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________________ साम्राज्ञी शान्तलादेवी पं. कुन्दनलाल जैन पट्टमहादेवी शान्तलादेवी, होय्यसल वंश के, परम । को भविष्यवाणी की सफलता के साक्षात् दर्शन हुए और प्रतापी एवं पराक्रमी शासक, बिट्टिदेव (विष्णुवर्द्धन) लगभग ७०-७५ विरुदों से अलंकृत हो जगत-मानिनी की राजमहिषी थी। कहलायी। शान्तलादेवी के पिता का नाम सारसिङ्गय्यहेग्गडे किंवदन्ती है कि शान्तला के पति विष्णुवर्द्धन तथा माता का नाम मानिकव्वे था। इनका जन्म शक रामानुजाचार्य के प्रभाव से वैष्णवधर्म में दीक्षित होने जा सं. १०१२ के आस-पास अनुमानित किया जाता है। इनके | रहे थे। जब वे देवी के दर्शनों के लिए मंदिर गये तभी पति विष्णुवर्द्धन का राज्यकाल शक सं. १०२८ से १०६३ | अचानक भयंकर भूकम्प आया, सारे राज्य में त्राहि-त्राहि तक माना जाता है, शान्तला का विवाह विष्णुवर्द्धन से | मच गई, जिससे भयभीत हो विष्णुवर्द्धन ने वैष्णवधर्म १६ वर्ष की आयु में राज्याभिषेक के समय होना चाहिए, में दीक्षित होने का विचार त्याग दिया और अपनी अत: इनका जन्मकाल शक सं. १०१२ (+७८-१०९० | पट्टमहादेवी शान्तला के साथ-साथ जिनशासन के प्रति ई.) अनुमानित किया जाता है। इनका जन्म कर्नाटक | श्रद्धावान् बने रहे। साम्राज्ञी शान्तलादेवी ने धवला आदि के बलिपु (बेलम्भव) ग्राम में हुआ था, जहाँ इनके पिता | ग्रन्थ ताड़-पत्रों पर उत्कीर्ण कराये थे। इनके पत्रों पर राज्य-प्रशासक एवं ग्राम प्रमुख थे। यह ग्राम होय्यसल | शान्तलादेवी और विष्णुवर्द्धन के चित्र अङ्कित हैं। यह राज्य की राजधानी द्वारावती (द्वार समुद्र) का एक | राजशासन, कला, संगीत में तथा धार्मिक, समाज-सेवा प्रशासनिक प्रकाश था। इनके पिता वीर योद्धा, पराक्रमी | आदि कार्यों में निष्णात थी, जिससे प्रजाजन उसके प्रति और स्वामीभक्त थे, शैव मतानुयायी थे, जब कि इनकी अत्यधिक श्रद्धावान्, विनीत और भक्त थे। उसके वैयक्तिक पत्नी मानिकव्वे (शान्तला की माँ) जैन धर्मानुरागिणी | गुणों एवं शासकीय कुशलता के फलस्वरूप तत्कालीन थी। वह जिन-पूजा, देव-शास्त्र-गुरु की श्रद्धा, रत्नत्रय प्रजाजनों ने उसे इतने अधिक विरुदों (विशेषणों) से व्रत धारण किया करती थी, जैनाचार्यों, मुनियों एवं जैन, अलंकृत किया था कि संभवतः संसार की कोई ही साम्राज्ञी गुरुओं की भक्ति करती थी। अन्त समय इन्होंने सल्लेखना या सम्राट् इतने अधिक अलंकारों से अलंकृत हुआ हो। पूर्वक देह-विसर्जन किया था। इतनी अधिक धार्मिक | तत्कालीन इतिहास तथा शिलालेख इन अलंकारों से भरे विभिन्नताओं के बावजद भी पति-पत्नी में परस्पर अपार | पडे हैं। ये सब श्रवणवेलगोल स्नेहपूर्ण सामंजस्य एवं समन्वय था।. निर्मित गंधवारण वसदि में उत्कीर्ण हैं। शान्तलादेवी ने अपनी माता के पूर्ण संस्कार राजमहिषी शान्तलादेवी गुणवती के साथ-साथ अधिगृहीत किए थे, फलतः वह भी जिनशासन और सुन्दर और रूपवती भी थी। इसलिए इतिहासकारों ने जैन आचार्यों के प्रति विशेषरूप से भक्तिभाव रखती थी। उसे अनेक सुन्दर अलंकारों से अलंकृत किया है। साम्राज्ञी जब वह केवल सात-आठ वर्ष की बालिका ही थी। शान्तलादेवी विद्या, बुद्धि-कौशल, प्रत्युत्पन्नमतित्व, कलातभी उसके क्रिया-कलापों, विचारों तथा दैनिक व्यवहार संगीत आदि व्यक्तिगत गुणों से इतनी अधिक समृद्ध एवं से प्रभावित हो उसके गुरु वोकिमय्य ने भविष्यवाणी | सम्पन्न थी कि लोगों ने उसे कई विशेषणों से विभूषित की थी कि शान्तला जगत-मानिनी बनकर सारे विश्व | किया। में गरिमायुक्त गौरव के साथ पूजी जानेवाली मानवदेवता पटरानी शान्तला पतिव्रता थी, उसने अपनी भक्ति की पदवी प्राप्त करेगी और सचमुच ही जैसे ही शान्तला और सेवा-शुश्रूषा से अपने पति विष्णुवर्द्धन का मन जीत ने षोडशी होकर युवावस्था में पदार्पण किया तथा होय्यसल लिया था। इसीलिए उसे पातिव्रत-संबंधी अनेक अलंकारों वंश के परम प्रतापी तेजस्वी राजकुमार बिट्टिदेव या | से अलंकृत किया गया। बिट्टिग (विष्णुवर्द्धन) की प्राणवल्लभा बनकर होय्यसल साम्राज्ञी शान्तलादेवी ने शक सं. १०४४ (+७८= राज्य की साम्राज्ञी पद को सुशोभित किया तो गुरु वोकिमय्य | ११२२ ई.) के लगभग वेल्गुलु के चन्द्रगिरि पर्वत पर 36 जून-जुलाई 2008 जिनभाषित Jain Editation Internation - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524329
Book TitleJinabhashita 2008 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2008
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size6 MB
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