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________________ असार है, इसमें जब तक समता की दृष्टि नहीं आयेगी । करके प्रत्येक व्यक्ति कुछ आदर्श धारण कर सके। इसमें बन्धुओ, हमारे सामने चाहे महावीर भगवान् भी आ जायें तो भी हम उनको पहचान नहीं पायेंगे, क्योंकि राग की दृष्टि, द्वेष की दृष्टि वीतरागता को ग्रहण नहीं कर सकती, उसकी दृष्टि में वीतरागता भी राग है और जिस व्यक्ति की दृष्टि वीतराग बन गई उस व्यक्ति की दृष्टि में राग भी वीतरागता में ढल जाता है। कोई सन्देह नहीं कि इसके लिये पुरुषार्थ आपेक्षित है इसके लिये त्याग आपेक्षित है, इसके लिये सहिष्णुता की आवश्यकता है, संयम व तप की आवश्यकता है, किन्तु लक्ष्य हो वीतराग-दृष्टि का । यह है अस्तेय महाव्रत जिसमें चोर को चोर भी नहीं कहा। आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि जो चोर को चोर कहता है, वह भी बड़ा चोर है। साहूकारी सिखाना ही एक मात्र अचौर्य महाव्रत है संसारी जीव यद्यपि पतित है, पावन नहीं है, लेकिन पावन बनने की क्षमता रखता है, जिससे हमारे में इतनी सहिष्णुता आ जाये कि चोर को भी चोर न कहें, डाँटे नहीं, किन्तु डाँटते हुये भी उसे साहूकार बनने का शिक्षण तो दें ही। आप डॉयरेक्ट डाँटने न लग जायें, वह समता दृष्टि अपने अन्दर आ जाये, जिससे हमारी परिणति उज्ज्वल हो, हमारी परिणति इतनी सुन्दर हो कि जगत् को भी वह सुन्दर बना सके और उस सुन्दरता का दिग्दर्शन एक परिवार में तीन ही सदस्य थे पति-पत्नी और उन का एक बेटा । जवान होने पर धूमधाम से बेटे का विवाह कर दिया गया। बहू घर में आई । वह देखने में बहुत सुंदर थी । बोलती भी बहुत मीठा थी, पर अपढ़ थी। अपढ़ ही नहीं, ना समझ भी थी । अनपढ़ बहू और शिक्षित सास एक दिन पड़ौस में किसी के यहाँ मौत हो गयी थी । सास किसी कार्य में व्यस्त थी । उसने बहू को भेजा वहाँ सान्त्वना देने के लिए। बहू वहाँ गयी और शाब्दिक सान्त्वना देकर आ गई। उसने न दुःख व्यक्त किया और न वह रोई । सास ने कहा / समझाया कि वहाँ रोना आवश्यक था बहू । योग की बात है अचानक दूसरे ही दिन पड़ौस के एक अन्य घर में पुत्र का जन्म हुआ । सास ने फिर बहू को वहाँ भेजा । सास के बताये अनुसार वहाँ पहुँच बहू ने रोना शुरू कर दिया। कुछ देर रोती रही। पश्चात् अपने घर लौट आई। घर लौटी तो सास के पूछने पर उसने सास को बताया कि आपके कहे अनुसार मैंने वहाँ जाते ही रोना शुरु कर दिया था । 12 जून - जुलाई 2008 जिनभाषित Jain Education International निन्दा करे स्तुति करे तलवार मारे, या आरती मणिमयी सहसा उतारे । साधु तथापि मन में समभाव धारे, बैरी सहोदर जिन्हें इक सार सारे ॥ भगवान् महावीर स्वामी की जय ! 'चरण आचरण की ओर' से साभार सास ने बहू को फिर समझाया 'क्या करती हो? बहू वहाँ तो तुझे प्रसन्न होकर गीत गाना चाहिए था, अब आगे ध्यान रखना।' बहू ने सास की यह बात भी बड़े ध्यान से सुनी। फिर एक दिन की बात है, वह बहू ऐसे घर में गयी जहाँ आग लग गई थी । उसने सास के कहे अनुसार वहाँ गीत गाये और प्रसन्नता व्यक्त की । अनपढ़ बहू के समयोचित कार्य न करने से उसके कार्यों की सभी ने निंदा की। वह सर्वत्र हँसी की पात्र बनी। आवश्यक कार्यों को समयोचित करने के लिये बुद्धिमत्ता आवश्यक है। विवेक और बुद्धि के अभाव में ऐसी ही दशा हर अज्ञानी की है। आवश्यक कार्य करना नहीं और वासना का दास बना रहता है। आवश्यक कार्य है- मन और इन्द्रियों को समय पर ( विषयों के आधीन होते समय ) वश में करना । जो ऐसा नहीं करते, महर्षि उनके क्रिया कलाप देखकर हँसते हैं। For Private & Personal Use Only संकलन- सुशीला पाटनी आर. के. हाऊस, मदनगंज- किशनगढ़ www.jainelibrary.org
SR No.524329
Book TitleJinabhashita 2008 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2008
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size6 MB
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