अपराध जो विपरीत विरूप परिणमन है, वही हम लोगों के लिये होता चला जा रहा है और स्थिति यह बन गयी है कि जेल बना हुआ है। वह सत्ता (आत्मा) हमें दिख नहीं| हम अपने आपको अपराधी हैं कि नहीं यह तक नहीं पा रही और जब तक देखने में नहीं आयेगी, तब तक | समझ पा रहे। इसमें एक कारण है कि जब तक अपराधी 6 जून-जुलाई 2008 जिनभाषित Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक रहता है, तब तक वह अनुभव करता है कि- | समझना आवश्यक है और आचार्य समझा रहे हैं- यह हाँ मैं अपराधी हूँ, मैंने अपराध किया है, मैं उसका | प्रयास करें कि यह जेल छूटे। हे प्रभु! हमारा यह जेल यह दण्ड भोग रहा हूँ। जब अपराधियों की संख्या बढ़ | कब छटेगा? जाती है, तो फिर उसमें भी एक प्रकार का मजा आना | आप खुश हैं, हँसते हैं कि हम तो जेल में हैं प्रारम्भ हो जाता है, कुछ समय पूर्व सुना था कि सत्याग्रह | ही नहीं और जो दूसरे (लौकिक) जेल में हैं, उनको करनेवाले चलाकर अपने आप को जेल में प्रविष्ट करा | देखकर हँसते हैं। पर बन्धुओ! यह जेल-जेल नहीं है, रहे हैं। केवल एक-दो व्यक्तियों को जेल में बंद करते, | वह तो नकली, दिखावटी जेल है क्योंकि उसके परिणाम तो कोई जाने की होड़ नहीं करता, पर सब जा रहे | तो अभी भी स्वतन्त्र हैं, वह भाव के माध्यम से अभी हैं, तो शेष लोग सोचते हैं कि चलो वहाँ पर विशेष | भी चोरी कर रहा है। जेल में रहते हुये भी वह भावों प्रबन्ध होगा। बहुमत के कारण हम अपने अपराध को | के माध्यम से अपराधी है, उस जेल में मात्र शरीर के भूलते जा रहे हैं, एक दूसरे के साथी बनते चले जा | ऊपर अधिकार हुआ है, मात्र शरीर बंधन में है, किन्तु रहे हैं। वह आत्मा अभी भी स्वतन्त्र नहीं है। इस शरीर को कारा समझो। यहाँ पर आप (शरीर- पराई वस्तु पर दृष्टि जाये भले ही, किन्तु वह वाले) बहुमत या बहुसंख्यक होने से 'स्वतन्त्रता का | दृष्टि पकड़ने की नहीं होनी चाहिए। आचार्य कुन्दकुन्द अनुभव कर रहे हैं। मुक्त जीवों की संख्या व संसारी | कहते हैं कि दूसरे को पकड़ने के भाव ही नरक व जीवों की तुलना की जाये, तो संसारी जीवों की संख्या | दुःख हैं। जितना आप देखेंगे- जानेंगे उतना सुख व आनन्द अधिक होगी। अतः साहूकार वे हैं कि आप हैं? सत्य | बढ़ता जायेगा। विश्व को जानेगा तो और ज्यादा बढ़ेगा, की परिभाषा बहुमत के माध्यम से नहीं होती, साहूकार | इतना कि जिसकी कोई सीमा नहीं रहेगी, अनन्त जिसका की परिभाषा बहुमत के माध्यम से नहीं बनती, एक | कोई अन्त नहीं, जिसका कोई छोर नहीं, जिसका कभी *के माध्यम से भी नहीं बनती, अपितु सत्य की परिभाषा | अभाव नहीं, जिसमें किसी प्रकार की कमी नही आ भावों के ऊपर निर्धारित है। अतः अहर्निश अपने परिणामों | सकती, ऐसा है वह अनन्त सुख। वह सुख कौन प्राप्त को सुधारने का प्रयास करना चाहिये। लौकिक सत्ता के | कर सकता है? उस सुख को वही प्राप्त कर सकता माध्यम से जो कुछ भी हमारी स्थिति सुधरती है उससे | है, जो अपने आपको जितना जानेगा, जितना देखेगा। किन्तु इंकार नहीं है, बाहरी स्थिति का कोई निषेध नहीं है, | कैसे देखेगा? कैसे जानेगा? कैसे पहचानेगा? अपने आप किन्तु इतना सा ही हम लोगों का धर्म नहीं है। इसके | में होगा, तब अपने ऊपर अधिकार रखेगा, तब पहचानेगा, माध्यम से हम लोग एक ही भव में कुछ समय के | जानेगा, देखेगा।। लिये आनन्द देख सकते हैं, सुख देख सकते हैं, यश- 'सकल ज्ञेय ज्ञायक, तदपि निजानन्द रस लीन' ख्याति मिल सकती है, किन्तु जो विकारी परिणति है,| विश्व को जाना, विश्व के ज्ञेयरूप पदार्थ को उस परिणति को हटाये बिना हम भव-भव में आनन्द | पहचाना, देखा, किन्तु आनन्द की अनुभूति विश्व मे नहीं की अनुभूति नहीं कर सकते। जब यह भव-भ्रमण नहीं| अपितु-'निजानन्द रसलीन' आप लोग सकल ज्ञेय ज्ञायक रहेगा तब आनन्द की अनुभूति होना प्रारम्भ हो जायेगी। तो हैं ही नहीं, आपका ज्ञेय शकल है- शकल का अर्थ आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि चोर वह है जो है टुकड़े, शकल का अर्थ है ऊपर का आकार इतना 'पर' वस्तु का ग्रहण करने का संकल्प करता है, चाहे | ही आप जानते हैं। आपका ज्ञान इतना सीमित है कि उसका संकल्प पूर्ण हो या न हो, उसके विचार साकार | मात्र शकल को देख सकता हैहों या न हों, वह वस्तुस्थिति को समझ नहीं रहा, इसलिये 'सकल ज्ञेय ज्ञायक तदपि, धनानन्द रस लीन' उसके विचार साकर नहीं होंगे कि- मैं इसको ग्रहण आप दूसरे पदार्थ में लीन हैं और समझ रहे हैं कि करूँ मैं उसको ग्रहण करूँ। प्रत्येक पदार्थ का अस्तित्व | बहुत सुखी हो गये हैं, 'हम बहुत सन्तुष्ट हैं', बिल्कुल भिन्न-भिन्न है और उस अस्तित्व के ऊपर हमारा कोई | रामराज्य चल रहा है, भले ही अन्दर रावण का ताण्डव अधिकार नहीं जम सकता, संसारीप्राणी के लिये यह | नृत्य हो रहा हो, पर बाहर से तो राम-राज्य चल रहा है। जून-जुलाई 2008 जिनभाषित 7 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह वस्तुस्थिति के विपरीत श्रद्धान है। इसी से । हैं कि (सिद्धान्त में भी) हम चोर नहीं हैं, क्योंकि यह कहते हैं कि हमारी आत्मा लुटती जा रही है, सत्ता का | सब कर्म की देन है। आत्मा तो साहूकार है, ज्ञायक विनाश होता चला जा रहा है, क्योंकि वहाँ पर सत्य | है, शुद्ध पिण्ड, उसमें किसी प्रकार से पर का सद्भाव का अभाव है। जो सत्य का अनुपालन करेगा वह स्तेय | नहीं है और उसका पर में सद्भाव नहीं है, यह त्रैकालिक कर्म को नहीं अपनायेगा और जो स्तेय कर्म को अपनायेगा, | सत्य है। इस एक सूत्र को लेकर बैठ गये और अंधाधुंध वह सत्य का अनुपालन नहीं करेगा। यद्यपि इस वृतान्त | चोरी भी करते हैं और बोलते हैं कि जो कुछ होता में लौकिकता आ सकती है, किन्तु उस लौकिकता के | है, वह कर्म की देन है, आत्मा बिल्कुल अस्पृष्ट है, माध्यम से उसे सिद्धान्त की ओर भी ग्रहण कर सकते | असंपृक्त है, आत्मा अपने से अन्य है, पर से अन्य हैं। है, पर का अपने में अपने का पर में किसी भी प्रकार __एक व्यक्ति रोगी था, रोग शरीर के अन्य किसी | से समावेश नहीं है। प्रत्येक के क्षेत्र भिन्न, प्रत्येक के अंग में नहीं था, बल्कि मस्तिष्क में था। उसे बहुत | काल भिन्न, प्रत्येक के द्रव्य भिन्न, प्रत्येक के स्वभाव नींद से पीड़ा थी। इलाज के लिये उसने बहुत सारा | | भिन्न, सब भिन्न-भिन्न हैं, इस प्रकार माननेवाले हैं। पैसा चोरी करके, अन्याय करके, एकत्रित किया और | क्या यह भाव सच्चाईयुक्त है? यह एक प्रकार से कायरता अस्पताल में भरती हो गया। जब उसके मस्तिष्क का | है। एक प्रकार से पुरुषार्थ-विमुख होना है। ऑपरेशन ठीक-ठीक हो चुका, डॉक्टर ने अच्छा ऑपरेशन | ये डॉक्टर व रोगी दोनों अपने से भिन्न हैं, 'पर' किया, शल्य चिकित्सा अच्छी हई। इतना सब होने के में उनका जीवन चल रहा है। इस प्रकार का जीवन उपरान्त उसका एक मित्र आया और पूछा कि- क्यों | तो तिर्यंचों में भी होता है। गाय, भैंस, कुत्ते, भी अपना भैया! ठीक हो! उसने उत्तर दिया- हाँ, पहले से बहुत | जीवन व्यतीत करते रहते हैं। मात्र जीवन को चलाना अच्छा हूँ, बहुत आराम है। कुछ दिन पश्चात् डॉक्टर | नहीं है, जीवन अपने आप अनाहत चल रहा है। जीवन कहता है कि एक गलती हो गयी, हमने ऑपरेशन तो को उन्नति की ओर बढ़ाने को ही मानवजीवन की सफलता कर दिया, पर मस्तिष्क को अपने स्थान पर नहीं रखा, | कहते हैं। साफल्य के अभाव में इस जीव को दुःख वह बाहर ही मेज पर रह गया। रोगी कहता है कि | का अनुभव करना पड़ रहा है, फिर भी इसकी खुराक कोई बात नहीं है, चिन्ता मत करो, क्योंकि में राजकीय | कुछ अलग है, उन्नति की खुराक कुछ अलग हुआ नौकरी करता हूँ। वहाँ बिना मस्तिष्क के भी काम चल | करती है। उन्नति के लिये कुछ प्रयास करना चाहिए। जायेगा।' इस दृष्टान्त को सुनकर मैंने सोचा कि इसमें | वह सत्य और 'अचोर्य' उन्नति की खुराक है जीवन कोई सन्देह नहीं है कि हम सत्य को पा सकते हैं, | की खुराक नहीं है। जीवन तो असत्य के साथ भी चल पर चोरी क्या है ये भी हमको पता नहीं है, फिर भी | सकता है, जीवन चोरी के साथ भी चल सकता है, हम दावा कर देते हैं कि हम चोर नहीं हैं। वे दोनों किन्तु वह जीवन, जीवन नहीं कहलायेगा, वह भटकन (डॉक्टर व मरीज) ही चोर हैं क्योंकि वह डॉक्टर भी | है। आप लोगों का भी यह जीवन, जीवन नहीं भटकन राजकीय सेवा में है, वह भी अपना कार्य सुचारु रूप है क्योंकि सत्य के साथ, अचौर्य के साथ आपका संयोग से नहीं करता। उसको जो एम.बी.बी.एस. की उपाधि | नहीं है। तो फिर क्या करें हम? करने के लिये मैं क्या मिली है, वह कभी भी समाप्त होनेवाली नहीं है। इसलिये | कहूँ? आपको यदि उन्नति चाहिये, विकास चाहिये, उत्थान व आजीवन डॉक्टर है, यह सिद्ध हो ही गया और रोगी | चाहिये अपनी आत्मा का, तो आपको वीतरागता की भी राजकीय सेवा में है, वह भी सोचता है कि मुझे | अनुभूति करनी होगी, चाहे आज करो या कल, वीतरागता किसी प्रकार भी राजसत्ता निकाल तो सकती नहीं है, | की अनुभूति किये बिना आप सर्वज्ञत्व को प्राप्त नहीं अब तो मैं पेंशन लेकर ही निकलूँगा। इसलिये दोनों | कर सकते और सर्वज्ञत्व के बिना अनन्त सुख का अनुभव को कार्य करने की कोई आवश्यकता नहीं है। ऐसी | नहीं कर सकते, संसार का अभाव नहीं हो सकता। परिस्थति में हम साहूकार हैं, सत्य हैं, कैसे कहते हैं? इस अनादिकालीन पीड़ा को मिटाना है। पीड़ा यह तो लौकिक बात है। इसी प्रकार हम समझ लेते | यह नहीं है कि भूख लग गई है, पीड़ा यह नहीं है । 8 जून-जुलाई 2008 जिनभाषित - Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कि हमको धन नही मिला, वस्तुतः पीड़ा यह है कि | बनेगा जब तक कि अपने संस्कारों को पूर्ण रूप से हमारा ज्ञान अधूरा है, जबकि हम समझ रहे हैं कि हम | मिटा नहीं पायेगा। 'आप चोर से नहीं, चौर्य भाव से पूर्ण हैं। नफरत कीजिये, पापी से नहीं, पाप से घृणा कीजिये।' चोरी को तो आप छोड़ सकते हैं, किन्तु चोरी | पापी से मत पाप से, घृणा करो अयि आर्य। क्या है. पहले यह समझना परमावश्यक है। प्रत्येक व्यक्ति। नर से नारायण बनो, समयोचित कर कार्य। समझता है कि मैं साहूकार हूँ। क्या चोरी के त्याग का अनादिकालीन चोरी का कार्य उसने किया (जीव संकल्प लिया है? नहीं, आवश्यकता भी क्या है? हाँ | ने) इसमें तो कोई सन्देह नहीं है, फिर भी वह त्रैकालिक मन कह रहा है कि त्याग मत कर। इस सिद्धान्त को | संभव नहीं है कि जिसने आज तक चोरी की है, वह समझिये। अनादिकाल से यह परम्परा चल रही है. यह आगे भी चोरी का ही कार्य करता रहे। अज्ञान दशा कोई नवीन परम्परा नहीं है, इस पर कुठाराघात करने | में की है, कोई बात नहीं, किन्तु अब तो आँखें खुल के लिये आप उद्यत हो जाओ। यह व्रत एक बार में | गयीं, अब तो नींद खुल गयी, अब तो दृष्टि मिल गयी पूर्ण नहीं होगा, यह भी ध्यान रखना। इस पर बार- | कि मेरा क्या कर्त्तव्य है? मुझे क्या करना है? जिस व्यक्ति बार कुल्हाड़ियों से प्रहार करना आवश्यक है और जोर | को यह विदित हुआ, वह व्यक्ति स्वयंकृत अनर्थ को के साथ प्रहार करने की आवश्यकता है। पूरा दम लगाकर | अनर्थ समझकर छोड़ देगा। उसको ऐसा ज्ञान मिला है, पटको उसके ऊपर कुल्हाड़ा तभी वह जड़ / मूल से | इसलिये अब चोरी से भी निवृत्ति लेनी है, किन्तु चोर कट सकता है, क्योंकि यह बहुत दिन का संस्कार है। से नहीं। वह चोर तब तक ही है, जब तक कि चोरी पर के ऊपर ग्रहणभाव को लेकर जो हमारी दृष्टि करता है। चोरी छोड़ देंगे तो साहूकार बन जायेंगे। हुई है, उसको आप एक साथ नहीं छोड़ सकेंगे, पर आप संसारी कब तक कहलायेंगे? जब तक ये छोड़े बिना भी निस्तार नहीं है। तो क्या ये सब के सब | कार्य करते रहेंगे, जब इनको छोड़ देंगे तो मुक्त कहलायेंगे, 'चोर सिद्ध हो गये और यह चोर बाजार? मुझे ऐसा लगता | भगवान् कहलायेंगे, आप किसी को चोर मत कहिये। है कि वर्तमान में इसलिए भगवान् महावीर यहाँ पर | आचार्य कुन्द-कुन्द ने कहा है कि जिस व्यक्ति को आपने नहीं हैं क्योंकि एक चोरबाजार में यदि कोई साहूकार | 'चोर' कहकर पुकारा वह व्यक्ति चोर है, आप बरसों हो भी, तो उस साहूकार को भी चोर की ही उपाधि | तक उसे ऐसे ही पुकारते रहेंगे, तो ऐसी स्थिति में वह मिलेगी।' समझ लेगा कि मैं तो चोर हूँ ही, अब चोरी करने का प्रत्येक व्यक्ति पर को चोर सिद्ध करता है और | भाव छूटे कैसे? इसलिये यदि चोर की चोरी छुड़ानी स्वयं को साहूकार सिद्ध करता है। 'चोर-चोर को डाँट | है, तो उसे चोर मत कहो, उसे समझाओं कि आपको नहीं सकता।' हाँ, एक चोर अपनी चोरी की गलती को यह कार्य ठीक नहीं है, आपका कर्तव्य तो अचौर्य हे, पहचान करके उसको यदि छोड़ने का प्रयास कर रहा | तो अपने आप चोरी का त्याग हो जायेगा किन्तु हम है, तो अब वह चोर नहीं है यह ध्यान रखना। आचार्य | तो डाँटते हैं दूसरों को कि तुम तो चोर हो, तुमको मालूम कहते हैं कि जिस समय जीव के चोरी के भाव रहते | नहीं कि 'भगवान् महावीर का सिद्धान्त क्या है? प्रत्येक हैं, उसी समय जीव को चोर कहा जाता है, जिस समय | समय भावों का परिणमन हो रहा है। वर्तमान में भूत भाव नहीं हैं, किन्तु चोरी छोड़ने के भाव हैं, उस समय | का भी अभाव है और भविष्य का भी अभाव है।' साहूकार कहा जाता है, साहूकार कहा क्या जाता है, | जब चोर को इस प्रकार डाँटा जा रहा है, तो वह इस वह साहूकार है ही। समय चोरी के भाव नहीं छोड़ सकता, बल्कि आगे जाकर जो व्यक्ति अनागत में भी चोरी करना चाहते हैं, और भी बड़ा चोर बन सकता है। उसे सिद्धान्त समझाओ वे साहूकार न बनें हैं, न बनेंगे। अतीत में तो वह साहूकार | कि यह चोरी ठीक नहीं है। था ही नहीं, इसको तो वह मंजूर कर लेता है और आप आत्मा को ठीक नहीं मान रहे, किन्तु आत्मा आगे के लिये वह प्रायश्चित करने को तैयार हो जाता | तो ठीक है, आत्मा का परिणमन ठीक नहीं है, वह है, तो वह साहूकार बन सकता है, किन्तु तब तक नहीं | पापमय है। इसलिये भगवान् महावीर ने किसी को भी जून-जुलाई 2008 जिनभाषित 9 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोर नहीं कहा, अपितु प्रत्येक व्यक्ति को कहा है कि । वे ही राजा, वही पतिदेव, वही तो है सब कुछ, पर प्रत्येक व्यक्ति मे प्रभुत्व छिपा है, जैसा मैं उज्ज्वल हूँ, | ये सब को छोड़ आये हैं। खैर कोई बात नहीं, जीवित . वैसे ही आप भी उज्ज्वल हैं, मात्र एक राग का आवरण | तो हैं, यही बहुत अच्छा है। माँ सोचती है मेरा लड़का है। वह (आत्मा) मणि है, रत्न है, हीरा है, किन्तु स्फटिक | अच्छा कार्य कर रहा है और वह माँ प्रणिपात हो जाती मणि धूल में गिरी हुई है, उसे धूल से बाहर उठा दो | है चरणों में, पत्नी भी प्रणिपात हो जाती है। मुनि महाराज वह चमकती हुई नजर आयेगी। इसीलिये किसी को | ने सब आगन्तुकों को समान दृष्टि से देखा। परिवारजनों चोर मत कहो। दूसरी बात यह है कि हमारा अधिकार | में अब एक और इच्छा हो गयी कि अब ये बोलेंगे ही क्या है दूसरे को चोर कहने का , जब तक हम | कुछ, मुख खोलेंगे। पर वे बोले नहीं, अब मात्र निहारना स्वयं साहूकार नहीं बनेंगे, तब तक दूसरे को चोर सिद्ध रह गया था। उन लोगों ने सोचा कि कोई बात नहीं, करने का क्या अधिकार? तब यह सारी लौकिक व्यवस्था | मौन होगा। ऐसा विचार कर वे 'नमोऽस्तु' कहकर वापिस फेल हो जायेगी। मैं फेल करने के लिये नहीं कह रहा | चलने को उद्यत हुये। पर आगे रास्ता बहुत विकट और हूँ बल्कि अपने आपको पूर्ण साहूकार सिद्ध करने के धुंधला-धुंधला सा दिख रहा था। माँ बोली- महाराज! लिये कह रहा हूँ। आप पूर्ण साहूकार बनो। बाहर से | आप मोक्षमार्ग के नेता हैं, 'मोक्षमार्गस्यनेतारं', मोक्षमार्ग तो आप साहूकार बन जाते हो, किन्तु अन्दर आत्मा में | को बतानेवाले हैं, तो संसार-मार्ग तो बता ही दीजिये, घटाटोप है चोरीपन का। केवल यह बता दें कि यह रास्ता ठीक रहेगा कि नहीं? ___जब यह रहस्य एक राजा को विदित हुआ, तो | महाराज क्या कहें? दुविधा में पड़ गये। महाराज मौन वह राजा अपनी सारी सम्पदा व परिवार को छोड़कर | ही रहे। माँ बोली-महाराज! मौन हो तो सिर्फ इशारा जंगल का रास्ता ले लेता है। किसी से कुछ नहीं बोलता, ही कर दो। महाराज अचल बैठे रहे। मौन मुद्रा देखकर बस कदम आगे बढ़ते चले गये जंगल की ओर, भयानक | माँ ने सोचा कोई बात नहीं, यही मार्ग ठीक दिखता जंगल की ओर जहाँ निर्जन... तो है ही, साथ ही पाशविकता | है, चलो इधर ही चलें और वे चले गये। कुछ दूर । भी बहुत है, जहाँ हिंसक पशुओं का राज्य है, वे वहाँ बढ़ने के उपरान्त एक चुंगी-चौकी थी, वह डाकुओं के पर चले गये और आत्मलीन हो गये, इतने लीन हो | रहने का स्थान बन गया था। रास्ते में जो कोई भी आता गये कि अपने आपको भी भूलते चले गये। जो ग्रहण | था, वे उसे लूट लेते थे। उन राज परिवारवालों को देखकर का भाव था मन में, वह तो सब राजकीय सत्ता में डाकुओं ने कहा कि जो कुछ भी तुम्हारे पास है, वह छोड़कर आ गये थे, अब असंपृक्त हैं। बहुत दिन व्यतीत रखते जाओ। वह माँ, पत्नी, लड़का, सभी दंग रह गये, हो गये, तब परिवार के लोगों में उनके दर्शन करने | घबरा गये। माँ बोली- ओफ ओह! अन्याय हो गया। के भाव जागृत हुये और वे चल पड़े उन्हें ढूँढने। चलते- | अब यह पृथ्वी टिक नहीं सकेगी, अब इसकी गति चलते आगे रास्ता बहुत संकीर्ण होता गया, इतना संकीर्ण | पाताल की ओर हो जायेगी, यह आसमान फट जायेगा। कि मात्र पगडण्डी के अलावा कुछ था ही नहीं, बहुत | अब जीवन में न्याय ही न रहा। अब कहीं भी धर्म विकट, पर दर्शन तो करने हैं। माँ कहती है कि मेरा | नहीं मिलेगा। अब कहीं भी शरण नहीं है। हमने तो बेटा कितना सकमार था? आज तो उसके दर्शन करना सोचा था- हमारा लडका तीन लोक का नाथ बनने जा है। पत्नी सोचती है कि आज मुझे अपने पतिदेव के | रहा है, वह मार्ग प्रशस्त करेगा, आदर्श मार्ग प्रस्तुत करेगा, दर्शन करने हैं। अभी उसकी दृष्टि में वे पतिदेव ही दयाभाव दिखायेगा, पर वह इतना निर्दयी निकला कि थे, मुनि महाराज नहीं थे। सब चले जा रहे हैं, क्योंकि | यह भी न कहा कि इस रास्ते से मत जाओ, आगे डाकुओं संकल्प कर लिया है कि आज तो दर्शन करना ही है। का दल है। ओफ ओह, काहे का धर्म, काहे का कर्म? बढ़े चले जा रहे थे सब, आगे रास्ते में दो मार्ग थे, धिक्कार है उस बच्चे को। अब भी बच्चा कह रही अब किधर बढ़े? एक मार्ग पर चल पड़े, चलते-चलते | है, मुनि महाराज नहीं कह रही है। अभी लड़का है, मिल गये मुनि महाराज! देखते ही बहुत उल्लास हुआ। ज्ञान तो है नहीं, उसे तो यह भी मालूम नहीं कि दया बीते दिनों की स्मृति हो आई। पत्नी सोचती है कि देखो | करनी चाहिए। दयाभाव जिसके पास नहीं है, वह क्या । 10 जून-जुलाई 2008 जिनभाषित Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीन लोक का नाथ बनेगा? जो अपनी माँ को भी, जिसने | में परिणत करा देता है, इसमें कोई संदेह नहीं है। वह नौ माह तक अपनी कोख में रखा. प्रसति-पीडा सहन | पाँच सौ डाकुओं को लेकर मनिराज के पास चला जाता की और जन्म दिया, बहुत सारी रातें बिना नींद के काटी, है और नतमस्तक हो जाता है, 'बस मुझे भी अपना इतने उपकारों का उसने कछ भी प्रतिदान नहीं दिया।