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दृष्टि गोचर होती है। पातालों की वायु सर्वकाल स्वभाव | उपर्युक्त प्रमाणों के अनुसार तिर्यंच तथा मनुष्यों से ही शुक्लपक्ष में बढ़ती है, एवं कृष्णपक्ष में घटती | में होनेवाला विभंगावधि, गुणप्रत्यय होता है। विशेष यह है। शुक्लपक्ष में प्रतिदिन २२२२२ / ९ योजन वायु बढ़ने | भी जानना चाहिये कि इसका उत्कृष्ट एवं जघन्यकाल से जल का तल भी इतना ही ऊपर हो जाता है। पूर्णिमा | अंतमुहूर्त ही होता है। को पातालों के अपने-अपने तीन भागों में से नीचे के जिज्ञासा-क्या पुण्य या शुभोपयोग सर्वथा हेय है? दो भागों में वायु और ऊपर के तृतीय भाग में केवल
समाधान- कतिपय तत्त्वजिज्ञासु शुभोपयोग को जल विद्यमान रहता है और नीचे के तीसरे भाग में केवल | अशुभोपयोग के समान बताते हुए उसे सर्वथा हेय ओर वायु रहती है। लवणसमुद्र के मध्य में अमावस्या के | संसार का कारण निरूपित करते हैं। उनका कहना है दिन जल की ऊँचाई समभूमि से ११००० योजन रहती कि शुभोपयोग और अशुभोपयोग दोनों रागात्मक हैं। राग है, जो प्रतिदिन ३३३४ योजन की वृद्धि होती हुई पूर्णिमा | संसार का कारण है, अतः हेय है। यह बात आगम को वह ऊँचाई १६००० योजन हो जाती है। के अनुकूल नहीं है। न तो शुभोपयोग अशुभोपयोग के
इस प्रकार यह ज्वारभाटा (समुद्र में पानी का | समान है और न ही वह संसार का कारण है। यह तल ऊपर उठना) केवल लवणसमुद्र में ही होता है, बात सत्य है कि शुभोपयोग और अशुभोपयोग दोनों अन्य में नहीं।
रागात्मक वृत्ति हैं। पर इतने भाव से ही दोनों समान प्रश्नकर्ता- सौ. संगीता नंदुरबार
नहीं हो सकते। देखा जाए तो नल और नाली दोनों में जिज्ञासा- विभंगावधिज्ञान गुणप्रत्यय है या भव | जल है, पर दोनों की गुणवत्ता में जमीन आसमान का प्रत्यय? समझाइयेगा।
अन्तर है। आचार्य गुणभद्र के अनुसार जैसे प्रभातकालीन समाधान- मिथ्यादृष्टि जीवों को जो अवधिज्ञान लालिमा के बिना सूर्योदय नहीं होता, उसी प्रकार शुभोपयोग होता है, वह विभंगावधि कहलाता है। देव तथा नारकी | के बिना शुद्धोपयोग नहीं होता। शुभोपयोग प्रभातकालीन जीवों में अवधिज्ञान नियम से पाया जाता है। अतः जो लालिमा हैं के समान है, तो अशुभोपयोग संध्याकालीन - देव या नारकी मिथ्यादृष्टि होते हैं, उनको होनेवाला | | ललिमा की भाँति है। आचार्य विद्यासागर जी ने लिखा अवधिज्ञान विभंगावधि है और वह भवप्रत्यय (जिसमें | है कि संतजनों के प्रति राग भी हमारे पाप को मिटानेवाला वह भव ही कारण हो) होता है।
है। जल कितना भी गर्म क्यों न हो, आग को बुझाने मनुष्य तथा तिर्यंच मिथ्यादृष्टि जीवों के विभंग- | की सामर्थ्य उसमें बनी रहती है। इसलिए आचार्य ने ज्ञान दो प्रकार से पाया जाता है।
शुभोपयोग को कर्मनिर्जरा का कारण बताया है। आगम (१) जिन सम्यग्दृष्टि जीवों को अवधिज्ञान उत्पन्न | में इसके पर्याप्त प्रमाण मिलते हैं। उनमें से कुछ प्रमाणों हुआ है, यदि वे मिथ्यात्व के उदय से मिथ्यादृष्टि हो | को हम यहाँ दे रहे हैं। जाते हैं, तो उनका अवधिज्ञान विभंगावधि हो जाता है। १. श्री अमृतचन्द्राचार्य ने तत्त्वार्थसार ४/१०३ में
(२) मिथ्यादृष्टि मनुष्य एवं तिर्यंचों में विभंगावधि | कहा हैज्ञान की उत्पत्ति भी देखी जाती है। जैसा गोम्मटसार | हेतुकार्यविशेषाभ्याम् विशेषः पुण्यपापयोः। जीवकांड गाथा ३०५ की टीका में कहाँ है- मिथ्यादर्शन
__ हेतू शुभाशुभौ भावौ, कार्ये च सुखासुखे॥ कलङ्कितस्य जीवस्य अवधिज्ञानावरणीयवीर्यान्तराय
अर्थ- पुण्य तथा पाप में हेतु और कार्य की विशेषता क्षयोपशमजनितं---विपरीतग्राहकं तिर्यग्मनुष्यगत्योः | से भेद है। पुण्य का हेतु शुभभाव है और पाप का तीव्रकायक्लेशद्रव्यसंयमरूपगुणप्रत्ययं---अवधिज्ञानं | हेत अशभभाव है। पुण्य का कार्य सख है और पाप विभंगमिति।
का कार्य दुःख है। ___ अर्थ-मिथ्यादृष्टि जीवों के अवधिज्ञानावरण एवं
२. आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने मोक्षपाहुड गाथा वीर्यान्तराय के क्षयोपशम से उत्पन्न, विपरीत ग्रहण करने | २५ में इस प्रकार कहा हैवाला, तिर्यंच तथा मुनष्यगति में, तीव्र कायक्लेशरूप | वर वयतवेहि सगो मा दमवं होट निट दयरेटिं। द्रव्यसंयम से उत्पन्न गुणप्रत्यय विभंगावधि है। | छायातवद्वियाणं, पडिवालंताण गुरुभेयं ॥ २५॥
40 जून-जुलाई 2008 जिनभाषित Jain Education International
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