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________________ होते हैं। इसी कारण से, चक्रवर्ती जब म्लेच्छ खण्डों । पक्ष में पानी का तल ऊपर हो जाता है। यह ज्वारभाटा की विजय करता है, तब ३२००० रानियाँ भी म्लेच्छ खण्ड से आती हैं। श्री लब्धिसार के अनुसार इन म्लेच्छ खण्डों से आर्यखण्ड में आये हुये कर्मभूमिज म्लेच्छ तथा उनकी संतानों से उत्पन्न चक्रवर्ती की सन्तान भी दीक्षा के योग्य होती है। यहाँ के निवासी धार्मिक संस्कारों से शून्य होने के कारण नियम से प्रथम मिथ्यात्वगुणस्थान लवणसमुद्र में ही आता है, अन्य समुद्रों (कालोदधि आदि) में नहीं आता, क्योंकि उनमें पाताल नहीं है। पाताल सिर्फ लवण समुद्र में ही है । पातालों के संबंध में तिलोयपण्णति में इस प्रकार कहा हैं लवणोवहि- बहु- मज्झे, पादाला ते समंतदो होंति । अठुत्तरं सहस्सं जेट्टा मज्झा जहण्णा य ॥ ४-२४३८ । अर्थ- लवण समुद्र के बहुमध्य भाग में चारों ओर वर्ती ही होते हैं। आर्यखण्ड में रहनेवाले म्लेच्छो के संबंध में इस उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य एक हजार आठ पाताल प्रकार वर्णन प्राप्त होता है हैं। (१) श्री सर्वार्थसिद्धि ३ / ३६ में इस प्रकार कहा " कर्मभूमिजाश्च शकयवनशवरपुलिन्दादयः ।" अर्थ- जो शक, यवन, शवर और पुलिन्दादिक हैं, वे कर्मभूमिज म्लेच्छ हैं। ( २ ) श्री महापुराण में इस प्रकार कहा है- ये म्लेच्छ अर्धबर्बर देश में रहते थे, इनका शरीर पुष्ट और अंजन के समान काला, सूखे पत्तों के समान कांतिवाला ( कांतिहीन) तथा लाल रंग का होता था । ये पत्ते पहनते थे। हाथों में हथियार लिये रहते थे। मांस इनका भोजन था। इनकी ध्वजाओं में वराह, महिष, व्याघ्र, वृक और कंक चिन्ह अंकित रहते F ये म्लेच्छ हिंसाचार, मांसाहार, बलात् परधनहरण और धूर्तता करने में आनंद मानते थे । (३) श्री नियमसार गाथा १६ की टीका में कहा है म्लेच्छाः पापक्षेत्रवर्तिनः । अर्थ- पापक्षेत्र में रहनेवाले म्लेच्छ हैं । म्लेच्छ खण्ड में रहनेवाले मनुष्यों के संबंध में शास्त्रों में अधिक वर्णन देखने में नहीं आया। जो उपलब्ध हो पाया है, उसके अनुसार ऐसा प्रतीत होता है कि उपर्युक्त निन्द्य आचरणवाले म्लेच्छ आर्यखण्ड के अलावा म्लेच्छखण्ड में भी पाये जाते हैं । प्रश्नकर्त्ता - सौ. संगीता नंदुरबार । जिज्ञासा- क्या ज्वारभाटा लवणसमुद्र में ही आता हैं, अन्य समुद्रों में नहीं आता? कृपया आगम से बतायें समाधान करणानुयोग के ग्रंथ (त्रिलोकसार, तिलोयपण्णत्ति आदि) के अनुसार ज्वारभाटा आने का कारण यह है कि लवणसमुद्र में स्थित पातालों में शुक्ल Jain Education International चत्तारो पायाला, जेट्ठा मज्झिल्लआ वि चत्तारो । होदि जहण्ण सहस्सं, ते सव्वे रंजणायारा । ४- २४३९ ।। अर्थ- ज्येष्ठ पाताल चार, मध्यम पाताल चार और जघन्य पाताल १००० हैं । ये सब पाताल घड़े के आकार सदृश हैं। टंकुक्किण्णायारो, सव्वत्थ सहस्स जोयणवगाढो । चित्तोवरि तल - सरिसो, पायाल विवज्जिदो एसो ॥ ४-२७६३ ॥ अर्थ - टांकी से उकेरे हुये के सदृश आकारवाला यह कालोदधि समुद्र, सर्वत्र एक हजार योजन गहरा, चित्रा पृथ्वी के उपरिम तल भाग के सदृश अर्थात् समतल तथा पातालों से रहित है। उपर्युक्त तीन गाथाओं से यह स्पष्ट हो जाता है कि लवण समुद्र में १००८ पाताल हैं, जबकि कालोदधि में पाताल नहीं हैं। इसी कारण लवण समुद्र का पानी शुक्ल पक्ष में ऊपर उठ जाता है, जबकि कालोदधि समुद्र का नहीं। अब करणानुयोग के उपर्युक्त ग्रंथों के आधार से ज्वार भाटा (समुद्र के पानी का तल ऊपर उठ जाना) के संबंध में कुछ लिखा जाता है। ज्येष्ठ पाताल २००००० योजन गहरे, मध्यम पाताल २०००० योजन गहरे तथा जघन्य पाताल १००० योजन गहरे हैं। इनके ऊँचाई की अपेक्षा तीन भाग करने पर ऊपर के १ / ३ भाग में जल, मध्यम १ / ३ भाग में जल एवं वायु तथा नीचे के १ / ३ भाग में मात्र वायु है। इन तीन भागों में से मध्य का जल एवं वायुवाला भाग, निचले भाग की वायु से प्रेरित होकर चलाचल होता है। इस भाग के चंचलपने के कारण ही शुक्ल तथा कृष्ण पक्ष में लवणसमुद्र के जल की वृद्धि हानि For Private & Personal Use Only जून - जुलाई 2008 जिनभाषित 39 www.jainelibrary.org
SR No.524329
Book TitleJinabhashita 2008 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2008
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size6 MB
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