| चेला बना लीजिये और उन डाकुओं का, एक साथ जिसने माँ के ऊपर थोड़ी सी भी एहसान की बुद्धि, | उनके चरणों में समर्पण हो गया।' करुणा बुद्धि नहीं रखी, वह क्या तीन लोक के ऊपर डाकू व लड़ाकू बहुत किस्म के हुआ करते हैं, करुणा कर सकता है? यह बात सत्य है कि संसार | किन्तु जब वे रहस्य को समझ लेते हैं, तो उस डाकूपन में कोई किसी का नहीं है। वह सरदार सुनता है और को छोड़ देते हैं और वह माँ, जो बहुत धार्मिक बातें शिष्यों से कहता है- इसे मत छेड़ो। इसकी बातें सुनने | सुनती थी, सोचती है कि मुनिराज की दृष्टि में सब दो। जब वह सुनाना बन्द कर देती है, तब वह सरदार समान थे। यदि वे उस समय मुझे रास्ता बता पूछता है कि माँ तू क्या कह रही है? ये अभिशाप ये पाँच सौ मनुष्य (डाकुओं का दल) दिगम्बरी दीक्षा किसको दे रही है? माँ कहती है- मैं आपके लिये | नहीं ले सकते थे। नहीं कह रही थी, मैं तो उसके लिये कर रही हूँ, उसको | उनका वह मौन, उनकी वह समता क्या दया का दुत्कार रही हूँ, जिसको मैंने जन्म दिया है। इसलिये | निषेध कर रही थी? क्या क्रूरता का समर्थन कर रही अपने जीवन को भी धिक्कारती हूँ। सरदार ने कहा- | थी? नहीं, वह क्रूरता का समर्थन था, न किसी का पर यहाँ तो कोई है ही नहीं, तुम कह किसके लिये | आदर भाव, अपितु वह समता मुझे तो वस्तुस्थिति बता रही हो? माँ कहती है- यहाँ से कुछ दूर बैठा है न रही थी। वह नग्न। वही था मेरा लड़का, अब मै लड़का भी सर्वार्थसिद्धि में आचार्य श्री पूज्यपाद लिखते हैं नहीं कह सकती, वह बहुत दुष्ट है। घर छोड़कर यहाँ | कि वह नग्न दिगम्बर मुद्रा ही पर्याप्त है विश्व के लिये, भाग आया। जब तक घर पर था, प्रजा की रक्षा करता | वह सही-सही रास्ता बता सकती है, किन्तु उस नग्न था, यहाँ पर आ गया तो माँ को भी भूल गया, माँ | मुद्रा में समता की छटायें अवश्य आनी चाहिये। चोर के ऊपर थोड़ी सी भी उपकार की दृष्टि नहीं की, एक | व साहूकार सब के प्रति समान भाव जागृत होना चाहिए। बोल तक नहीं बोला वह। सरदार ने कहा- समझ गया | अन्दर वही आत्मा है, वही चेतन है, वही सत्ता है, जो हम पाँच सौ डाकू भी अभी उसी रास्ते आये थे, उसके | भगवान् के समान है, यह ऊपर का आवरण उतर जाये पास कुछ नहीं मिला, तो उसको पत्थर मारकर, नंगा| तो अन्दर वही आत्मा है। राख में छिपी हुई, राख में कह कर चले आये। उस समय भी उसके मुख से | दबी हुई ज्वाला के समान, बाहर राख है किन्तु उसको वचन नहीं निकले थे। माँ ने कहा-अच्छा! उस समय | फूंक मार दो, अन्दर वही उजाला, वही उष्णता है जो भी कुछ नहीं बोला, आपके साथ भी इसी प्रकार का | तीन लोक को प्रकाशित कर सकती है, वैकारिक परिणामों व्यवहार किया? सरदार बोला- मुझे तो वह बहुत पहुँचा | को समाप्त कर सकती है। समझने की बात यह है हुआ व्यक्ति दीख रहा है, क्योंकि माँ को समझ करके | कि यह हुई 'उन मुनिराज की समता, माँ की ममता माँ के लिये कुछ भी नहीं कहा। हमने गाली दी थी, और उन डाकुओं की क्षमता, जिन्होंने अपने जीवन भर पर आपने तो प्रणाम किया था उनके चरणों में, फिर के लिये डाकूपन की तिलांजलि दे दी।' भी हमारे लिये कोई अभिशाप नहीं था और आपके| अब मैं आपसे पूछना चाहूँगा कि इन सामने बैठे लये कोई वरदान नहीं। ऐसे व्यक्ति का मैं अवश्य दर्शन | डाकुओं का आत्म-समर्पण कब होगा? एक भवन में करूँगा। यह कहकर वह सरदार पहले माँ के चरण | रहकर भी डाकू बन रहा है और एक जंगल में रहकर छू लेता है। धन्य हो माँ! जो तुम्हारी कोख से इस प्रकार | भी डाकूपन छोड़ देता है। मैं किसको कहूँ डाकू, किसको का पुत्ररत्न उत्पन्न हुआ, जिस व्यक्ति की दृष्टि में संसार | कहूँ लड़ाकू और किसको कहूँ आत्मदृष्टि रखनेवाला समान है। जिस व्यक्ति की दृष्टि में समानता आ जाती | व्यक्ति? मैं कुछ भी नहीं कर सकता, किन्तु मात्र एक है, वह व्यक्ति सामनेवाले वैषम्य को भी श्रद्धा के रूप | सूचना तो आप लोगों को दे सकता हूँ कि यह संसार जून-जुलाई 2008 जिनभाषित || Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असार है, इसमें जब तक समता की दृष्टि नहीं आयेगी । करके प्रत्येक व्यक्ति कुछ आदर्श धारण कर सके। इसमें बन्धुओ, हमारे सामने चाहे महावीर भगवान् भी आ जायें तो भी हम उनको पहचान नहीं पायेंगे, क्योंकि राग की दृष्टि, द्वेष की दृष्टि वीतरागता को ग्रहण नहीं कर सकती, उसकी दृष्टि में वीतरागता भी राग है और जिस व्यक्ति की दृष्टि वीतराग बन गई उस व्यक्ति की दृष्टि में राग भी वीतरागता में ढल जाता है। कोई सन्देह नहीं कि इसके लिये पुरुषार्थ आपेक्षित है इसके लिये त्याग आपेक्षित है, इसके लिये सहिष्णुता की आवश्यकता है, संयम व तप की आवश्यकता है, किन्तु लक्ष्य हो वीतराग-दृष्टि का । यह है अस्तेय महाव्रत जिसमें चोर को चोर भी नहीं कहा। आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि जो चोर को चोर कहता है, वह भी बड़ा चोर है। साहूकारी सिखाना ही एक मात्र अचौर्य महाव्रत है संसारी जीव यद्यपि पतित है, पावन नहीं है, लेकिन पावन बनने की क्षमता रखता है, जिससे हमारे में इतनी सहिष्णुता आ जाये कि चोर को भी चोर न कहें, डाँटे नहीं, किन्तु डाँटते हुये भी उसे साहूकार बनने का शिक्षण तो दें ही। आप डॉयरेक्ट डाँटने न लग जायें, वह समता दृष्टि अपने अन्दर आ जाये, जिससे हमारी परिणति उज्ज्वल हो, हमारी परिणति इतनी सुन्दर हो कि जगत् को भी वह सुन्दर बना सके और उस सुन्दरता का दिग्दर्शन एक परिवार में तीन ही सदस्य थे पति-पत्नी और उन का एक बेटा । जवान होने पर धूमधाम से बेटे का विवाह कर दिया गया। बहू घर में आई । वह देखने में बहुत सुंदर थी । बोलती भी बहुत मीठा थी, पर अपढ़ थी। अपढ़ ही नहीं, ना समझ भी थी । अनपढ़ बहू और शिक्षित सास एक दिन पड़ौस में किसी के यहाँ मौत हो गयी थी । सास किसी कार्य में व्यस्त थी । उसने बहू को भेजा वहाँ सान्त्वना देने के लिए। बहू वहाँ गयी और शाब्दिक सान्त्वना देकर आ गई। उसने न दुःख व्यक्त किया और न वह रोई । सास ने कहा / समझाया कि वहाँ रोना आवश्यक था बहू । योग की बात है अचानक दूसरे ही दिन पड़ौस के एक अन्य घर में पुत्र का जन्म हुआ । सास ने फिर बहू को वहाँ भेजा । सास के बताये अनुसार वहाँ पहुँच बहू ने रोना शुरू कर दिया। कुछ देर रोती रही। पश्चात् अपने घर लौट आई। घर लौटी तो सास के पूछने पर उसने सास को बताया कि आपके कहे अनुसार मैंने वहाँ जाते ही रोना शुरु कर दिया था । 12 जून - जुलाई 2008 जिनभाषित निन्दा करे स्तुति करे तलवार मारे, या आरती मणिमयी सहसा उतारे । साधु तथापि मन में समभाव धारे, बैरी सहोदर जिन्हें इक सार सारे ॥ भगवान् महावीर स्वामी की जय ! 'चरण आचरण की ओर' से साभार सास ने बहू को फिर समझाया 'क्या करती हो? बहू वहाँ तो तुझे प्रसन्न होकर गीत गाना चाहिए था, अब आगे ध्यान रखना।' बहू ने सास की यह बात भी बड़े ध्यान से सुनी। फिर एक दिन की बात है, वह बहू ऐसे घर में गयी जहाँ आग लग गई थी । उसने सास के कहे अनुसार वहाँ गीत गाये और प्रसन्नता व्यक्त की । अनपढ़ बहू के समयोचित कार्य न करने से उसके कार्यों की सभी ने निंदा की। वह सर्वत्र हँसी की पात्र बनी। आवश्यक कार्यों को समयोचित करने के लिये बुद्धिमत्ता आवश्यक है। विवेक और बुद्धि के अभाव में ऐसी ही दशा हर अज्ञानी की है। आवश्यक कार्य करना नहीं और वासना का दास बना रहता है। आवश्यक कार्य है- मन और इन्द्रियों को समय पर ( विषयों के आधीन होते समय ) वश में करना । जो ऐसा नहीं करते, महर्षि उनके क्रिया कलाप देखकर हँसते हैं। संकलन- सुशीला पाटनी आर. के. हाऊस, मदनगंज- किशनगढ़ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केरल में जैन धर्म मुनि श्री अभयसागर जी ( आचार्य श्री विद्यासागर जी - संघस्थ ) भारतीय संस्कृति की अभिवृद्धि में जैन संस्कृति । पूजा-अर्चना सम्पन्न हो रही है, कुछ बसदि (जिन मंदिर) का बहुमूल्य योगदान प्राचीन काल से ही रहा है। मंदिर, जीर्ण-शीर्ण हो चुके हैं। किन्हीं में से प्रतिमाएँ स्थानान्तरित मूर्ति, स्थापत्यकला आदि के सर्वांगीण विकास में जैनश्रमण होकर म्यूजियम में स्थापित की जा चुकी हैं, तो कुछ परम्परा का प्रभूत स्थान / योगदान है । तत्सम्बन्धी प्रमाण श्वेताम्बर एवं जैनेतर धर्मावलम्बियों द्वारा परिवर्तित हो कश्मीर से केरल तक आज भी उपलब्ध हैं। सुदूर दक्षिण चुके हैं। इन सभी मंदिरों के विस्तृत परिचय प्राप्ति हेतु स्थित केरल प्रान्त में समय-समय पर श्रमणपरम्परा के उक्त दोनों पुस्तकें अवलोकनीय हैं। द्वारा स्थापित बस्ती (मंदिर) अनेक स्थानों पर अवस्थित हैं और अनेक स्थलों पर स्थापित होने के प्रमाण दानशासन रूप शिलालेखों पर उत्कीर्णत हैं। केरल प्रान्त में जैन बसदि ( मन्दिरों) की अवस्थिति (A) कासरगोडे (Kasaragode, पिन कोड - 670121 ) जिले में स्थित जैन मन्दिर 1. चतुर्मुख बसदि, भंग्रमंजेश्वर (मेंगलूर- कर्नाटक से 25 कि.मी. दक्षिण में ) । 'केरल में जैनधर्म : एक अध्ययन' (केरलदल्ली जैनधर्म : वन्दु अध्ययन) कन्नड़ भाषा की (डॉ. पी. डी. पद्मकुमार वी.व्ही.एससी., ए.एच., एम.ए. जैनालॉजी एण्ड प्राकृत, निवृत्तमान निदेशक पशु वैद्य सेवा इलाके, नं. 1476, 'तीर्थंकर', सी एण्ड डी ब्लाक, पूर्णहष्टि रोड, कुवेम्पुनगर, मैसूर 570023, कर्नाटक, फोन- 08212541672, मो. 098459-30542, प्रकाशक- कनगिरि प्रकाशन, कनकगिरि - 571 128, जिला- चामराज नगर, कर्नाटक, प्रथम संस्करण-2006 मूल्य-75/- पृ. 8+72+12) पुस्तक में प्राचीन समय में अनेक राजवंशों, श्रावकों आदि द्वारा स्थापित मंदिर, मूर्तियों आदि सम्बन्धी विस्तृत परिचयात्मक एवं गवेषणामूलक जानकारियाँ संकलित हैं । इसी प्रकार से 'Jainism In Kerala' नामक अँग्रेजी भाषा में व्ही. व्ही. जिनेन्द्र प्रसाद, वायनाड, केरल (मो. 09447849518) द्वारा सन् 2002 में प्रकाशित एक अन्य पुस्तक में भी एतद्-विषयक परिचय के सूत्र प्राप्त होते हैं। डॉ. पी. डी. पद्मकुमार द्वारा 33 कन्नड़ व 46 अँग्रेजी सन्दर्भ-पुस्तकों के आधार से लिखित उक्त पुस्तक में 15 स्थानों पर अवस्थित जिनमंदिर एवं उनमें स्थापित जिनबिम्बों के चित्रों का अवलोकन करने से यह भलीभाँति विदित होता है कि केरल प्रान्त में आज भी जैनधर्म के उपासक श्रावकों द्वारा जिनसंस्कृति के गौरव को सुरक्षित रखा गया है। केरल प्रान्त के वर्तमान 14 जिलों में से 8 जिलों में तथा तमिलनाडु प्रान्त के कन्याकुमारी जिले में, जो पूर्व में कभी केरल स्टेट से सम्बद्ध था, ऐसे कुल 9 जिलों में 33 जैन मंदिरों के उल्लेख मिलते हैं। उनमें से कुछ में वर्तमान में जैन श्रावकों द्वारा विधिवत् 2. पार्श्वनाथ स्वामी बसदि, मंजेश्वर (Manjeshwar 670 323) यह मंजेश्वर से आधा कि. मी. पर जीर्ण अवस्था में स्थित है । कन्नूर ( Kannur - 670001 / कण्णानूरCannaanare ) जिले में स्थित जैन मंदिर तलक्काउ बसदि । 4. 5. तिरुक्कुन्नावे जैन बसदि (वर्तमान में शिवालय ) । (C) वयनाड ( Wayanad) जिले में स्थित जैन मंदिर अनन्तनाथ स्वामी बसदि, वरदूरु (Varaduru ) 6. सुलतान बत्तेरी बसदि, किडंगनाडु (Kidanganadu) यडक्कल गुहान्तर देवालय (सुलतान बत्तेरी बसदि के निकट, अम्बडवायल रोड, यडक्कल गुड्डे Yadakkala Gudde ) | 7. 8. • चन्द्रनाथ बसदि, (पनमरम् नदी के पास) पुत्तंगाडी (Puttungadi)। 9. आदीश्वर स्वामी बसदि मानन्दवाडी (Manandwadi)। आदीश्वर स्वामी बसदि, (मानन्दवाडी से 8 कि.मी. दूर), पुतियडम । ( Putiyadam) 10. शान्तिनाथ बसदि, बेण्णगुडु (Bennagudu) कम्बका मार्केट से 8 कि.मी. दूर, जैन स्ट्रीट । 11. पार्श्वनाथ स्वामी बसदि, पालुकुन्नू (Palukunnu)। यह अंजुकुन्नू से 6 कि. मी. पर मानन्दवाडी कलवेट्टा मेन रोड पर है। पार्श्वनाथ स्वामी बसदि, अंजुकुन्नू (Anjukunnu)। जून - जुलाई 2008 जिनभाषित 13 (B) 3. Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. अनन्तनाथ स्वामी बसदि, अनन्तकृष्णपुरम्, । (F) त्रिचूर जिला (Thrissur- 680 020) पुडियारमल अध्यक्ष- एम. पी. वीरेन्द्रकुमार, (पूर्व | 23. चन्द्रप्रभस्वामी बसदि, पेरुवासेरी (वर्तमान में दुर्गा । केन्द्रीय मंत्री)। मंदिर के रूप में स्थित)। सांसद- कालीकट, जनता दल - एस., 27 केनिंग | 24. भरत स्वामी बसदि, इरिन्जालकुड (Irinjalakudaलेन, नई दिल्ली-1100031 680 121) वर्तमान में परिवर्तित होकर अयप्पाफोन- (011-24672324,23715386, मो. 98681- स्वामी-मंदिर के रूप में। 80585,98470-60703)। (G) यरनाकुलम् जिला स्थानीय पता- आनन्द मन्दिरम, पुल्लियामाला, नार्थ | 25. कल्लिल्ल भगवती क्षेत्र (पूर्व में दिगम्बर जैन क्षेत्र, केलपट्टा, वायनाड, केरल फोन- (04936) 202484, जहाँ हिन्दू भी पूजा हेतु आते थे। वर्तमान में (0495) 2301393। ___ श्वेताम्बर मंदिर)। 13. कन्नडी बसदि (सुन्दर काँच का मंदिर), क्वट्टमण्ड। | 26. पुगनूरुगिरि धाम। 14. चन्द्रनाथगिरि बसदि, कलबेटा नगर के पास, | 27. मट्टानचेरि बसदि। मैलाडीपार। (H) इडुक्की जिला 15. तिरुनैल्ली देवालय (वर्तमान में विष्णु मंदिर)। | 28. त्रिमूर्ति बेट्ट । (D) कोजीकोड जिला (Kozhikode- 673001/(I) कन्याकुमारी जिला (Kanyakumari- 629702, Kalicut) Tamilnadu) 16. पुन्नवयल्ल कोट्टम, कोडंगलूर- Kodangalur से नोट- पूर्व में यह जिला केरल स्टेट के अन्तर्गत ____ 5 मील दूर, वर्तमान में मूर्तियाँ म्यूजियम में स्थित। था। वर्तमान में यह तमिलनाडु राज्य के अन्तर्गत 17. श्वेताम्बर जैन बसदि, पुन्नवयल्ल कोट्टम्, पूर्व में दिगम्बर जैन मंदिर, वर्तमान में परिवर्तित होकर 29. नागराज स्वामी क्षेत्र, नागरकोइल 16वीं शताब्दी श्वेताम्बर जैन मंदिर। ___ के पश्चात् हिन्दू मंदिर में परिवर्तित। (E) पालकाड जिला (Palakkad- 678 001) 30. क्व टुरु जैन बसदि। 18. चिम्बचाल जैन बसदि (आलत्थूर-Alathur- 31. तिरुकारन्नत्तूमलै। 678541के निकट)। 32. चित्तराल भगवती देवालय, चित्तराल, तालुका19. पल्लीकुलम् परम्बुविन बसदि (चिम्बचाल जैन विलवन्नकोडु। ___बसदि से 7 कि. मी. पर जीर्ण-शीर्ण अवस्था 33. सुचीन्द्र क्षेत्र (1008 खंबेवाला जैन मंदिर 13 वीं में स्थित)। शती तक, अब भगवती मंदिर के रूप में शैव 20. चन्द्रनाथ बसदि, जैन मेडू, पालकाट के निकट, ./वैष्णव मंदिर के रूप में प्रसिद्ध)। चिम्बचाल बसदि से 22 कि.मी. पर स्थित। इन जिलों के अतिरिक्त केरल राज्य के कोट्टायम्, 21. आलथूर जैन बसदि (गोदापुरम् मन्दिर), आलथूर- | आलप्पुड, पत्तनंत्तिट, कोल्लम् एवं तिरुवनन्तपुरम् जिले Alathur- 6785411 भी हैं, किन्तु उनमें जैन मंदिर नहीं हैं। 22. ईश्वरन्नकोडु बसदि, वर्तमान में शेक्यीयार भगवती प्रस्तुति-पवन कुमार जैन मंदिर के रूप में। पालकाड-Palakkad से 18 ___नागपुर (महाराष्ट्र) कि. मी.। 'श्रुताराधना' प्रकाशित गतवर्ष कुण्डलपुर में सम्पन्न श्रुताराधना शिविर में प. पू. आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज द्वारा विद्वद्वर्ग को प्रदत समाधानपरक उद्बोधनों की पुस्तक "श्रुताराधना" प्रकाशित हो गई है। स्वाध्यायशील बंधु अपना पता लिखकर पुस्तक मँगवा लेवें। __मूलचन्द लुहाड़िया, जयपुर रोड, पो. मदनगंज-किशनगढ़ (राजस्थान) 305801 14 जून-जुलाई 2008 जिनभाषित Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन स्थिर करने का उपाय : स्वाध्यायः परमं तपः आर्यिका श्री सुप्रभावती जी (आर्यिका इन्दुमती जी संघस्था) विश्व के सारे प्राणी शांति और सुख चाहते हैं। "सुष्ठु प्रज्ञातिशयार्थं, प्रशस्ताध्यवसायार्थं, परमरात-दिन शांति की खोज में लगे हुये हैं, लेकिन इस | संवेगार्थं, तपोवृद्ध्यर्थं अतिचारविशुद्ध्यर्थं अधीयते वैज्ञानिक युग में मानव का जीवन यंत्र के समान बन ह्यात्मतत्त्वं जिन-वचने इति वा स्वाध्यायः" बुद्धि बढाने रहा है। एक क्षणमात्र भी शांति नहीं। वास्तविक शांति- | के लिये, प्रशस्त व्यवसाय के लिये. परमसंवेग के लिये. अशांति का स्रोत स्थिर-अस्थिर चित्त में है, मनोमर्कट | तपवृद्धि के लिये आत्मतत्त्व का या जिनवचन का अध्ययन को वश में करने के लिए इस काल में स्वाध्याय के | करना स्वाध्याय कहलाता है। बराबर दूसरा कोई तप नहीं। अध्यात्म-उन्नति का साधन | स्वाध्याय का महत्व एक स्वाध्याय ही है, इससे वस्तुस्वरूप की प्राप्ति होती स्वाध्यायेन समं किंचिन्न कर्मक्षपणं क्षम, है, उसी तरह आत्मानुभूति की प्राप्ति होती है। यस्य संयोगमात्रेण नरो मुच्यते कर्मणा। __ अस्थिर मन अशांति का कारण है, मन की अशांति प्रशस्ताध्यवसायस्य स्वाध्यायो वृद्धिकारणम्, से व्यावहारिक कार्य में भी सफलता नहीं मिलती। अतः तेनेह प्राणिनां निन्द्यं संचितं कर्म नश्यति॥ अशान्त मन शास्त्राभ्यास से स्थिर होगा ऐसा आत्मानु- | संचित कर्मों का नाश स्वाध्याय से होता है। शासन में कहा है स्वाध्याय रत्नत्रय का मूल है अनेकान्तात्मार्थप्रसवफलभारातिविनते, स्वाध्यायाज्जायते ज्ञानं ज्ञानात्तत्त्वार्थसंग्रहः। वचःपर्णाकीर्णे विपुलनयशाखाशतयुते। तत्त्वार्थसंग्रहादेव श्रद्धानं तत्त्वगोचरम्॥ समुत्तुंगे सम्यक्प्रततमतिमूले प्रतिदिनं, तन्मध्यैकगतं पूतं तदाराधनलक्षणम। श्रुतस्कंधे श्रीमान् रमयतु मनोमर्कटममुम्॥ चारित्रं जायते तस्मिन्त्रयीमूलमथ मतम्॥ अनेकांतात्मक फलफूल के भार से अत्यन्त झुके (सिद्धान्तसार, अ. ११-२१,२२) हुये, स्याद्वादरूपी पत्तों से व्याप्त विपुलनयरूपी सैकड़ों 'स्वाध्याय से ज्ञान होता है, ज्ञान से जीवादि तत्त्वों शाखाओं युक्त, अत्यन्त विस्तृत श्रुतस्कंध में अपने मन | का संग्रह होता है, तत्त्वसंग्रह से श्रद्धान होता है, ज्ञान रूपी बन्दर को रमाना चाहिए। होता है, ज्ञान से चारित्र होता है।' स्वाध्याय संसारसमुद्र सत्प्ररूपणा (षट्खण्डागम) में श्लोक नं. ४७ में | पार करने के लिए निश्छिद्र नौका के समान है, कषायरूपी आचार्यों ने कहा ही है कि जिन्होंने सिद्धान्त का उत्तम | अटवी को जलाने के लिए दावानल है, स्वानुभूतिरूप प्रकार से अभ्यास किया है, ऐसे पुरुषों का ज्ञान सूर्य | समुद्र की वृद्धि के लिए पूर्णिमा का चन्द्रमा है। जिनसूत्र की किरणों के समान-निर्मल होता है, और जिन्होंने अपने | पढ़ने से मानव के हृदय में सम्यग्ज्ञानरूपी सूर्य का उदय चित्त को स्वाधीन किया है, वह चंद्रमा के समान उज्ज्वल | होता है, जिससे मिथ्यात्वरूपी अन्धकार नष्ट हो जाता होता है और परमागम के अभ्यास से मेरु के समान | है। स्व-पर भेदरूपी विज्ञान सर्वत्र फैल जाता है, जिससे निष्कम्प अनुपम सम्यग्दर्शन भी होता है। भव्यजन का चित्तकमल विकसित होता है। बुद्धि का फल आत्महित है, स्वाध्याय से आत्महित इस कलिकाल में जहाँ प्रत्येक मानव अन्न का होता है, निरन्तर भटकनेवाला मन स्वाध्याय से स्थिर कीट बना हुआ है, अन्न को ही अपना प्राण मान रहा होता है। है, ऐसे जीवों का कल्याण करने के लिए स्वाध्याय ही 'स्वाध्याय' - 'स्व' अर्थात अपने स्वरूप का परम तप है यह बुद्धिवन्त आचार्यों का कथन है, क्योंकि अध्ययन करना या 'सु' सम्यक् रीत्या 'आ' समन्तात् | जिनको रात-दिन का भेद नहीं, हेयोपादेय का ज्ञान नहीं, अधीयते इति स्वाध्यायः। जिनकी शुद्धाशुद्ध की भावना दूर हुई, मिला सो खाया, जब चाहे जैसा-जो मिला पिया, उनके विचारों में किसी जून-जुलाई 2008 जिनभाषित 15 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकार का भेदभाव नहीं रहा, पंचेन्द्रिय विषयों की वासना। स्वाध्याय का फल या उनकी पूर्ति में अपना अमूल्य जीवन समर्पण करते| स्वाध्याय के परोक्ष और प्रत्यक्ष के भेद से दो हैं। उन जीवों के उद्धार के लिए स्वाध्याय को तप कहा| प्रकार के फल होते हैं। उनमें भी प्रत्यक्ष फल साक्षात् है। केवल तप ही नहीं, परम तप कहा है। और परम्परा के भेद से दो प्रकार का है। अज्ञान का कर्ममूलनाशक विनाश, ज्ञानरूपी दिवाकर की उत्पत्ति, देव और मनुष्यादि तपस्याभ्यन्तरे बाह्ये स्थिते द्वादश तपाः, के द्वारा निरन्तर अनेक प्रकार से की जाने वाली अभ्यर्थना .. स्वाध्यायेन समं नास्ति न भूतो न भविष्यति॥ और प्रत्येक समय में होनेवाली असंख्यातगुणी रूप से बह्वीभिर्भवकोटीभिः व्रताद्यत्कर्म नश्यति, कर्मों की निर्जरा इसे साक्षात् फल कहते हैं। प्राणिनः तत्क्षणादेव स्वाध्यायात् कथितं बुधैः॥ शिष्य-प्रशिष्यों आदि के द्वारा की जाने वाली निरन्तर 'कर्मक्षय के लिए स्वाध्याय के समान कोई अन्य | अनेक प्रकार की पूजा परम्पराफल है। तप समर्थ नहीं, स्वाध्याय के संयोग मात्र से कर्ममुक्त | परोक्षफल भी दो प्रकार है- प्रथम अभ्युदय और हो जाता है। कर्मनाश करने के लिए करोड़ों भव तक | दूसरा निःश्रेयस सुख। मनुष्य को व्रत धारण करना पड़ता है, किन्तु स्वाध्याय सातावेदनीयादि सुप्रशस्त कर्मों के तीव्र अनुभाग से वही कर्म तत्काल नष्ट होता है।' स्वाध्याय परिणाम- के उदय से प्राप्त हुआ इन्द्र, प्रतीन्द्र, दिगिन्द्र, त्रायस्त्रिंश विशुद्धि का कारण है। स्वाध्याय से पूर्वबद्ध निन्द्य कर्म व सामानिक आदि देवों का सुख तथा राजा, अधिराज, नष्ट होते हैं। महाराज, मण्डलीक, अर्धमण्डलीक, महामण्डलीक, जिण-मोहींधण-जलणो तमंधयरदिणपरओ। अर्धचक्री, चक्रवर्ती पद की प्राप्ति अभ्युदय सुख है तथा कम्ममलकलुसपुरुषो जिणवयणमियोवहि सुहयो॥ अर्हन्तपद की प्राप्ति निःश्रेयस सुख है। जिनागम मोहरूपी ईंधन को भस्म करने के लिए अतः अज्ञानरूपी अन्धकार के विनाशक, भव्यजीवों अग्नि के समान है, अज्ञानरूपी गाढ़ अन्धकार को नष्ट | के हृदय को विकसित करनेवाले तथा मोक्षपथ को करनेके लिये सर्य के समान है. द्रव्यकर्म-भावकर्म का प्रकाशित करनेवाले सिद्धान्त (आगम) को भजो अर्थात् मार्जन करने के लिये समुद्र के समान है। स्वाध्याय करो। भगवती शारदादेवी का भण्डार और उसकी ___ 'रवि शशि न हरे सो तम हराय, सो शास्त्र नमो | महिमा निराली एवं वचनातीत है। बहुप्रीति लाय।' 'आचार्य श्री धर्मसागर अभिन्नद ग्रन्थ' से साभार प्रतिष्ठाचार्य जयकुमार 'निशांत' को मातृ-शोक टीकमगढ़। देश के लब्धप्रतिष्ठ प्रतिष्ठाचार्य श्री पं. गुलाबचंद्र जैन 'पुष्प' की धर्मपत्नी एवं प्रतिष्ठाचार्य पं. जयकुमार जी निशांत टीकमगढ़ की माँ श्रीमती रामबाई जैन का ३१ मई २००८ को शाम ५ बजे धर्मध्यानपूर्वक स्वर्गवास हो गया है। १० मई १९२६ को लार में जन्मी श्रीमती रामबाई सादा जीवन उच्च विचारवाली धर्मपरायण महिला थीं। आपके पाँच पुत्र हैं- शिखरचंद्र जैन, श्री उत्तमचंद जैन, श्री राजकुमार जैन, श्री ब्र. जय निशांत जैन, डॉ. प्रदीप जैन। श्री पं. गुलाबचन्द्र 'पुष्प' जी के आवास 'पुष्प भवन' में ०३ जून को आयोजित शोकसभा में मध्यप्रदेश सरकार की ओर से म.प्र. हस्त-शिल्प निगम के अध्यक्ष श्री कपूरचंद्र घुवारा, विद्वानों की ओर से श्री पं. पवन दीवान मुरैना, श्री पं. राजेन्द्र चंदावली, श्री पं. सुरेन्द्र बड़ागाँव, युवा विद्वानों की ओर से श्री पं. सुनील 'संचय' शास्त्री, जैन मिलन की और से श्री जिनेन्द्र घुवारा, अखलेश सतभैया, पूर्व विधायक मगनलाल तथा जैन तीर्थक्षेत्र द्रोणगिरि, नैनागिरि, पपौरा, आहार जी, नवागढ़ के पदाधिकारियों ने, व अन्य सैकड़ों गणमान्य लोगों ने शोक श्रद्धांजलि अर्पित की। सुनील जैन 'संचय' 16 जून-जुलाई 2008 जिनभाषित Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धरणेन्द्र- पद्मावती प्रतिष्ठाग्रन्थों में तीर्थंकरों के चौबीस यक्ष और । धरणेन्द्र दोनों एक व्यक्ति नहीं हैं। चौबीस यक्षियों के नाम आते हैं। ये ही शासन देव- पद्मावती के विषय में विचार देवियाँ कहलाती हैं। इनमें से श्री पार्श्वनाथ स्वामी के यक्ष का नाम धरण और यक्षिणी का नाम पद्मा या पद्मावती लिखा मिलता है । ये ही वे धरणेन्द्र- पद्मावती माने जाते हैं, जो नाग-नागिन के जीव थे, अग्नि में जलते हुए जिनको भगवान् पार्श्वनाथ ने नमस्कार मन्त्र सुनाया था, जिसके प्रभाव से वे धरणेन्द्र पद्मावती हुए थे। इस प्रकार की आम धारणा जैनसमाज में चली आ रही है। किन्तु इन धरणेन्द्र - पद्मावती को अगर हम पार्श्वनाथ की यक्ष-यक्षी मान लेते हैं, तो नीचे लिखी शंकायें उठती हैं। धरणेन्द्र के विषय में शंकायें 1. धरणेन्द्र तो भवनवासी देवनिकाय के अन्तर्गत नागकुमार जाति के देवों का इन्द्र माना गया है। उसे यक्ष कैसे कहा जा सकता है? 2. चौबीस यक्षों में कोई भी यक्ष ऐसा नहीं है, जो किसी जाति के देवनिकाय का इन्द्र हो । तब यह धरण यक्ष ही नागकुमारों का इन्द्र धरणेन्द्र कैसे माना जा सकता है? 3. इन शासन देव - देवियों का कथा-चरित्र किसी भी प्रामाणिक जैन आगम में अभी तक देखने में नहीं आया है कि किस वजह से ये शासन देव - देवियाँ मानी गयी हैं? ऐसी सूरत में धरणेन्द्र और उसकी देवी को पार्श्वनाथ स्वामी के शासन देव-देवी मानकर उनकी यह कथा पार्श्वनाथ - चरित्र में बताना सन्देहजनक है। अर्थात् यह धरणेन्द्र और उसकी देवी पार्श्वनाथ की शासनदेवदेवी नहीं हैं। 