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________________ * जैन-परम्परासम्मत 'ओम्' का प्रतीक-चिह्न म अरहंता असरीरा आइरिया तह उवज्झया मुणिणो। पढमक्खरणिप्पणो ओंकारो पंचपरमेट्ठी॥ जैनागम में अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय एवं । हुआ पाया जाता है। वस्तुतः प्राचीन लिपि में 'उ' के साधु यानी मुनिरूप पाँच परमेष्ठी ही आराध्य माने गए | ऊपर 'रेफ' के समान आकृति बनाने से वह 'ओ' हो हैं। इनके आद्य अक्षरों को परस्पर मिलाने पर 'ओम्'। | जाता था। और उसके साथ चन्द्रबिंदु प्रयुक्त होने से वह 'ओं' बन जाता है। यथा, इनमें से पहले परमेष्ठी 'अरिहन्त' | 'ओम्'। 'ओं'- बन जाता था। किन्तु वर्तमान में या 'अर्हन्त' का प्रथम अक्षर 'अ' को लिया जाता है। हस्तलिखित ग्रन्थ पढ़ने अथवा उनके लिखने की परम्परा द्वितीय परमेष्ठी 'सिद्ध', शरीररहित होने से 'अशरीरी' का अभाव हो जाने के कारण अब प्रिंटिंग प्रेस में छपाई कहलाते हैं। अतः 'अशरीरी' का प्रथम अक्षर 'अ' को | का कार्य होने लगा है। हम लोगों की 'अरिहन्त' के 'अ' से मिलाने पर अ+अ='आ' बन जाता असावधानी अथवा अज्ञानता के कारण है। इसमें तृतीय परमेष्ठी 'आचार्य' का प्रथम अक्षर 'आ' | प्रिंटिंग प्रेस में यह परिवर्तित होकर मिलाने पर आ+आ मिलकर 'आ' ही शेष रहता है। अन्य परम्परा मान्य ऊँ बनाया जाने उसमें चतुर्थ परमेष्ठी 'उपाध्याय' का पहला अक्षर 'उ' | लगा। इसके दुष्परिणाम स्वरूप हम को मिलाने पर आ+उ मिलकर 'ओ' हो जाता है। अंतिम लोग जैन परम्परा द्वारा मान्य न चिन्ह पाँचवें परमेष्ठी 'साधु' को जैनागम में 'मुनि' भी कहा | को प्रायः भूल से गए हैं। और ऊँ जाता है। अत: मुनि के प्रारम्भिक अक्षर 'म्' को 'ओ' | को ही भ्रमवश जैन-परम्परा-सम्मत मान बैठे हैं। से मिलाने पर ओ+म्=ओम् या 'ओं' बन जाता है। इसे | जैन परम्परा सम्मत इस ४ को Shree लिपि के ही प्राचीन लिपि में के रूप में बनाया जाता रहा है। | Symbol Font Samples के अन्तर्गत नं. 223 में N 'जैन' शब्द में 'ज', 'न' तथा 'ज' के ऊपर 'ऐ' | तथा नं. 231 में J को Key Strock करके प्राप्त किया संबंधी दो मात्राएँ बनी होती हैं। इनके माध्यम से ही | या बनाया जा सकता है। एवं 'पूजा' फॉन्ट में Alt +0250 जैन परम्परागत 'ओं' का चिह्न बनाया जा सकता है। से भी प्राप्त किया जा सकता है। संभव है इसके इस 'ओम' के प्रतीक चिह्न को बनाने की सरल विधि | अतिरिक्त 'क्ल्पि आर्ट' में अन्यत्र भी यह चिह्न उपलब्ध चार चरणों में निम्न प्रकार हो सकती है हो सकता है। 1. 'जैन' शब्द के पहले अक्षर 'ज' को अंग्रेजी इस प्रकार जैन परम्परा को सुरक्षित रखने हेतु ___ में 'जे'=J लिखा जाता है। अतः सबसे पहले 'जे'-J| सभी मांगलिक शुभ अनुष्ठानों, पत्र-पत्रिकाओं, विज्ञापनों, को बनाएँ। इंटरनेट ग्रीटिंग्स, होर्डिंग्स, बैनर, एस. एम. एस. नूतन 2. तदुपरान्त 'जैन' शब्द में द्वितीय अक्षर 'न' | प्रकाशित होनेवाले साहित्य, स्टीकर्स, बहीखाता, पुस्तक, __ है। अतः उस 'जे'-J के भीतर / साथ में हिन्दी का | कापी, दीवाल आदि पर जैन परम्परा द्वारा मान्य का 'न' बनाएँ। प्रतीक चिह्न बनाकर इसका अधिकाधिक प्रचार-प्रसार 3 बँकि 'जैन' शब्द में 'ज' के ऊपर 'ऐ' संबंधी | किया / कराया जा सकता है। दो मात्राएँ होती हैं। अतः उसके ऊपर प्रथम मात्रा के | इस संबंध में जैनधर्म में प्रभावनारत पूज्य आचार्यदेव, प्रतीक स्वरूप उसके ऊपर चन्द्रबिन्दु बनाएँ। साधुगण, साध्वियाँ, विद्वन्मनीषी, प्रवचनकार भी अपने 4. तदुपरान्त द्वितीय मात्रा के प्रतीक स्वरूप उसके धर्मोपदेश के समय जैन परम्परागत इस म 'ओम्' की ऊपर चन्द्रबिन्दु के दाएँ बाजू में 'रेफ' जैसी आकृति जानकारी तथा इसे बनाने की प्रायोगिक विधि भी जन बनाएँ। सामान्य को बतलाकर अर्हन्त भगवान के जिन-शासन इस प्रकार जैनपरम्परा सम्मत / यानी 'ओम्'।| के वास्तविक स्वरूप को प्रकट कर / करा सकते हैं। ___ 'ओं' की आकृति निर्मित हो जाती है। इसे बनाने की विधि सुन-समझकर धार्मिक पाठशालाओं जैनपरम्परा की अनेक मूर्तियों की प्रशस्तियों, यन्त्रों, | में अध्ययनरत बालक-बालिकाओं को इसकी प्रायोगिक हस्तलिखित ग्रन्थों, प्राचीन शिलालेखों एवं प्राचीन लिपि | विधि से अभ्यास कराए जाने पर भविष्य में उनके द्वारा में भी इसी प्रकार से 'ओम्'। 'ओं' का चिह्न बना ! इसे ही बनाना प्रारंभ किया जा सके। जून-जुलाई 2008 जिनभाषित 35 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524329
Book TitleJinabhashita 2008 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2008
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size6 MB
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