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चोर नहीं कहा, अपितु प्रत्येक व्यक्ति को कहा है कि । वे ही राजा, वही पतिदेव, वही तो है सब कुछ, पर प्रत्येक व्यक्ति मे प्रभुत्व छिपा है, जैसा मैं उज्ज्वल हूँ, | ये सब को छोड़ आये हैं। खैर कोई बात नहीं, जीवित . वैसे ही आप भी उज्ज्वल हैं, मात्र एक राग का आवरण | तो हैं, यही बहुत अच्छा है। माँ सोचती है मेरा लड़का है। वह (आत्मा) मणि है, रत्न है, हीरा है, किन्तु स्फटिक | अच्छा कार्य कर रहा है और वह माँ प्रणिपात हो जाती मणि धूल में गिरी हुई है, उसे धूल से बाहर उठा दो | है चरणों में, पत्नी भी प्रणिपात हो जाती है। मुनि महाराज वह चमकती हुई नजर आयेगी। इसीलिये किसी को | ने सब आगन्तुकों को समान दृष्टि से देखा। परिवारजनों चोर मत कहो। दूसरी बात यह है कि हमारा अधिकार | में अब एक और इच्छा हो गयी कि अब ये बोलेंगे ही क्या है दूसरे को चोर कहने का , जब तक हम | कुछ, मुख खोलेंगे। पर वे बोले नहीं, अब मात्र निहारना स्वयं साहूकार नहीं बनेंगे, तब तक दूसरे को चोर सिद्ध रह गया था। उन लोगों ने सोचा कि कोई बात नहीं, करने का क्या अधिकार? तब यह सारी लौकिक व्यवस्था | मौन होगा। ऐसा विचार कर वे 'नमोऽस्तु' कहकर वापिस फेल हो जायेगी। मैं फेल करने के लिये नहीं कह रहा | चलने को उद्यत हुये। पर आगे रास्ता बहुत विकट और हूँ बल्कि अपने आपको पूर्ण साहूकार सिद्ध करने के धुंधला-धुंधला सा दिख रहा था। माँ बोली- महाराज! लिये कह रहा हूँ। आप पूर्ण साहूकार बनो। बाहर से | आप मोक्षमार्ग के नेता हैं, 'मोक्षमार्गस्यनेतारं', मोक्षमार्ग तो आप साहूकार बन जाते हो, किन्तु अन्दर आत्मा में | को बतानेवाले हैं, तो संसार-मार्ग तो बता ही दीजिये, घटाटोप है चोरीपन का।
केवल यह बता दें कि यह रास्ता ठीक रहेगा कि नहीं? ___जब यह रहस्य एक राजा को विदित हुआ, तो | महाराज क्या कहें? दुविधा में पड़ गये। महाराज मौन वह राजा अपनी सारी सम्पदा व परिवार को छोड़कर | ही रहे। माँ बोली-महाराज! मौन हो तो सिर्फ इशारा जंगल का रास्ता ले लेता है। किसी से कुछ नहीं बोलता, ही कर दो। महाराज अचल बैठे रहे। मौन मुद्रा देखकर बस कदम आगे बढ़ते चले गये जंगल की ओर, भयानक | माँ ने सोचा कोई बात नहीं, यही मार्ग ठीक दिखता जंगल की ओर जहाँ निर्जन... तो है ही, साथ ही पाशविकता | है, चलो इधर ही चलें और वे चले गये। कुछ दूर । भी बहुत है, जहाँ हिंसक पशुओं का राज्य है, वे वहाँ बढ़ने के उपरान्त एक चुंगी-चौकी थी, वह डाकुओं के पर चले गये और आत्मलीन हो गये, इतने लीन हो | रहने का स्थान बन गया था। रास्ते में जो कोई भी आता गये कि अपने आपको भी भूलते चले गये। जो ग्रहण | था, वे उसे लूट लेते थे। उन राज परिवारवालों को देखकर का भाव था मन में, वह तो सब राजकीय सत्ता में डाकुओं ने कहा कि जो कुछ भी तुम्हारे पास है, वह छोड़कर आ गये थे, अब असंपृक्त हैं। बहुत दिन व्यतीत रखते जाओ। वह माँ, पत्नी, लड़का, सभी दंग रह गये, हो गये, तब परिवार के लोगों में उनके दर्शन करने | घबरा गये। माँ बोली- ओफ ओह! अन्याय हो गया। के भाव जागृत हुये और वे चल पड़े उन्हें ढूँढने। चलते- | अब यह पृथ्वी टिक नहीं सकेगी, अब इसकी गति चलते आगे रास्ता बहुत संकीर्ण होता गया, इतना संकीर्ण | पाताल की ओर हो जायेगी, यह आसमान फट जायेगा। कि मात्र पगडण्डी के अलावा कुछ था ही नहीं, बहुत | अब जीवन में न्याय ही न रहा। अब कहीं भी धर्म विकट, पर दर्शन तो करने हैं। माँ कहती है कि मेरा | नहीं मिलेगा। अब कहीं भी शरण नहीं है। हमने तो बेटा कितना सकमार था? आज तो उसके दर्शन करना सोचा था- हमारा लडका तीन लोक का नाथ बनने जा है। पत्नी सोचती है कि आज मुझे अपने पतिदेव के | रहा है, वह मार्ग प्रशस्त करेगा, आदर्श मार्ग प्रस्तुत करेगा, दर्शन करने हैं। अभी उसकी दृष्टि में वे पतिदेव ही दयाभाव दिखायेगा, पर वह इतना निर्दयी निकला कि थे, मुनि महाराज नहीं थे। सब चले जा रहे हैं, क्योंकि | यह भी न कहा कि इस रास्ते से मत जाओ, आगे डाकुओं संकल्प कर लिया है कि आज तो दर्शन करना ही है। का दल है। ओफ ओह, काहे का धर्म, काहे का कर्म? बढ़े चले जा रहे थे सब, आगे रास्ते में दो मार्ग थे, धिक्कार है उस बच्चे को। अब भी बच्चा कह रही अब किधर बढ़े? एक मार्ग पर चल पड़े, चलते-चलते | है, मुनि महाराज नहीं कह रही है। अभी लड़का है, मिल गये मुनि महाराज! देखते ही बहुत उल्लास हुआ। ज्ञान तो है नहीं, उसे तो यह भी मालूम नहीं कि दया बीते दिनों की स्मृति हो आई। पत्नी सोचती है कि देखो | करनी चाहिए। दयाभाव जिसके पास नहीं है, वह क्या ।
10 जून-जुलाई 2008 जिनभाषित
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