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________________ अपेक्षा न करके मात्रा से अधिक कायोत्सर्ग करना।। एवं भावयतः स्वान्ते यात्यविद्या क्षयं क्षणात्। २८. कालापेक्षव्यतिक्रान्ति दोष- कायोत्सर्ग के विमदीस्युस्तथाक्षाणि कषायरिपुभिः समम्॥ काल की अपेक्षा का उलंघन कर कायोत्सर्ग करना। ___ ज्ञानार्णव २९/१२। २९. व्याक्षेपासक्तचित्त दोष- मन के क्षोभकारक अर्थात् मन को वश में करने की भावना करते कार्यों में चित्त लगाते हुए कार्योत्सर्ग करना। | हुए पुरुष के अविद्या, तो क्षण मात्र में क्षय हो जाती ३०. लोभाकलित दोष- लोभ से आकलित चित्त | है। इन्द्रियाँ मदरहित हो जाती हैं, साथ ही कषायें क्षीण होकर कायोत्सर्ग करना। हो जाती हैं। ३१. पापकार्योद्यम दोष- पापकार्य में उद्यमशील स्मरगरलमनोविजयं समस्तरोगक्षयं वपुःस्थैर्यम्। होते हुए कायोत्सर्ग करना। पवनप्रचारचतुरः करोति योगी न संदेहः॥ ३२. मूढ़दोष- कर्तव्य, अकर्तव्य के ज्ञान से रहित ज्ञानार्णव २९/१०१। अर्थात् पवनप्रचार करने में चतुरयोगी कामरूपी पुरुष का कायोत्सर्ग करना। कर्म निर्जरा के इच्छुक मुमुक्षजनों को कायोत्सर्गविधि विषयुक्त मन को जीतता है। समस्त रोगों को क्षय करके के इन बत्तीस अतीचारों का सर्वथा त्याग करना चाहिए। शरीर में स्थिरता करता है, इसमें संदेह नहीं है। पवन (अनगारधर्मामृत / ८/११२-१२२)। को साधन करके मन को वश में करना ही कायोत्सर्ग का प्रयोजन है। कायोत्सर्ग में शरीर से ममत्व छोड़कर कायोत्सर्ग का फल प्राणायाम विधि से श्वास को लेते हुए णमो अरिहंताणं, व्युत्सृज्य दोषान् निःशेषान् सद्ध्यानी स्यात्तनूत्सृतौ। णमो सिद्धाणं ये दो पद बोलकर वायु को अपनी सहेताऽप्युपसर्गोमीन् कर्मैवं भिद्यते तराम्॥ अनगारधर्मामृत /८/७६ । सामर्थ्यानुसार अन्दर रोककर अरिहंत-सिद्ध के माध्यम अर्थात् कायोत्सर्ग करते समय देवकृत, मनुष्यकृत से अपने स्वरूप का चिंतन करे, पश्चात् वायु को छोड़ या तिर्यंचकृत कोई उपसर्ग आ जाये तो उसे सहन करना दे। दूसरे श्वास में णमो आइरियाणं, णमो उवज्झायाणं चाहिए। ऐसे समय में भी धर्म या शुक्ल ध्यान ही करना ये दो पद बोलकर पूर्ववत् वायु को छोड़े एवं तीसरे श्वास में णमो लोए सव्व साहूणं इस पूरे पद को बोलते चाहिए। जो साधु परिषह और उपसर्ग से विचलित न हुए, पूर्ववत् क्रिया करे, इस प्रकार तीन श्वासोच्छ्वास होकर उसे धीरता से सहन करते हैं, उनका कर्मबन्धन में एक बार णमोकार मंत्र का स्मरण कर कायोत्सर्ग, शिथिल होकर छूट जाता है। जो साधु भक्तिपूर्वक निर्दोष | जाप आदि करने से मन स्थिर होता है। कायोत्सर्ग के कायोत्सर्ग करता है, उसके पूर्वभव में अर्जित कर्म शीघ्र लिए दोनों हाथ नीचे करके पैरों में चार अंगुल का अंतर ही निर्जीर्ण हो जाते हैं। कायोत्सर्ग के समय वायु को रखकर पैरों के अग्रभाग समान करना चाहिए। यदि बैठकर अन्दर रोकने से मन की स्थिरता होती है। कायोत्सर्ग करना हो तो पद्मासन में बायें हाथ के ऊपर विकल्पा न घूसूयन्ते विषयाशा निवर्तते। दाया हाथ रखकर कायोत्सर्ग करना चाहिए। कायोत्सर्ग अन्तः स्फुरति विज्ञानं तत्र चित्ते स्थिरीकृते॥ में वायु के ग्रहण करने, रोकने और छोड़ने की प्रक्रिया ज्ञानार्णव २९ /११। अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है, इसके द्वारा ही मन की स्थिरता अर्थात् हृदयकमल की कर्णिका में पवन के साथ बनती है एवं कायोत्सर्ग के काल का निर्धारण होता है। चित्त को स्थिरकरने पर मन में विकल्प नहीं उठते और प्राणायामपद्धति से कायोत्सर्ग करने पर ही णमोकारमंत्र विषयों की आशा भी नष्ट हो जाती है। तथा अंतरंग का पूर्ण फल प्राप्त होता है, अत: कायोत्सर्गपूर्वक णमोकारमें विशेष ज्ञान का प्रकाश होता है। इस पवन के साधन | मंत्र का विधिपूर्वक जाप कर कर्म क्षय करें। से मन को वश में करना ही इसका फल है। रजवाँस (सागर) म.प्र. साईं इतना दीजिए जामें कुटुम समाय। मैं भी भूखा न रहूँ, साधु न भूखा जाय। संत कबीर 34 जून-जुलाई 2008 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524329
Book TitleJinabhashita 2008 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2008
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size6 MB
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