4. त्रिलोकप्रज्ञप्ति (प्रथम भाग के पृष्ठ 266) में तो पार्श्वनाथ के यक्ष का नाम ही धरण न लिखकर मातंग लिखा है। इसके अलावा श्वेताम्बराचार्य हेमचन्द्र ने भी अपने बनाये अभिधानचिन्तामणि- कोश में पार्श्वनाथ के यक्ष का नाम धरण न लिखकर पार्श्वयक्ष नाम लिखा है । यही नाम पूजासार दिगम्बरग्रन्थ में भी लिखा है। यदि वास्तव में धरणेन्द्र ही पार्श्वनाथ का यक्ष होता, तो ये नाम वेदशात्रों में नहीं पाये जाते । अतः धरण और पं. मिलापचन्द्र कटारिया प्राचीन जैनसाहित्य में तो धरणेन्द्र की कोई पद्मावती नाम की देवी हुई है, ऐसा उल्लेख नहीं मिलता है । त्रिलोकप्रज्ञप्ति और त्रिलोकसार में धरणेन्द्र की अग्रदेवियों के कोई नाम ही नहीं मिलते हैं। हाँ, असुरकुमारों के इन्द्र चमर और वैरोचन की अग्रदेवियों के पाँच-पाँच नाम जरूर मिलते हैं। उन नामों में 'पद्मा नाम की अग्रमहिषी वैरोचन के बताई है। धरणेन्द्र ( नागकुमारों के इन्द्र) के नहीं बताई है। हरिवंशपुराण सर्ग 22 श्लोक 54, 55, 102 में धरणेन्द्र की देवियों के नाम दिति अदिति लिखे हैं । पद्मावती नहीं लिखा है । अकलंकाचार्य कृत राजवार्तिक में धरणेन्द्र की अग्रदेवियों की छह संख्या बताई है, पर उनके नाम नहीं लिखे हैं । आचार्य गुणभद्र कृत उत्तरपुराण के पर्व 73 श्लोक 141 मे लिखा है कि- "नाग, नागिनी मरकर नाग का जीव धरणेन्द्र और नागिनी का जीव उसकी पत्नी हुआ ।" इतना ही लिखा है । यहाँ भी पत्नी का नाम नहीं लिखा है । भगवान् पार्श्वनाथ के उपसर्ग निवारण के लिये वे आये थे, उस प्रसंग में भी उत्तरपुराण में पद्मावती नाम का उल्लेख नहीं किया गया है। यह भी नहीं कह सकते है कि संक्षिप्त कथन करने की वजह से पद्मावती का नाम नहीं लिखा गया है, क्योंकि इसी पर्व के अन्त में मंगलरूप से अनेक पद्य लिखे गये है। उनमें भी उपसर्ग-निवारण का जिक्र करते हुए आचार्य गुणभद्र ने तीन जगह " धरणेन्द्र की देवी" इतना मात्र ही लिखा है, मूलपाठ में कहीं भी पद्मावती नाम नहीं लिखा है। इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि अन्य आचार्यों की तरह गुणभद्र की दृष्टि में भी धरणेन्द्र की देवी पद्मावती नाम की नहीं थी। दूसरा नाम भी उन्होंने नहीं दिया, इससे यही मालूम पड़ता है कि गुणभद्र की परम्परा में धरणेन्द्र की देवियों के नाम विच्छेद हो चुके थे । यही कारण है, जो त्रिलोकप्रज्ञप्ति, त्रिलोकसार और राजवार्तिक में धरणेन्द्र की देवियों के नाम लिखे मिलते हैं । जून - जुलाई 2008 जिनभाषित 17 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य समंतभद्रकृत स्वयंभूस्तोत्र में भी पार्श्वनाथ । परम्परा से भी ऐसा कथन चला आ रहा हो। इन्हीं का की स्तुति में 'धरण' का तो उल्लेख है, पर पद्मावती अनुसरण बाद के कुछ ग्रंथकारों ने भी किया है। द्राविड़का नहीं है। संघ के साधुओं की गणना मठपति-साधुओं में की जाती __और तो क्या श्वेतांबराचार्य हेमचन्द्रकृत त्रिषष्टि | है। ये साधु जागीरें रखते हैं। संघभेद होने से द्राविड़संघ शलाका पुरुष चरित के पार्श्वनाथचरित्र में भी नाग- | और मूलसंघ की मान्यताओं में भी कहीं-कहीं फर्क रहता नागिनी का मरकर धरणेन्द्र और उसकी देवी होना तो | है। यही कारण है, जो द्राविड़संघी वादिराजकृत पार्श्वनाथलिखा है, पर देवी का नाम पद्मावती वहाँ भी नहीं | चरित्र का कथन मूलसंघी गुणभद्रकृत उत्तरपुराण से कहींलिखा है। कहीं मिलता नहीं है। श्री पार्श्वनाथ पर उपसर्ग करनेवाले इन सब बातों से हम इसी निष्कर्ष पर पहुँचे है | कमठ के जीव का नाम वादिराज ने भूतानन्द नाम का कि जब श्री पार्श्वनाथ स्वामी के धरण नाम के यक्ष | असुरजाति का देव लिखा है, जब कि उत्तरपुराण में को धरणेन्द्र करार दे दिया, तो उन्हीं भगवान् की यक्षिणी | संवर नामक ज्योतिषीदेव लिखा है। भूतानन्द यह नाम पद्मावती को भी धरणेन्द्र की देवी पद्मावती बना दिया | भी त्रिलोकसारादि ग्रंथों में असुरों में न लिखकर नागकुमारों है। ऐसा करते हुए यह भी नहीं सोचा कि क्या प्रत्येक | में लिखा है। तीर्थंकर की यक्ष-यक्षी का आपस में दाम्पत्यसम्बन्ध है? इस सारे ऊहापोह से यह प्रकट होता है कि श्री इसलिये न तो धारण यक्ष धरणेन्द्र है और न पद्मावती | पार्श्वनाथ स्वामी के जो यक्ष-यक्षिणी धरण और पद्मावती यक्षिणी ही धरणेन्द्र की देवी पद्मावती है। के नाम से कहे जाते हैं, वे नाग-नागिनी के जीव धरणेन्द्र ऐसा मालूम पड़ता है कि धरणेन्द्र पद्मावती की | और उसकी देवी से बिल्कुल भिन्न हैं। यानी यह धरणेन्द्र यह कल्पना मूलसंघ से भिन्न द्राविड़ादि संघ-वालों ने | और उसकी देवी जो कि नाग-नागिनी के जीव थे, पार्श्वनाथ की है। मल्लिषेण (भैरव-पद्मावती-कल्प के कर्ता),| भगवान् की शासनदेव-देवी नहीं हैं। और जहाँ इनको वादिराज (पार्श्वनाथचरित के कर्ता) जो कि द्राविड़संघी | पार्श्वनाथ की शासन देव-देवी लिखा है, वह अजीब थे, उन्होंने ऐसा कथन किया है। सम्भव है उनकी गुरु- | मेल किया है, वह कथन मूलसंघ का नहीं है। 'जैन निबन्ध रत्नावली' से साभार जैन संगठन की याचिका पर केंद्र को नोटिस | श्री वर्णी दि. जैन गुरुकुल जबलपुर का सर्वश्रेष्ठ परीक्षाफल नई दिल्ली। विश्व जैन संगठन द्वारा जैनधर्म को म.प्र. बोर्ड परीक्षा मण्डल भोपाल से मान्यता प्राप्त अल्पसंख्यक धर्म घोषित कराने के लिए दायर याचिका श्री वर्णी दिगम्बर जैन गुरुकुल उच्चतर माध्यमिक विद्यालय पर दिल्ली उच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार, चार केंद्रीय एवं छात्रावास कक्षा १०वीं एवं १२वीं वर्ष २००७-०८ मंत्रालय और राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग को नोटिस जारी का परीक्षा-परिणाम शतप्रतिशत रहा। किए हैं। संगठन के अध्यक्ष श्री संजय जैन ने कहा कि कक्षा १०वीं में छात्र पियूष जैन ने ९०प्रतिशत एवं याचिका में हमने केवल धार्मिक आधार पर अल्पसंख्यक छात्र रौशन जैन ने ८८ प्रतिशत अंक प्राप्त किये। घोषित करने की माँग की है, ताकि हम जैन तीर्थों पर इसी तरह कक्षा १२वीं में गणित विषय से छात्र हो रहे अतिक्रमण को रोक सकें, शिक्षण संस्थान के संचालन | वैभव जैन ने ७९ प्रतिशत अंक एवं प्रदीप जैन व देवेन्द्र में स्वायत्तता प्राप्त कर सकें व हजारों वर्षों से प्रचलित | जैन ने ७७ प्रतिशत अंक प्राप्त किये। इसी प्रकार कामर्स जैनधर्म की स्वतंत्र पहचान बनाए रख सकें। उन्होंने केंद्र संकाय से छात्र प्रशांत जैन ने ८१ प्रतिशत व गौरव जैन सरकार पर जैनधर्म का अस्तित्व मिटाने का आरोप लगाते ने ८० प्रतिशत अंक प्राप्त कर संस्था का नाम स्वर्ण अक्षरों हुए कहा कि जैन धर्म के प्राचीन व स्वतंत्र धर्म होने में लिख दिया। बा.ब्र. जिनेश भैया जी ने बच्चों की उज्ज्वल भविष्य के अनेक अकाट्य प्रमाण उपलब्ध हैं। इन प्रमाणों को कई राज्य सरकारों और न्यायालयों ने भी स्वीकार किया की कामना के साथ कहा कि हमारा उद्देश्य समाज के पिछड़े हुए एवं आर्थिक स्थिति से कमजोर छात्रों को उच्च है। शिक्षा प्रदान करना है। 'नवदुनिया' भोपाल, २४२ ००८ से साभार व्यवस्थापक- ब्रजेश चंदेरिया 18 जून-जुलाई 2008 जिनभाषित Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिगम्बर जैन मुनि श्री सुमेरचन्द्र जैन शास्त्री एम. ए. साहित्यरत्न, दिल्ली पाणिः पात्रं पवित्रं भ्रमणपरिगतं, भैक्षमक्षय्यमन्नं,। में प्रवचन करते हैं। यदि स्टेट के महाराज उपदेश सुनने विस्तीर्णं वस्त्रमाशादशकमचपलं, तल्पमस्वल्पमुर्वी। | के इच्छुक हों, तो यहीं पधारें। महाराज बुद्धिमान थे, येषां निःसङ्गतांगीकरणपरिणतिः, स्वात्मसंतोषिणस्ते, उन्होंने कहा मुनि- श्री! मैं तो उपदेश सुनने के लिये धन्याः सन्यस्तदैन्यव्यतिकरनिकराः कर्म निर्मूलयन्ति॥ आ सकता हूँ, पर मेरे रनवास में जो रानियाँ हैं, राज्य (भर्तृहरि-वैराग्यशतक) | कर्मचारी हैं, वे सभी नहीं आ सकते। आपके यहाँ पधारने जिनका हाथ ही पवित्र वर्तन है, भिक्षाशुद्धि से | से धर्म की प्रभावना और अहिंसात्मक विचारधारा का प्राप्त अन्न ही जिनका भोजन है, दशों दिशायें ही जिनके प्रचार होगा। आचार्य महाराज विवेकी और दूरदर्शी थे। वस्त्र हैं, सारी पृथ्वी ही जिनकी शय्या है, एकान्त में | उन्होंने नि:संकोच राजदरबार में जाना स्वीकार किया। निःसंग रहना ही जो पसन्द करते हैं, दीनता को जिन्होंने | परिणाम यह निकला कि गुजरात की अनेक स्टेटों के छोड़ दिया है तथा जो कर्मों को निर्मूल करते हैं और | राजे, राजकुंवर आदि उनके कट्टर भक्त बन गये और अपने ही में सन्तुष्ट रहते हैं, वे पुरुष धन्य हैं। उनके जन्म दिवस पर अहिंसा के नाम से अवकाश महान् अध्यात्मवेत्ता और कुशल तार्किक आचार्य | करने लगे। . अमृतचन्द्र सूरि ने पुरुषार्थसिद्ध्युपाय ग्रन्थ में बताया है भगवान् महावीर स्वामी के पश्चात् अढ़ाई हजार "जो यतिधर्म को छोड़कर प्रथम गृहस्थ धर्म का उपदेश | वर्षों के काल में दि. जैन मनि समाज का सिंहावलोकन देता है वह जिनशासन में निग्रह स्थान के योग्य है।" करें, तो विदित होगा कि जब जब हमारा साधु समाज किसी भी धर्म का प्रभाव और प्रचार जितना साधुओं प्रभाव-शाली हुअ तभी जनता की चारित्र-ज्ञान के समुज्ज्वल द्वारा हुआ है, उतना गृहस्थों द्वारा नहीं। जब हमारा साधु- प्रकाश और रत्नत्रय के प्रति श्रद्धा बढ़ती गई। भगवान् समाज वक्ता, तपोनिष्ठ, प्रभावशाली और लोक-कल्याण | महावीर के पश्चात् ६८३ वर्षों तक अंग पूर्व के ज्ञाता करने में अग्रसर रहा, तभी जिन शासन की विजय पताका होते रहे। उनके पश्चात् ११० वर्ष तक व्यवधान आ गँजती रही। आचार्य समन्तभद्र. अकलंक-देव. स्याद्राद गया। तदनन्तर अर्हनंदि जैसे युग प्रवर्तक कुशल यतीश्वर विद्यापति विद्यानंदि, वादीभसिंह जैसे यति-पुंगव रहे, तभी | हुये, जिन्होंने मुनिसंघ में साहित्यरचना के सम्बन्ध में अहिंसा और अनेकान्त की दुन्दुभि बजी। लगभग चालीस | ऐसी स्पर्धा जगाई कि जिसके फलस्वरूप एक से बढ़कर वर्ष पूर्व जब आचार्य शान्तिसागरजी महाराज का दिल्ली महान् महान् आचार्य हुये, जो नैयायिक, वाग्मी, कवि, में पदार्पण हुआ, तब दिल्ली और नई दिल्ली दोनों स्थानों तपस्वी होते हुये सिद्धान्त- विषयों के पारंगत थे। के प्रमुख बाजारों, सराकरी भवनों, और गलियों में आचार्य आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी की प्रतिभा का क्या महाराज के संघसहित फोटो खींचे गये। किसी ने यह | कहना! अध्यात्मविषयों पर उन्होंने अपूर्व वाङ्मय की चर्चा की कि आचार्य महाराज को फोटो खिंचवाने का रचना की। दि. जैनधर्म का नये रूप से उत्थान किया। बड़ा शौक है। यह चर्चा आचार्य महाराज के कानों में आचार्य उमास्वामी, समन्तभद्र, यतिवृषभ, वीरसेन, जिनसेन, पड़ी, उन्होंने कहा भाई मेरे कोई घर भी नहीं है। मैं | | अकलंक, विद्यानंदि, प्रभाचन्द्र जैसे ऋषिपुंगव हुये, जिन्होंने इन फोटुओं को कहाँ लगाऊँगा। मेरा आशय इतना ही | अपने जीवन का लक्ष्य सरस्वती की सेवा का बनाया। है कि साधु समाज पर किसी प्रकार विहार में रुकावट | ऐतिहासिक काल से ही दिगम्बरमुनि-परम्परा न पड़े। ये चित्र उसके प्रमाण स्वरूप समझे जाय। | लगातार चलती रही। जब भारत में नंदों का राज्य था, मनोज्ञ साधु, प्रभावशाली वक्ता, मुनि श्री कुन्थुसागर | वे जैनधर्म को धारण करते थे। उन्हीं नन्दों में शक नन्द जी महाराज को सुदासना स्टेट के महाराज ने राजभवन | राजा दि. जैन मुनि हो गये। मौर्य सम्राट् चन्द्रगुप्त, जीवन में प्रवचन करने के लिये आमंत्रित किया, तो मुनिश्री | के अन्तिम समय में अपने गुरु भद्रबाहु की सेवा के ने यह कहकर टाल दिया कि हम लोग आम जनता | लिये दक्षिण चले गये और वहाँ जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण जून-जुलाई 2008 जिनभाषित 19 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करके स्वर्ग को प्राप्त हुये । जब सिकन्दर ससैन्य यूनान | नक्षत्र थे। मुनि मदनकीर्ति राजा अर्जुनदेव के गुरु थे । को वापिस लौटा तो मुनि कल्याणक को भी अपने कविवर आशाधर जी ने अनेक साधुओं को जैन सिद्धान्त साथ ले गया। सुंग और आन्ध्र वंशी राजाओं में हाल में निपुण बनाया। विशालकीर्ति महाराज के शिष्य और पुलुमादि जैसे जैन राजा हुये, जिनके समय ईस्वी मदनकीर्ति मुनि - राज ने शास्त्रार्थ करके महाप्रमाणीक की पूर्व प्रथम शताब्दी में एक दिगम्बर जैनाचार्य भृगु कच्छ पदवी पाई। गुजरात के प्रसिद्ध नगर अंकलेश्वर में भूतिबलि से यूनान देश को गये । यवन छत्रप विदेशी राजाओं में और पुष्पदन्ताचार्य ने आगम ग्रन्थों की उस समय रचना मनेन्द्र ( MENADER ) नामक एक प्रसिद्ध राजा हुआ, की थी। पटना में सोलंकी सिद्धराज की सभा में दिगम्बर जिसने निर्ग्रन्थ मुनियों से धर्मतत्त्व सुना और जैनधर्म में जैनाचार्य कुमुदचन्द्र का देवसूरि श्वेताम्बराचार्य से शास्त्रार्थ दीक्षित हो गया। मथुरा में कंकाली टीले से प्राप्त अनेक प्रसिद्ध है । दिगम्बर जैनाचार्य ज्ञानभूषण जी ने दक्षिण दिगम्बरजैन मूर्तियाँ ऐसी मिली हैं, जिनके निर्माणकर्ता भारत के प्रान्तों में जैनधर्म प्रचारार्थ अनेक उपदेशकों विदेशी शक राजा हुये, जिन्होंने जैनधर्म को अंगीकार को नियुक्त कराया। इनके शिष्य श्री शुभचन्द्राचार्य हुए कर लिया था । जिन्होंने अनेक ग्रन्थों की रचना की। वे अद्वितीयवादी और और कुशल तार्किक थे। इनका सम्बन्ध दिल्ली से विशेष रहा। चन्देले राजा मदनवर्मदेव के समय में दिगम्बरमुनि-धर्म उन्नत रूप में था । तेरहवीं शताब्दी में अनन्तवीर्य नाम के आचार्य हुए। इनके उपदेश से पद्मनाभधर्मकायस्थ कवि ने यशोधरचरित्र की रचना की ! राजपूताना, मध्यप्रान्त, बंगाल आदि प्रान्तों में दि. मुनि निर्द्वन्द्व विचरण करते थे। अजमेर के चौहान राजाओं में दिगम्बर जैनधर्म का आदर था। मुनि पद्मनंदि और शुभचन्द्र के उपदेश से पृथ्वीराज और महाराजा सोमेश्वर ने बिजोलिया के पार्श्वनाथ मंदिर के लिये दो गाँव अर्पित किये । दिगम्बर जैनाचार्य श्री धर्मचन्द्र जी का महाराणा हमीर सम्मान किया करते थे । जब आठवीं शताब्दी के उपरान्त दक्षिण भारत में दिगम्बर जैनों के साथ अत्याचार होने लगे, तो उन्होंने अपना केन्द्र उत्तर भारत बनाया। राजर्षि भर्तृहरि के वैराग्यशतक, मुद्राराक्षस नाटक, गोलाध्याय आदि वैदिक ग्रन्थों में दि. धर्म की प्रशंसा और उल्लेख मिलता है। दक्षिण भारत सदैव दि. जैनधर्म का केन्द्र रहा है। भगवान् बाहुबली की मनोज्ञमूर्ति श्रमणबेलगोला, कारकल, वेणूर इसके उज्ज्वल उदाहरण हैं । दक्षिण मदुरा का मुनिसंघ प्रसिद्ध है, जिसकी उच्चकोटि की आस्था, साहित्य - निर्माण की प्रबल प्रेरणा के कारण तमिलसाहित्य विश्व का देदीप्यमान प्रेरणास्पद साहित्य है। तिरुवल्लूकर, मणिमेखला, तमिलवेद इसके उदाहरण हैं। आचार्य सिहनंदि जैसे प्रतापी मुनिराजों के आशीर्वाद से होय्यसल और गंगवंश की नींव पड़ी। विष्णुवर्धन से पराक्रमी महाराजा, चामुण्डराय जैसे प्रबल सेनापति इसके दीप्तमान् उदाहरण हैं। राजा अमोघवर्ष को जैनशासनमय बनाने का श्रेय वीरसेन भिक्षुराज खारवेल ने पुष्यमित्र को परास्त करके जब कुमारी पर्वत पर ऋषियों का महासम्मेलन किया, तो उस सम्मेलन में समस्त देश के विभिन्न भागों से हजारों मुनि - राज एकत्रित हुए। उस काल में मथुरा, उज्जैन, श्रावस्ती, राजगृह, जैनधर्म के केन्द्र थे, जहाँ साधुओं के संघ विद्यमान थे। जब सम्राट् हर्ष भारत में राज्यशासन करते थे, उस समय दिगम्बर मुनियों का सद्भाव था। राजकवि बाण ने अपने ग्रन्थों में उल्लेख किया है कि राजा जब गहन जंगल में जा पहुँचा, तो वहाँ उसने अनेक तरह के तपस्वी देखे। उनमें नग्न दिगम्बर आर्हत जैन साधु भी थे । हर्ष ने अपने महासम्मेलन में उन्हें शास्त्रार्थ के लिए बुलाया था और वे बड़ी संख्या में उपस्थित हुए। मध्यकालीन हिन्दूराज्य में दिगम्बर मुनियों का सद्भाव रहा। जैनाचार्य वप्पसूरि ने कन्नौज नरेश द्वारा सम्मान पाया । श्रावस्ती का सुहृद्ध्वज जैन नरेश था, जिसके समय में दिगम्बर मुनियों का लोक कल्याण में निरत रहना स्वाभाविक है। शौरीपुर का राजा जितशत्रु जीवन के अन्तिम समय में मुनिधर्म को अगीकार करके शान्तिकीर्ति के नाम से प्रसिद्ध हुआ । परमारवंशीय राजाओं में मुंज और भोज अत्यधिक प्रसिद्ध हैं । वे दोनों ही विद्या- रसिक थे। कवि धनपाल और उनके छोटे भाई जैनधर्म में दीक्षित हुये । ख्यातिप्राप्त आचार्य शुभचन्द्र ने भी राज्यपाट त्याग कर जैनश्वरी दीक्षा स्वीकार की । दिगम्बर जैनाचार्य अमितगति भी इसी काल में हुये। नीतिवाक्यामृत और यशोधरचरित्र जैसे विशिष्ट ग्रन्थों का निर्माण करने वाले उद्भट् विद्वान् श्री सोमदेव सूरि इसी काल में हुए। भगवान् ऋषभदेव की भक्ति से ओतप्रोत प्रखर तपस्वी मानतुंग आचार्य इसी काल के ज्योतिर्मय 20 जून - जुलाई 2008 जिनभाषित Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और जिनसेन जैसे दिग्गज महारथियों को है, जिनके उपदेश । विजयी हुए। हैदराबाद आदि मुसलिम रियासतों में मुनियों के बिहार पर प्रतिबन्ध लगा दिया। समाज के नेताओं ने मुनिधर्म का सही स्वरूप समझाकर उन अधिकारियों को उनका भक्त बना दिया। प्रतिभाशाली साधु कुन्थुसागर जी महाराज ने सुदासना, अलुआ, मणिकपुरा, सिरोही आदि रियासतों में भ्रमण करके अहिंसात्मक भावनाओं को जागृत करने में अत्यन्त गौरवशाली कार्य किया । आचार्य सुधर्मसागर जी ने सभी मुनिराजों को शिक्षण देकर सुयोग्य ज्ञानी बनाया | आचार्य महावीरसागरजी नेमिसागरजी, नमिसागर जी, आचार्य महावीर कीर्ति जी, आचार्य शिवसागरजी एवं वर्तमान साधु आ. धर्मसागरजी, आचार्यकल्प श्रुतसागर जी, आचार्य देशभूषण जी, आचार्य विमलसागर जी, परम प्रभावक मुनि विद्यानन्द जी आधुनिक मुनिमण्डल के ऐसे प्रतिनिधि हैं जिन पर सारे देश को गर्व है। ये सभी अपने प्रभाव से जनसाधारण में वीरशासन को लोकप्रिय बनाने में अग्रसर हैं। अनेक आर्यिकायें, क्षुल्लिकायें, एलक, क्षुल्लक, ब्रह्मचारी आज देश के विभिन्न भागों में विहार कर रहे हैं। इन सबके द्वारा ज्ञान और चारित्र की अपूर्व उन्नति हो रही है। के कारण महाराजा स्वयं जीवन के अन्तिम समय मुनिदीक्षा अंगीकार करते हैं। रत्न, पन्न, पोल्ल जैसे कर्नाटक साहित्य की विभूति कविरत्नों को जन्म देने का श्रेय इसी मैसूर की स्वर्णमयी भूमि को है जहाँ खानों से सोना और नगरों से अहिंसात्मक रत्नों की निधि प्रकट होती है। भगवान् महावीर स्वामी का समवशरण दक्षिण भारत पहुँचा। वहाँ का राजा जीवन्धर जैनधर्म में दीक्षित होकर मुनि हो गया । दक्षिण में मुनियों की अविच्छिन्न परम्परा सदा से चली आई है । यतीन्द्र कुन्दकुन्द, उमास्वामी, समन्तभद्र, पूज्यपाद, जैनाचार्य सिंहनंदि, जिन्होंने गंगबाड़ी का राज्य स्थापित किया, श्रीवादीभसिंह, श्रीनेमीचन्द्राचार्य, अकलंकदेव, जिनसेनाचार्य, विद्यानदि, वादिराज, देवकीर्ति, श्रुतकीर्ति, शुभचन्द्र, प्रभाचन्द्र, दामनंदि, जिनचन्द्र, यशः कीर्ति, दिवाकरनन्दी, कल्याणकीर्ति आदि दिग्गज आचार्य हुये, जो अत्यन्त प्रतिभाशाली और दिगम्बरजैनसंघ के चूड़ामणि थे। तमिलसाहित्य का निर्माण करनेवालों में वज्रनंदि, ऋषभाचार्य आदि प्रसिद्ध हैं । राज्यवंशों में कदम्ब, वादामी, राष्ट्रकूट, होय्यसल, चालुक्य, गंग आदि जो राजा हुय उनके द्वारा अनेक दिगम्बर ऋषिपुंगव सदैव सम्मानित होते । जब वर्धा के महाजन बन्धु दक्षिण भारत के पुंडकोत्तम स्टेट के दौरे पर गये, तो उन्होंने पाया कि इस छोटी रियासत में मुनियों के ऐसे केन्द्र थे, जहाँ साधु रहकर आसपास प्रचारार्थ जाते थे। मुसलमानी काल में साधुओं का सद्भाव जुगनू के प्रकाश की तरह यत्र-तत्र क्वचित् ही रहा । चारित्रचक्रवर्ती आचार्य शांतिसागरजी महाराज से ४५ वर्ष पूर्व संघभक्तशिरोमणि सेठ पूनमचन्द घासीलाल जी एवं उनके सुपुत्रों ने उत्तर भारत में पदार्पण करने तथा तीर्थराज सम्मेदशिखर की यात्रा करने की प्रार्थना की तो उन्होंने सहर्ष स्वीकार करके एक नये स्वर्णयुग का सूत्रपात किया । कविरत्न पं. भूधरदास जी जैसे मुनिभक्तों ने मुनिराजों के कभी दर्शन नहीं किये थे, तभी तो भक्ति से तन्मय होकर कहते थे- 'ते गुरु मेरे उर वसो, जे भव जलधि जहाज।' हम लोगों का तीव्र पुण्योदय है कि हमने आचार्य महाराज और उनकी तेजस्वी शिष्य परम्परा के साक्षात् दर्शन करके अपने नेत्रों को सफल किया है। वर्तमानकालीन मुनिराजों में मोरेना मुनि अनंतकीर्ति महाराज, आरा में शुभचन्द्र और शिवभूति जी, अग्नि की तीव्र ज्वाला से संतप्त होने पर भी समभाव से कष्ट सह घोरोपसर्ग आचार्य देशभूषण जी महाराज भगवान् महावीर स्वामी की २५०० वीं निर्वाण महोत्सव राष्ट्रीय कमेटी की प्रथम बैठक में पार्लियामेन्ट भवन में पधारे। उनके वक्तव्य का अच्छा प्रभाव पड़ा। अब देश के किसी भी भाग में मुनिविहार पर पाबन्दी नहीं लग सकती । आज दिगम्बर जैन साधुओं की संख्या डेढ़ सौ के लगभग होगी। कुछ लोग उनकी आलोचना करते हैं। सुधार की भावना से आलोचना करना बुरा नहीं है, परन्तु छिद्रान्वेषण करना बुरा है। हमारे साधुसमाज में कमी हो सकती है। गृहस्थ और साधु दोनों मिकर उसका निराकरण कर सकते हैं। आवश्यकता है साधु समाज में धार्मिक शिक्षण की। न्याय, व्याकरण, सिद्धान्त और अध्यात्म विषयों की उन्हें पूरी जानकारी हो । ज्ञानाराधन में उनकी रुचि जगाना हमारा प्रथम कर्त्तव्य है । इसके बिना साधु समाज में जीवन शक्ति जागृत नहीं हो सकती । 1 संघ छोटे-छोटे हों, क्योंकि बड़े संघ सभी स्थानों पर रहने में कठिनाई का कारण बन जाते हैं। छोटे संघों द्वारा विभिन्न स्थानों को अधिक लाभ हो सकता है। संघ में एक कुशल व्युत्पन्न विद्वान् अवश्य हो । नगरों की अपेक्षा देहातों में प्रचारकर्त्ता विशेष हो । अब सभी धर्मों के अनुयायी अध्यात्म और शान्तिवर्धक तत्त्वों के जून - जुलाई 2008 जिनभाषित 21 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिलाषी हैं। आवश्यकता है किसी की आलोचना न । आचार्य सोमदेव सूरि ने कहा है करके अपने अहिंसात्मक सिद्धान्तों का सरल रूप में वर्णन किया जाय । जनता पर साधुसमाज का प्रभाव पड़ता है । साधु मंगलस्वरूप हैं। आवश्यकता है वर्तमान मुनिसमाज अपने सम्मुख समन्तभद्र, अकलंक और विद्यानंदि जैसे मुनिपुंगवों का आर्दश रक्खें। ऐसे मुनिराज जहाँ पहुँचते हैं, वहीं सुभिक्ष रहता है। मुनियों का यह माहात्म्य हैपद्मिनी राजहंसाश्च, निर्ग्रन्थाश्च तपोधनाः । अतः जैसे बने मुनि धर्म की रक्षा करनी चाहिये । यं देशमुपसर्पन्ति, दुर्भिक्षं तत्र नो भवेत् ॥ | ' णमो लोए सव्व साहूणं' काले कलौ चले चित्ते, देहे चान्नादिकीटके । एतच्चित्रं यदद्यापि, जिनरूपधरा नराः ॥ इस समय कलिकाल है। सभी के चित्त चलायमान रहते हैं। शरीर अन्न का कीड़ा बन गया है। ऐसे विकट समय में नग्न दिगम्बर जिन रूप को धारण करनेवाले पुरुष हैं, यही आश्चर्य है। 