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न्तिनाथ की | बिलावता चोट
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अपने विरुद 'सवति गन्धवारण' (अर्थात् सोतों के लिए । शान्तलादेवी शिवगंगे नामक स्थान पर अपने पति विष्णु. मदोन्मत्त हस्ति) के नाम पर 'गन्धवारण वसदि' का | वर्द्धन, माता मानिकव्वे और पिता मारसिङ्गय्यहेग्गडे को निर्माण कराया था तथा उस
छोड अपने गुरु प्रभाचन्द्र की उपस्थिति में पाँच फुट ऊँची कायोत्सर्गमुद्रा में सुन्दर कलापूर्ण मनोज्ञ | सल्लेखनापूर्वक समाधिमरण कर स्वर्ग सिधारी। इसका प्रतिमा प्रतिष्ठापित कराई थी।
विस्तृत उल्लेख श्रवणवेलगोल की चन्द्रगिरि पहाड़ी पर शान्तलादेवी ने गन्धवारण वसदि के निर्माण के | गन्धवारणवसदि के द्वितीय मण्डप के तृतीय स्तम्भ पर पश्चात् उसके पूजन-प्रक्षाल एवं अभिषेक हेतु वहीं पर | उत्कीर्ण शक सं. १०५० के शिलालेख में है। इसमें चालीस एक गंग समुद्र नामक श्रेष्ठ सरोवर का निर्माण कराया | श्लोक हैं जिनमें होय्यसल वंश के राजाओं के पराक्रम तथा वसदि की सुरक्षा एवं संरक्षा हेतु तथा दैनिक | के वर्णन के बाद शान्तलादेवी के सल्लेखना का विवरण कार्यकलापों के लिए एक ग्राम भी दान किया। । है। ___ यद्यपि राजरानी शान्तलादेवी इतने अधिक सद्गुणों | साम्राज्ञी शान्तला जैनधर्म की कीर्तिध्वजा को से सम्पन्न थी कि सम्पूर्ण होय्यसल वंश का राज-शासन | फहराती हुई अल्पायु में ही दिवंगत हो गई थी, पर उसकी उसके इशारों पर नाचता था. पर दुर्भाग्य कि उसे दीर्घायुष्य | यश-पताका आज भी लगभग नौ सौ वर्ष के इतिहास प्राप्त नहीं था। वह बड़ी ही अल्पवय में, लगभग चालीस | में निष्कलुष और अक्षुण्ण बनी हुई है।। वर्ष की आयु में दिवंगत हो गयी। चैत्र शुक्ला पंचमी,
'जैन इतिहास के प्रेरक व्यक्तित्व' से साभार सोमवार शक सं. १०५० (+७८-११२८ ई.) में महारानी ।
आपके पत्र मानव-रथ-एक सार्थक पहल
__पिछले दिनों ११ से १७ फरवरी २००८ तक हरदा (म.प्र.) की जैनसमाज के उत्साही सदस्यों ने गजरथ के स्थान पर मानवरथ चलाकर अपने पूर्व इतिहास को पुर्नजीवित करने का अनूठा एवं ऐतिहासिक निर्णय लिया है, इसके लिए हरदा जैनसमाज बधाई की पात्र है, साथ ही प्रतिष्ठाचार्य ब्रह्मचारी विनय भैया जिनके निर्देशन में यह मानव-रथ का आयोजन हुआ, वे भी इस अनुकरणीय पहल के लिए बधाई के पात्र हैं। पिछले कुछ सालों से पंचकल्याणकों में मूक और निरीह किन्तु विशाल प्राणी हाथी पर उसके मालिकों तथा रथों पर बैठने वाले इन्द्र इन्द्राणियों की एक बडी फौज द्वारा जाने-अनजाने में जो जल्म किए जा रहे हैं, उनका प्रायश्चित्त करना बहुत जरूरी हो गया है और इस दिशा में समाज के सभी आचार्यों, मुनिराजों, विद्वानों तथा चिन्तकों को विचार करके गजरथ के बजाय मानव-रथ जो जैनधर्म की पुरानी पद्धति रही है, जिसे विमान की शोभा यात्रा आदि भी कहा जाता है, उसे लागू किया जाना चाहिए। हरदा की जैनसमाज ने अपने अहंभाव को त्याग कर रथों पर बैठने के बजाय सिर्फ भगवान् को बैठाकर स्वयं अपने हाथों से रथ खींचने का जो साहसिक कार्य किया है, इसके लिए मैं एक बार पुनः उन्हें बधाई देता हूँ और पूरे देश की जनसमाज से अनुरोध करता हूँ कि वह पंचकल्याणकों में गजरथ जैसे हाथियों के लिए पीड़ादायक साधनों को तिलाञ्जलि देकर भगवान् को पालकी में विराजमान कर, अपने हाथों से उन्हें परिक्रमा करवायें तो उन्हें सही पुण्य और आनंद की प्राप्ति होगी। धन्यवाद !
विनोद कुमार 'नयन'
भोपाल (म. प्र.)
जून-जुलाई 2008 जिनभाषित 37
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