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________________ दिगम्बर जैन मुनि श्री सुमेरचन्द्र जैन शास्त्री एम. ए. साहित्यरत्न, दिल्ली पाणिः पात्रं पवित्रं भ्रमणपरिगतं, भैक्षमक्षय्यमन्नं,। में प्रवचन करते हैं। यदि स्टेट के महाराज उपदेश सुनने विस्तीर्णं वस्त्रमाशादशकमचपलं, तल्पमस्वल्पमुर्वी। | के इच्छुक हों, तो यहीं पधारें। महाराज बुद्धिमान थे, येषां निःसङ्गतांगीकरणपरिणतिः, स्वात्मसंतोषिणस्ते, उन्होंने कहा मुनि- श्री! मैं तो उपदेश सुनने के लिये धन्याः सन्यस्तदैन्यव्यतिकरनिकराः कर्म निर्मूलयन्ति॥ आ सकता हूँ, पर मेरे रनवास में जो रानियाँ हैं, राज्य (भर्तृहरि-वैराग्यशतक) | कर्मचारी हैं, वे सभी नहीं आ सकते। आपके यहाँ पधारने जिनका हाथ ही पवित्र वर्तन है, भिक्षाशुद्धि से | से धर्म की प्रभावना और अहिंसात्मक विचारधारा का प्राप्त अन्न ही जिनका भोजन है, दशों दिशायें ही जिनके प्रचार होगा। आचार्य महाराज विवेकी और दूरदर्शी थे। वस्त्र हैं, सारी पृथ्वी ही जिनकी शय्या है, एकान्त में | उन्होंने नि:संकोच राजदरबार में जाना स्वीकार किया। निःसंग रहना ही जो पसन्द करते हैं, दीनता को जिन्होंने | परिणाम यह निकला कि गुजरात की अनेक स्टेटों के छोड़ दिया है तथा जो कर्मों को निर्मूल करते हैं और | राजे, राजकुंवर आदि उनके कट्टर भक्त बन गये और अपने ही में सन्तुष्ट रहते हैं, वे पुरुष धन्य हैं। उनके जन्म दिवस पर अहिंसा के नाम से अवकाश महान् अध्यात्मवेत्ता और कुशल तार्किक आचार्य | करने लगे। . अमृतचन्द्र सूरि ने पुरुषार्थसिद्ध्युपाय ग्रन्थ में बताया है भगवान् महावीर स्वामी के पश्चात् अढ़ाई हजार "जो यतिधर्म को छोड़कर प्रथम गृहस्थ धर्म का उपदेश | वर्षों के काल में दि. जैन मनि समाज का सिंहावलोकन देता है वह जिनशासन में निग्रह स्थान के योग्य है।" करें, तो विदित होगा कि जब जब हमारा साधु समाज किसी भी धर्म का प्रभाव और प्रचार जितना साधुओं प्रभाव-शाली हुअ तभी जनता की चारित्र-ज्ञान के समुज्ज्वल द्वारा हुआ है, उतना गृहस्थों द्वारा नहीं। जब हमारा साधु- प्रकाश और रत्नत्रय के प्रति श्रद्धा बढ़ती गई। भगवान् समाज वक्ता, तपोनिष्ठ, प्रभावशाली और लोक-कल्याण | महावीर के पश्चात् ६८३ वर्षों तक अंग पूर्व के ज्ञाता करने में अग्रसर रहा, तभी जिन शासन की विजय पताका होते रहे। उनके पश्चात् ११० वर्ष तक व्यवधान आ गँजती रही। आचार्य समन्तभद्र. अकलंक-देव. स्याद्राद गया। तदनन्तर अर्हनंदि जैसे युग प्रवर्तक कुशल यतीश्वर विद्यापति विद्यानंदि, वादीभसिंह जैसे यति-पुंगव रहे, तभी | हुये, जिन्होंने मुनिसंघ में साहित्यरचना के सम्बन्ध में अहिंसा और अनेकान्त की दुन्दुभि बजी। लगभग चालीस | ऐसी स्पर्धा जगाई कि जिसके फलस्वरूप एक से बढ़कर वर्ष पूर्व जब आचार्य शान्तिसागरजी महाराज का दिल्ली महान् महान् आचार्य हुये, जो नैयायिक, वाग्मी, कवि, में पदार्पण हुआ, तब दिल्ली और नई दिल्ली दोनों स्थानों तपस्वी होते हुये सिद्धान्त- विषयों के पारंगत थे। के प्रमुख बाजारों, सराकरी भवनों, और गलियों में आचार्य आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी की प्रतिभा का क्या महाराज के संघसहित फोटो खींचे गये। किसी ने यह | कहना! अध्यात्मविषयों पर उन्होंने अपूर्व वाङ्मय की चर्चा की कि आचार्य महाराज को फोटो खिंचवाने का रचना की। दि. जैनधर्म का नये रूप से उत्थान किया। बड़ा शौक है। यह चर्चा आचार्य महाराज के कानों में आचार्य उमास्वामी, समन्तभद्र, यतिवृषभ, वीरसेन, जिनसेन, पड़ी, उन्होंने कहा भाई मेरे कोई घर भी नहीं है। मैं | | अकलंक, विद्यानंदि, प्रभाचन्द्र जैसे ऋषिपुंगव हुये, जिन्होंने इन फोटुओं को कहाँ लगाऊँगा। मेरा आशय इतना ही | अपने जीवन का लक्ष्य सरस्वती की सेवा का बनाया। है कि साधु समाज पर किसी प्रकार विहार में रुकावट | ऐतिहासिक काल से ही दिगम्बरमुनि-परम्परा न पड़े। ये चित्र उसके प्रमाण स्वरूप समझे जाय। | लगातार चलती रही। जब भारत में नंदों का राज्य था, मनोज्ञ साधु, प्रभावशाली वक्ता, मुनि श्री कुन्थुसागर | वे जैनधर्म को धारण करते थे। उन्हीं नन्दों में शक नन्द जी महाराज को सुदासना स्टेट के महाराज ने राजभवन | राजा दि. जैन मुनि हो गये। मौर्य सम्राट् चन्द्रगुप्त, जीवन में प्रवचन करने के लिये आमंत्रित किया, तो मुनिश्री | के अन्तिम समय में अपने गुरु भद्रबाहु की सेवा के ने यह कहकर टाल दिया कि हम लोग आम जनता | लिये दक्षिण चले गये और वहाँ जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण जून-जुलाई 2008 जिनभाषित 19 www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.524329
Book TitleJinabhashita 2008 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2008
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size6 MB
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