'आचार्य महावीरकीर्ति स्मृतिग्रन्थ' से साभार न्यूज पाटनी जी राष्ट्रीय सुरक्षा अवार्ड से पुरस्कृत सर्विस मदनगंज - किशनगगढ़ 6 मई। राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल ने मंगलवार को नई दिल्ली के विज्ञान भवन में आयोजित एक विशेष भव्य समारोह में आर. के. मार्बल ग्रुप के चेयरमैन अशोक पाटनी को 'नेशनल सैफ्टी अवार्ड माइन्स - 06' के लब्धप्रतिष्ठ सम्मान से पुरस्कृत किया है। श्री पाटनी को आर. के. मार्बल प्रा. लि. की मोरबड़ मार्बल माइन्स में खनन-सुरक्षा के मापदण्डों की दृष्टि से किए जानेवाले सुरक्षा इन्तजामात एवं न्यूनतम दुर्घटना दर हेतु सर्वोपरि व उत्कृष्ट कार्य परिणाम दिए जाने पर उक्त राष्ट्रीय स्तर के सम्मान से नवाजा गया है। भारत सरकार के श्रम एवं रोजगार मंत्रालय से सम्बद्ध खान सुरक्षा महानिदेशालय दिल्ली की उच्च स्तरीय चयन समिति ने देश के विभिन्न भागों का दौरा करके मार्बल प्रसंस्करण व खनन को लेकर कार्य कर रहे व्यापारिक प्रतिष्ठानों के कार्य स्थल का भौतिक सर्वे व मुआयना कर वर्ष 2006 के लिए 'राष्ट्रीय सुरक्षा अवार्ड' (माइन्स) के लिए आर. के. मार्बल का चयन किया था। चयन समिति ने इसके साथ पूर्व में वर्ष 2004 के लिए भी इसी कम्पनी को सर्वोपरि करार दिया है। दोनों ही चयनित वर्षों 2004 व 2006 के तहत आर. के. मार्बल के चेयरमैन अशोक पाटनी को राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल द्वारा राष्ट्रीय स्तर के अवार्ड से पुरस्कृत व सम्मानित किए जाने पर समूचे मार्बल उद्योग व विशेषकर किशनगढ़ मार्बल सिटी में हर्ष की लहर व्याप्त है। 'दैनिक नवज्योति' अजमेर, ७ मई २००८ से साभार 22 जून - जुलाई 2008 जिनभाषित आरोन ( गुना, म.प्र.) में सम्यग्ज्ञान विद्या प्रशिक्षण शिविर का आयोजन परम पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के प्रभावक शिष्य मुनि श्री अजितसागर जी महाराज एवं ऐलक श्री विवेकानन्द सागर जी महाराज का ग्रीष्मकालीन पावन प्रवास हम आरोन नगरवासियों को मिला इस वर्ष के ग्रीष्म काल मे मुनिश्री के सान्निध्य में एवं निर्देशन में दस दिवसीय सम्यग्ज्ञान विद्या प्रशिक्षण शिविर का आयोजन १५ मई से २५ मई २००८ तक किया गया इसमें जैनसिद्धान्त प्रवेशिका के भाग १, २, ३ एवं द्रव्यसंग्रह, तत्वार्थसूत्र, पूर्वार्द्ध का अध्ययन कराया गया जिसमें ३०० शिविरार्थियों ने भाग लिया इस ग्रीष्मकाल के दौरान ७ मई को अक्षयतृतीया का कार्यक्रम एवं ११ मई २००८ को मुनिश्री जी का १०वॉ मुनिदीक्षा दिवस का भव्य आयोजन हुआ २ जून को शान्तिनाथ भगवान् का निर्वाणमहोत्सव भी मनाया गया इसी तारतम्य में ३ जून को आचार्य श्री ज्ञान सागर जी महाराज का ३७वाँ समाधि दिवस मनाया था। ८ जून को श्रुतपंचमी के दिन षटखण्डागम ग्रंथराज की भव्य पूजन एवं प्रवचन के साथ मनाया गया। १५ जून रविवार के दिन जैन समाज के प्रतीभाशाली छात्र / छात्राओं का प्रतिभा सम्मान समारोह का आयोजन किया मुनिसंघ के द्वारा ग्रीष्मकाल में प्रातः में प्रश्नोत्तर रत्नमालिका एवं छहढाला का दोपहर में स्वाध्याय कराया गया। शाम को बालसंस्कार शिक्षण का कार्यक्रम मुनिसंघ के द्वारा किया, आरोन नगर में मुनिसंघ के आने से अच्छी धर्मप्रभावना हुई। डॉ. दीपक जैन 'ब्रदर' आरोन जिला गुना (म. प्र. ) Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शन में संसार का स्वरूप ब्र. प्यारेलाल जी बड़जात्या, अजमेर भारतीय दर्शनों में सबसे अधिक प्राचीन अथ च । में मिलता है। संसार, असंसार, नोसंसार और इन तीनों अनादिनिधन जैनदर्शन है और उसके अपने मौलिक | से विलक्षण इस प्रकार चार अवस्थाएँ हैं। अनेक योनियों सिद्धान्त भी हैं, जो अन्य दर्शनों की अपेक्षा अनेक | से युक्त चारों गतियों में परिभ्रमण करना संसार है। पुनः विशेषताओं को, लिये हुए हैं। सभी भारतीय दर्शनों के | पुनः जन्म नहीं लेना अथवा शिवपद की प्राप्ति या परमसुख चिन्तन का आधार केन्द्र आत्मा रहा है। सभी दर्शनों की प्रतिष्ठा असंसार है। चतुर्गतिरूप संसारपरिभ्रमण का ने अपने-अपने ढंग से आत्मा के अस्तित्व और स्वरूप | तो निरोध हो जाता, किन्तु अभी मोक्ष की प्राप्ति नहीं का चिन्तन किया है। जैन दर्शन की चिन्तनपद्धति ही | हुई है, ऐसी जीवनमुक्त सयोगकेवली की अवस्था ईषत्संसार अपने आपमें विलक्षण है। आत्मसुख की चर्चा करते | या नोसंसार है। अयोगकेवली इन तीनों से विलक्षण हैं हुए जैनदर्शन ने एक ही बात कही है कि आत्मा अनादि- | अर्थात् इनके चतुर्गतिरूप संसारपरिभ्रमण का तथा काल से संसारपरिभ्रमण करते हुए विभिन्न प्रकार के | मुक्तावस्थारूप असंसार का तो अभाव है, किन्तु प्रदेश मानसिक, कायिक और आकस्मिक आदि अनेक दुःखों | परिस्पन्द का भी अभाव है, जो सयोग केवली में नहीं की अबाध चक्की में पिसता रहा है और अब वह दुःखों | होता, ऐसी चौथे ही प्रकार की अवस्था अयोग केवली की श्रृंखला का नाशकर सुखी होना चाहता है, तो सर्वप्रथम | के पाई जाती है। उसे इस बात की गवेषणा करनी होगी कि मेरा | पंचपरावर्तनरूप संसार संसारपरिभ्रमण किन कारणों से हो रहा है और उसका जिस संसरणरूप संसार की चर्चा ऊपर की गई अन्त किस प्रकार हो सकता है। अनादिकालीन संसारपरिभ्रमण| है वह द्रव्य. क्षेत्र. काल. भव और भावपरिवर्तन के भेद का कारण जैनाचार्यों ने मिथ्यात्व को बताया है और | से पाँच प्रकार का है। मिथ्यात्व का विरोधी सम्यक्त्व है। सम्यक्त्व जीव की| द्रव्य परिवर्तन- नोकर्म द्रव्यपरिवर्तन और कर्मद्रव्यचिन्तनधारा को समीचीनता प्रदान करता है। मिथ्यात्व | परिवर्तन के भेद से द्रव्यपरिवर्तन दो प्रकार हैके कारण जिस संसारपरिभ्रमण का कभी अन्त नहीं होता, किसी एक जीव ने तीन शरीर और छह पर्याप्तियों ऐसे अनन्तसंसार का स्वरूप एवं सम्यक्त्व के कारणभूत | के योग्य पुद्गलों को एक समय में ग्रहण किया। अनन्तर जीवादि तत्त्वों का चिन्तन ही प्रस्तुत लेख का विषय | वे पुद्गल स्निग्ध या रूक्ष स्पर्श तथा वर्ण व गन्ध आदि | के द्वारा जिस तीव्र, मन्द और मध्यमभाव से ग्रहण किय "संसरणं संसारः परिवर्तनमित्यर्थः।" "कर्मविपा- | थे, उस रूप से अवस्थित रहकर द्वितीयादि समयों में कवशादात्मनः भवान्तरावाप्तिः संसारः" अर्थात् संसरण | निर्जीर्ण हो गये। तत्पश्चात् अगृहीत परमाणुओं को करने को संसार कहते हैं, जिसका अर्थ परिवर्तन है। अनन्तबार ग्रहण करके छोड़ा, गृहीतागृहीतरूप मिश्र कर्म के विपाक वश से आत्मा को भवान्तर की प्राप्ति | परमाणुओं को अनन्तबार ग्रहण करके छोड़ा और बीच होना संसार है। अथवा जीव एक शरीर को छोड़ता है | में गृहीतपरमाणुओं को अनन्तबार ग्रहण करके छोड़ा। और दूसरे नये शरीर को ग्रहण करता है, पश्चात् उसे | तत्पश्चात् जब उसी जीव के सर्वप्रथम ग्रहण किये गये भी छोड़कर दूसरा नया शरीर धारण करता है। इस प्रकार | वे ही परमाणु उसी प्रकार से नोकर्मभाव को प्राप्त होते अनेक बार शरीर को धारण करता है और अनेक बार | हैं, तब यह सब मिलकर एक नोकर्म-द्रव्यपरिवर्तन है। उसे छोड़ता है। मिथ्यात्व-कषाय आदि से युक्त जीवका | एक जीव ने आठ प्रकार के कर्मरूप से जिन इस प्रकार अनेक शरीरों में जो संसरण (परिभ्रमण) होता| पुद्गलों को ग्रहण किया वे समयाधिक एक आवलीकाल है उसे संसार कहते हैं। के बाद द्वितीयादि समयों में निर्जीर्ण हो गये। पश्चात् आत्मा की चार अवस्थाओं का वर्णन भी जैनागम | जो क्रम नोकर्म द्रव्यपरिवर्तन में बतलाया है उसी क्रम • जून-जुलाई 2008 जिनभाषित 23 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से वे ही पुद्गल उसी प्रकार से उस जीव के, जब कर्मभाव को प्राप्त होते हैं, तब यह सब मिलकर एक कर्मद्रव्य - परिवर्तन होता है। इस प्रकार यह जीव अनन्तबार पुद्गल परिवर्तनरूप संसार में घूमता रहता है। द्रव्यपरिवर्तन में नोकर्म परिवर्तनकाल तीनप्रकार का होता है- अगृहीत ग्रहणकाल, गृहीतग्रहणकाल और मिश्रकाल । क्षेत्रपरिवर्तन- क्षेत्रपरिवर्तन के स्वक्षेत्र और परक्षेत्र परिवर्तन के भेद से दो भेद हैं कोई जीव सूक्ष्मनिगोदिया की जघन्य अवगाहना से उत्पन्न हुआ और अपनी आयुप्रमाण जीवित रहकर मर गया, फिर वही जीव प्रदेश - अधिक अवगाहना लेकर उत्पन्न हुआ। एक-एक प्रदेश अधिक की अवगाहनाओं को क्रम से धारण करते करते महामत्स्य की उत्कृष्ट अवगाहना पर्यन्त संख्यातघनांगुल प्रमाण अवगाहना के विकल्पों को वही जीव जितने समय में धारण करता है, उतने काल के समुदाय को स्वक्षेत्रपरिवर्तन कहते हैं । जिसका शरीर आकाश के सबसे कम प्रदेशों पर स्थित है, ऐसा एक सूक्ष्म निगोदलबध्यपर्याप्तकजीव लोक के आठ मध्य प्रदेशों को अपने शरीर के मध्य में करके उत्पन्न हुआ और क्षुद्रभव ग्रहणकाल तक जीवित रहकर मर गया। पश्चात् वही जीव पुनः उसी अवगाहना से वहाँ दूसरी बार उत्पन्न हुआ। इस प्रकार अंगुल के असंख्यातवें भाग में आकाश के जितने प्रदेश प्राप्त हों उतनी बार वहीं उत्पन्न हुआ । पुनः उसने आकाश का एक-एक प्रदेश बढ़ाकर सब लोक को अपना जन्मक्षेत्र बनाया। इस प्रकार वह सब मिलकर एक क्षेत्रपरिवर्तन होता है । कालपरिवर्तन- कालपरिवर्तनरूप संसार में भ्रमण करता हुआ उत्सर्पिणी- अवसर्पिणीकाल के सम्पूर्ण समयों और आवलियों में अनेकबार जन्म-मरण धारण करता है और मरता है । तद्यथा - कोई जीव उत्सर्पिणी काल के प्रथम समय में उत्पन्न हुआ और आयु के समाप्त हो जाने पर मर गया। पुनः वही जीव दूसरी उत्सर्पिणी के दूसरे समय में उत्पन्न हुआ और अपनी आयु के समाप्त होने पर मर गया। पुनः वही जीव तीसरी उत्सर्पिणी के तीसरे समय में उत्पन्न हुआ । इस प्रकार क्रम से इसने उत्सर्पिणीकाल के जितने समय हैं, उतनी बार 24 जून - जुलाई 2008 जिनभाषित उत्सर्पिणीकाल में जन्म लिया और मरण किया तथा उसी प्रकार अवसर्पिणीकाल को भी जन्म-मरण करके पूरा करता है । यह जन्म-मरण का क्रम निरन्तरता की अपेक्षा कहा गया है। यह सब मिलकर एक कालपरिवर्तन है । भवपरिवर्तन- मिथ्यात्वसंयुक्त जीव ने नरक की सबसे जघन्य आयु से लेकर उपरिम ग्रैवेयक विमान तक की आयु क्रम से अनेक बार पाकर भ्रमण किया सो भवपरिवर्तन है। इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है। कि नरकगति में सबसे जघन्य आयु दस हजार वर्ष की है। एक जीव उस आयु से वहाँ उत्पन्न हुआ पुनः घूम फिरकर उसी जघन्य आयु से वहाँ उत्पन्न हुआ। ऐसे १० हजार वर्ष के जितने समय हैं उतनी बार वहीं उत्पन्न हुआ और मर गया। इस प्रकार आयु में एक-एक समय बढ़ाकर नरक की ३३ सागर की आयु पूर्ण की। तदनन्तर नरक से निकलकर अन्तर्मुहूर्त की जघन्य आयु के साथ तिर्यञ्चगति में उत्पन्न हुआ और एक-एक समय बढ़ाते हुए इसने तिर्यञ्चगति की तीनपल्य की आयु समाप्त की। इसी प्रकार मनुष्यगति सम्बन्धी अन्तर्मुहूर्त प्रमाण जघन्य आयु से लेकर तीन पल्य प्रमाण उत्कृष्ट आयु को पूर्ण किया। देवगति में नरकगति के समान ही १० हजार वर्ष की जघन्य आयु से ३१ सागर प्रमाण उत्कृष्ट आयु पूर्ण करता है । यहाँ ३१ सागर प्रमाण उत्कृष्ट आयु पर्यन्त कहने का यही तात्पर्य है कि यह उत्कृष्ट आयु उपरिम ग्रैवेयक पर्यन्त और पंचपरावर्तनरूप संसार में भ्रमण करनेवाला जीव इससे ऊपर नवानुदिश और पंचानुत्तर विमानों में उत्पन्न होता नहीं, क्योंकि वहाँ सम्यग्दृष्टि जीव उत्पन्न होते हैं। पंचपरावर्तनरूप संसार परिभ्रमण करते हुए उपरिम ग्रैवेयक तक मिथ्यादृष्टिजीव उत्पन्न होते है । इस प्रकार यह भवपरिवर्तन का लक्षण कहा है । भावपरिवर्तन- इस जीव ने मिथ्यात्व के वशीभूत होकर प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशबन्ध के कारणभूत जितने प्रकार के परिणाम या भाव हैं उन सबका अनुभव करते हुए भावपरिवर्तनरूप संसार में अनेक बार भ्रमण किया है। पंचेन्द्रिय संज्ञी पर्याप्तक मिथ्यादृष्टि कोई एक जीव ज्ञानावरणप्रकृति की सबसे जघन्य अपने योग्य अन्तः कोड़ाकोड़ी प्रमाण स्थिति को प्राप्त होता है, उसके उस Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थिति के योग्य षट्स्थानपतित असंख्यातलोकप्रमाण | अनन्तभागवृद्धि और अनन्तगुणवृद्धि इन दो स्थानों के कम कषायाध्यवसायस्थान होते हैं और सबसे जघन्य इन | कर देने पर चारस्थान होते हैं। इसप्रकार सर्व मूल व कषायाध्यवसाय स्थानों के निमित्त से असंख्यातलोकप्रमाण | उत्तर प्रकृतियों के परिवर्तन का क्रम जानना चाहिए। यह अनुभागाध्यवसाय स्थान होते हैं। इस प्रकार सबसे | | सर्व मिलकर एक भावपरिवर्तन होता है। जघन्यस्थिति, सबसे जघन्यकषायाध्यवसायस्थान और सबसे | पंचपरावर्तन का अल्पबहुत्व जघन्य अभुभागाध्यवसायस्थान को धारण करनेवाले इस | अतीतकाल में एक जीव के सबसे कम भावपरिवर्तन जीव के तद्योग्य सबसे जघन्ययोगस्थान होता है। तत्पश्चात् | के बार होते हैं, अर्थात् सबसे कम बार भावपरिवर्तन स्थितिकषायाध्यवसायस्थान और अनुभागाध्यवसायस्थान | होता है। भवपरिवर्तन के बार भावपरिवर्तन के बारों से वही रहते हैं, किन्तु योगस्थान दूसरा हो जाता है, जो | अनन्तगुणे हैं। कालपरिवर्तन के बार भवपरिवर्तन के बारों असंख्यातभागवृद्धि संयुक्त होता है। इसप्रकार तीसरे, चौथे | से अनन्तगुणे हैं। क्षेत्रपरिवर्तन के बार कालपरिवर्तन के आदि योगस्थानों में समझना चाहिए। ये सब योगस्थान | बारों से अनन्तगुणे हैं और पुद्गलपरिवर्तन के बार चारस्थानपतित होते हैं और इनका प्रमाण श्रेणी के | क्षेत्रपरिवर्तन के बारों से अनन्तगुणे हैं। पुद्गलपरिवर्तन असंख्यातवें भाग है। तदनन्तर उसी स्थिति और उसी | का काल सबसे कम है, क्षेत्रपरिवर्तन का काल पुद्गलपरिवर्तन कषाय-अध्यवसायस्थान को धारण करनेवाले जीव के | के काल से अनन्तगुणा है। कालपरिवर्तन का काल दूसरा अनुभाग-अध्यवसायस्थान होता है, इसके योगस्थान | क्षेत्रपरिवर्तन के काल से अनन्तगुणा है। भवपरिवर्तन का पहले के समान जानना चाहिए। तात्पर्य यह कि यहाँ | काल, कालपरिवर्तन के काल से अनन्तगुणा है । भावपरिवर्तन भी पूर्वोक्त तीनों बातें ध्रुव रहती हैं, किन्तु योगस्थान | का काल भवपरिवर्तन के काल से अनन्तगुणा है। श्रेणि के असंख्यातवें भागप्रमाण होते हैं। इसप्रकार | इसप्रकार पाँच प्रकार के संसारपरावर्तन का स्वरूप असंख्यातलोकप्रमाण अनुभाग-अध्यवसायस्थानों के होने | जानकर उसके निमित्तरूप मिथ्यात्व को छोड़कर सम्यग्दर्शन तक तृतीयादि अनुभाग अध्यवसायस्थानों में जानना चाहिए। को प्राप्त करना चाहिए। सम्यग्दर्शन की महिमा गही तात्पर्य यह है कि यहाँ स्थिति और कषाय-अध्यवसान | है कि इस पंचपरावर्तनरूप अनन्तसंसार का उच्छेद हो तो जघन्य ही रहते हैं, किन्तु अनुभाग-अध्यवसायस्थान | जाता है और उसकी प्राप्ति होने के पश्चात् जीव का क्रम से असंख्यातलोकप्रमाण हो जाते हैं और एक-एक | संसारपरिभ्रमण काल अधिक से अधिक अर्द्धपुद्गलअनुभाग-अध्यवसायस्थान के प्रति जगच्छेणी के असंख्यातवें | परावर्तन-प्रमाण शेष रह जाता है। भाग प्रमाण योगस्थान होते हैं। तत्पश्चात उसी स्थिति सम्यग्दर्शन की प्राप्ति चारों गति का भव्य, संज्ञी, को प्राप्त होनेवाले जीव के दूसरा कषाय-अध्यवसास्थान | पर्याप्तक, जागृत, साकारोपयोगी जीव ही क्षयोपशम, होता है, इसके अनुभाग-अध्यवसायस्थान और योगस्थान | विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य और करणलब्धि में उत्तरोत्तर पहले के समान जानना चाहिए। इसप्रकार असंख्यात- | परिणामविशुद्धि के द्वारा मिथ्यात्वादि सप्तप्रकृतियों (मिथ्यात्व, लोकप्रमाण कषायाध्यवसायस्थानों के होने तक तृतीय | सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी क्रोध-मान-माया कषाय-अध्यवसायस्थानों में वृद्धि का क्रम जानना चाहिए। | व लोभ) का उपशम करके उपशम सम्यक्त्व को प्राप्त जिस प्रकार सबसे जघन्यस्थिति के कषायादि स्थान कहे | करता है। उपर्युक्त पांच लब्धियों में से करणलब्धि बिना हैं उसी प्रकार एक समय अधिक जघन्यस्थिति के भी | शेष चार लब्धियाँ तो अभव्यजीव के भी हो जाती हैं, कषायादिस्थान जानना चाहिए। इसप्रकार एक-एक समय | किन्तु करणलब्धि के बिना सम्यक्त्व की उत्पत्ति नहीं अधिक क्रम से तीस कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण उत्कृष्टस्थिति | हो सकती। इन पांचों लब्धियों में करणलब्धि तो अन्तरंग तक प्रत्येक स्थिति के विकल्प के भी कषायादि स्थान | कारण है और शेष लब्धियाँ बहिरंग कारण हैं, ऐसा जानने चाहिए। अनन्तभागवृद्धि आदि वृद्धि के छहस्थान, | जिनसेनाचार्य ने महापुराण में कहा है। अस्तु! तथा इसीप्रकार हानि भी छह प्रकार की है। इनमें से 'आचार्य श्री धर्मसागर अभिनन्दनग्रन्थ' से साभार जून-जुलाई 2008 जिनभाषित 25 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुन्दकुन्द की दृष्टि में असद्भूत-व्यवहारनय प्रो० रतनचन्द्र जैन अज्ञानियों में अनादिकाल से परद्रव्यों का कर्ता-। का अवयव है। आचार्य अमृतचन्द्र ने स्पष्ट शब्दों में हर्ता आदि होने का जो अध्यवसान (मिथ्या अभिप्राय)| 'जीव कर्मों से बद्ध है' ऐसा कथन करनेवाले असद्भूत है उसे आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार की | व्यवहारनय को 'श्रुतज्ञानावयवभूतयोर्व्यवहारनिश्चयनय एवं ववहारणओ पडिसिद्धो जाण णिच्छयणयेण। पक्षयोः' इन शब्दों में श्रुतज्ञान का अवयव बतलाया है। णिच्छयणयासिदा पुण मुणिणो पावंति णिव्वाणं॥| कारण यह है कि असद्भूत-व्यवहारनय निमित्त नैमित्तिकादि इस २७२वीं गाथा में व्यवहारनय संज्ञा दी है और निश्चय- | यथार्थ सम्बन्धों पर आश्रित होता है। इन सम्बन्धों के । नय के उपदेश द्वारा उसका प्रतिषेध किया है। इसलिए | आधार पर ही उसमें एक वस्तु पर दूसरी वस्तु के धर्म । कुछ आधुनिक विद्वानों ने असद्भूत व्यवहारनय को का प्रयोजनवश आरोप किया जाता है। इसलिए उसकी अज्ञानियों का अनादिरूढ़ व्यवहार मान लिया है और | भाषा कैसी भी हो, जिस धर्म की अपेक्षा उसका कथन उसे प्रमाण का अवयव मानने से इनकार कर दिया है। होता है. उस धर्म का ही प्रतिपादन उसका प्रयोजन होता वे प्रतिपादित करते हैं कि असद्भूत-व्यवहारनय वस्तुधर्म | है और उसी धर्म की अपेक्षा से वह सत्य होता है। का निरूपण नहीं करता, मात्र एक वस्तु पर दूसरी वस्तु | जैसे कोई ज्ञानी पुरुष जीव को पुद्गल कर्मों का कर्ता के धर्म का आरोप करता है। उनकी यह मान्यता | कहता है, तो निमित्तभाव की दृष्टि से कहता है, 'जयपुरतत्त्वचर्चा' (भाग २/पृ.४३६) में निम्नलिखित | उपादानभाव की दृष्टि से नहीं। अतः निमित्तभाव की वक्तव्य से स्पष्ट होती है। दृष्टि से यह कथन सत्य है। नय में प्रयुक्तभाषा का "अब रहा असद्भूत व्यवहारनय, सो उसका विषय | आशय तद्गत अपेक्षा पर ध्यान देने से स्पष्ट होता है। मात्र उपचार है। समयसार गाथा ८४ में पहले आत्मा | दूसरी बात यह है कि ज्ञानियों का अभिप्राय ही को व्यवहारनय से पुद्गल कर्मों का कर्ता और भोक्ता | नय कहलाता है, अज्ञानियों का नहीं, क्योंकि ज्ञानियों के बतलाया गया है, किन्तु यह व्यवहार असद्भूत है, क्योंकि | ही अभिप्राय में कथंचित्त्व रहता है, अज्ञानियों के अभिप्राय अज्ञानियों का अनादि संसार से ऐसा प्रसिद्ध व्यवहार है, | में नहीं। इसलिए अज्ञानियों के अभिप्राय को असद्भूत इसलिए गाथा ८५ में दूषण देते हुए निश्चयनय का व्यवहारनय नहीं कह सकते। अज्ञानियों का परद्रव्यों के अवलम्बन लेकर उसका निषेध किया गया है।" | कर्ता-हर्ता होने का अभिप्राय निश्चय-निरपेक्ष होता है, किन्तु यह मान्यता समीचीन नहीं है। सत्य यह | इसलिए उनका यह अभिप्राय असद्भूत-व्यवहारनय नहीं है कि आचार्य कुन्दकुन्द ने व्यवहारनय संज्ञा देकर परद्रव्यों कहला सकता, ज्ञानियों का निश्चय-सापेक्ष होता है, के कर्तृत्वहर्तृत्वादि अभिप्राय को कथंचित् सत्य सिद्ध | इसलिए असद्भूत-व्यवहारनय संज्ञा पाता है। किया है, क्योंकि 'नय' शब्द कथंचित्त्व का द्योतक है। असद्भूत-व्यवहारनय की परिभाषा ही विवेकगर्भित उक्त अभिप्राय में कथंचित् अर्थात् निमित्तनैमित्तिक भाव | है। परिभाषा के अनुसार निमित्त और प्रयोजन होने पर की अपेक्षा सत्यता है, किन्तु अज्ञानी उसे सर्वथा सत्य | अन्यत्र प्रसिद्ध धर्म का अन्यत्र समारोप असद्भतमानते हैं, इसलिए उनके सन्दर्भ में वह मिथ्या अभिप्राय व्यवहारनय कहलाता है-"अन्यत्र प्रसिद्धस्य धर्मस्यान्यत्र है, किन्तु ज्ञानी उसे सर्वथा सत्य न मानकर कथंचित् सत्य | समारोपणमसद्भूतव्यवहारः। असद्भूतव्यवहार एव मानते हैं, इसलिए उनके सन्दर्भ में वह व्यवहारनय है।। उपचारः।" (आलापपद्धति/सूत्र २०७-२०८)।"मुख्याभावे 'नय' शब्द मिथ्या अभिप्राय या मिथ्या कथन का सति प्रयोजने निमित्ते चोपचार: प्रवर्तते।" (वही / सूत्र वाचक नहीं है, अपितु सापेक्ष कथन का वाचक है। शशशृंग | २१२)।" अतः निमित्त और प्रयोजन दृष्टि में रखकर के समान सर्वथा असत् वस्तु नय का विषय नहीं बन | ही अन्यत्र प्रसिद्ध धर्म का अन्यत्र समारोप करना असद्भूत सकती। नय तो प्रमाण का अंश है, अप्रमाण का नहीं। व्यवहारनय है। विमूढ़तापूर्वक ऐसा करना असद्भूत व्यवहारनय भी अज्ञान का अंश नहीं है, अपितु श्रुतज्ञान ! व्यवहारनय नहीं है। वह अज्ञानियों का ही अनादिरूढ़ 26 जून-जुलाई 2008 जिनभाषित Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार है। अर्थात् जीव न घट का कर्ता है, न पट का , निमित्त और प्रयोजन दृष्टि में रहने पर यह विवेक | न अन्य द्रव्यों का। उसके योग और उपयोग ही उनके बना रहता है कि वस्तु का जिस रूप में कथन किया | उत्पादक हैं और वह योगोपयोग का कर्ता है। जा रहा है वह उसका यथार्थ रूप नहीं है, अपितु उसके यहाँ आचार्य कुन्दकुन्द ने जीव के योगोपयोग को निमित्तत्वादि धर्म की अपेक्षा उसे इस रूप में कहा जा | घटपटादि परद्रव्यों का निमित्तरूप से कर्त्ता कहा है, जिसे रहा है। यह विवेक होने पर ही विवक्षित कथन असद्भूत- | आचार्य अमृतचन्द्र ने "अनित्यौ योगोपयोगावेव तत्र व्यवहारनय कहलाता है। किन्तु, जब ऐसा विवेक नहीं | निमित्तत्वेन कर्तारौ" तथा जयसेनाचार्य ने "इति परम्परया होता, अपितु वस्तु को वास्तव में वैसा ही समझा जाता | निमित्तरूपेण घटादिविषये जीवस्य कर्तृत्वं स्यात्" इन है, जिस रूप में उसका कथन किया जाता है, तब वह | वाक्यों से स्पष्ट किया है। अज्ञानमय व्यवहार होता है। नियमसार (गा.