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करके स्वर्ग को प्राप्त हुये । जब सिकन्दर ससैन्य यूनान | नक्षत्र थे। मुनि मदनकीर्ति राजा अर्जुनदेव के गुरु थे । को वापिस लौटा तो मुनि कल्याणक को भी अपने कविवर आशाधर जी ने अनेक साधुओं को जैन सिद्धान्त साथ ले गया। सुंग और आन्ध्र वंशी राजाओं में हाल में निपुण बनाया। विशालकीर्ति महाराज के शिष्य और पुलुमादि जैसे जैन राजा हुये, जिनके समय ईस्वी मदनकीर्ति मुनि - राज ने शास्त्रार्थ करके महाप्रमाणीक की पूर्व प्रथम शताब्दी में एक दिगम्बर जैनाचार्य भृगु कच्छ पदवी पाई। गुजरात के प्रसिद्ध नगर अंकलेश्वर में भूतिबलि से यूनान देश को गये । यवन छत्रप विदेशी राजाओं में और पुष्पदन्ताचार्य ने आगम ग्रन्थों की उस समय रचना मनेन्द्र ( MENADER ) नामक एक प्रसिद्ध राजा हुआ, की थी। पटना में सोलंकी सिद्धराज की सभा में दिगम्बर जिसने निर्ग्रन्थ मुनियों से धर्मतत्त्व सुना और जैनधर्म में जैनाचार्य कुमुदचन्द्र का देवसूरि श्वेताम्बराचार्य से शास्त्रार्थ दीक्षित हो गया। मथुरा में कंकाली टीले से प्राप्त अनेक प्रसिद्ध है । दिगम्बर जैनाचार्य ज्ञानभूषण जी ने दक्षिण दिगम्बरजैन मूर्तियाँ ऐसी मिली हैं, जिनके निर्माणकर्ता भारत के प्रान्तों में जैनधर्म प्रचारार्थ अनेक उपदेशकों विदेशी शक राजा हुये, जिन्होंने जैनधर्म को अंगीकार को नियुक्त कराया। इनके शिष्य श्री शुभचन्द्राचार्य हुए कर लिया था । जिन्होंने अनेक ग्रन्थों की रचना की। वे अद्वितीयवादी और और कुशल तार्किक थे। इनका सम्बन्ध दिल्ली से विशेष रहा। चन्देले राजा मदनवर्मदेव के समय में दिगम्बरमुनि-धर्म उन्नत रूप में था । तेरहवीं शताब्दी में अनन्तवीर्य नाम के आचार्य हुए। इनके उपदेश से पद्मनाभधर्मकायस्थ कवि ने यशोधरचरित्र की रचना की !
राजपूताना, मध्यप्रान्त, बंगाल आदि प्रान्तों में दि. मुनि निर्द्वन्द्व विचरण करते थे। अजमेर के चौहान राजाओं में दिगम्बर जैनधर्म का आदर था। मुनि पद्मनंदि और शुभचन्द्र के उपदेश से पृथ्वीराज और महाराजा सोमेश्वर ने बिजोलिया के पार्श्वनाथ मंदिर के लिये दो गाँव अर्पित किये । दिगम्बर जैनाचार्य श्री धर्मचन्द्र जी का महाराणा हमीर सम्मान किया करते थे । जब आठवीं शताब्दी के
उपरान्त दक्षिण भारत में दिगम्बर जैनों के साथ अत्याचार होने लगे, तो उन्होंने अपना केन्द्र उत्तर भारत बनाया। राजर्षि भर्तृहरि के वैराग्यशतक, मुद्राराक्षस नाटक, गोलाध्याय आदि वैदिक ग्रन्थों में दि. धर्म की प्रशंसा और उल्लेख मिलता है।
दक्षिण भारत सदैव दि. जैनधर्म का केन्द्र रहा है। भगवान् बाहुबली की मनोज्ञमूर्ति श्रमणबेलगोला, कारकल, वेणूर इसके उज्ज्वल उदाहरण हैं । दक्षिण मदुरा का मुनिसंघ प्रसिद्ध है, जिसकी उच्चकोटि की आस्था, साहित्य - निर्माण की प्रबल प्रेरणा के कारण तमिलसाहित्य विश्व का देदीप्यमान प्रेरणास्पद साहित्य है। तिरुवल्लूकर, मणिमेखला, तमिलवेद इसके उदाहरण हैं। आचार्य सिहनंदि जैसे प्रतापी मुनिराजों के आशीर्वाद से होय्यसल और गंगवंश की नींव पड़ी। विष्णुवर्धन से पराक्रमी महाराजा, चामुण्डराय जैसे प्रबल सेनापति इसके दीप्तमान् उदाहरण हैं। राजा अमोघवर्ष को जैनशासनमय बनाने का श्रेय वीरसेन
भिक्षुराज खारवेल ने पुष्यमित्र को परास्त करके जब कुमारी पर्वत पर ऋषियों का महासम्मेलन किया, तो उस सम्मेलन में समस्त देश के विभिन्न भागों से हजारों मुनि - राज एकत्रित हुए। उस काल में मथुरा, उज्जैन, श्रावस्ती, राजगृह, जैनधर्म के केन्द्र थे, जहाँ साधुओं के संघ विद्यमान थे। जब सम्राट् हर्ष भारत में राज्यशासन करते थे, उस समय दिगम्बर मुनियों का सद्भाव था।
राजकवि बाण ने अपने ग्रन्थों में उल्लेख किया है कि राजा जब गहन जंगल में जा पहुँचा, तो वहाँ उसने अनेक तरह के तपस्वी देखे। उनमें नग्न दिगम्बर आर्हत जैन साधु भी थे । हर्ष ने अपने महासम्मेलन में उन्हें शास्त्रार्थ के लिए बुलाया था और वे बड़ी संख्या में उपस्थित हुए। मध्यकालीन हिन्दूराज्य में दिगम्बर मुनियों का सद्भाव रहा। जैनाचार्य वप्पसूरि ने कन्नौज नरेश द्वारा सम्मान पाया । श्रावस्ती का सुहृद्ध्वज जैन नरेश था, जिसके समय में दिगम्बर मुनियों का लोक कल्याण में निरत रहना स्वाभाविक है। शौरीपुर का राजा जितशत्रु जीवन के अन्तिम समय में मुनिधर्म को अगीकार करके शान्तिकीर्ति के नाम से प्रसिद्ध हुआ । परमारवंशीय राजाओं में मुंज और भोज अत्यधिक प्रसिद्ध हैं । वे दोनों ही विद्या- रसिक थे। कवि धनपाल और उनके छोटे भाई जैनधर्म में दीक्षित हुये । ख्यातिप्राप्त आचार्य शुभचन्द्र ने भी राज्यपाट त्याग कर जैनश्वरी दीक्षा स्वीकार की । दिगम्बर जैनाचार्य अमितगति भी इसी काल में हुये।
नीतिवाक्यामृत और यशोधरचरित्र जैसे विशिष्ट ग्रन्थों का निर्माण करने वाले उद्भट् विद्वान् श्री सोमदेव सूरि इसी काल में हुए। भगवान् ऋषभदेव की भक्ति से ओतप्रोत प्रखर तपस्वी मानतुंग आचार्य इसी काल के ज्योतिर्मय
20 जून - जुलाई 2008 जिनभाषित
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