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________________ सम्पादकीय श्रुताराधना-शिविर मध्यप्रदेश के एक छोटे से कस्बे सिलवानी में प.पू. आचार्य श्री विद्यासागर जी के ससंघ सान्निध्य में द्वितीय श्रुताराधना शिविर का भव्य आयोजन दिनांक 6 जून से 8 जून 2008 तक हुआ। यद्यपि सिलवानी के लिए आवागमन की सीधी एवं सुविधाजनक बस आदि की व्यवस्था नहीं है, तथापि कुण्डलपुर में गत वर्ष सम्पन्न प्रथम श्रुताराधना-शिविर की प्रसिद्धि की सुगंध ने विद्वानों, ब्रह्मचारी-ब्रह्मचारिणियों एवं स्वाध्यायशील भाई-बहिनों को प्रचुर संख्या में शिविर में आकृष्ट किया। प्रातः कालीन सत्र 7:30 बजे से 9: 30 बजे तक एवं द्वितीय सत्र मध्याह्न 2:30 बजे से 5 बजे तक चलता था। तीन दिनों में 5 सत्रों में 5 प्रवचन प.पू. आचार्यश्री के हुए। अन्तिम सत्र समापन सत्र था। मध्याह्न के सत्र में 4 बजे से 5 बजे तक का समय शंकासमाधान के लिए रखा गया। विद्वान् श्रोतागणों के निमित्त से पू. आचार्यश्री की वाणी की अविरल धारा निराबाध रूप से प्रवाहित हुई। प. पू. आचार्यश्री ने चर्चित सैद्धांतिक विषयों पर अपना महत्त्वपूर्ण विश्लेषण प्रदान किया। अपने सम्मुख विद्वानों को देखकर पू. आचार्यश्री ने वाणी के द्वारा पठन एवं चिंतन से प्रसूत आगमिक विषय को रुचि से श्रोताओं को परोसा और उसको श्रोताओं ने पूर्ण मनोयोग एवं एकाग्रता से ग्रहण किया। पूरे समय में शिविर-सभा में शांतिपूर्ण सन्नाटा छाया रहा। श्रोतागण सुनने में इतने तन्मय हो रहे थे कि संभवतः किसी को आसन बदलने तक का भी विकल्प नहीं आया। ___अंतिम दिन का द्वितीय सत्र समापन सत्र के रूप में आयोजित था। उस दिन आगंतुक कतिपय विद्वानों ने शिविर के अपने अनुभव, अपने मन की बात अपनी भाषा में सुनाई। लगभग सभी ने यह कहा कि हम शिविर में आकर धन्य हो गए। हमको जो विषय प. पू. आचार्यश्री के द्वारा प्राप्त हुआ वह अभूतपूर्व था, अब तक हमारे ज्ञान में ये बातें इस रूप में नहीं आई थीं। पू. आचार्यश्री के उद्बोधन से हमारी अनेक भ्रांतियाँ दूर हुई हैं। कतिपय व्यक्तियों द्वारा आगम के विपरीत अर्थ का सहारा लेकर धार्मिक लोगों में एकांत मान्यताओं का जो प्रचार किया जा रहा है, हम उसका सप्रमाण निरसन कर मूल दिगम्बर सिद्धान्तों की रक्षा करने में प्रयत्नशील रहेंगे। प. पू. आचार्यश्री ने जिनवाणी का गहन अध्ययन किए बिना तथा जैनदर्शन में प्ररूपित नयव्यवस्था का ज्ञान प्राप्त किए बिना प्रवचन करनेवालों के प्रति खेद प्रकट करते हुए कहा कि उन्हें पहले प्रवचनभक्ति करना सीखना चाहिए, जिससे कि सम्यज्ञान का विकास हो। प्रवचन करने का अधिकार तो बाद में प्राप्त होता है। पहले परमात्मा की बात करनी चाहिए, परमात्मा की भक्ति से ही आत्मा का परिचय प्राप्त होता है। जिनेन्द्र-परमात्मा की भक्ति से शुभबंध होता है, किन्तु साथ ही संवर-निर्जरा भी होती है। एक कारण से अनेक कार्य होते हैं, अतः जिनेन्द्र भक्ति से पुण्यबंध के साथ भावों की विशुद्धि के द्वारा संवर-निर्जरा भी होती है। मनुष्यपर्याय में जिनविम्बदर्शन को सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति में कारण बताया गया है। इसके अतिरिक्त अन्य अनेक विषयों जैसे पारिणामिकभाव, क्षायोपशामिक ज्ञान, प्रवचनभक्ति, निश्चय-व्यवहार-रत्नत्रय, द्रव्यश्रुत, भाव श्रुत, मोक्षमार्ग में प्रशस्त राग का अवदान आदि पर प. पू. आचार्यश्री ने आगमाधार-पूर्वक तलस्पर्शी उदबोधन प्रदान किए। सभी विद्वानों ने इस पारमार्थिक मार्ग-दर्शन के लिए प. प. आचार्यश्री के प्रति विनयपूर्वक आभार व्यक्त किया और साग्रह निवेदन किया कि अगले वर्षों में भी प्रतिवर्ष ऐसा अनुग्रह करने की अवश्य कृपा करें। अधिकांश विद्वानों की यह भावना थी कि शिविर का समय तीन दिन अपर्याप्त रहता है, अतः आगामी शिविर पाँच या सात दिन के लिए आयोजित हों। प. पू. आचार्यश्री के तात्कालिक चर्चित महत्त्वपूर्ण बिदुओं पर धारावाहिक मार्मिक उद्बोधन प्राप्त कर सभी प्रबुद्ध श्रोतागण भावविभोर हो गए। सभी को ऐसा प्रतीत हुआ मानों प. पू. आचार्यश्री ने जिनवाणी 2 जून-जुलाई 2008 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524329
Book TitleJinabhashita 2008 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2008
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size6 MB
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