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________________ जैनदर्शन में संसार का स्वरूप ब्र. प्यारेलाल जी बड़जात्या, अजमेर भारतीय दर्शनों में सबसे अधिक प्राचीन अथ च । में मिलता है। संसार, असंसार, नोसंसार और इन तीनों अनादिनिधन जैनदर्शन है और उसके अपने मौलिक | से विलक्षण इस प्रकार चार अवस्थाएँ हैं। अनेक योनियों सिद्धान्त भी हैं, जो अन्य दर्शनों की अपेक्षा अनेक | से युक्त चारों गतियों में परिभ्रमण करना संसार है। पुनः विशेषताओं को, लिये हुए हैं। सभी भारतीय दर्शनों के | पुनः जन्म नहीं लेना अथवा शिवपद की प्राप्ति या परमसुख चिन्तन का आधार केन्द्र आत्मा रहा है। सभी दर्शनों की प्रतिष्ठा असंसार है। चतुर्गतिरूप संसारपरिभ्रमण का ने अपने-अपने ढंग से आत्मा के अस्तित्व और स्वरूप | तो निरोध हो जाता, किन्तु अभी मोक्ष की प्राप्ति नहीं का चिन्तन किया है। जैन दर्शन की चिन्तनपद्धति ही | हुई है, ऐसी जीवनमुक्त सयोगकेवली की अवस्था ईषत्संसार अपने आपमें विलक्षण है। आत्मसुख की चर्चा करते | या नोसंसार है। अयोगकेवली इन तीनों से विलक्षण हैं हुए जैनदर्शन ने एक ही बात कही है कि आत्मा अनादि- | अर्थात् इनके चतुर्गतिरूप संसारपरिभ्रमण का तथा काल से संसारपरिभ्रमण करते हुए विभिन्न प्रकार के | मुक्तावस्थारूप असंसार का तो अभाव है, किन्तु प्रदेश मानसिक, कायिक और आकस्मिक आदि अनेक दुःखों | परिस्पन्द का भी अभाव है, जो सयोग केवली में नहीं की अबाध चक्की में पिसता रहा है और अब वह दुःखों | होता, ऐसी चौथे ही प्रकार की अवस्था अयोग केवली की श्रृंखला का नाशकर सुखी होना चाहता है, तो सर्वप्रथम | के पाई जाती है। उसे इस बात की गवेषणा करनी होगी कि मेरा | पंचपरावर्तनरूप संसार संसारपरिभ्रमण किन कारणों से हो रहा है और उसका जिस संसरणरूप संसार की चर्चा ऊपर की गई अन्त किस प्रकार हो सकता है। अनादिकालीन संसारपरिभ्रमण| है वह द्रव्य. क्षेत्र. काल. भव और भावपरिवर्तन के भेद का कारण जैनाचार्यों ने मिथ्यात्व को बताया है और | से पाँच प्रकार का है। मिथ्यात्व का विरोधी सम्यक्त्व है। सम्यक्त्व जीव की| द्रव्य परिवर्तन- नोकर्म द्रव्यपरिवर्तन और कर्मद्रव्यचिन्तनधारा को समीचीनता प्रदान करता है। मिथ्यात्व | परिवर्तन के भेद से द्रव्यपरिवर्तन दो प्रकार हैके कारण जिस संसारपरिभ्रमण का कभी अन्त नहीं होता, किसी एक जीव ने तीन शरीर और छह पर्याप्तियों ऐसे अनन्तसंसार का स्वरूप एवं सम्यक्त्व के कारणभूत | के योग्य पुद्गलों को एक समय में ग्रहण किया। अनन्तर जीवादि तत्त्वों का चिन्तन ही प्रस्तुत लेख का विषय | वे पुद्गल स्निग्ध या रूक्ष स्पर्श तथा वर्ण व गन्ध आदि | के द्वारा जिस तीव्र, मन्द और मध्यमभाव से ग्रहण किय "संसरणं संसारः परिवर्तनमित्यर्थः।" "कर्मविपा- | थे, उस रूप से अवस्थित रहकर द्वितीयादि समयों में कवशादात्मनः भवान्तरावाप्तिः संसारः" अर्थात् संसरण | निर्जीर्ण हो गये। तत्पश्चात् अगृहीत परमाणुओं को करने को संसार कहते हैं, जिसका अर्थ परिवर्तन है। अनन्तबार ग्रहण करके छोड़ा, गृहीतागृहीतरूप मिश्र कर्म के विपाक वश से आत्मा को भवान्तर की प्राप्ति | परमाणुओं को अनन्तबार ग्रहण करके छोड़ा और बीच होना संसार है। अथवा जीव एक शरीर को छोड़ता है | में गृहीतपरमाणुओं को अनन्तबार ग्रहण करके छोड़ा। और दूसरे नये शरीर को ग्रहण करता है, पश्चात् उसे | तत्पश्चात् जब उसी जीव के सर्वप्रथम ग्रहण किये गये भी छोड़कर दूसरा नया शरीर धारण करता है। इस प्रकार | वे ही परमाणु उसी प्रकार से नोकर्मभाव को प्राप्त होते अनेक बार शरीर को धारण करता है और अनेक बार | हैं, तब यह सब मिलकर एक नोकर्म-द्रव्यपरिवर्तन है। उसे छोड़ता है। मिथ्यात्व-कषाय आदि से युक्त जीवका | एक जीव ने आठ प्रकार के कर्मरूप से जिन इस प्रकार अनेक शरीरों में जो संसरण (परिभ्रमण) होता| पुद्गलों को ग्रहण किया वे समयाधिक एक आवलीकाल है उसे संसार कहते हैं। के बाद द्वितीयादि समयों में निर्जीर्ण हो गये। पश्चात् आत्मा की चार अवस्थाओं का वर्णन भी जैनागम | जो क्रम नोकर्म द्रव्यपरिवर्तन में बतलाया है उसी क्रम • जून-जुलाई 2008 जिनभाषित 23 www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.524329
Book TitleJinabhashita 2008 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2008
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size6 MB
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