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________________ कि हमको धन नही मिला, वस्तुतः पीड़ा यह है कि | बनेगा जब तक कि अपने संस्कारों को पूर्ण रूप से हमारा ज्ञान अधूरा है, जबकि हम समझ रहे हैं कि हम | मिटा नहीं पायेगा। 'आप चोर से नहीं, चौर्य भाव से पूर्ण हैं। नफरत कीजिये, पापी से नहीं, पाप से घृणा कीजिये।' चोरी को तो आप छोड़ सकते हैं, किन्तु चोरी | पापी से मत पाप से, घृणा करो अयि आर्य। क्या है. पहले यह समझना परमावश्यक है। प्रत्येक व्यक्ति। नर से नारायण बनो, समयोचित कर कार्य। समझता है कि मैं साहूकार हूँ। क्या चोरी के त्याग का अनादिकालीन चोरी का कार्य उसने किया (जीव संकल्प लिया है? नहीं, आवश्यकता भी क्या है? हाँ | ने) इसमें तो कोई सन्देह नहीं है, फिर भी वह त्रैकालिक मन कह रहा है कि त्याग मत कर। इस सिद्धान्त को | संभव नहीं है कि जिसने आज तक चोरी की है, वह समझिये। अनादिकाल से यह परम्परा चल रही है. यह आगे भी चोरी का ही कार्य करता रहे। अज्ञान दशा कोई नवीन परम्परा नहीं है, इस पर कुठाराघात करने | में की है, कोई बात नहीं, किन्तु अब तो आँखें खुल के लिये आप उद्यत हो जाओ। यह व्रत एक बार में | गयीं, अब तो नींद खुल गयी, अब तो दृष्टि मिल गयी पूर्ण नहीं होगा, यह भी ध्यान रखना। इस पर बार- | कि मेरा क्या कर्त्तव्य है? मुझे क्या करना है? जिस व्यक्ति बार कुल्हाड़ियों से प्रहार करना आवश्यक है और जोर | को यह विदित हुआ, वह व्यक्ति स्वयंकृत अनर्थ को के साथ प्रहार करने की आवश्यकता है। पूरा दम लगाकर | अनर्थ समझकर छोड़ देगा। उसको ऐसा ज्ञान मिला है, पटको उसके ऊपर कुल्हाड़ा तभी वह जड़ / मूल से | इसलिये अब चोरी से भी निवृत्ति लेनी है, किन्तु चोर कट सकता है, क्योंकि यह बहुत दिन का संस्कार है। से नहीं। वह चोर तब तक ही है, जब तक कि चोरी पर के ऊपर ग्रहणभाव को लेकर जो हमारी दृष्टि करता है। चोरी छोड़ देंगे तो साहूकार बन जायेंगे। हुई है, उसको आप एक साथ नहीं छोड़ सकेंगे, पर आप संसारी कब तक कहलायेंगे? जब तक ये छोड़े बिना भी निस्तार नहीं है। तो क्या ये सब के सब | कार्य करते रहेंगे, जब इनको छोड़ देंगे तो मुक्त कहलायेंगे, 'चोर सिद्ध हो गये और यह चोर बाजार? मुझे ऐसा लगता | भगवान् कहलायेंगे, आप किसी को चोर मत कहिये। है कि वर्तमान में इसलिए भगवान् महावीर यहाँ पर | आचार्य कुन्द-कुन्द ने कहा है कि जिस व्यक्ति को आपने नहीं हैं क्योंकि एक चोरबाजार में यदि कोई साहूकार | 'चोर' कहकर पुकारा वह व्यक्ति चोर है, आप बरसों हो भी, तो उस साहूकार को भी चोर की ही उपाधि | तक उसे ऐसे ही पुकारते रहेंगे, तो ऐसी स्थिति में वह मिलेगी।' समझ लेगा कि मैं तो चोर हूँ ही, अब चोरी करने का प्रत्येक व्यक्ति पर को चोर सिद्ध करता है और | भाव छूटे कैसे? इसलिये यदि चोर की चोरी छुड़ानी स्वयं को साहूकार सिद्ध करता है। 'चोर-चोर को डाँट | है, तो उसे चोर मत कहो, उसे समझाओं कि आपको नहीं सकता।' हाँ, एक चोर अपनी चोरी की गलती को यह कार्य ठीक नहीं है, आपका कर्तव्य तो अचौर्य हे, पहचान करके उसको यदि छोड़ने का प्रयास कर रहा | तो अपने आप चोरी का त्याग हो जायेगा किन्तु हम है, तो अब वह चोर नहीं है यह ध्यान रखना। आचार्य | तो डाँटते हैं दूसरों को कि तुम तो चोर हो, तुमको मालूम कहते हैं कि जिस समय जीव के चोरी के भाव रहते | नहीं कि 'भगवान् महावीर का सिद्धान्त क्या है? प्रत्येक हैं, उसी समय जीव को चोर कहा जाता है, जिस समय | समय भावों का परिणमन हो रहा है। वर्तमान में भूत भाव नहीं हैं, किन्तु चोरी छोड़ने के भाव हैं, उस समय | का भी अभाव है और भविष्य का भी अभाव है।' साहूकार कहा जाता है, साहूकार कहा क्या जाता है, | जब चोर को इस प्रकार डाँटा जा रहा है, तो वह इस वह साहूकार है ही। समय चोरी के भाव नहीं छोड़ सकता, बल्कि आगे जाकर जो व्यक्ति अनागत में भी चोरी करना चाहते हैं, और भी बड़ा चोर बन सकता है। उसे सिद्धान्त समझाओ वे साहूकार न बनें हैं, न बनेंगे। अतीत में तो वह साहूकार | कि यह चोरी ठीक नहीं है। था ही नहीं, इसको तो वह मंजूर कर लेता है और आप आत्मा को ठीक नहीं मान रहे, किन्तु आत्मा आगे के लिये वह प्रायश्चित करने को तैयार हो जाता | तो ठीक है, आत्मा का परिणमन ठीक नहीं है, वह है, तो वह साहूकार बन सकता है, किन्तु तब तक नहीं | पापमय है। इसलिये भगवान् महावीर ने किसी को भी जून-जुलाई 2008 जिनभाषित 9 www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.524329
Book TitleJinabhashita 2008 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2008
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size6 MB
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