१८) में वे केवली और श्रुतकेवली इस प्रकार असद्भूत-व्यवहारनय में व्यवहार को | के उपदेश के अनुसार जीव का स्वरूप निश्चय और ही परमार्थ समझने की भूल नहीं की जाती, अपितु परमार्थ | व्यवहारनय से इस प्रकार वर्णित करते हैंको परमार्थ और व्यवहार को व्यवहार ही समझा जाता | कत्ता भोत्ता आदा पोग्गलकम्मस्स होदि ववहारो। है। आचार्य अमृतचन्द्र ने व्यवहार को ही परमार्थ समझ कम्मजभावेणादा कत्ता भोत्ता दु णिच्छयदो। लेने वालों को व्यवहारविमूढ़दृष्टि कहा है और उन्हें ही अर्थात् व्यवहारनय से जीव पुद्गलकर्मों का कर्ताशुद्धात्मस्वरूप के बोध में असमर्थ बतलाया है। अतः | भोक्ता है और निश्चयनय से कर्मजनित मोहरागादि भावों व्यवहार को ही परमार्थ मान लेना अज्ञानियों का अनादि- | का। रूढ़ व्यवहार है, असद्भूत-व्यवहारनय उससे सर्वथा | यहाँ आचार्य कुन्दकुन्द ने जीव को जो पुद्गलकर्मों विपरीत है। तात्पर्य यह कि निश्चयनिरपेक्ष उपचार का कर्ता-भोक्ता बतलाया है, वह असद्भूत-व्यवहारनय अज्ञानियों का व्यवहार है और निश्चयसापेक्ष उपचार का कथन है। यह कथन उन्होंने केवली और श्रुतकेवली असद्भूत-व्यवहार-नय है। के उपदेश के आधार पर किया है, जैसा कि नियमसार __आचार्य कुन्दकुन्द ने भी असद्भूत व्यवहारनय का | के मंगलाचरण से स्पष्ट है। क्या यह उनका एवं केवलीयही स्वरूप माना है। यह इस बात से सिद्ध है कि | श्रुतकेवली का अज्ञानमय अनादिरूढ़ व्यवहार है या उन्होंने स्वयं असद्भूत-व्यवहारनय से वस्तु का निरूपण | निमित्तनैमित्तिक भाव की अपेक्षा किया गया ज्ञानमय किया है और उसे सर्वज्ञ का उपदेश बतलाया है। यदि | व्यवहार? केवली, श्रुतकेवली एवं कुन्दकुन्द जैसे आचार्य वे असद्भूत-व्यवहारनय को अज्ञानियों का अनादिरूढ़ | के विषय में तो अज्ञानमय व्यवहार की कल्पना भी नहीं व्यवहार मानते, तो उसके द्वारा वस्तु का निरूपण न | की जा सकती। अतः स्पष्ट है कि यह श्रुतज्ञान के करते, क्योंकि अज्ञानपूर्ण मान्यताओं के उपदेश से शिष्य | अवयवभूत असद्भूत-व्यवहारनय पर आश्रित कथन है। का अज्ञान पुष्ट ही हो सकता है, क्षीण नहीं। आचार्य समयसार (गाथा ५६, ६०, ६७, ३७१)। में कुन्दकुन्द ने असद्भूत व्यवहारनय से वस्तुस्वरूप के जो | आचार्यश्री ने स्वयं 'जीव रागी, द्वेषी, मोही तथा शरीर निरूपण किये हैं उसके उदाहरण इस प्रकार हैं- से अभिन्न है' इस उपदेश को जिनवर का उपदेश बतलाया जीवो न करेदि घडं णेव पडं णेव सेसगे दव्वे। | है। जोगुवओगा उप्पादगा य तेसिं हवदि कत्ता॥ ए-2, शाहपुरा, भोपाल (म.प्र.) समयसार/ गा.१००।। नाच्छादयति कौपीनं न दंशमशकापहम् । शुनः पुच्छमिव व्यर्थं पाण्डित्यं धर्मवर्जितम्।। कुत्ते की पूँछ न तो उसके गुप्तांग (मलद्वार) को ढंकती है, न ही उसे डाँस-मच्छरों से बचाती है, इसलिए वह व्यर्थ है। इसी प्रकार धर्मरहित पाण्डित्य न तो मनुष्य को पाप से बचाता है, न पुण्य प्राप्त कराता है, अतः वह कुत्ते की पूँछ के समान व्यर्थ है। -जून-जुलाई 2008 जिनभाषित 27 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्वानों का मूल्याङ्कन डॉ. शीतलचन्द्र जैन जयपुर से प्रकाशित मासिक पत्रिका 'दिगम्बर जैन । जो उपमा दी है वह लिखने में मुझे स्वयं शर्म आती ज्योति' वर्ष 6 अंक 12 के पृ. 8 पर बड़े-बड़े अक्षरों है । पत्रकार महोदय ने जो साहित्य सृजन किया उस में विज्ञापन टाइप में लिखा है कि " कर्णधार और विद्वान् साहित्य में यथार्थ साधु और अयथार्थ साधु का भेद न देते नहीं लेते हैं" उक्त पंक्ति को पढ़कर मेरी नजरों कर सभी को एक तराजू पर तौल डाला, क्योंकि तौलनेके सामने कुछ ऐसे विद्वानों के चेहरे उपस्थित हो गये, वाले को कीमत से मतलब ! इसी प्रकार सभी विद्वानों जिन्होंने समाज से कुछ नहीं लिया, बल्कि सब कुछ को एक तराजू पर तौल डाला, जो उचित नहीं है। समाज को और जिनवाणी को भेंट कर दिया। मुझे पं० यदि किसी विद्वान् में आप अवगुण देखते हैं, तो आप हीरालाल जी सिद्धान्तशास्त्री, साडूमल का स्मरण आया, उसे व्यक्तिगत पत्र लिखें या विद्वानों की संस्थाओं के जो ब्यावर, राजस्थान में रहकर श्रुताराधना करते थे। मैंने मंच से कहिये और यदि आप में साहस है तो प्रमाण उनके विषय में किसी सन्त के मुखारविन्द से सुना था और युक्तिपूर्ण ढंग से विद्वान् / विद्वानों के नाम रेखाङ्कित कि पण्डित जी किसी ग्रन्थ का अनुवाद कर रहे थे कर अगले चिन्तन में स्पष्ट करें, जिससे हम संस्था के और उन्हें किसी शब्द को देखने के लिये शब्दकोश माध्यम से स्पष्टीकरण कर सकें, अन्यथा विद्वानों के की आवश्यकता महसूस हुई। इस बात को लेकर काफी प्रति इतनी घटिया शब्दावली का प्रयोग मत करें। आलोचना व्यग्र थे कि हाथ में पैसा नहीं, शब्दकोश खरीदें कैसे? करना सरल है। आप पनप रही विकृति के प्रति उचित उनकी धर्मपत्नी ने व्यग्रता का कारण पूछा, उन्होंने सब सुझाव और चिन्तन दें। आजकल अनेक पत्र आलोचना कुछ बता दिया, तब उनकी धर्मपत्नी ने कहा- " आप और प्रत्यालोचना निकाल कर सस्ती वाहवाही लूट रहे व्यग्र मत होइये मेरे पास स्वर्ण की एक वस्तु है, इसको हैं । इसी प्रकार कुछ लेखक भी निषेधात्मक और चाटुकारी बेचकर शब्दकोश ले आइये। ये स्वर्ण जिनवाणी की लेख लिखकर समाज को भ्रमित कर रहे हैं, जो स्वस्थ सेवा में काम आयेगा, इसका इससे अच्छा और क्या पत्रिकारिता नहीं है। उपयोग होगा? धन्य हैं वे विद्वान् जो इस प्रकार स्वाभिमान से जीते थे और महाधन्य हैं उनकी धर्मपत्नी जो इतना सन्तोष और जिनवाणी के प्रति समर्पणभाव रखती थीं। ऐसे अनेक विद्वान् थे और अभी भी मौजूद हैं और रहेंगे, जिन्होंने समाज के सामने हाथ नहीं फैलाये और जिनवाणी की सेवा करते थे और कर रहे हैं। मैं कुछ पत्र-पत्रिकाओं को पढ़ता हूँ और मुनिराजों के प्रवचनों को सुनता हूँ, तो विद्वानों की आलोचना सुन कर ऐसा लगने लगता है, जैसे हमने विद्वान् बनकर कोई अपराध किया हो और जो मैं विद्वान् तैयार कर रहा हूँ, तो कोई अपराध तो नहीं कर रहा हूँ! मैं बहुत प्रयास करता हूँ कि किसी पत्रिका की या पत्रकार की आलोचना न करूँ, परन्तु जब किसी की सीमा पार हो जाती है, तो मुझे बाध्य होकर लिखना पड़ता है। अभी दिशाबोध अप्रैल 2008 के अंक में ऐसा अशिष्ट चिन्तन लिखा गया, जो पढ़कर मुझे काफी अरुचिकर लगा। आदरणीय पत्रकार / साहित्यकार विद्वान् ने पृ. 12 पर विद्वानों की 28 जून - जुलाई 2008 जिनभाषित दिशाबोध के इसी अंक में एक आदरणीय प्रतिष्ठाचार्य महोदय ने एक विचारणीय पक्ष रखा, जिसमें लिखा है कि एक प्रतिष्ठाचार्य की योग्यता क्या होना चाहिये और आगे लिखा है कि ब्रह्मचारीगण तो झोला लेकर नगर - नगर घूमते हुये प्रतिष्ठायें विधान आदि कराते हैं। मेरा विनम्र सुझाव है कि भारतवर्षीय श्रमण संस्कृति परीक्षालय सांगानेर ने प्रतिष्ठाचार्य पाठ्यक्रम बनाया है और वर्तमान में जितने युवा प्रतिष्ठाचार्य हैं, उनकी परीक्षा आप स्वयं लें, फिर स्वयं देखें कितने प्रतिष्ठाचार्यों में व्याकरण, न्याय, मंत्र, ज्योतिष, सिद्धान्त का ज्ञान है ? मेरा विश्वास है कि परम्परागत प्रतिष्ठाचार्यों की अपेक्षा नवोदित युवा प्रतिष्ठाचार्य ब्रह्मचारीगण ठीक हैं। अन्यथा इसका निर्णय परीक्षा से ही सम्भव है । व्यर्थ में नवोदित युवा प्रतिष्ठाचार्यों एवं ब्रह्मचारियों के प्रति अनास्था का वातावरण बनाना उचित नहीं हैं। दिशाबोध के इसी अंक में एक प्रतिष्ठित विद्वान् Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ने लिखा है कि विद्वान् भी अर्थप्रधानी बन गया, उसमें । की स्थिति तो ऐसी है कि पर्युषण पर्व पर सङ्गीतकार और विद्वान् दोनों जाते हैं, तो उसमें यह कहावत चरितार्थ होती है कि नैतिक बल चाहिये। ऐसी टिप्पणी करनेवालों को विद्वान एवं प्रतिष्ठाचार्य में अन्तर देखना होगा । आज का कोई भी विद्वान् समाज के आश्रित नहीं है, परन्तु समाज को जो कुछ बनता है वह देता ही है, लेता कुछ नहीं । इस टेक्नॉलॉजी के युग में कोई भी अभिभावक अपने बेटा-बेटी को विद्वान् विदुषी नहीं बनाना चाहता और जो विद्वान् बने हैं उनके परिश्रम को कोई नहीं जानता । किसी नीतिकार ने ठीक ही कहा है विद्वानेव हि जानाति विद्वज्जनपरिश्रमम् । न हि बन्ध्या विजानाति गुर्वीप्रसववेदनाम् ॥ अर्थात् विद्वान् के परिश्रम को विद्वान् ही जानता है, जिस तरह प्रसव की गहन वेदना को प्रसव करनेवाली स्त्री ही अनुभव कर सकती है, जान सकती है, बन्ध्या नहीं । आज का श्रावक प्रतिष्ठाचार्य को ही विद्वान् मान बैठा, क्योंकि सिद्धान्त के ज्ञाता विद्वान् अंगुली पर गिनने योग्य हैं। आज समाज को प्रतिष्ठाचार्यों की आवश्यकता है, क्योंकि वर्तमान में 75 प्रतिशत मुनिराज क्रियाकाण्डों ■ में श्रावकों को उलझा कर रखते हैं। यही कारण है कि पञ्चकल्याणकों और अनुष्ठानों की चकाचौंध है। इन अवसरों पर विद्वानों के द्वारा प्रवचन नहीं कराये जाते हैं, अपितु कोई विद्वान् भूल से बुला लिया जाता है, तो सायंकाल बड़ी मुश्किल से 15-25 मिनट का समय दिया जाता है। इन अनुष्ठानों में पुजारियों का महत्त्व ज्यादा होता है और सैद्धान्तिक विद्वान् का महत्त्व कम । आज प्रतिष्ठाचार्य पूर्णरूपेण समाजाश्रित हैं और समाज प्रतिष्ठाचार्य एवं सङ्गीतकार पर आश्रित है । विद्वान् श्री सुरेशचन्द्र जैन वरगीवाले सम्मानित विश्व वंदनीय भगवान् महावीर की जयंती के पावन प्रसंग पर अहिंसा सम्मेलन में जैन नवयुवक सभा, जैन- पंचायत सभा एवं समग्र जैन- समाज की ओर से राष्ट्र में शाकाहार अहिंसा धर्म का शंखनाद करनेवाले श्री सुरेशचंद जैन वरगीवालों को अहिंसा मंच-अहिंसा सम्मान से अलंकृत किया गया। आपको दिल्ली से अहिंसा इंटरनेशनल अवार्ड से भी अलंकृत किया गया है। चन्दुलाल जैन, हनुमानताल, जबलपुर फूटी आँख विवेक की क्या करें जगदीश । कंचनियाँ को तीन सौ और पण्डितजी को तीस ॥ अतः उक्त परिस्थितियों को देखते हुये पत्रकारों, साहित्यकारों, नेतृत्ववर्ग, मुनिराजों एवं श्रावकों से निवेदन है कि विद्वानों में एवं प्रतिष्ठाचार्यों में भेद करके ही कलम चलाया करें। आज समाज सङ्गीतकार को इक्कीस हजार से इक्यावन हजार तक न्यूनतम भेंटराशि नाच गाकर, प्रसन्न होकर देती है, तब प्रतिष्ठाचार्य को इससे कम देगी तो उसका असम्मान नहीं होगा ? विचार करें वह सम्मान राशि है, याचना नहीं है। विद्वान् एक ग्रन्थ की टीका एक वर्ष में या एक आलेख 10 दिन में लिखता है, तो समाज क्या देती है? अभी भी कई विद्वान् जिनवाणी के संरक्षण एवं प्रचार-प्रसार में लगे हुये हैं, उनका समाज क्या मूल्यांकन कर रही है? अन्त में पत्रिकाओं के सम्पादकों से निवेदन है कि लेखक ने जो कुछ लिख दिया, वही नहीं छाप देना चाहिये, अपितु यह भी देखना चाहिये कि इस लेख को छापने से समाज पर क्या प्रभाव पड़ेगा? यदि अच्छा प्रभाव पड़े, तो अवश्य छापना चाहिये, अन्यथा लेखक, जिस व्यक्तिविशेष की आलोचना कर रहा है, उसका नाम छापे, जिससे वह व्यक्ति समझे और उन विकृतियों से दूर हो सके । कर्णधार भी समाज से लेते नहीं, देते ही हैं। इस पर आगे लिखूँगा । प्राचार्य, श्री दि. जैन आचार्य संस्कृत महाविद्यालय, जयपुर उज्ज्वल यश बारामती के व्यापारी श्री कल्पेश राजुलाल शहा एवं सौ. संगीता कल्पेश शहा (सोनगीरकर) की पुत्री कु. तेजल कल्पेश शहा १२ वीं की परीक्षा में अंग्रेजी मध्यम से तुलजाराम चतुरचंद विद्यालय बारामती से कॉमर्स (वाणिज्य शाखा) शाखा से 82.17% अंक प्राप्त करके संपूर्ण बारामती तहसील एवं विद्यालय प्रथम स्थान प्राप्त किया है । दि. जैन समाज को यह गौरवास्पद है। जून - जुलाई 2008 जिनभाषित 29 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कायोत्सर्ग एवं णमोकार मंत्र पं. सनतकुमार विनोदकुमार जैन कर्मसहित जीव निरन्तर संसारभ्रमण कर दुःख । ज्ञात्वां योऽचेतनं कायं नश्वरं कर्मनिर्मितम्। भोगता रहता है। इन दुःखों से छूटने के लिए तपपूर्वक न तस्य वर्तते कार्ये कायोत्सर्ग करोति सः॥ कर्मनिर्जरा करके भावविशुद्धि से वर्तमान में कर्मबन्ध योगसार-५/५२ की प्रक्रिया से बचना ही श्रेयस्कर उपाय है। तप से अर्थात् देह को अचेतन, नश्वर, व कर्म निर्मित कर्मनिर्जरा होती है। तप के बारह भेदों में क्रमशः प्रथम | समझकर जो उसके पोषण आदि के अर्थ कोई कार्य तप की अपेक्षा द्वितीय तप के भेद से ज्यादा कर्मनिर्जरा | नहीं करता वह कायोत्सर्ग का धारक है। होती है, इसी क्रम से सबसे ज्यादा कर्मनिर्जरा ध्यान | कार्योत्सर्ग के भेद से होती है। ध्यानतप से पहले व्युत्सर्ग तप है। वह आसन एवं चिन्तन की अपेक्षा कायोत्सर्ग के चार जहाँ कर्मनिर्जरा का साधन है, वहीं ध्यानतप का कारण | भेद हैं। भी है। व्युत्सर्ग-बाहर के क्षेत्र, वास्तु आदि का और उट्ठिदउट्ठिद उट्ठिदणिविट्ठ उवविट्ठउट्ठिदो चैव। आभ्यन्तर में कषाय आदि का अथवा नित्य या अनित्य उवविट्ठणिविट्ठोवि य काओसग्गो चदुट्ठाणो॥६७३॥ काल के लिए शरीर का त्याग करना व्युत्सर्ग तप है। मूलाचार इसे कायोत्सर्ग भी कहते हैं। अर्थात् उत्थितोत्थित, उत्थितनिविष्ट, उपविष्टोत्थित कायोत्सर्ग- जो दैवसिक, रात्रिक, चातुर्मासिक | और उपविष्टनिविष्ट इस प्रकार कायोत्सर्ग के चार भेद आदि दोषों के शमनार्थ किया जाता है, अथवा शरीर | हैं। से ममत्व छोड़कर उपसर्ग आदि को जीतता हुआ।। १. उत्थितोत्थित- जो कायोत्सर्ग में खड़ा हुआ अन्तर्महर्त, एक दिन, मास, व वर्ष पर्यन्त निश्चल खड़े | धर्म, शुक्ल ध्यानों को करता है, वह उत्थितोथित कार्योत्सर्ग रहना कायोत्सर्ग है। कायाईपरदव्वे थिरभावं परिहरन्तु अप्पाणं। . २. उत्थितनिविष्ट- जो कायोत्सर्ग में खड़ा हुआ तस्स हवे तणुसग्गं जो झायइ णिव्विअप्पेण ॥ २॥ | आर्त, रौद्र ध्यान का करता है, वह उत्थिनिविष्ट कायोत्सर्ग नियमसार / अधिकार ८ अर्थात् कायादि परद्रव्यों में स्थिरभाव छोड़कर जो | ३. उपविष्टिोत्थित- जो बैठे हुए धर्म, शुक्ल ध्यानों आत्मा को निर्विकल्प रूप से ध्याता है, उसे कायोत्सर्ग | को ध्याता है, वह उपविष्टोत्थित कायोत्सर्ग है। कहते हैं। ___४. उपविष्टोपविष्ट- जो बैठा हुआ आतं, रौद्र देस्सिय णियमादिसु जहुत्तमाणेण उत्तकालम्हि। ध्यानों का अवलंवन करता है, वह उपविष्टोपविष्ट जिणगुणचिंतणजुत्तो काओसग्गो तणुविसग्गो ॥ २८॥ कायोत्सर्ग है। ___मूलाचार | कार्योत्सर्ग के अन्य प्रकार से तीन भेद हैंअर्थात् दैवसिक निश्चित क्रियाओं में यथोक्त काल मनसा शरीरे ममेदं भावनिवृत्तिः मानसः कायोत्सर्गः। प्रमाण पर्यन्त उत्तमक्षमा आदि जिनगुणों की भावना सहित | प्रलम्बभुजस्य चतुरङ गुलमात्रपादान्तरस्य निश्चलावस्थानं देह में ममत्व को छोड़ना कायोत्सर्ग है। कायेन कार्योत्सर्गः॥ परिमितकालविषया शरीरे ममत्वनिर्वत्ति: कायोत्सर्गः। । (भगवती आराधना / विजयोदया टीका / गा. ५०९) राजवार्तिक ६/२४ / ११ /५३०।। अर्थात् मन से शरीर में ममेदं (मम+इदं) यह अर्थात् परिमित काल के लिए शरीर से ममत्व | मेरा है, की बुद्धि की निवृत्ति मानस कायोत्सर्ग है। मैं का त्याग करना कायोत्सर्ग है। | शरीर का त्याग करता हूँ, ऐसा वचनोच्चार करना वचन 30 जून-जुलाई 2008 जिनभाषित Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृत कायोत्सर्ग है। बाहु नीचे छोड़कर चार अंगुल मात्र | उच्छवासःस्युस्तनूत्सर्गे नियमान्ते दिनादिषु। का अन्तर दोनों पैरों में रखकर निश्चल खड़े होना शरीर पंचस्वष्टशतार्धत्रिचतुःपंचशतप्रमाः॥ ७२ ॥ के द्वारा कायोत्सर्ग है। ___ अनगारधर्मामृत निक्षेपों की अपेक्षा कायोत्सर्ग के छह भेद हैं अर्थात् दिनसंबंधि-कायोत्सर्ग में एक सौ आठ, १. नाम कायोत्सर्ग- सावध नाम करने से लगे | रात्रिसंबंधि-कायोत्सर्ग में चौवन, पाक्षिक में तीन सौ, हुए दोषों की विशुद्धि के लिये कायोत्सर्ग किया जाता | चातुर्मासिक में चार सौ और वार्षिक कायोत्सर्ग में पाँच है या किसी का नाम कायोत्सर्ग रखना नामकायोत्सर्ग | सौ उच्छ्वास होते है। मूत्रोच्चाराध्वभक्तार्हत्साधुशय्याभिवन्दने। २. स्थापना कायोत्सर्ग- पाप पूर्ण स्थापना से लगे पंचाना विंशतिस्ते स्युः स्वाध्यायादौ च सप्तयुक्॥७३॥ हुए दोषों की विशुद्धि के लिए जो कायोत्सर्ग किया जाता अनगार धर्मामृत है अथवा कायोत्सर्गपरिणत प्रतिबिम्ब स्थापना कायोत्सर्ग ____ अर्थात् मूत्र और मल का त्याग करके, एक गाँव से दूसरे गाँव पहुँचने पर, आहार करने पर, अर्हत् शय्या ३. द्रव्य कायोत्सर्ग- सावद्य द्रव्य के सेवन से लगे | (निर्वाणकल्याण, समवशरण, केवलज्ञान उत्पत्ति, तपअतिचारों की विशुद्धि के लिए जो कायोत्सर्ग किया जाता | कल्याणक एवं जन्मभूमि आदि स्थान) और साधुशय्या है, वह द्रव्य कायोत्सर्ग है। (किसी साधु के समाधिस्थान) पर जाकर लौटने पर ४. क्षेत्र कायोत्सर्ग- सावध क्षेत्र के सेवन से लगे | पच्चीस उच्छवास प्रमाण कायोत्सर्ग करना चाहिए। मन दोषों की विशुद्धि के लिए जो कायोत्सर्ग किया जाता | में विकार उत्पन्न होने पर तत्क्षण सत्ताईस उच्छवास है, वह क्षेत्र कायोत्सर्ग है। | प्रमाण, प्राणीवधसंबंधी, असत्यालापसंबंधी, चोरी संबंधी, ५. काल कयोत्सर्ग- सावध काल में आचरण करने | मैथुन संबंधी, परिग्रह संबंधी, दोष लगने पर एक सौ "से लगे हुए दोषों की विशुद्धि के लिए किया गया कायोत्सर्ग | आठ उच्छवास प्रमाण कायोत्सर्ग करना चाहिए। काल, कायोत्सर्ग है। अथवा कायोत्सर्ग करनेबालों से सहित | कायोत्सर्ग का काल काल को कालकायोत्सर्ग कहते हैं। कायोत्सर्गस्य मात्रान्तर्मुहूर्तोऽल्पा समोत्तमा। ६. भाव कायोत्सर्ग- मिथ्यात्वादिसंबंधी अतिचारों शेषा गाथात्र्यंशचिन्तात्मोच्छ्वासै कथा मिता॥७१॥ के शोधन के लिए जो कायोत्सर्ग किया जाता है, वह अनगार धर्मामृत भावकायोत्सर्ग है, अथवा कायोत्सर्ग करनेवाले शास्त्र का अर्थात् कायोत्सर्ग का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और जो ज्ञाता उस शास्त्र में उपयुक्त है, वह आगमभाव उत्कृष्ट काल एक वर्ष प्रमाण है। शेष अर्थात् मध्यम कायोत्सर्ग है। काल का प्रमाण गाथा (णमोकार मंत्र) के तीन अंशों कायोत्सर्ग की संख्या और उसके श्वासोच्छवास के चिन्तन में लगनेवाले उच्छवासों के भेद से अनेक अष्टाविंशतिसंख्यानाः कायोत्सर्गा मता जिनैः।। प्रकार हैंअहोरात्रगताः सर्वे षडावश्यककारिणाम्॥६६॥ __ अष्टतोत्तरशतोच्छवास: कायोत्सर्गः प्रतिक्रमे। (अमितगतिश्रावकाचार) सान्ध्ये प्राभातिके चार्धमन्यस्तत्सप्तविंशतिः॥ ६८॥ अर्थात् छहों आवश्यक करनेवालों के दिन और अमितगति श्रावकाचार ___ रात्रि संबंधी सर्व कायोत्सर्ग अट्ठाईस कहे हैं। अर्थात् सान्ध्य (सायं काल) संबंधी प्रतिक्रमण करते स्वाध्याये द्वादश प्राज्ञैर्वन्दनायां षडीरिताः। समय एक सौ आठ श्वासोच्छ्वासवाला कायोत्सर्ग किया अष्टौ प्रतिक्रमे योग भक्तौ तौ द्वावुदा हृतौ॥ ६७॥ | जाता है। (अमितगतिश्रावकाचार) प्रभातकालसंबंधी प्रतिक्रमण में उससे आधा अर्थात् अर्थात् स्वाध्याय करने में बारह, वन्दना में छह, चौवन श्वासोच्छवासवाला कायोत्सर्ग कहा गया है एवं , प्रतिक्रमण करते समय आठ, और योग भक्ति करते समय । | अन्य सर्व कायोत्सर्ग सत्ताईस श्वासोच्छवास कालप्रमाण __दो कार्योत्सर्ग कहे हैं। कहे गये हैं। - जून-जुलाई 2008 जिनभाषित 31 Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तविंशतिरुच्छ्वासाः संसारोन्मूलनक्षमे। । पृथक् द्विधैकवाक्यांतं मुक्त्वोच्छवासं जपेन्नव। सन्ति पंचनमस्कारे नवधा चिन्तिते सति॥ ६९॥ | वारान् गाथां प्रतिक्रम्य निषिद्यालोचयेत्ततः॥ ३७३॥ अमितगति श्रावकाचार। प्रतिष्ठापाठ- आचार्य जयसेन अर्थात् संसार के उन्मूलन में समर्थ पंचनमस्कार ____ अर्थात् णमोकार मंत्र के पंच पदनकू दोय दोय मंत्र के नौ बार चिन्तन करने पर सत्ताईस श्वासोच्छ्वास | वाक्य का उत्तर एक वाक्य का अन्त में उच्छवास छोड़ि माने जाते हैं। नववार जपे। आदि-कायोत्सर्ग एवं प्राणायाम, ध्यान की श्वास- बाहर से अन्दर की और वायु खींचने | सिद्धि और चित्त की स्थिरता के लिए प्राणायाम प्रशंसनीय को श्वास कहते हैं। है। इसके तीन भेद है। उच्छवास- भीतर की ओर से बाहर की ओर त्रिधा लक्षणभेदेन संस्मृतः पूर्वसूरिभिः। वायु निकालने को उच्छवास कहते हैं। पूरकः कुम्मकश्चैव रेचकस्तदनन्तरम्॥ कायोत्सर्ग की विधि ज्ञानार्णव २९/३ जिनेन्द्रमुद्रया गाथां ध्यायेत् प्रीतिविकस्वरे, अर्थात् पूर्वाचार्यों ने पवन के स्तम्भनरूप प्राणायाम हृत्पंकजे प्रवेश्यान्तर्निरुध्य मनसाऽनिलम्॥ २२॥ | को लक्षण भेद से तीन प्रकार कहा है- पूरक, कुम्भक, पृथग् द्विवयेकगाथांशचिन्तान्ते रेचयेच्छनैः। | और रेचक। नवकृत्वः प्रयोक्तैवं दहत्यंहः सुधीर्महत्॥ २३॥ | १. पूरक अनगारधर्मामृत / अध्याय ९ द्वादशान्तात्समाकृष्य य समीरः प्रपूर्यते। पूरा णमोकार मंत्र एक गाथारूप है। उसके तीन स पूरक इति ज्ञेयो वायुविज्ञानकोविदैः॥ अंश करके कायोत्सर्ग के समय, चिंतन करना चाहिए। ज्ञानार्णव २९/४ णमो अरिहंताणं, णमो, सिद्धाणं के साथ प्राणवायु अन्दर | अर्थात् तलुवे के छिद्र से अथवा द्वादश अंगुल ले जाकर उसका चिंतन करें और चिंतन के अंत में | पर्यन्त से वायु को खींचकर अपनी इच्छानुसार अपने - वायु धीरे-धीरे बाहर निकालें। फिर णमो आइरियाणं, शरीर में पूरण करे उसे वायुविज्ञानी पंडितों ने पूरक पवन णमो उवज्झायाणं के साथ प्राणवायु को अन्दर ले जाकर | कहा है। हृदय-कमल में इसका चिंतन करें, और चिंतन के अन्त | २. कुंभक में धीरे धीरे वायु बाहर निकालें। फिर णमो लोए सव्वसाहूणं निरुणद्धि स्थिरीकृत्य श्वसनं नाभिपंकजे। के साथ प्राणवायु अन्दर ले जावें और चिंतन के अन्त कुम्भवन्निर्भरः सोऽयं कुम्भकः परिकीर्तितः॥ में धीरे-धीरे बाहर निकालें। इस प्रकार तीन श्वासोच्छवास ज्ञानार्णव २९/५। में एक बार और सत्ताइस श्वासोच्छवासों में नौ बार णमोकार अर्थात् उस पूरक पवन को स्थिर करके नाभिमंत्र पढ़ना चाहिए। इस प्रकार की विधि अन्य आचार्यों | कमल में घड़े की तरह भर कर रोकें, नाभि से अन्य ने भी कही है। यथा जगह चलने न दे, उसे कुंभक कहते हैं। कुंभकं कुर्वन्नेव णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धांण इति | ३. रेचक गाथांशद्यं जप्त्वान्ते रेचकं कर्यात। अनेनैव विधिना णमो निःसार्यतेऽतियत्नेन यत्कोष्ठाच्छ्वसनं शनैः। आइरियाणं, णमो उवज्झायाणं इति गाथाशद्वयं तथा णमो स रेचक इति प्राज्ञैः प्रणीतः पवनागमे॥ लोए सव्व साहूणं इत्येकांशं जपेत्॥ प्रतिष्ठा तिलक (हिन्दी ज्ञानार्णव २९/६। अनुवाद) पृ. १३। अर्थात् जो अपने कोष्ठ से पवन को अति यत्न कुंभकयोग करते समय णमो अरिहंताणं, णमो | से बाहर निकाले उसको पवनाभ्यास के शास्त्रों में विद्वानों सिद्धाणं गाथा के दो अंशों का जाप करके रेचक अर्थात् | ने रेचक कहा है। रोकी हुई वायु को छोड़े। इसी विधि से णमो आइरियाणं प्राणायाम की इस विधि से ही आचार्यों ने कायोत्सर्ग णमो उवज्झायाणं इन दो गाथांशों को और णमो लोए के श्वासोच्छ्वासों का निर्धारण किया है, जिसमें णमोकार सव्व साहूणं इस गाथांश का जाप करें! | मंत्र के जाप की युति मन की चंचलता को रोककर 32 जून-जुलाई 2008 जिनभाषित - Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थिरता प्रदान करती है, जो ध्यान की सिद्धि और कर्मनिर्जरा । ९. उन्नमन दोष- शिर को बहुत ऊँचा उठाकर का साधन है। कायोत्सर्ग करना। कायोत्सर्ग का स्वामी और मुद्रा १०. धात्री दोष- जैसे धाय, बालक को दूध पिलाने मोक्षार्थी जितनिद्रकः सुकरण: सूत्रार्थविद् वीर्यवान् । | के लिए अपने स्तन को ऊँचा उठाती है, उसी प्रकार शुद्धात्मा बलवान् प्रलम्बितभुजायुग्मो सदास्तेऽचलम्। | अपने वक्षस्थल को ऊँचा उठाकर कायोत्सर्ग करना। ऊर्ध्वजुश्चतुरगुलान्तरसमाग्रांधिर्निषद्धाभिधा ११. वायस दोष- काक के समान चंचल नेत्र द्याचारात्ययशोधनादिह तनूत्सर्गः स षोढा मतः॥ के द्वारा सर्व और पार्श्वभाग में देखते हुए कायोत्सर्ग अनगारधर्मामृत / ८/७०। करना। अर्थात् मुक्ति का इच्छुक, निद्रा को जीतनेवाला, | १२. खलीन दोष- खलीन (लगाम) से पीड़ित शुभक्रिया और परिणामों से युक्त, आगम के अर्थ का | घोड़े के समान कायोत्सर्ग करना। ज्ञाता, वीर्यवान्, बलवान्, असंयत, सम्यग्दृष्टि आदि भव्य, | १३. गज दोष- जिसके कंधे पर महावत बैठा कायोत्सर्ग करनेवाला श्रेष्ठ पात्र कहा है। है ऐसे हाथी के समान ग्रीवा को ऊँची नीची करते हुए दोनों हाथों को नीचे लटकाकर और दोनों चरणों के मध्य में चार अंगुल का अंतर देकर, तथा उनके १४. कपित्थ दोष- हाथ में कपित्थ लिए के समान अग्रभाग को बिल्कुल समरूप में रखते हुए निश्चल खड़े | मुट्ठी बाँधकर कायोत्सर्ग करना। होकर कायोत्सर्ग करना चाहिए। हाथ, पैर, गर्दन, आँख, १५ शिर कम्पित दोष- शिर को पाने द्वारा भौं आदि को निश्चल रखना विशुद्ध कायोत्सर्ग मुद्रा है। कायोत्सर्ग करना। इससे ही कायोत्सर्ग की सिद्धि है। दोषसहित कायोत्सर्ग १६. मूक दोष- गूंगे पुरुष के समान अंगों से से कार्य की सिद्धि नहीं होती है। बैठकर भी कायोत्सर्ग | संकेत करते हुए कायोत्सर्ग करना। किया जा सकता है। १७. अंगुली दोष- अंगुली गिनते हुए कायोत्सर्ग कायोत्सर्ग के अतीचार- कायोत्सर्ग के बत्तीस | कर अतीचार हैं। १८. भूदोष- भ्रुकुटि नचाते हुए कायोत्सर्ग करना। १. घोटक दोष- घोड़े के समान एक पैर उठाकर | १९. दिग्वेक्षण दोष- दिशाओं को देखते हुए कायोत्सर्ग करना। कायोत्सर्ग करना। २. लता दोष- वायु से कम्पित लता के समान | २०. मदिरापायी दोष- मदिरापान से व्याकुल पुरुष शरीर के ऊपरी भाग को सर्व ओर घुमाते हुए कायोत्सर्ग | के समान घूमते हुए कायोत्सर्ग करना। करना। २१. ग्रीवोर्ध्वनयन दोष- ग्रीवा को अधिक ऊँची ३. स्तम्भ-कुड्य दोष- स्तम्भ, भित्ति आदि का | करके कार्योत्सर्ग करना। आश्रय लेकर कायोत्सर्ग करना। २२. ग्रीवाधोनयन दोष- ग्रीवा को अधिक नीची ४. पट्टिका दोष- पाटे आदि के ऊपर खड़े होकर | करके कायोत्सर्ग करना। कायोत्सर्ग करना। २३. निष्ठीवन दोष- कायोत्सर्ग करते हुए थूकना। ५. माला दोष- शिर पर माला का आलंबन लेकर | २४. वपुःर्पशन दोष- कायोत्सर्ग करते समय अंगों कायोत्सर्ग करना। का स्पर्श करना। ६. निगड दोष- बेड़ी से बँधे हुए पुरुष के समान २५. प्रपंचबहुल दोष- छल प्रपंच के भाव के टेढ़े पैर रखकर कायोत्सर्ग करना। | साथ कार्योत्सर्ग करना। ७. किरातयुवति दोष- दोनों हाथों से भीलनी के | २६. विधिन्यून दोष- आगमोक्त विधि से हीन समान जघनभाग को ढककर खड़े होकर कायोत्सर्ग करना। | कायोत्सर्ग करना। ८. शिरोनमन दोष- शिर को बहुत नीचे झुकाकर । २७. वयोऽपेक्षादिवर्जन दोष- अपनी आयु की कायोत्सर्ग करना। जून-जुलाई 2008 जिनभाषित 33 Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपेक्षा न करके मात्रा से अधिक कायोत्सर्ग करना।। एवं भावयतः स्वान्ते यात्यविद्या क्षयं क्षणात्। २८. कालापेक्षव्यतिक्रान्ति दोष- कायोत्सर्ग के विमदीस्युस्तथाक्षाणि कषायरिपुभिः समम्॥ काल की अपेक्षा का उलंघन कर कायोत्सर्ग करना। ___ ज्ञानार्णव २९/१२। २९. व्याक्षेपासक्तचित्त दोष- मन के क्षोभकारक अर्थात् मन को वश में करने की भावना करते कार्यों में चित्त लगाते हुए कार्योत्सर्ग करना। | हुए पुरुष के अविद्या, तो क्षण मात्र में क्षय हो जाती ३०. लोभाकलित दोष- लोभ से आकलित चित्त | है। इन्द्रियाँ मदरहित हो जाती हैं, साथ ही कषायें क्षीण होकर कायोत्सर्ग करना। हो जाती हैं। ३१. पापकार्योद्यम दोष- पापकार्य में उद्यमशील स्मरगरलमनोविजयं समस्तरोगक्षयं वपुःस्थैर्यम्। होते हुए कायोत्सर्ग करना। पवनप्रचारचतुरः करोति योगी न संदेहः॥ ३२. मूढ़दोष- कर्तव्य, अकर्तव्य के ज्ञान से रहित ज्ञानार्णव २९/१०१। अर्थात् पवनप्रचार करने में चतुरयोगी कामरूपी पुरुष का कायोत्सर्ग करना। कर्म निर्जरा के इच्छुक मुमुक्षजनों को कायोत्सर्गविधि विषयुक्त मन को जीतता है। समस्त रोगों को क्षय करके के इन बत्तीस अतीचारों का सर्वथा त्याग करना चाहिए। शरीर में स्थिरता करता है, इसमें संदेह नहीं है। पवन (अनगारधर्मामृत / ८/११२-१२२)। को साधन करके मन को वश में करना ही कायोत्सर्ग का प्रयोजन है। कायोत्सर्ग में शरीर से ममत्व छोड़कर कायोत्सर्ग का फल प्राणायाम विधि से श्वास को लेते हुए णमो अरिहंताणं, व्युत्सृज्य दोषान् निःशेषान् सद्ध्यानी स्यात्तनूत्सृतौ। णमो सिद्धाणं ये दो पद बोलकर वायु को अपनी सहेताऽप्युपसर्गोमीन् कर्मैवं भिद्यते तराम्॥ अनगारधर्मामृत /८/७६ । सामर्थ्यानुसार अन्दर रोककर अरिहंत-सिद्ध के माध्यम अर्थात् कायोत्सर्ग करते समय देवकृत, मनुष्यकृत से अपने स्वरूप का चिंतन करे, पश्चात् वायु को छोड़ या तिर्यंचकृत कोई उपसर्ग आ जाये तो उसे सहन करना दे। दूसरे श्वास में णमो आइरियाणं, णमो उवज्झायाणं चाहिए। ऐसे समय में भी धर्म या शुक्ल ध्यान ही करना ये दो पद बोलकर पूर्ववत् वायु को छोड़े एवं तीसरे श्वास में णमो लोए सव्व साहूणं इस पूरे पद को बोलते चाहिए। जो साधु परिषह और उपसर्ग से विचलित न हुए, पूर्ववत् क्रिया करे, इस प्रकार तीन श्वासोच्छ्वास होकर उसे धीरता से सहन करते हैं, उनका कर्मबन्धन में एक बार णमोकार मंत्र का स्मरण कर कायोत्सर्ग, शिथिल होकर छूट जाता है। जो साधु भक्तिपूर्वक निर्दोष | जाप आदि करने से मन स्थिर होता है। कायोत्सर्ग के कायोत्सर्ग करता है, उसके पूर्वभव में अर्जित कर्म शीघ्र लिए दोनों हाथ नीचे करके पैरों में चार अंगुल का अंतर ही निर्जीर्ण हो जाते हैं। कायोत्सर्ग के समय वायु को रखकर पैरों के अग्रभाग समान करना चाहिए। यदि बैठकर अन्दर रोकने से मन की स्थिरता होती है। कायोत्सर्ग करना हो तो पद्मासन में बायें हाथ के ऊपर विकल्पा न घूसूयन्ते विषयाशा निवर्तते। दाया हाथ रखकर कायोत्सर्ग करना चाहिए। कायोत्सर्ग अन्तः स्फुरति विज्ञानं तत्र चित्ते स्थिरीकृते॥ में वायु के ग्रहण करने, रोकने और छोड़ने की प्रक्रिया ज्ञानार्णव २९ /११। अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है, इसके द्वारा ही मन की स्थिरता अर्थात् हृदयकमल की कर्णिका में पवन के साथ बनती है एवं कायोत्सर्ग के काल का निर्धारण होता है। चित्त को स्थिरकरने पर मन में विकल्प नहीं उठते और प्राणायामपद्धति से कायोत्सर्ग करने पर ही णमोकारमंत्र विषयों की आशा भी नष्ट हो जाती है। तथा अंतरंग का पूर्ण फल प्राप्त होता है, अत: कायोत्सर्गपूर्वक णमोकारमें विशेष ज्ञान का प्रकाश होता है। इस पवन के साधन | मंत्र का विधिपूर्वक जाप कर कर्म क्षय करें। से मन को वश में करना ही इसका फल है। रजवाँस (सागर) म.प्र. साईं इतना दीजिए जामें कुटुम समाय। मैं भी भूखा न रहूँ, साधु न भूखा जाय। संत कबीर 34 जून-जुलाई 2008 जिनभाषित Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जैन-परम्परासम्मत 'ओम्' का प्रतीक-चिह्न म अरहंता असरीरा आइरिया तह उवज्झया मुणिणो। पढमक्खरणिप्पणो ओंकारो पंचपरमेट्ठी॥ जैनागम में अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय एवं । हुआ पाया जाता है। वस्तुतः प्राचीन लिपि में 'उ' के साधु यानी मुनिरूप पाँच परमेष्ठी ही आराध्य माने गए | ऊपर 'रेफ' के समान आकृति बनाने से वह 'ओ' हो हैं। इनके आद्य अक्षरों को परस्पर मिलाने पर 'ओम्'। | जाता था। और उसके साथ चन्द्रबिंदु प्रयुक्त होने से वह 'ओं' बन जाता है। यथा, इनमें से पहले परमेष्ठी 'अरिहन्त' | 'ओम्'। 'ओं'- बन जाता था। किन्तु वर्तमान में या 'अर्हन्त' का प्रथम अक्षर 'अ' को लिया जाता है। हस्तलिखित ग्रन्थ पढ़ने अथवा उनके लिखने की परम्परा द्वितीय परमेष्ठी 'सिद्ध', शरीररहित होने से 'अशरीरी' का अभाव हो जाने के कारण अब प्रिंटिंग प्रेस में छपाई कहलाते हैं। अतः 'अशरीरी' का प्रथम अक्षर 'अ' को | का कार्य होने लगा है। हम लोगों की 'अरिहन्त' के 'अ' से मिलाने पर अ+अ='आ' बन जाता असावधानी अथवा अज्ञानता के कारण है। इसमें तृतीय परमेष्ठी 'आचार्य' का प्रथम अक्षर 'आ' | प्रिंटिंग प्रेस में यह परिवर्तित होकर मिलाने पर आ+आ मिलकर 'आ' ही शेष रहता है। अन्य परम्परा मान्य ऊँ बनाया जाने उसमें चतुर्थ परमेष्ठी 'उपाध्याय' का पहला अक्षर 'उ' | लगा। इसके दुष्परिणाम स्वरूप हम को मिलाने पर आ+उ मिलकर 'ओ' हो जाता है। अंतिम लोग जैन परम्परा द्वारा मान्य न चिन्ह पाँचवें परमेष्ठी 'साधु' को जैनागम में 'मुनि' भी कहा | को प्रायः भूल से गए हैं। और ऊँ जाता है। अत: मुनि के प्रारम्भिक अक्षर 'म्' को 'ओ' | को ही भ्रमवश जैन-परम्परा-सम्मत मान बैठे हैं। से मिलाने पर ओ+म्=ओम् या 'ओं' बन जाता है। इसे | जैन परम्परा सम्मत इस ४ को Shree लिपि के ही प्राचीन लिपि में के रूप में बनाया जाता रहा है। | Symbol Font Samples के अन्तर्गत नं. 223 में N 'जैन' शब्द में 'ज', 'न' तथा 'ज' के ऊपर 'ऐ' | तथा नं. 231 में J को Key Strock करके प्राप्त किया संबंधी दो मात्राएँ बनी होती हैं। इनके माध्यम से ही | या बनाया जा सकता है। एवं 'पूजा' फॉन्ट में Alt +0250 जैन परम्परागत 'ओं' का चिह्न बनाया जा सकता है। से भी प्राप्त किया जा सकता है। संभव है इसके इस 'ओम' के प्रतीक चिह्न को बनाने की सरल विधि | अतिरिक्त 'क्ल्पि आर्ट' में अन्यत्र भी यह चिह्न उपलब्ध चार चरणों में निम्न प्रकार हो सकती है हो सकता है। 1. 'जैन' शब्द के पहले अक्षर 'ज' को अंग्रेजी इस प्रकार जैन परम्परा को सुरक्षित रखने हेतु ___ में 'जे'=J लिखा जाता है। अतः सबसे पहले 'जे'-J| सभी मांगलिक शुभ अनुष्ठानों, पत्र-पत्रिकाओं, विज्ञापनों, को बनाएँ। इंटरनेट ग्रीटिंग्स, होर्डिंग्स, बैनर, एस. एम. एस. नूतन 2. तदुपरान्त 'जैन' शब्द में द्वितीय अक्षर 'न' | प्रकाशित होनेवाले साहित्य, स्टीकर्स, बहीखाता, पुस्तक, __ है। अतः उस 'जे'-J के भीतर / साथ में हिन्दी का | कापी, दीवाल आदि पर जैन परम्परा द्वारा मान्य का 'न' बनाएँ। प्रतीक चिह्न बनाकर इसका अधिकाधिक प्रचार-प्रसार 3 बँकि 'जैन' शब्द में 'ज' के ऊपर 'ऐ' संबंधी | किया / कराया जा सकता है। दो मात्राएँ होती हैं। अतः उसके ऊपर प्रथम मात्रा के | इस संबंध में जैनधर्म में प्रभावनारत पूज्य आचार्यदेव, प्रतीक स्वरूप उसके ऊपर चन्द्रबिन्दु बनाएँ। साधुगण, साध्वियाँ, विद्वन्मनीषी, प्रवचनकार भी अपने 4. तदुपरान्त द्वितीय मात्रा के प्रतीक स्वरूप उसके धर्मोपदेश के समय जैन परम्परागत इस म 'ओम्' की ऊपर चन्द्रबिन्दु के दाएँ बाजू में 'रेफ' जैसी आकृति जानकारी तथा इसे बनाने की प्रायोगिक विधि भी जन बनाएँ। सामान्य को बतलाकर अर्हन्त भगवान के जिन-शासन इस प्रकार जैनपरम्परा सम्मत / यानी 'ओम्'।| के वास्तविक स्वरूप को प्रकट कर / करा सकते हैं। ___ 'ओं' की आकृति निर्मित हो जाती है। इसे बनाने की विधि सुन-समझकर धार्मिक पाठशालाओं जैनपरम्परा की अनेक मूर्तियों की प्रशस्तियों, यन्त्रों, | में अध्ययनरत बालक-बालिकाओं को इसकी प्रायोगिक हस्तलिखित ग्रन्थों, प्राचीन शिलालेखों एवं प्राचीन लिपि | विधि से अभ्यास कराए जाने पर भविष्य में उनके द्वारा में भी इसी प्रकार से 'ओम्'। 'ओं' का चिह्न बना ! इसे ही बनाना प्रारंभ किया जा सके। जून-जुलाई 2008 जिनभाषित 35 Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साम्राज्ञी शान्तलादेवी पं. कुन्दनलाल जैन पट्टमहादेवी शान्तलादेवी, होय्यसल वंश के, परम । को भविष्यवाणी की सफलता के साक्षात् दर्शन हुए और प्रतापी एवं पराक्रमी शासक, बिट्टिदेव (विष्णुवर्द्धन) लगभग ७०-७५ विरुदों से अलंकृत हो जगत-मानिनी की राजमहिषी थी। कहलायी। शान्तलादेवी के पिता का नाम सारसिङ्गय्यहेग्गडे किंवदन्ती है कि शान्तला के पति विष्णुवर्द्धन तथा माता का नाम मानिकव्वे था। इनका जन्म शक रामानुजाचार्य के प्रभाव से वैष्णवधर्म में दीक्षित होने जा सं. १०१२ के आस-पास अनुमानित किया जाता है। इनके | रहे थे। जब वे देवी के दर्शनों के लिए मंदिर गये तभी पति विष्णुवर्द्धन का राज्यकाल शक सं. १०२८ से १०६३ | अचानक भयंकर भूकम्प आया, सारे राज्य में त्राहि-त्राहि तक माना जाता है, शान्तला का विवाह विष्णुवर्द्धन से | मच गई, जिससे भयभीत हो विष्णुवर्द्धन ने वैष्णवधर्म १६ वर्ष की आयु में राज्याभिषेक के समय होना चाहिए, में दीक्षित होने का विचार त्याग दिया और अपनी अत: इनका जन्मकाल शक सं. १०१२ (+७८-१०९० | पट्टमहादेवी शान्तला के साथ-साथ जिनशासन के प्रति ई.) अनुमानित किया जाता है। इनका जन्म कर्नाटक | श्रद्धावान् बने रहे। साम्राज्ञी शान्तलादेवी ने धवला आदि के बलिपु (बेलम्भव) ग्राम में हुआ था, जहाँ इनके पिता | ग्रन्थ ताड़-पत्रों पर उत्कीर्ण कराये थे। इनके पत्रों पर राज्य-प्रशासक एवं ग्राम प्रमुख थे। यह ग्राम होय्यसल | शान्तलादेवी और विष्णुवर्द्धन के चित्र अङ्कित हैं। यह राज्य की राजधानी द्वारावती (द्वार समुद्र) का एक | राजशासन, कला, संगीत में तथा धार्मिक, समाज-सेवा प्रशासनिक प्रकाश था। इनके पिता वीर योद्धा, पराक्रमी | आदि कार्यों में निष्णात थी, जिससे प्रजाजन उसके प्रति और स्वामीभक्त थे, शैव मतानुयायी थे, जब कि इनकी अत्यधिक श्रद्धावान्, विनीत और भक्त थे। उसके वैयक्तिक पत्नी मानिकव्वे (शान्तला की माँ) जैन धर्मानुरागिणी | गुणों एवं शासकीय कुशलता के फलस्वरूप तत्कालीन थी। वह जिन-पूजा, देव-शास्त्र-गुरु की श्रद्धा, रत्नत्रय प्रजाजनों ने उसे इतने अधिक विरुदों (विशेषणों) से व्रत धारण किया करती थी, जैनाचार्यों, मुनियों एवं जैन, अलंकृत किया था कि संभवतः संसार की कोई ही साम्राज्ञी गुरुओं की भक्ति करती थी। अन्त समय इन्होंने सल्लेखना या सम्राट् इतने अधिक अलंकारों से अलंकृत हुआ हो। पूर्वक देह-विसर्जन किया था। इतनी अधिक धार्मिक | तत्कालीन इतिहास तथा शिलालेख इन अलंकारों से भरे विभिन्नताओं के बावजद भी पति-पत्नी में परस्पर अपार | पडे हैं। ये सब श्रवणवेलगोल स्नेहपूर्ण सामंजस्य एवं समन्वय था।. निर्मित गंधवारण वसदि में उत्कीर्ण हैं। शान्तलादेवी ने अपनी माता के पूर्ण संस्कार राजमहिषी शान्तलादेवी गुणवती के साथ-साथ अधिगृहीत किए थे, फलतः वह भी जिनशासन और सुन्दर और रूपवती भी थी। इसलिए इतिहासकारों ने जैन आचार्यों के प्रति विशेषरूप से भक्तिभाव रखती थी। उसे अनेक सुन्दर अलंकारों से अलंकृत किया है। साम्राज्ञी जब वह केवल सात-आठ वर्ष की बालिका ही थी। शान्तलादेवी विद्या, बुद्धि-कौशल, प्रत्युत्पन्नमतित्व, कलातभी उसके क्रिया-कलापों, विचारों तथा दैनिक व्यवहार संगीत आदि व्यक्तिगत गुणों से इतनी अधिक समृद्ध एवं से प्रभावित हो उसके गुरु वोकिमय्य ने भविष्यवाणी | सम्पन्न थी कि लोगों ने उसे कई विशेषणों से विभूषित की थी कि शान्तला जगत-मानिनी बनकर सारे विश्व | किया। में गरिमायुक्त गौरव के साथ पूजी जानेवाली मानवदेवता पटरानी शान्तला पतिव्रता थी, उसने अपनी भक्ति की पदवी प्राप्त करेगी और सचमुच ही जैसे ही शान्तला और सेवा-शुश्रूषा से अपने पति विष्णुवर्द्धन का मन जीत ने षोडशी होकर युवावस्था में पदार्पण किया तथा होय्यसल लिया था। इसीलिए उसे पातिव्रत-संबंधी अनेक अलंकारों वंश के परम प्रतापी तेजस्वी राजकुमार बिट्टिदेव या | से अलंकृत किया गया। बिट्टिग (विष्णुवर्द्धन) की प्राणवल्लभा बनकर होय्यसल साम्राज्ञी शान्तलादेवी ने शक सं. १०४४ (+७८= राज्य की साम्राज्ञी पद को सुशोभित किया तो गुरु वोकिमय्य | ११२२ ई.) के लगभग वेल्गुलु के चन्द्रगिरि पर्वत पर 36 जून-जुलाई 2008 जिनभाषित Jain Editation Internation - Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्तिनाथ की | बिलावता चोट आने 15 Tera A . -A अपने विरुद 'सवति गन्धवारण' (अर्थात् सोतों के लिए । शान्तलादेवी शिवगंगे नामक स्थान पर अपने पति विष्णु. मदोन्मत्त हस्ति) के नाम पर 'गन्धवारण वसदि' का | वर्द्धन, माता मानिकव्वे और पिता मारसिङ्गय्यहेग्गडे को निर्माण कराया था तथा उस छोड अपने गुरु प्रभाचन्द्र की उपस्थिति में पाँच फुट ऊँची कायोत्सर्गमुद्रा में सुन्दर कलापूर्ण मनोज्ञ | सल्लेखनापूर्वक समाधिमरण कर स्वर्ग सिधारी। इसका प्रतिमा प्रतिष्ठापित कराई थी। विस्तृत उल्लेख श्रवणवेलगोल की चन्द्रगिरि पहाड़ी पर शान्तलादेवी ने गन्धवारण वसदि के निर्माण के | गन्धवारणवसदि के द्वितीय मण्डप के तृतीय स्तम्भ पर पश्चात् उसके पूजन-प्रक्षाल एवं अभिषेक हेतु वहीं पर | उत्कीर्ण शक सं. १०५० के शिलालेख में है। इसमें चालीस एक गंग समुद्र नामक श्रेष्ठ सरोवर का निर्माण कराया | श्लोक हैं जिनमें होय्यसल वंश के राजाओं के पराक्रम तथा वसदि की सुरक्षा एवं संरक्षा हेतु तथा दैनिक | के वर्णन के बाद शान्तलादेवी के सल्लेखना का विवरण कार्यकलापों के लिए एक ग्राम भी दान किया। । है। ___ यद्यपि राजरानी शान्तलादेवी इतने अधिक सद्गुणों | साम्राज्ञी शान्तला जैनधर्म की कीर्तिध्वजा को से सम्पन्न थी कि सम्पूर्ण होय्यसल वंश का राज-शासन | फहराती हुई अल्पायु में ही दिवंगत हो गई थी, पर उसकी उसके इशारों पर नाचता था. पर दुर्भाग्य कि उसे दीर्घायुष्य | यश-पताका आज भी लगभग नौ सौ वर्ष के इतिहास प्राप्त नहीं था। वह बड़ी ही अल्पवय में, लगभग चालीस | में निष्कलुष और अक्षुण्ण बनी हुई है।। वर्ष की आयु में दिवंगत हो गयी। चैत्र शुक्ला पंचमी, 'जैन इतिहास के प्रेरक व्यक्तित्व' से साभार सोमवार शक सं. १०५० (+७८-११२८ ई.) में महारानी । आपके पत्र मानव-रथ-एक सार्थक पहल __पिछले दिनों ११ से १७ फरवरी २००८ तक हरदा (म.प्र.) की जैनसमाज के उत्साही सदस्यों ने गजरथ के स्थान पर मानवरथ चलाकर अपने पूर्व इतिहास को पुर्नजीवित करने का अनूठा एवं ऐतिहासिक निर्णय लिया है, इसके लिए हरदा जैनसमाज बधाई की पात्र है, साथ ही प्रतिष्ठाचार्य ब्रह्मचारी विनय भैया जिनके निर्देशन में यह मानव-रथ का आयोजन हुआ, वे भी इस अनुकरणीय पहल के लिए बधाई के पात्र हैं। पिछले कुछ सालों से पंचकल्याणकों में मूक और निरीह किन्तु विशाल प्राणी हाथी पर उसके मालिकों तथा रथों पर बैठने वाले इन्द्र इन्द्राणियों की एक बडी फौज द्वारा जाने-अनजाने में जो जल्म किए जा रहे हैं, उनका प्रायश्चित्त करना बहुत जरूरी हो गया है और इस दिशा में समाज के सभी आचार्यों, मुनिराजों, विद्वानों तथा चिन्तकों को विचार करके गजरथ के बजाय मानव-रथ जो जैनधर्म की पुरानी पद्धति रही है, जिसे विमान की शोभा यात्रा आदि भी कहा जाता है, उसे लागू किया जाना चाहिए। हरदा की जैनसमाज ने अपने अहंभाव को त्याग कर रथों पर बैठने के बजाय सिर्फ भगवान् को बैठाकर स्वयं अपने हाथों से रथ खींचने का जो साहसिक कार्य किया है, इसके लिए मैं एक बार पुनः उन्हें बधाई देता हूँ और पूरे देश की जनसमाज से अनुरोध करता हूँ कि वह पंचकल्याणकों में गजरथ जैसे हाथियों के लिए पीड़ादायक साधनों को तिलाञ्जलि देकर भगवान् को पालकी में विराजमान कर, अपने हाथों से उन्हें परिक्रमा करवायें तो उन्हें सही पुण्य और आनंद की प्राप्ति होगी। धन्यवाद ! विनोद कुमार 'नयन' भोपाल (म. प्र.) जून-जुलाई 2008 जिनभाषित 37 Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिज्ञासा-समाधान पं. रतनलाल बैनाड़ा प्रश्नकर्ता- श्री राजीव जैन अमरपाटन । वस्त्ररहित होकर सामायिक किया करते थे। इससे यह जिज्ञासा- क्या मनुष्य या तिर्यंच आयु का बंध | प्रमाणित है कि सामायिक-प्रतिमाधारी को नग्न होकर करनेवाला अणुव्रत तथा महाव्रत धारण कर सकता है? | (एकांत में) सामायिक करना आगम सम्मत है। समाधान- उपर्युक्त विषय पर गोम्मटसार-जीव- प्रश्नकर्ता- पं. देवेन्द्रकुमार शास्त्री जयपुर काण्ड गाथा ६५३ में इस प्रकार कहा है जिज्ञासा- क्या म्लेच्छ लोगों का खानपान व चत्तारि विखेत्ताई आउगबंधेण होदि सम्मत्तं। आचरण भ्रष्ट होता है? इनकी क्या विशेषताये हैं? अणुवदमहव्वदाई ण लहइ देवाउगं मोत्तुं॥ ६४३॥ समाधान- म्लेच्छ दो प्रकार के होते हैं १. अर्थ- चारों गति संबंधी आयुकर्म बंध हो जाने | कर्मभूमिज म्लेच्छ २. अंतरद्वीपज म्लेच्छ। इनमे अंतरद्वीपज __पर भी सम्यग्दर्शन हो सकता है। किन्तु अणुव्रत और म्लेच्छ तो वे हैं, जो ९६ अंतरद्वीपों में रहते हैं, जिनका महाव्रत देवायु के अतिरिक्त अन्य आयु के बंध होने | शरीर मनुष्यों जैसा होता है, परन्तु उनके मुख अश्व, पर प्राप्त नहीं हो सकते। सिंह, कुत्ता, भैंसा, सुअर, व्याघ्र आदि के मुख के समान भावार्थ- देव और नारकियों के न अणुव्रत होते होते हैं। ये कुभोगभूमिज मनुष्य भी कहलाते हैं। इनके हैं और न महाव्रत होते हैं। तिर्यंचों के अणुव्रत होते | शरीर की अवगाहना २००० धनुष होती है। ये सभी हैं। यदि किसी तिर्यंच को नारक, तिर्यंच या मनुष्यायु मंदकषायी, प्रियंगु पुष्प के समान श्यामल वर्णवाले और का बंध हो गया है, तो उसके अणुव्रत नहीं हो सकते, एक-पल्य-आयुवाले होते हैं। इनका भोजन फल-फूल किन्तु सम्यक्त्व हो सकता है। मनुष्यों के अणुव्रत तथा / तथा मीठी मिट्टी होता है। ये सभी मरण कर, यदि महाव्रत दोनों हो सकते हैं। यदि किसी मनुष्य को नरक, मिथ्यादृष्टि हैं, तो भवनत्रिकों में अथवा सम्यग्दृष्टि हों - तिर्यंच या मनुष्यायु में से किसी एक का बंध हो गया | तो पहले तथा दूसरे स्वर्ग में जन्म लेते हैं। आपके प्रश्न है, तो वह अणुव्रत तथा महाव्रत धारण नहीं कर सकता। से प्रतीत होता है कि आपने कर्मभूमिज म्लेच्छ से संबंधित (किन्तु सम्यक्त्व की उत्पत्ति हो सकती है)। देव तथा प्रश्न पूछा है। अतः अब उनकी चर्चा की जाती है। नारकी के तिर्यंचायु तथा मनुष्यायु का बंध हो जाने पर . कर्मभूमिज म्लेच्छ भी दो प्रकार के होते हैं। १. भी सम्यक्त्व उत्पन्न हो सकता है। म्लेच्छखण्डों में रहनेवाले मनुष्य २. आर्यखण्डों में रहनेजिज्ञासा- क्या सामायिक प्रतिमाधारी, वस्त्ररहित वाले म्लेच्छ। म्लेच्छखण्डों में रहनेवाले मनुष्य के संबंध होकर सामायिक कर सकता है? समाधान- उपर्युक्त जिज्ञासा के समाधान में | । म्लेच्छो के संबंध में श्री आदिपुराण भाग २, पर्व रत्नकरंडक-श्रावकाचार का श्लोक न १३९ द्रष्टव्य है- | ३१ में इस प्रकार कहा है चतरावर्तत्रित्तयश्चतःप्रणामः स्थितो यथाजातः।। धर्मकर्मबहिर्भूता इत्यमी म्लेच्छका मताः। सामयिको द्विनिषद्यस्त्रियोगशद्धस्त्रिसन्ध्यमभिवन्दी। अन्यथाऽन्यैः समाचारैरार्यावर्तेन ते समाः॥ १४२॥ अर्थ- मानवधर्म टीकाकार आचार्य ज्ञानसागरजी अर्थ- ये म्लेच्छखण्ड में निवास करनेवाले मनुष्य, महाराज के अनुसार चारों दिशाओं में तीन-तीन आवर्त | धर्मक्रियाओं से रहित हैं, इसलिए म्लेच्छ माने गये हैं। और चार बार नमस्कार करनेवाला, यथाजात (नग्न) रूप धर्मक्रियाओं के सिवाय अन्य आचरणों से, आर्य खण्ड से अवस्थित ऊर्ध्वकायोत्सर्ग और पदमासन का धारक | में उत्पन्न होनेवाले मनुष्यों के समान हैं। तीनों योगों की शुद्धिवाला, तीनों संध्याओं में वन्दना को इस प्रमाण से ज्ञात होता है कि ये मनुष्य, धार्मिक करनेवाला, सामायिक-प्रतिमाधारी श्रावक कहलाता है। संस्कारों से रहित होने के कारण ही म्लेच्छ कहे गये प्रथमानुयोग में सेठ सुदर्शन के संबंध में कथा | हैं। परन्तु शारीरिक सुन्दरता गुणवानपना, सांसारिक कार्यो आती है कि वे अष्टमी तथा चतुर्दशी को श्मशान में | में दक्षता आदि में आर्यखण्ड के मनुष्यों से हीन नहीं 38 जून-जुलाई 2008 जिनभाषित Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होते हैं। इसी कारण से, चक्रवर्ती जब म्लेच्छ खण्डों । पक्ष में पानी का तल ऊपर हो जाता है। यह ज्वारभाटा की विजय करता है, तब ३२००० रानियाँ भी म्लेच्छ खण्ड से आती हैं। श्री लब्धिसार के अनुसार इन म्लेच्छ खण्डों से आर्यखण्ड में आये हुये कर्मभूमिज म्लेच्छ तथा उनकी संतानों से उत्पन्न चक्रवर्ती की सन्तान भी दीक्षा के योग्य होती है। यहाँ के निवासी धार्मिक संस्कारों से शून्य होने के कारण नियम से प्रथम मिथ्यात्वगुणस्थान लवणसमुद्र में ही आता है, अन्य समुद्रों (कालोदधि आदि) में नहीं आता, क्योंकि उनमें पाताल नहीं है। पाताल सिर्फ लवण समुद्र में ही है । पातालों के संबंध में तिलोयपण्णति में इस प्रकार कहा हैं लवणोवहि- बहु- मज्झे, पादाला ते समंतदो होंति । अठुत्तरं सहस्सं जेट्टा मज्झा जहण्णा य ॥ ४-२४३८ । अर्थ- लवण समुद्र के बहुमध्य भाग में चारों ओर वर्ती ही होते हैं। आर्यखण्ड में रहनेवाले म्लेच्छो के संबंध में इस उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य एक हजार आठ पाताल प्रकार वर्णन प्राप्त होता है हैं। (१) श्री सर्वार्थसिद्धि ३ / ३६ में इस प्रकार कहा " कर्मभूमिजाश्च शकयवनशवरपुलिन्दादयः ।" अर्थ- जो शक, यवन, शवर और पुलिन्दादिक हैं, वे कर्मभूमिज म्लेच्छ हैं। ( २ ) श्री महापुराण में इस प्रकार कहा है- ये म्लेच्छ अर्धबर्बर देश में रहते थे, इनका शरीर पुष्ट और अंजन के समान काला, सूखे पत्तों के समान कांतिवाला ( कांतिहीन) तथा लाल रंग का होता था । ये पत्ते पहनते थे। हाथों में हथियार लिये रहते थे। मांस इनका भोजन था। इनकी ध्वजाओं में वराह, महिष, व्याघ्र, वृक और कंक चिन्ह अंकित रहते F ये म्लेच्छ हिंसाचार, मांसाहार, बलात् परधनहरण और धूर्तता करने में आनंद मानते थे । (३) श्री नियमसार गाथा १६ की टीका में कहा है म्लेच्छाः पापक्षेत्रवर्तिनः । अर्थ- पापक्षेत्र में रहनेवाले म्लेच्छ हैं । म्लेच्छ खण्ड में रहनेवाले मनुष्यों के संबंध में शास्त्रों में अधिक वर्णन देखने में नहीं आया। जो उपलब्ध हो पाया है, उसके अनुसार ऐसा प्रतीत होता है कि उपर्युक्त निन्द्य आचरणवाले म्लेच्छ आर्यखण्ड के अलावा म्लेच्छखण्ड में भी पाये जाते हैं । प्रश्नकर्त्ता - सौ. संगीता नंदुरबार । जिज्ञासा- क्या ज्वारभाटा लवणसमुद्र में ही आता हैं, अन्य समुद्रों में नहीं आता? कृपया आगम से बतायें समाधान करणानुयोग के ग्रंथ (त्रिलोकसार, तिलोयपण्णत्ति आदि) के अनुसार ज्वारभाटा आने का कारण यह है कि लवणसमुद्र में स्थित पातालों में शुक्ल चत्तारो पायाला, जेट्ठा मज्झिल्लआ वि चत्तारो । होदि जहण्ण सहस्सं, ते सव्वे रंजणायारा । ४- २४३९ ।। अर्थ- ज्येष्ठ पाताल चार, मध्यम पाताल चार और जघन्य पाताल १००० हैं । ये सब पाताल घड़े के आकार सदृश हैं। टंकुक्किण्णायारो, सव्वत्थ सहस्स जोयणवगाढो । चित्तोवरि तल - सरिसो, पायाल विवज्जिदो एसो ॥ ४-२७६३ ॥ अर्थ - टांकी से उकेरे हुये के सदृश आकारवाला यह कालोदधि समुद्र, सर्वत्र एक हजार योजन गहरा, चित्रा पृथ्वी के उपरिम तल भाग के सदृश अर्थात् समतल तथा पातालों से रहित है। उपर्युक्त तीन गाथाओं से यह स्पष्ट हो जाता है कि लवण समुद्र में १००८ पाताल हैं, जबकि कालोदधि में पाताल नहीं हैं। इसी कारण लवण समुद्र का पानी शुक्ल पक्ष में ऊपर उठ जाता है, जबकि कालोदधि समुद्र का नहीं। अब करणानुयोग के उपर्युक्त ग्रंथों के आधार से ज्वार भाटा (समुद्र के पानी का तल ऊपर उठ जाना) के संबंध में कुछ लिखा जाता है। ज्येष्ठ पाताल २००००० योजन गहरे, मध्यम पाताल २०००० योजन गहरे तथा जघन्य पाताल १००० योजन गहरे हैं। इनके ऊँचाई की अपेक्षा तीन भाग करने पर ऊपर के १ / ३ भाग में जल, मध्यम १ / ३ भाग में जल एवं वायु तथा नीचे के १ / ३ भाग में मात्र वायु है। इन तीन भागों में से मध्य का जल एवं वायुवाला भाग, निचले भाग की वायु से प्रेरित होकर चलाचल होता है। इस भाग के चंचलपने के कारण ही शुक्ल तथा कृष्ण पक्ष में लवणसमुद्र के जल की वृद्धि हानि जून - जुलाई 2008 जिनभाषित 39 Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टि गोचर होती है। पातालों की वायु सर्वकाल स्वभाव | उपर्युक्त प्रमाणों के अनुसार तिर्यंच तथा मनुष्यों से ही शुक्लपक्ष में बढ़ती है, एवं कृष्णपक्ष में घटती | में होनेवाला विभंगावधि, गुणप्रत्यय होता है। विशेष यह है। शुक्लपक्ष में प्रतिदिन २२२२२ / ९ योजन वायु बढ़ने | भी जानना चाहिये कि इसका उत्कृष्ट एवं जघन्यकाल से जल का तल भी इतना ही ऊपर हो जाता है। पूर्णिमा | अंतमुहूर्त ही होता है। को पातालों के अपने-अपने तीन भागों में से नीचे के जिज्ञासा-क्या पुण्य या शुभोपयोग सर्वथा हेय है? दो भागों में वायु और ऊपर के तृतीय भाग में केवल समाधान- कतिपय तत्त्वजिज्ञासु शुभोपयोग को जल विद्यमान रहता है और नीचे के तीसरे भाग में केवल | अशुभोपयोग के समान बताते हुए उसे सर्वथा हेय ओर वायु रहती है। लवणसमुद्र के मध्य में अमावस्या के | संसार का कारण निरूपित करते हैं। उनका कहना है दिन जल की ऊँचाई समभूमि से ११००० योजन रहती कि शुभोपयोग और अशुभोपयोग दोनों रागात्मक हैं। राग है, जो प्रतिदिन ३३३४ योजन की वृद्धि होती हुई पूर्णिमा | संसार का कारण है, अतः हेय है। यह बात आगम को वह ऊँचाई १६००० योजन हो जाती है। के अनुकूल नहीं है। न तो शुभोपयोग अशुभोपयोग के इस प्रकार यह ज्वारभाटा (समुद्र में पानी का | समान है और न ही वह संसार का कारण है। यह तल ऊपर उठना) केवल लवणसमुद्र में ही होता है, बात सत्य है कि शुभोपयोग और अशुभोपयोग दोनों अन्य में नहीं। रागात्मक वृत्ति हैं। पर इतने भाव से ही दोनों समान प्रश्नकर्ता- सौ. संगीता नंदुरबार नहीं हो सकते। देखा जाए तो नल और नाली दोनों में जिज्ञासा- विभंगावधिज्ञान गुणप्रत्यय है या भव | जल है, पर दोनों की गुणवत्ता में जमीन आसमान का प्रत्यय? समझाइयेगा। अन्तर है। आचार्य गुणभद्र के अनुसार जैसे प्रभातकालीन समाधान- मिथ्यादृष्टि जीवों को जो अवधिज्ञान लालिमा के बिना सूर्योदय नहीं होता, उसी प्रकार शुभोपयोग होता है, वह विभंगावधि कहलाता है। देव तथा नारकी | के बिना शुद्धोपयोग नहीं होता। शुभोपयोग प्रभातकालीन जीवों में अवधिज्ञान नियम से पाया जाता है। अतः जो लालिमा हैं के समान है, तो अशुभोपयोग संध्याकालीन - देव या नारकी मिथ्यादृष्टि होते हैं, उनको होनेवाला | | ललिमा की भाँति है। आचार्य विद्यासागर जी ने लिखा अवधिज्ञान विभंगावधि है और वह भवप्रत्यय (जिसमें | है कि संतजनों के प्रति राग भी हमारे पाप को मिटानेवाला वह भव ही कारण हो) होता है। है। जल कितना भी गर्म क्यों न हो, आग को बुझाने मनुष्य तथा तिर्यंच मिथ्यादृष्टि जीवों के विभंग- | की सामर्थ्य उसमें बनी रहती है। इसलिए आचार्य ने ज्ञान दो प्रकार से पाया जाता है। शुभोपयोग को कर्मनिर्जरा का कारण बताया है। आगम (१) जिन सम्यग्दृष्टि जीवों को अवधिज्ञान उत्पन्न | में इसके पर्याप्त प्रमाण मिलते हैं। उनमें से कुछ प्रमाणों हुआ है, यदि वे मिथ्यात्व के उदय से मिथ्यादृष्टि हो | को हम यहाँ दे रहे हैं। जाते हैं, तो उनका अवधिज्ञान विभंगावधि हो जाता है। १. श्री अमृतचन्द्राचार्य ने तत्त्वार्थसार ४/१०३ में (२) मिथ्यादृष्टि मनुष्य एवं तिर्यंचों में विभंगावधि | कहा हैज्ञान की उत्पत्ति भी देखी जाती है। जैसा गोम्मटसार | हेतुकार्यविशेषाभ्याम् विशेषः पुण्यपापयोः। जीवकांड गाथा ३०५ की टीका में कहाँ है- मिथ्यादर्शन __ हेतू शुभाशुभौ भावौ, कार्ये च सुखासुखे॥ कलङ्कितस्य जीवस्य अवधिज्ञानावरणीयवीर्यान्तराय अर्थ- पुण्य तथा पाप में हेतु और कार्य की विशेषता क्षयोपशमजनितं---विपरीतग्राहकं तिर्यग्मनुष्यगत्योः | से भेद है। पुण्य का हेतु शुभभाव है और पाप का तीव्रकायक्लेशद्रव्यसंयमरूपगुणप्रत्ययं---अवधिज्ञानं | हेत अशभभाव है। पुण्य का कार्य सख है और पाप विभंगमिति। का कार्य दुःख है। ___ अर्थ-मिथ्यादृष्टि जीवों के अवधिज्ञानावरण एवं २. आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने मोक्षपाहुड गाथा वीर्यान्तराय के क्षयोपशम से उत्पन्न, विपरीत ग्रहण करने | २५ में इस प्रकार कहा हैवाला, तिर्यंच तथा मुनष्यगति में, तीव्र कायक्लेशरूप | वर वयतवेहि सगो मा दमवं होट निट दयरेटिं। द्रव्यसंयम से उत्पन्न गुणप्रत्यय विभंगावधि है। | छायातवद्वियाणं, पडिवालंताण गुरुभेयं ॥ २५॥ 40 जून-जुलाई 2008 जिनभाषित Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ- जिस प्रकार छाया और धूप में स्थित पथिकों। अर्थ- सर्वज्ञ-व्यवस्थापित वस्तुओं में उपयुक्त . के प्रतिपालक-कारणों में बड़ा भेद है, उसी प्रकार पुण्य शुभोपयोग का फल पुण्यसंचयपूर्वक मोक्ष की प्राप्ति है। + और पाप में भी बड़ा भेद है। व्रत तप आदि रूप पुण्य आ. जयसेन ने भी उक्त प्रसंग में शुभोपयोग को श्रेष्ठ है, क्योंकि उससे स्वर्ग की प्राप्ति होती है। और | परम्परा से मोक्ष का कारण कहा है। उससे विपरीत अव्रत तथा अतप आदि रूप पाप श्रेष्ठ ८. पंचास्तिकाय गाथा १७० की उत्थानिका और नहीं है, क्योंकि उससे नरक की प्राप्ति होती है। | टीका में भी शुभोपयोग को परम्परा से मोक्ष का कारण ३. आदिपुराण पर्व ३७/२०० में आचार्य जिनसेन | कहा है-"अर्हदादिभक्तिरूपपरसमयप्रवृत्तिः साक्षान्मोक्षने इस प्रकार कहा है हेतुत्वाभावेऽपि परम्परामोक्षहेतुत्वसद्भावद्योतनमेतत्।" ततः पुण्योदयोद्भूताम् मत्वा चक्रभृतः श्रियम्। अर्थ- यहाँ अर्हन्त आदि की भक्तिरूप परसमय चिनुध्वं भो बुधाः पुण्यं यत्पुण्यं सुखसम्पदाम्॥ | की प्रवृत्ति (शुभोपयोग) साक्षात् मोक्ष का हेतु न होने अर्थ- हे पंडितजन! चक्रवर्ती की विभति को पुण्य | पर भी परम्परा से मोक्ष का हेत है. यह दर्शाया है। के उदय से उत्पन्न हुई मानकर, उस पुण्य का संचय | ९. ऐसा ही देवसेनाचार्य ने भावसंग्रह में कहा करो, जो समस्त सुख सम्पदाओं की खान है। (यदि | है-सम्मादिट्ठी-पुण्णं ण होइ संसारकारणं नियमा॥४०४॥ पुण्य को सर्वथा हेय ही कहना उचित होता, तो श्री अर्थ- नियम से सम्यक्दृष्टि का पुण्य संसार का जिनसेनाचार्य इस प्रकार ज्ञानियों को पुण्य-उपार्जन करने | कारण नहीं होता है। और भी देखेंका उपदेश क्यों देते)? १०. आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने प्रवचनसार गाथा ४. आत्मानुशासन श्लोक २३ में आचार्य गुणभद्र | ४५ में अर्हन्त भगवान् को पुण्यप्रकृति का फल कहा स्वामी ने इस प्रकार कहा है है 'पुण्णफला अरहंता' पुण्य का फल अरहंतपना है। ____ परिणाममेवकारणमाहुः खलु पुण्यपापयोः प्राज्ञाः। ११. उपर्युक्त की टीका में श्री अमृतचन्द्रस्वामी 1 तस्मात् पापापचयः पुण्योपचयश्च सुविधेयः॥ लिखते हैं कि- अर्हन्तः खलु सकलसम्यक्परिपक्वपुण्य अर्थ- बुद्धिमानों ने निश्चय करके पुण्य-पाप का | कल्पपादपफला एव भविन्त। कारण परिणामों को ही कहा है, अतः पाप का नाश अर्थ- अरहंत भगवान् वास्तव में सम्यक् प्रकार और पुण्य का संचय भली प्रकार से करना ही योग्य है। से सम्पूर्ण परिपक्व हुये पुण्यरूपी कल्पवृक्ष के फल ही ५. आचार्य पद्मनंदी महाराज ने भी पद्मनंदी हैं। पंचविंशतिका श्लोक १/१८८ में इस प्रकार कहा हैं- १२. आचार्य जयसेन स्वामी इसकी टीका इस प्रकार हे पंडितजनो! पुण्य राशि के भाजन हो, अर्थात् पुण्य | करते हैंका उपार्जन करो। यदि पुण्य सर्वथा हेय होता, तो सम्यग्दृष्टि । अर्थ- जो पंचमहाकल्याणक की पूजा उत्पन्न करने के पुण्य को मोक्ष का कारण क्यों कहा जाता? | वाला है, त्रिलोक को जीतनेवाला है, वह तीर्थंकर नाम ६. आ. कुन्दकुन्द स्वामी प्रवचनसार में कहते हैं- | का पुण्यकर्म है। इसी के फलभूत अरहंत भगवान् होते एसा पसत्थभूदा समणाणं वा पुणो धरत्थाणं। हैं। चरिया परेत्ति भणिदा ता एव परं लहदि सोक्खं ।। २५४॥ १३. श्री अकलंक स्वामी राजवार्तिक में इस प्रकार __अर्थ- यह प्रशस्तभूत चर्या अर्थात् शुभोपयोग मुनियों | लिखते हैंके गौणरूप से होता है, और गृहस्थ के मुख्यरूप से। 'तत्र पुण्यात्रवो व्याख्येयः प्रधानत्वात् तत्पूर्वक और वे उसी भाव से परम सौख्य अर्थात् मोदन को | त्वात् मोक्षस्य।' (७/१) प्राप्त करते है। ऐसा जिनेन्द्र भगवान् ने कहा है। | अर्थ- अब पुण्यास्रव का व्याख्यान करना चाहिए, ७. आ. अमृतचन्द्र ने प्रवचनसार गाथा २५६ की | क्योंकि वह प्रधान है। उस पूर्वक ही मोक्ष की प्राप्ति टीका में कहा है होती है। शुभोपोगस्य सर्वज्ञव्यवस्थापितवस्तुषु प्रणिहितस्य । १४. सर्वार्थसिद्धिकार ने पुण्य की परिभाषा अध्याय पुण्योपचयपूर्वकोऽपुनर्भावोपलम्भः किल फलम्। | ६/३ की टीका में इस प्रकार की है जून-जुलाई 2008 जिनभाषित 41 Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'पुनात्यात्मानं पूयतेऽनेनेति वा पुण्यं- जो आत्मा । आश्रय लेना चाहिए- 'जहाँ शुद्धोपयोग होता जानै तहाँ को पवित्र करता है, या जिसके द्वारा आत्मा पवित्र होता है, वह पुण्य है।' तो शुभकार्य का निषेध ही किया, अर जहाँ अशुभोपयोग होता जाने, तहाँ शुभ को उपायकरि अंगीकार करना युक्त है।' १५. आचार्य विद्यानंद जो श्लोकवार्तिक व अष्टसहस्री में लिखते हैं उपर्युक्त प्रमाणों से यह सिद्ध है, कि पुण्य सर्वथा मोक्षस्यापि परमपुण्यातिशयचारित्रविशेषात्मक हेय नहीं है, अपितु कथंचित् हेय तथा कथंचित् उपादेय पौरुषाभ्याम् एव संभावत्। (पृ. २५७) । है । हम गृहस्थों को तो इस काल में शुद्धोपयोग होता अर्थ- परमपुण्य के अतिशय से तथा चारित्र रूपी नहीं, अतः शुभोपयोग अर्थात् पुण्य को ही उपादेय मानकर पुरुषार्थ से मोक्ष की प्राप्ति होती है। अंगीकार करना चाहिए। इतना अवश्य है कि पुण्य साक्षात् मोक्ष का कारण नहीं है। साक्षात् मोक्ष का कारण तो शुद्धोपयोग ही है। उपर्युक्त सभी प्रभावों को ध्यान में रखते हुये पुण्य को सर्वथा हेय कहना छोड़कर, पंडित टोडरमलजी के मोक्षमार्ग प्रकाशक अधिकार ७ में कहे इन वचनों का शास्त्रि-परिषद् का शिविर एवं अधिवेशन सम्पन्न अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन शास्त्रिपरिषद् के तत्त्वावधान में सराकोद्धारक राष्ट्रसंत परमपूज्य उपाध्याय ज्ञानसागर जी महाराज, पूज्य मुनि संयमसागर जी एवं क्षु. सहज सागर जी महाराज के पावन सान्निध्य में दिगम्बर जैनचौबीसी बड़ा मंदिर चंदेरी के विशाल सभाकक्ष में एक सप्त दिवसीय जैन विद्या शिक्षण एवं प्रशिक्षण शिविर, जिनवाणी की भव्य शोभायात्रा एवं परिषद् का अधिवेशन दिनांक 18 जून से 25 जून 08 तक अतिभव्यरूप में संपन्न हुआ। शिविर में पूरे देश से समागत सौ (100) विद्वानों ने तत्त्वार्थसूत्र, सिद्धांत, जैनन्याय, व्याकारणशास्त्र, विधिविज्ञान, दशधर्मप्रवचन आदि विषयों पर शास्त्रानुकूल प्रामाणिक प्रशिक्षण प्राप्त किया। प्रशिक्षक विद्वानों में डॉ. श्रेयांसकुमार जैन बडौत, डॉ. कमलेश जी वाराणसी, डॉ. अशोक कुमार जी वाराणसी, प्रा. अरुणकुमार जैन ब्यावर, प्रा. निहालचन्द जी बीना, ब्र. जयकुमार निशांत टीकमगढ़, प. विनोदकुमार जैन रजवाँस ने अपने विद्वत्तापूर्ण व्याख्यानों के माध्यम से विविधविद्याओं में आगम विप्रतिपत्तियों का समाधान प्रस्तुत करते हुये नवोदित विद्वानों के ज्ञान का संवर्द्धन एवं अभिनमन किया। स्थानीय समाज के लाभार्थ छहढाला, बालबोध भाग १, २ की कक्षायें चलायी गयीं। १/२०५, प्रोफेसर्स कॉलोनी, आगरा (उ.प्र.) शिविर - समापन के अवसर पर दिनांक 24 जून को पालकी में जिनवाणी को विराजमान कर एक भव्य विराट् शोभायात्रा चंदेरी नगरी की वीथियों से प्रवर्तित की गई। शोभायात्रा में पीतवस्त्रधारिणी नारियाँ हाथ में कलश, सौ से अधिक विद्वान् अपने सिर पर शास्त्रजी विराजमानकर चले रहे थे । दिनांक 25 जून को शास्त्रि-परिषद् का अधिवेशन डॉ. श्रेयांसकुमार जी की अध्यक्षता में आयोजित हुआ, जिसमें विद्वानों द्वारा जिनवाणी की महिमा, स्वाध्याय का महात्म्य एवं समाज और संस्कृति के उन्नयन में विद्वानों की भूमिका पर प्रकाश डाला। अधिवेशन में अल्पसंख्यक घोषित राज्यों के अन्तर्गत जैन संस्थाओं में जैनप्रतिभाओं को ही नियुक्ति में प्राथमिकता प्रदान करने तथा भारत सरकार द्वारा जैनसमुदाय को अल्पसंख्यक घोषित करने, 'सरिता' पत्रिका द्वारा जन-जन की आस्था के केन्द्र जैनमुनियों के विरुद्ध लेख प्रकाशित करने पर निन्दा प्रस्ताव, विश्वविद्यालयों में प्राकृत एवं जैन विद्या विषय प्रारम्भ करने विषयक अनेक प्रस्ताव पारित किये गये । अधिवेशन में परिषद् द्वारा विद्वानों को पुरस्कृत किया गया एवं आगामी पुरस्कारों की घोषणा की गयी। चंदेरी समाज ने सभी विद्वानों का भावभीना स्वागत किया । 42 जून - जुलाई 2008 जिनभाषित पं. विनोदकुमार जैन रजवाँस संयुक्त मंत्री- अ. भा. दि. जैन शास्त्री परिषद् Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थ-समीक्षा आत्मानुशासन समीक्षक : प्राचार्य अभयकुमार जैन मूललेखक- महाकवि आ.श्री गुणभद्रजी, पद्यानुवाद-गुणोदय- महाकवि आ.श्री विद्यासागर जी, अन्वयार्थ एवं भद्रार्थ- आर्यिका रत्न मृदुमति माताजी, संयोजन-बालब्रह्म- बहिन श्री पुष्पा दीदी (रहली), संस्करणप्रथम सन् २००८ (बीना चातुर्मास), मूल्य- आत्मनुशासन, प्रकाशक- श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र पटनागंज (रहली) जिला. सागर म.प्र. प्राप्तिस्थान- १. चौधरी अरविन्दकुमार सुरेशकुमार जैन, आजाद कटपीस सेन्टर,राव मार्केट, रहली जिला- सागर (म.प्र.) मो. ९३२९४१२९१२, ९३२५६९१११५ २. ब्रह्म. सुषमा दीदी, अरहन्त कोल डिपो, लिंक रोड, सागर (म.प्र.) मो. ९८२७६६८९१६ ३. कु. सविता जैन पुत्री श्री महेन्द्रकुमार जैन, डॉ. श्रीवास्तव के मकान के पीछे, आजादपुरा ललितपुर (उ.