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________________ और जिनसेन जैसे दिग्गज महारथियों को है, जिनके उपदेश । विजयी हुए। हैदराबाद आदि मुसलिम रियासतों में मुनियों के बिहार पर प्रतिबन्ध लगा दिया। समाज के नेताओं ने मुनिधर्म का सही स्वरूप समझाकर उन अधिकारियों को उनका भक्त बना दिया। प्रतिभाशाली साधु कुन्थुसागर जी महाराज ने सुदासना, अलुआ, मणिकपुरा, सिरोही आदि रियासतों में भ्रमण करके अहिंसात्मक भावनाओं को जागृत करने में अत्यन्त गौरवशाली कार्य किया । आचार्य सुधर्मसागर जी ने सभी मुनिराजों को शिक्षण देकर सुयोग्य ज्ञानी बनाया | आचार्य महावीरसागरजी नेमिसागरजी, नमिसागर जी, आचार्य महावीर कीर्ति जी, आचार्य शिवसागरजी एवं वर्तमान साधु आ. धर्मसागरजी, आचार्यकल्प श्रुतसागर जी, आचार्य देशभूषण जी, आचार्य विमलसागर जी, परम प्रभावक मुनि विद्यानन्द जी आधुनिक मुनिमण्डल के ऐसे प्रतिनिधि हैं जिन पर सारे देश को गर्व है। ये सभी अपने प्रभाव से जनसाधारण में वीरशासन को लोकप्रिय बनाने में अग्रसर हैं। अनेक आर्यिकायें, क्षुल्लिकायें, एलक, क्षुल्लक, ब्रह्मचारी आज देश के विभिन्न भागों में विहार कर रहे हैं। इन सबके द्वारा ज्ञान और चारित्र की अपूर्व उन्नति हो रही है। के कारण महाराजा स्वयं जीवन के अन्तिम समय मुनिदीक्षा अंगीकार करते हैं। रत्न, पन्न, पोल्ल जैसे कर्नाटक साहित्य की विभूति कविरत्नों को जन्म देने का श्रेय इसी मैसूर की स्वर्णमयी भूमि को है जहाँ खानों से सोना और नगरों से अहिंसात्मक रत्नों की निधि प्रकट होती है। भगवान् महावीर स्वामी का समवशरण दक्षिण भारत पहुँचा। वहाँ का राजा जीवन्धर जैनधर्म में दीक्षित होकर मुनि हो गया । दक्षिण में मुनियों की अविच्छिन्न परम्परा सदा से चली आई है । यतीन्द्र कुन्दकुन्द, उमास्वामी, समन्तभद्र, पूज्यपाद, जैनाचार्य सिंहनंदि, जिन्होंने गंगबाड़ी का राज्य स्थापित किया, श्रीवादीभसिंह, श्रीनेमीचन्द्राचार्य, अकलंकदेव, जिनसेनाचार्य, विद्यानदि, वादिराज, देवकीर्ति, श्रुतकीर्ति, शुभचन्द्र, प्रभाचन्द्र, दामनंदि, जिनचन्द्र, यशः कीर्ति, दिवाकरनन्दी, कल्याणकीर्ति आदि दिग्गज आचार्य हुये, जो अत्यन्त प्रतिभाशाली और दिगम्बरजैनसंघ के चूड़ामणि थे। तमिलसाहित्य का निर्माण करनेवालों में वज्रनंदि, ऋषभाचार्य आदि प्रसिद्ध हैं । राज्यवंशों में कदम्ब, वादामी, राष्ट्रकूट, होय्यसल, चालुक्य, गंग आदि जो राजा हुय उनके द्वारा अनेक दिगम्बर ऋषिपुंगव सदैव सम्मानित होते । जब वर्धा के महाजन बन्धु दक्षिण भारत के पुंडकोत्तम स्टेट के दौरे पर गये, तो उन्होंने पाया कि इस छोटी रियासत में मुनियों के ऐसे केन्द्र थे, जहाँ साधु रहकर आसपास प्रचारार्थ जाते थे। मुसलमानी काल में साधुओं का सद्भाव जुगनू के प्रकाश की तरह यत्र-तत्र क्वचित् ही रहा । चारित्रचक्रवर्ती आचार्य शांतिसागरजी महाराज से ४५ वर्ष पूर्व संघभक्तशिरोमणि सेठ पूनमचन्द घासीलाल जी एवं उनके सुपुत्रों ने उत्तर भारत में पदार्पण करने तथा तीर्थराज सम्मेदशिखर की यात्रा करने की प्रार्थना की तो उन्होंने सहर्ष स्वीकार करके एक नये स्वर्णयुग का सूत्रपात किया । कविरत्न पं. भूधरदास जी जैसे मुनिभक्तों ने मुनिराजों के कभी दर्शन नहीं किये थे, तभी तो भक्ति से तन्मय होकर कहते थे- 'ते गुरु मेरे उर वसो, जे भव जलधि जहाज।' हम लोगों का तीव्र पुण्योदय है कि हमने आचार्य महाराज और उनकी तेजस्वी शिष्य परम्परा के साक्षात् दर्शन करके अपने नेत्रों को सफल किया है। वर्तमानकालीन मुनिराजों में मोरेना मुनि अनंतकीर्ति महाराज, आरा में शुभचन्द्र और शिवभूति जी, अग्नि की तीव्र ज्वाला से संतप्त होने पर भी समभाव से कष्ट सह घोरोपसर्ग Jain Education International आचार्य देशभूषण जी महाराज भगवान् महावीर स्वामी की २५०० वीं निर्वाण महोत्सव राष्ट्रीय कमेटी की प्रथम बैठक में पार्लियामेन्ट भवन में पधारे। उनके वक्तव्य का अच्छा प्रभाव पड़ा। अब देश के किसी भी भाग में मुनिविहार पर पाबन्दी नहीं लग सकती । आज दिगम्बर जैन साधुओं की संख्या डेढ़ सौ के लगभग होगी। कुछ लोग उनकी आलोचना करते हैं। सुधार की भावना से आलोचना करना बुरा नहीं है, परन्तु छिद्रान्वेषण करना बुरा है। हमारे साधुसमाज में कमी हो सकती है। गृहस्थ और साधु दोनों मिकर उसका निराकरण कर सकते हैं। आवश्यकता है साधु समाज में धार्मिक शिक्षण की। न्याय, व्याकरण, सिद्धान्त और अध्यात्म विषयों की उन्हें पूरी जानकारी हो । ज्ञानाराधन में उनकी रुचि जगाना हमारा प्रथम कर्त्तव्य है । इसके बिना साधु समाज में जीवन शक्ति जागृत नहीं हो सकती । 1 संघ छोटे-छोटे हों, क्योंकि बड़े संघ सभी स्थानों पर रहने में कठिनाई का कारण बन जाते हैं। छोटे संघों द्वारा विभिन्न स्थानों को अधिक लाभ हो सकता है। संघ में एक कुशल व्युत्पन्न विद्वान् अवश्य हो । नगरों की अपेक्षा देहातों में प्रचारकर्त्ता विशेष हो । अब सभी धर्मों के अनुयायी अध्यात्म और शान्तिवर्धक तत्त्वों के For Private & Personal Use Only जून - जुलाई 2008 जिनभाषित 21 www.jainelibrary.org
SR No.524329
Book TitleJinabhashita 2008 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2008
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size6 MB
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