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________________ अर्थ- जिस प्रकार छाया और धूप में स्थित पथिकों। अर्थ- सर्वज्ञ-व्यवस्थापित वस्तुओं में उपयुक्त . के प्रतिपालक-कारणों में बड़ा भेद है, उसी प्रकार पुण्य शुभोपयोग का फल पुण्यसंचयपूर्वक मोक्ष की प्राप्ति है। + और पाप में भी बड़ा भेद है। व्रत तप आदि रूप पुण्य आ. जयसेन ने भी उक्त प्रसंग में शुभोपयोग को श्रेष्ठ है, क्योंकि उससे स्वर्ग की प्राप्ति होती है। और | परम्परा से मोक्ष का कारण कहा है। उससे विपरीत अव्रत तथा अतप आदि रूप पाप श्रेष्ठ ८. पंचास्तिकाय गाथा १७० की उत्थानिका और नहीं है, क्योंकि उससे नरक की प्राप्ति होती है। | टीका में भी शुभोपयोग को परम्परा से मोक्ष का कारण ३. आदिपुराण पर्व ३७/२०० में आचार्य जिनसेन | कहा है-"अर्हदादिभक्तिरूपपरसमयप्रवृत्तिः साक्षान्मोक्षने इस प्रकार कहा है हेतुत्वाभावेऽपि परम्परामोक्षहेतुत्वसद्भावद्योतनमेतत्।" ततः पुण्योदयोद्भूताम् मत्वा चक्रभृतः श्रियम्। अर्थ- यहाँ अर्हन्त आदि की भक्तिरूप परसमय चिनुध्वं भो बुधाः पुण्यं यत्पुण्यं सुखसम्पदाम्॥ | की प्रवृत्ति (शुभोपयोग) साक्षात् मोक्ष का हेतु न होने अर्थ- हे पंडितजन! चक्रवर्ती की विभति को पुण्य | पर भी परम्परा से मोक्ष का हेत है. यह दर्शाया है। के उदय से उत्पन्न हुई मानकर, उस पुण्य का संचय | ९. ऐसा ही देवसेनाचार्य ने भावसंग्रह में कहा करो, जो समस्त सुख सम्पदाओं की खान है। (यदि | है-सम्मादिट्ठी-पुण्णं ण होइ संसारकारणं नियमा॥४०४॥ पुण्य को सर्वथा हेय ही कहना उचित होता, तो श्री अर्थ- नियम से सम्यक्दृष्टि का पुण्य संसार का जिनसेनाचार्य इस प्रकार ज्ञानियों को पुण्य-उपार्जन करने | कारण नहीं होता है। और भी देखेंका उपदेश क्यों देते)? १०. आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने प्रवचनसार गाथा ४. आत्मानुशासन श्लोक २३ में आचार्य गुणभद्र | ४५ में अर्हन्त भगवान् को पुण्यप्रकृति का फल कहा स्वामी ने इस प्रकार कहा है है 'पुण्णफला अरहंता' पुण्य का फल अरहंतपना है। ____ परिणाममेवकारणमाहुः खलु पुण्यपापयोः प्राज्ञाः। ११. उपर्युक्त की टीका में श्री अमृतचन्द्रस्वामी 1 तस्मात् पापापचयः पुण्योपचयश्च सुविधेयः॥ लिखते हैं कि- अर्हन्तः खलु सकलसम्यक्परिपक्वपुण्य अर्थ- बुद्धिमानों ने निश्चय करके पुण्य-पाप का | कल्पपादपफला एव भविन्त। कारण परिणामों को ही कहा है, अतः पाप का नाश अर्थ- अरहंत भगवान् वास्तव में सम्यक् प्रकार और पुण्य का संचय भली प्रकार से करना ही योग्य है। से सम्पूर्ण परिपक्व हुये पुण्यरूपी कल्पवृक्ष के फल ही ५. आचार्य पद्मनंदी महाराज ने भी पद्मनंदी हैं। पंचविंशतिका श्लोक १/१८८ में इस प्रकार कहा हैं- १२. आचार्य जयसेन स्वामी इसकी टीका इस प्रकार हे पंडितजनो! पुण्य राशि के भाजन हो, अर्थात् पुण्य | करते हैंका उपार्जन करो। यदि पुण्य सर्वथा हेय होता, तो सम्यग्दृष्टि । अर्थ- जो पंचमहाकल्याणक की पूजा उत्पन्न करने के पुण्य को मोक्ष का कारण क्यों कहा जाता? | वाला है, त्रिलोक को जीतनेवाला है, वह तीर्थंकर नाम ६. आ. कुन्दकुन्द स्वामी प्रवचनसार में कहते हैं- | का पुण्यकर्म है। इसी के फलभूत अरहंत भगवान् होते एसा पसत्थभूदा समणाणं वा पुणो धरत्थाणं। हैं। चरिया परेत्ति भणिदा ता एव परं लहदि सोक्खं ।। २५४॥ १३. श्री अकलंक स्वामी राजवार्तिक में इस प्रकार __अर्थ- यह प्रशस्तभूत चर्या अर्थात् शुभोपयोग मुनियों | लिखते हैंके गौणरूप से होता है, और गृहस्थ के मुख्यरूप से। 'तत्र पुण्यात्रवो व्याख्येयः प्रधानत्वात् तत्पूर्वक और वे उसी भाव से परम सौख्य अर्थात् मोदन को | त्वात् मोक्षस्य।' (७/१) प्राप्त करते है। ऐसा जिनेन्द्र भगवान् ने कहा है। | अर्थ- अब पुण्यास्रव का व्याख्यान करना चाहिए, ७. आ. अमृतचन्द्र ने प्रवचनसार गाथा २५६ की | क्योंकि वह प्रधान है। उस पूर्वक ही मोक्ष की प्राप्ति टीका में कहा है होती है। शुभोपोगस्य सर्वज्ञव्यवस्थापितवस्तुषु प्रणिहितस्य । १४. सर्वार्थसिद्धिकार ने पुण्य की परिभाषा अध्याय पुण्योपचयपूर्वकोऽपुनर्भावोपलम्भः किल फलम्। | ६/३ की टीका में इस प्रकार की है जून-जुलाई 2008 जिनभाषित 41 www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.524329
Book TitleJinabhashita 2008 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2008
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size6 MB
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