प्र.) मो. ९३०५५५३७८९ समीक्ष्य कृति 'आत्मानुशासन आचार्यश्री जिनसेन । शान्ति और सन्तोषकारक है। के परम शिष्य प्रखर तपस्वी, बालब्रह्मचारी अतिशय आत्मानुशासन पर संस्कृत में श्री प्रभाचन्द्राचार्य की गुरुभक्त, सिद्धान्त-न्याय, व्याकरण-दर्शन, आयुर्वेद आदि | टीका तथा ढूंढारी भाषा में पं. श्री टोडरमल जी की अनेक विषयों के पारंगत संस्कृतभाषा के श्रेष्ठ कवि ईस्वी | भाषा वचनिका प्रकाशित हैं। आ. श्री विद्यासागर जी ने सन् की ९वीं शताब्दी के अपूर्व विश्रुत विद्वान् सेनसंघ | भी इसका हिन्दी पद्यानुवाद 'गुणोदय' नाम से किया है। के आचार्य श्रीगुण-भद्राचार्य की अमूल्य शिक्षाओं से परिपूर्ण | छिन्दवाड़ा निवासी पं. श्री अभयकुमार जी शास्त्री ने भी अमरकृति है। धर्मशास्त्र, नीतिशास्त्र और सूक्तिकाव्य-तीनों | श्री टोडरमलजी की वचनिका का हिन्दी भाषानुवाद तथा ही दृष्टियों से उत्कृष्ट, सुभाषितों से परिपूर्ण एक अपूर्व | आत्मानुशासन का पद्यानुवाद किया है, परन्तु ऐसी अमूल्य आध्यात्मिक रचना है। इसमें आत्मा को अनुशासित करने | एवं उपयोगी कृति का अन्वयार्थ सहित भावार्थ का प्रकाशन की, आत्मा को जीतने की, आत्मजयी बनने की | अभी तक देखने में नहीं आया था। इसके अभाव में आत्महितकारी शिक्षा दी गई है। संसार-ताप-संतप्त | जिज्ञासु पाठक संस्कृत पद्यों का अर्थ हृदयंगम नहीं कर विषयासक्त प्राणियों को विषयों से विरक्त कर आत्महित | पाते थे। प्रस्तुत प्रकाशन का वैशिष्टय यही है कि आ. के लिए प्रेरित करना ही इसका प्रयोजन है। अनादिकालीन श्री विद्यासागर जी की परम विदुषी शिष्या १०५ आर्यिकारत्न विषयासक्ति का विरेचन करने के लिए यह कृति रामबाण | श्री मृदुमति माता जी ने प्रेरणादायी 'वैराग्य-संबर्द्धक' औषधि है। इसके विविध पद्य रंग-बिरंगे फूलों की तरह | इस अमरकृति का अन्वयार्थ और भद्रार्थ (भावार्थ) ज्ञान और वैराग्य की सुगन्धि (खुशबू) सर्वत्र बिखेरते लिखकर जिज्ञासु पाठकों को यह कृति बड़ी सरल और हैं। अध्यात्म के शिखर पर आरोहण के लिए यह सोपान- बोधगम्य बना दी है। इसके पठन-पाठन और स्वाध्याय समान है। से सामान्य जन भी स्वाध्याय में रुचिवन्त होकर वैराग्य इसके सतत् स्वाध्याय से ज्ञानावरण के क्षयोपशम | एवं आत्मकल्याण के प्रशस्त पथ पर अग्रसर होकर ज्ञान के साथ ही चारित्रमोहनीय कर्म का भी क्षयोपशम तथा | और वैराग्य का लाभ प्राप्त कर सकेंगे। आत्मानुशासन विषयों से विरक्ति होने के साथ-साथ नये संवेग का | का सरल और स्पष्ट अन्वयार्थ और भावार्थ लिखकर जागरण होता है। अतिचारों की शुद्धि, परिणामों में विशुद्धि | वन्दनीय पूज्य माताजी ने पाठकों और स्वाध्याय प्रेमियों और तपों में वृद्धि होने के साथ-साथ धर्म और धर्म | पर बड़ा उपकार किया है। इसी प्रकाशन में आ. श्री के फल में प्रीति भी पैदा होती है। अतः मुमुक्षुओं के | विद्यासागर जी के पद्यानुवाद 'गुणोदय' को भी मूलसंस्कृत लिए परम उपकारक तथा सामान्यजन के लिए सुख- | पद्यों के नीचे प्रकाशित किया गया है। जून-जुलाई 2008 जिनभाषित 43 Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुरीली आवाज मुग्धकारी है। आर्यिकारत्न श्री मृदुमति माताजी 'यथानाम तथा । दक्ष हैं। आपकी काव्यप्रतिभा विस्मयकारी है। तथा मधुर गुण' हैं, जिनकी वाणी में मिश्री सा माधुर्य, हृदय में वात्सल्य और प्राणिमात्र के प्रति असीम करुणा का सरोवर है। जिनकी चर्या और आचार में मूलाचार समाहित है । वे सरल उदारचेता तथा गुरु के प्रति असीम श्रद्धा-भक्ति से परिपूर्ण हैं । सतत् श्रुताभ्यास, आत्मचिन्तन, मनन - लेखन में लीन, आगम एवं अध्यात्म के तलस्पर्शीज्ञान के अर्जन में चेष्टारत, भक्तों के प्रति स्नेहार्द्र, धर्मोपदेश द्वारा जिनशासन की प्रभावना करनेवाली, शान्तपरिणामी तथा सत्यथप्रेरक हैं । जिज्ञासुओं की जिज्ञासाओं का आगमोक्त समाधान कर उन्हें सन्तुष्ट करती हैं। आप आगम-सिद्धान्त-न्याय - व्याकरण - काव्य-छन्दअलंकार आदि की विशेषज्ञा होने के साथ-साथ हिन्दी और संस्कृत में काव्यरचना करने में प्रवीण हैं। आपके द्वारा लिखित स्तुतियाँ, स्तवन बड़े मार्मिक, प्रभावी, हृदयस्पर्शी, श्रद्धा-भक्ति और उदात्तभावों से भरपूर I आपका चिन्तन प्रखर और लेखनी सशक्त है। अनेक कालजयी रचनाएँ आपकी लेखनी से प्रसूत हुई हैं । विद्याशाला, विद्यासागर उपबन, अनुपम गुरुस्तुति, पुरुदेव स्तवन, ओंकार - अर्चना, जिनवाणीस्तुति आदि आपकी प्रकाशित रचनाएँ हैं। संस्कृत के विविध छन्दों में सरस मधुर प्रसादगुणयुक्त मनोहारी रचना करने में भी आप आपके भाव, भाषा, शब्दचयन, बिम्ब प्रतिबिम्ब, उपमाएँ, उत्प्रेक्षाएँ सभी अनुपम और अनूठे हैं। शब्दों पर आपका पूर्ण अधिकार है । आपका शब्दचयन भावों और प्रतिपाद्य विषय के अनुकूल है। शब्द प्रभावी और भावाभिव्यक्ति में सक्षम हैं। सरल बोधगम्य साहित्यिक भाषा में अपने विचारों- भावों की सुन्दर अभिव्यक्ति देना आपकी विशेषता है। आत्मानुशासन के प्रकाशित इस संस्करण में संकलित / उद्धृत आपकी स्तुतियाँ और संस्कृत पद्य आपकी विशिष्ट काव्यप्रतिभा को प्रकट करते हैं । हम आशा करते हैं, कि आपकी लेखनी से भविष्य में और भी अप्रतिम अनूठी स्वतन्त्र काव्य-कृतियों की सर्जना होवे । आत्मानुशासन के इस नये प्रकाशित संस्करण का स्वाध्याय-मनन- चिन्तन कर अधिकाधिक भव्य प्राणी अपने आत्मकल्याण का पथ प्रशस्त करें। इसी सद्भावना के साथ हम वन्दनीय पूज्य माताजी के प्रति बड़े कृतज्ञ तथा श्रद्धावनत हैं कि उन्होंने इस वैराग्यवर्धक आत्मकल्याणकारी कृति का अन्वयार्थ एवं भद्रार्थ (भावार्थ ) लिखकर हम अज्ञप्राणियों पर महान् उपकार किया है। कानूनगोवार्ड, बीना (म.प्र.) 470 113 सुविधा नहीं संयम गर्मी का समय था, उन दिनों में मेरी शारीरिक अस्वस्थता बनी रहती थी। मैं आचार्य महाराज के पास गया और मैंने अपनी समस्या निवेदित करते हुये कहा - आचार्य श्री जी ! पेट में दर्द (जलन) हो रहा है। आचार्य महाराज ने कहा- गर्मी बहुत पड़ रही है, गर्मी के कारण ऐसा होता है और तुम्हारा कल अंतराय हो गया था, इसलिए पानी की कमी हो गई होगी सो पेट में जलन हो रही है। कुछ रुककर गंभीर स्वर में बोले कि क्या करें यह शरीर हमेशा सुविधा ही चाहता है, लेकिन इस मोक्षमार्ग में शरीर की और मन की मनमानी नहीं चल सकती । "वहिर्दुःखेषु अचेतनः " अर्थात् बाहरी दुःख के प्रति अचेतन हो जाओ, उसका संवेदन नहीं करो, सब ठीक हो जायेगा । 44 जून - जुलाई 2008 जिनभाषित आचार्य श्री के एक वाक्य में पूरा सार भरा हुआ है, हमें यह श्रद्धान कर लेना चाहिए कि मोक्षमार्ग में मन और शरीर को सुविधा नहीं देनी है, बल्कि, मन और इन्द्रियों को नियंत्रण में रखकर समताभाव बनाये रखना है। वे हमेशा चाहे अनुकूल-प्रतिकूल कैसी भी परिस्थिति रही आवें, मन में समता का भ बनाये रखते हैं और चेहरे पर कभी प्रतिकार जैसा भाव दिखाई नहीं देता । वश में हो सब इन्द्रियाँ, मन पर लगे लगाम । वेग बढ़े निर्वेग का, दूर नहीं फिर धाम ॥ मुनि श्री कुन्थुसागरकृत 'अनुभूत रास्ता' से साभार Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थसमीक्षा आन-बान-शान की धरोहर : बेटियाँ पुस्तक : बेटियाँ हमारी शान, लेखक : श्री विनोद कुमार जैन 'नयन', पृष्ठ: 32, सहयोग राशि : बीस रुपये, प्रकाशक : नमन-सृजन सामाजिक कल्याण समिति, भोपाल जब भी भारतवर्ष के गौरव की चर्चा की जाती है, तो वह माँ से शुरू होती पाई गई है, माँ, जो कल किसी की पुत्री थी। बेटी का चरमोत्कर्ष माँ है और पूज्य माँ का आधार है योग्य बेटी । कहें योग्य बेटी ही पूज्य माँ बन सकती है। अयोग्य तो गणिका, कुलटा आदि का रंग-रूप- सरूप ही धारण कर पाती है। भारत का अतीत योग्य बेटियों और पूजनीय माताओं से भरा पड़ा है। यहाँ हर घर में उनके दर्शन होते रहे हैं। योग्य बेटियों की परम्परा निरंतर थी, है, परन्तु अभी एकदो दशकों से बेटियों पर कुठाराघात करने की गोपनकार्रवाई शुरू की गई है, जिसके फलस्वरूप देश में बेटियों की संख्या कम हो पड़ी है। जाहिर है कि बेटियाँ कम जन्मेंगी, तो बधुएँ भी कम नजर आयेंगी और माताएँ भी । इसी चिंता पर गीतकार श्री विनोद कुमार 'नयन' ने गहन विचार किया है, फलस्वरूप उनकी लेखनी ने प्रस्तुत पुस्तक 'बेटियाँ हमारी शान' को जन्म दिया। सम्पूर्ण पुस्तक में सहज-सरल शब्दों और साधारणतुकबंदी के माध्यम से उन्होंने उस विराट् सत्य के दर्शन करा दिये हैं, जिसे बड़े-बड़े महाकवि अपने कीमती 'महाकाव्य' में नहीं करा पाये, तब लगा कि सचाई अपना लेने से तुकबंदी का वजन भी महाकाव्य जितना हो जाता है। स्लोगन / नारों का अपना एक अस्तित्व होता है, प्रभाव होता है। जो कार्य सौ तलवारों से सौ बहादुर नहीं कर सकते, वह कार्य एक नारे से सौ साधारण - आदमी कर सकते है, यही है इस पुस्तक की उपस्थिति का सरोकार । नारे 'स्थायी महत्त्व का साहित्य' बन सकते है, यह श्री 'नयन' ने सिद्ध करके दिखला दिया है। यह उनके सोच का सफल प्रयास है। पढ़ें बेटी तो बोझा लगे, बचपन से ही यार । प्यारा है बेटा, भले मूरख और गँवार ॥ समीक्षक : श्री सुरेश जैन 'सरल' इसी तरह भ्रूणहत्या के विरुद्ध तुकबंदी कर, ' ने भारी प्रभावशाली पंक्तियाँ दी हैं 'नयन' जो बेटे, बेटी में भेद करे, अरे वह कैसी महतारी है ? जो कोख में बेटी को मारे, वह जननी नहीं, हत्यारी है। एक कविता सास-बहू-संबंधी है, तो एक दहेज के विरुद्ध शंखनाद कर रही है। एक कविता में बेटियों अथक कार्यों और आरामाभाव पर दृष्टि डालते हैं'बेटियाँ कितना काम करें? नहिं पलभर आराम करें।' के यह पीड़ा पिता, भाई, चाचा, और माँ को सबसे पहले समझनी चाहिए, तभी तो बाद में ससुर, देवर, ननदोई और सासें-ननदें समझेंगी। क्योंकि विदा के बाद माता-पिता बेटी की बहुत याद करते हैं, चिन्ता करते हैं, अतः वह बिदा के पूर्व भी करनी चाहिए। पढ़ेंपुस्तक में 'याद आये बेटियाँ' गीत । कवि - गीतकार श्री 'नयन' ने एक रचना के माध्यम से नारी शक्ति पर भी कलम चलायी है, जो प्रेरक और भावपूर्ण है। इसी क्रम में 'माँ को समर्पित स्लोगन', नारी-महिमा, दमदार बेटियाँ, लड़ रही बेटियाँ, बाल विवाह के खिलाफ, बेटियाँ बहक जायें ना, आदि रचनाएँ भी पठनीय हैं। बेटियों के पक्ष में कवि एक सशक्त मंच से बोलता - मिलता है हर रचना में। उनकी भावनाएँ आदर पायेंगी । अध्ययनाभाव के कारण कवि उत्तम-शब्दशक्ति संयोजित नहीं कर पाते, यह सत्य सभी विद्वानपाठकों को गड़ेगा । फिर भी, मानवीय धरातल जुटाने की आशा में, देश की बेटियाँ और बेटियों को स्नेहादर देनेवाले सुसंस्कृत परिवार, इस संकलन की भूरि-भूरि सराहना करेंगे, श्री 'नयन' के रचनाधर्म को आदर देंगे । १९ मार्च १९५३ को जन्मे 'नयन' शीघ्र ही वरिष्ठ नागरिकों और वरिष्ठ साहित्यकारों की सूची में अपना स्थान बनानेवाले हैं, किन्तु यह संकलन वरिष्ठों जितना सम्मान उन पर बरसाने में सफल रहा है । ४०५, सरल कुटी गढ़ाफाटक, जबलपुर (म.प्र.) जून - जुलाई 2008 जिनभाषित 45 Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाचार कुम्भोज - बाहुबली में सम्यग्दर्शन संस्कार शिविर सम्पन्न प.पू. आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज के पावन आशीर्वाद से एवं उनके सुयोग्य शिष्य प.पू. नियमसागर जी महाराज और प.पू. अक्षयसागर जी महाराज तथा आचार्य श्री सन्मतिसागर जी महाराज (दक्षिण) शिष्यों के पावन सान्निध्य में श्री अतिशय क्षेत्र बाहुबली में सम्यग्दर्शन संस्कार शिविर सानंद संपन्न हुआ । यह शिविर दिनांक २१ मई २००८ को महिलाओं का और २३ मई से १ जून २००८ तक पुरुषों का ऐसे दो विभागों में संपन्न हुआ। शिविर में लगभग ५००० महिलाओं एवं पुरुषों ने भाग लेकर धर्मज्ञान का लाभ उठाया । शिविर में एक साथ ३८ क्लासें चलती थीं। शिविर में मुनियों के साथ ब्र. वसंतदादा पाटील (कोथली), पं. रतनलाल जी बेनाड़ा (आगरा) पं. मूलचंदजी लुहाडिया (किशनगढ़), अॅड. रावसाहेब चौगुले, श्रीमती प्रभावती पाटील, श्रमण संस्कृति संस्थान (सांगानेर) के अनेक विद्वद्गण एवं इंदौर आश्रम की ब्रह्मचारिणीयों एवं ब्रह्मचारियों का मार्गदर्शन मिला। 46 जून - जुलाई 2008 जिनभाषित की गई थी। पं. रतनलाल बैनाड़ा जी ने अपने मनोगत में कहा कि दक्षिण में ये जो शिविर की परम्परा शुरू हो गई है, इस से बहुत बड़ा कार्य होनेवाला है । यदि ऐसा ही यह कार्य आगे चलता रहे, तो गुरुवर्य आचार्य विद्यासागरजी महाराज संघसहित दक्षिण में अवश्य पधारेंगे। बाहुबली ब्रह्मचारी आश्रम विद्यापीठ के विद्यमान संचालक आ.ध. बी. टी. बेडगे (गुरुजी) ने अपने मनोगत में कहा कि इस क्षेत्र पर मैं ६० साल में यह पहली बार देख रहा हूँ कि इतने विशाल मुनिसंघ के सान्निध्य में इतना विशाल महाशिविर प्रथम बार हो रहा है । और उन्होंने भावना व्यक्त की, कि यह शिविर हर साल इस क्षेत्र पर लगना चाहिये । शिविर संपन्न होने बा.ब्र. तात्या भैया की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। उन्हीं के निर्देशन में सभी बालब्रह्मचारी एवं स्वयंसेवकों ने अपनी सेवाएँ प्रदान कीं । शिविर का संयोजन शांतिविद्य ज्ञानसंवर्धन समिति के अध्यक्ष अभयकुमार बरगाले (इचलकरंजी), उपाध्यक्ष अॅड. रामगोंडा चौगुले (सांगली), मुख्य संयोजक अॅड. आप्पासो पाटील (क. डीग्रज), महिला संयोजिका सौ. भारती पाटील (जयसिंगपुर ), सहसंयोजक श्री सा.बा. पाटिल ( यळगुड), श्री महावीर खुरपे (जुगुळ), ॲड. धन्यकुमार बेले (सांगली), चेतन पाटिल ( जैनापुर), श्री कुमार संभोजे (सदलगा), अॅड. जयंत नवले (सांगली), श्री विजय कुमार वडगावे (पेठ बडगाँव), सौ. अरुणा पाटिल ( कुंभोज), सौ. सन्मती उगारे (कुरुंदवाड), सौ. विमल पाटील (इ. धामणी), सौ. सुरेखा चौगुले (चिंचवाड) एवं सौ. सरोजनी पाटिल (सांगली) ने किया । अभयकुमार वरगाले, इचलकरंजी जर्मनी के दो प्राकृत मनीषियों को प्राकृत ज्ञानभारती इन्टरनेशनल अवार्ड प्रातः काल में योगज्ञ फूलचंद जैन (छतरपुर) द्वारा योग का अभ्यास कराया गया। शिविर में बालबोध १ व २ छहढाला, तत्त्वार्थसूत्र, सम्यग्ज्ञान, द्रव्यसंग्रह, रत्नकरंडश्रावकाचार का अध्ययन कराया गया। प.पू. १०८ नियमसागर जी महाराज द्वारा सम्यग्ज्ञान विषय पर अत्यंत सुलभ एवं सुंदर शैली में धर्म का प्ररूपण किया गया, उससे बहुत से लोग प्रभावित हुए। प. पू. १०८ अक्षयसागर जी महाराज जी के द्वारा रत्न - करंडक - श्रावकाचार के माध्यम से सम्यग्दर्शन का महत्त्व बताते हुए सच्चे देव - शास्त्र - गुरु का विवेचन किया गया। दोनों महाराज जी के प्रवचन बहुत ही सरल, सहज एवं अति उत्तम थे । उनका प्रभाव शिविरार्थियों के ऊपर बहुत पड़ा। पं. रतनलाल जी बेनाड़ा ने भी तत्त्वार्थसूत्र का अत्यंत मधुर वचनों के माध्यम से ज्ञान कराया, उससे बहुत से लोग प्रभावित हुए । शिविरार्थियों के निवास एवं भोजन की व्यवस्था निःशुल्क । वर्ष २५ मई २००८ को जर्मनी के बर्लिन नगर में समायोजित बाहुबली प्राकृत विद्यापीठ, श्रवणबेलगोला द्वारा संचालित राष्ट्रीय प्राकृत अध्ययन एवं संशोधन संस्थान द्वारा प्रवर्तित प्राकृत ज्ञानभारती इन्टरनेशनल अवार्ड इस Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मान समारोह में जर्मनी के प्रसिद्ध वयोवृद्ध, जैनविद्या । जैन योगा प्राकृत सेन्टर' में इन भारतीय विद्वानों का व्याख्यान मनीषी प्रोफेसर डॉ. विलियम बोली और प्रोफेसर डॉ. एवं सम्मान डॉ. नरेन्द्र जैन योगीराज द्वारा किया गया। • क्लास ब्रूह को प्रदान किये गये। श्रवणबेलगोला प्राकृत पेरिस (फ्रांस) में प्रो. डॉ. नलिनी बलवीर ने प्रो. प्रेम संस्थान के निर्देशक प्रोफेसर प्रेम सुमन जैन, प्रोफेसर | सुमन जैन एवं डॉ. श्रीमती सरोज जैन का स्वागत किया हम्पा नागराजैय्या बैंगलोर, श्री अजित बेनाडी जर्मनी एवं | एवं वहाँ पर जैनधर्म के अध्ययन की जानकारी दी। डॉ. श्रीमती सरोज जैन, श्रवणबेलगोला ने जर्मनी में जाकर | वारसा (पोलैण्ड)कि में प्रो. हम्पाना के दो व्याख्यान हुए बर्लिन टेक्निकल यूनिवसिटी केम्पस के सामने स्थित | एवं आचार्य अकलंक पर कार्य करने वाले प्रोफेसर पियार्ट राधारानी इंडियन रेस्टोरेन्ट के सभागार में इस सम्मान | बाकरोविज ने उनका सम्मान किया। समारोह को आयोजित किया। इस सम्मान समारोह में सरोज जैन प्रोफेसर बोली एवं प्रोफेसर ब्रह्न के परिवार के सदस्यों विभागध्यक्ष, प्राकृत-हिन्दी बाहुबली प्राकृत के अतिरिक्त बर्लिन, वर्जवर्ग, हेडलवर्ग, म्यूनिख तथा विद्यापीठ धवलतीर्थम् श्रवणबेलगोला लंदन यूनिवर्सिटी के लगभग ४५ विद्वान् एवं पत्रकार प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर (म.प्र.) : गौरवपूर्ण सम्मिलित हुए। उपलब्धियाँ स्वागत वक्तव्यों के उपरांत २००५ वर्ष का प्राकृत अन्तर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त जैन-विद्वान् डॉ. सागरमल ज्ञानभारती इंटरनेशनल अवार्ड प्रोफेसर विलियम बोली, जी जैन ने भारतीय प्राच्य-विद्याओं के शिक्षण एवं शोध वेम्वर्ग तथा २००६ वर्ष का अवार्ड प्रोफेसर क्लास ब्रूह्न, तथा योग एवं ध्यान की परम्पराओं के व्यावहारिक प्रशिक्षण बर्लिन को प्रदान करने की घोषणा की गई। इसके साथ | देने के उद्देश्य से वर्ष १९९७ में प्राच्य विद्यापीठ की ही प्रोफेसर प्रेम सुमन जैन, श्री अजित बेनाडी और प्रो.| स्थापना की, जिसे वर्ष २००० में विक्रम विश्वविद्यालय, हम्पाना ने इन दोनों विद्वानों को इलायची और पुष्पों से | उज्जैन (म.प्र.) द्वारा शोध-संस्थान के रूप में मान्यता निर्मित सुभाषित माला, मैसूरी पगड़ी और कढ़ाईयुक्त प्रदान की गई। मनोरम शाल पहनाकर सम्मानित किया। प्रो. हम्पाना ने | विगत् ५० वर्षों से राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर दोनों विद्वानों के अवार्ड प्रशस्ति-पत्रों का वाचन किया। पर जैन-विद्या के क्षेत्र में किए जा रहे उनके सराहनीय प्रो. प्रेम सुमन जैन ने सरस्वती की सुन्दर प्रतिमाओं के | योगदान के लिए 'फेडरेशन ऑफ जैन एसोसिएशन्स इन साथ एक-एक लाख रुपये की अवार्ड राशि दोनों विद्वानों | नॉर्थ अमेरिका (यू.एस.ए.) नामक महासंघ द्वारा वर्ष को समर्पित की। इस मनोरम दृश्य को अतिथियों ने | २००६-०७ में डॉ. सागरमल जी जैन को 'जैना प्रेसिडेन्शिअपनी तालियों की गड़गड़ाहट से ऐतिहासिक बना दिया।| यल अवार्ड' से सम्मानित किया गया। इसी प्रकार, म.प्र. इसी अवसर पर डॉ. श्रीमती सरोज जैन श्रवणबेलगोला | शासन के संस्कृत बोर्ड द्वारा उन्हें 'वागर्थ सम्मान' से ने समुपस्थित प्रोफेसर क्लास ब्रह्न की जीवन-संगिनी | अलंकृत किया गया। श्रीमती कृष्णा बह्न और प्रोफेसर विलियम बोली की डॉ. सागरमल जी जैन के निर्देशन में साध्वी श्री जीवन संगिनी श्रीमती प्रोफेसर आनेग्रेट बोली का शाल | प्रीतिदर्शनाश्री जी द्वारा 'यशोविजय का अध्यात्मवाद' उढ़ाकर सम्मान किया। विषय पर लिखित एवं प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध पर २००६बर्लिन (जर्मनी) के इस सम्मान समारोह के साथ | ०७ में जैन विश्वभारती संस्थान (मान्य विश्वविद्यालय) इस विदेश यात्रा में प्रोफेसर हम्पाना एवं प्रोफेसर प्रेम | लाडनूं द्वारा शोध-उपाधि (पी.एच.डी.) प्रदान की गई। सुमन जैन के फ्री यूनिवर्सिटी बर्लिन, वर्जवर्ग यूनिवर्सिटी | इस प्रकार विद्यापीठ के समृद्ध राजगंगा ग्रन्थागार एवं एवं म्यूनिख यूनिवर्सिटी के प्राच्यविद्या संस्थानों में प्राकृत | | डॉ. सा. के प्रत्यक्ष मार्गदर्शन एवं निर्देशन में १९९७कथा साहित्य, श्रवणबेलगोला की सांस्कृतिक विरासत, | २००७ तक की अवधि में कुल १४ शोधार्थियों को विभिन्न कर्नाटक के अभिलेख, जैनधर्म एवं साहित्य पर विशेष | विश्वविद्यालयों से शोध-उपाधि प्राप्त हो चुकी है। इस व्याख्यान भी आयोजित हुए। बर्लिन के 'डास इन्टरनेशनल | दृष्टि से प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर की राष्ट्रीय स्तर पर - जून-जुलाई 2008 जिनभाषित 47 Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ख्यातिप्राप्त शोध- संस्थान के रूप में पहचान स्थापित | इतिहास', साध्वी श्री प्रियवन्दना श्री जी द्वारा लिखित हो गई है, जहाँ जैनों के सभी सम्प्रदायों के साधु साध्वी | 'जैन धर्म में समत्व-योग की अवधारणा' साध्वी श्री एवं मुमुक्षु विद्यापीठ एवं डॉ. सा. के मार्गदर्शन का लाभ | प्रियलताश्रीजी द्वारा लिखित 'त्रिविध आत्मा की अवधारणा' . लेने के लिए लालायित रहते हैं। तथा साध्वी सम्यग्दर्शनश्री जी म. सा. द्वारा 'उपदेश __ प्रकाशन के क्षेत्र में भी विद्यापीठ का ग्राफ बढ़ता | पुष्पमाला' का हिन्दी अनुवाद (सभी, डॉ. सागरमलजी जा रहा है। साध्वी श्री मोक्षरत्नाश्रीजी म.सा. द्वारा लिखित | द्वारा सम्पादित) शीर्षक से ७ पुस्तिकाओं का वर्ष २००६'आचार दिनकर' ४ भागों में तथा जैन-संस्कार एवं विधि- | ०७ में प्रकाशन हुआ है। इस प्रकार, विद्यापीठ से विभिन्न विधान (एक तुलनात्मक अध्ययन), साध्वी श्री सौम्यगुणाश्री | वर्षों में अब तक कुल १४ पुस्तकों का प्रकाशन हो जी म. सा. द्वारा लिखित 'जैन विधि-विधान का वृहत् चुका है। प्रवक्ता-प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर परमहंस श्री वर्द्धमान महावीर महात्मा, श्री शिवव्रतलाल जी वर्मन, एम.ए. हिन्दुओ! जैनी हम से जुदा नहीं हैं, हमारे ही । था। ये तीर्थंकर है, परमहंस हैं, इनमें बनावट नहीं गोस्त-पोस्त हैं। उन नादानों की बातों को न सुनो | थी, कमजोरियों और ऐबों को छुपाने के लिए इनको जो गलती से नावाकफियत से. या तास्सब से कहते किसी पोशाक की जरूरत नहीं हई। इन्होंने तप. जप हैं 'हाथी के पाँव तले दब जाओ, मगर जैनमंदिर | और योग का साधन करके अपने आपको मुकम्मल के अन्दर अपनी हिफाजत न करो' इस तास्सुब और | | बना लिया था। तुम कहते हो ये नंगे रहते थे, इसमें तंगदिली का कोई ठिकाना है? हिन्दूधर्म तास्सुब का | ऐब क्या? परमअन्तर्निष्ठ, परमज्ञानी और कुदरत के हामी नहीं है, तो फिर इनसे ईर्ष्याभाव क्यों? अगर | सच्चे पुत्र को पोशाक की जरूरत कब थी? सरमद अनेक किसी ख्याल से तुम्हें माफकत नहीं है, तो | नाम का एक मुसलमान फकीर देहली की गलियों सही, कौन सब बातों में किसी से मिलता है? तुम | में घूम रहा था, औरंगजेब बादशाह ने देखा तो उसको उनके गुणों को देखो, किसी के कहे सुने पर न जाओ। | पहनने के लिए कपड़े भेजे। फ़कीर वली था, कहकहा जैनधर्म तो एक अपार समुद्र है, जिसमें इन्सानी हमदर्दी | मारकर हँसा और बादशाह की भेजी हुई पोशाक को की लहरें जोर-शोर से उठती हैं। वेदों की श्रुति 'अहिंसा | वापिस कर दिया और कहला भेजापरमो धर्मः' यहाँ ही असली सूरत अख्तयार करती आँकस कि तुरा कुल्लाह सुल्तानी दाद। हुई नजर आती है। भारा हम ओ अरबाब परेशानी दाद।। श्री महावीर स्वामी दुनिया के जबरदस्त रिफार्मर पोशनीद लबास हरकरा देवे दीद। और ऊँचे दर्जे के प्रचारक हुए हैं। यह हमारी कौमी ऐबा रा लववास अयानी दाद॥ तारीख के कीमती रत्न हैं। तुम कहाँ? और किन अर्थ- यह लाख रूपये का कलाम है. फकीरों में धर्मात्मा प्राणियों की तलाश करते हो? इनको देखो | की नग्नता को देखकर तुम क्यों नाक भौं सकोडते इनसे बेहतर साहिबे कमाल तमको कहाँ मिलेगा? इनमें | हो? इनके भाव को नहीं देखते। इसमें ऐब की क्या त्याग था, वैराग था, धर्म का कमाल था। यह इंसानी बात है? तुम्हारे लिए ऐब हो, इनके लिए तो तारीफ कमजोरियों से बहुत ऊँचे थे। इनका स्थान 'जिन' | की बात हैं। है, जिन्होंने मोह, माया, मन और काया को जीत लिया । ('जैन धर्म का महत्त्व', सूरत भाग 1 पृ.1-14) 'जन-जन के महावीर' (पृ.४५) से साभार - 48 जून-जुलाई 2008 जिनभाषित Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि श्री योगसागर जी की कविताएँ चमत्कार याचना है विधियों के संस्कारों में चमत्कार कभी नमस्कार सत्कार तथा पुरस्कार तो कभी पत्रकार सा अचानक ही तिरस्कार, बहिष्कार और धिक्कार का अंधकार छा जाता है। जीवन के उद्यान में दीनता का बीज कहीं से गिर गया कालान्तर में याचना का अंकुर फूट गया और कुछ ही दिनों में विशाल लता के रूप में छा गया। जिसमें बांछना के फूल खिल गये घृणा की महक से सारा उद्यान छा गया जहाँ अहर्निश भ्रमररूपी मित्र वात्सल्य भावों से गुंजायमान होते थे वहीं आज अपनी नासा को बन्द किये निराश लौट रहे। मम और रण जहाँ ऋण है वहाँ रण हैयही मरण का कारण है पर जहाँ जिनवर का सतत सुमरण है वहाँ सु मरण है जिसके स्मरण के कारण स्व में रमता है यही मुक्ति-वधू के वरण में कारण है। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ UPHIN/2006/16750 मुनि श्री क्षमासागर जी की नई कविता कविता लिखते हुए मुनिश्री तुम हो तो लगता ज को अपना तुम कभी यह < naayayan ith only 31401 adt तुम 00 पनामा तो Aud अपना चला /4 असल अब leerde & 128 El 14 Junci04 424 स्वामी, प्रकाशक एवं मुद्रक : रतनलाल बैनाड़ा द्वारा एकलव्य ऑफसेट सहकारी मुद्रणालय संस्था मर्यादित, 210, जोन-1, एम.पी. नगर, भोपाल (म.प्र.) से मुद्रित एवं 1/205 प्रोफेसर कॉलोनी, आगरा-282002 (उ.प्र.) से प्रकाशित / संपादक : रतनचन्द्र जैन।