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________________ एक रहता है, तब तक वह अनुभव करता है कि- | समझना आवश्यक है और आचार्य समझा रहे हैं- यह हाँ मैं अपराधी हूँ, मैंने अपराध किया है, मैं उसका | प्रयास करें कि यह जेल छूटे। हे प्रभु! हमारा यह जेल यह दण्ड भोग रहा हूँ। जब अपराधियों की संख्या बढ़ | कब छटेगा? जाती है, तो फिर उसमें भी एक प्रकार का मजा आना | आप खुश हैं, हँसते हैं कि हम तो जेल में हैं प्रारम्भ हो जाता है, कुछ समय पूर्व सुना था कि सत्याग्रह | ही नहीं और जो दूसरे (लौकिक) जेल में हैं, उनको करनेवाले चलाकर अपने आप को जेल में प्रविष्ट करा | देखकर हँसते हैं। पर बन्धुओ! यह जेल-जेल नहीं है, रहे हैं। केवल एक-दो व्यक्तियों को जेल में बंद करते, | वह तो नकली, दिखावटी जेल है क्योंकि उसके परिणाम तो कोई जाने की होड़ नहीं करता, पर सब जा रहे | तो अभी भी स्वतन्त्र हैं, वह भाव के माध्यम से अभी हैं, तो शेष लोग सोचते हैं कि चलो वहाँ पर विशेष | भी चोरी कर रहा है। जेल में रहते हुये भी वह भावों प्रबन्ध होगा। बहुमत के कारण हम अपने अपराध को | के माध्यम से अपराधी है, उस जेल में मात्र शरीर के भूलते जा रहे हैं, एक दूसरे के साथी बनते चले जा | ऊपर अधिकार हुआ है, मात्र शरीर बंधन में है, किन्तु रहे हैं। वह आत्मा अभी भी स्वतन्त्र नहीं है। इस शरीर को कारा समझो। यहाँ पर आप (शरीर- पराई वस्तु पर दृष्टि जाये भले ही, किन्तु वह वाले) बहुमत या बहुसंख्यक होने से 'स्वतन्त्रता का | दृष्टि पकड़ने की नहीं होनी चाहिए। आचार्य कुन्दकुन्द अनुभव कर रहे हैं। मुक्त जीवों की संख्या व संसारी | कहते हैं कि दूसरे को पकड़ने के भाव ही नरक व जीवों की तुलना की जाये, तो संसारी जीवों की संख्या | दुःख हैं। जितना आप देखेंगे- जानेंगे उतना सुख व आनन्द अधिक होगी। अतः साहूकार वे हैं कि आप हैं? सत्य | बढ़ता जायेगा। विश्व को जानेगा तो और ज्यादा बढ़ेगा, की परिभाषा बहुमत के माध्यम से नहीं होती, साहूकार | इतना कि जिसकी कोई सीमा नहीं रहेगी, अनन्त जिसका की परिभाषा बहुमत के माध्यम से नहीं बनती, एक | कोई अन्त नहीं, जिसका कोई छोर नहीं, जिसका कभी *के माध्यम से भी नहीं बनती, अपितु सत्य की परिभाषा | अभाव नहीं, जिसमें किसी प्रकार की कमी नही आ भावों के ऊपर निर्धारित है। अतः अहर्निश अपने परिणामों | सकती, ऐसा है वह अनन्त सुख। वह सुख कौन प्राप्त को सुधारने का प्रयास करना चाहिये। लौकिक सत्ता के | कर सकता है? उस सुख को वही प्राप्त कर सकता माध्यम से जो कुछ भी हमारी स्थिति सुधरती है उससे | है, जो अपने आपको जितना जानेगा, जितना देखेगा। किन्तु इंकार नहीं है, बाहरी स्थिति का कोई निषेध नहीं है, | कैसे देखेगा? कैसे जानेगा? कैसे पहचानेगा? अपने आप किन्तु इतना सा ही हम लोगों का धर्म नहीं है। इसके | में होगा, तब अपने ऊपर अधिकार रखेगा, तब पहचानेगा, माध्यम से हम लोग एक ही भव में कुछ समय के | जानेगा, देखेगा।। लिये आनन्द देख सकते हैं, सुख देख सकते हैं, यश- 'सकल ज्ञेय ज्ञायक, तदपि निजानन्द रस लीन' ख्याति मिल सकती है, किन्तु जो विकारी परिणति है,| विश्व को जाना, विश्व के ज्ञेयरूप पदार्थ को उस परिणति को हटाये बिना हम भव-भव में आनन्द | पहचाना, देखा, किन्तु आनन्द की अनुभूति विश्व मे नहीं की अनुभूति नहीं कर सकते। जब यह भव-भ्रमण नहीं| अपितु-'निजानन्द रसलीन' आप लोग सकल ज्ञेय ज्ञायक रहेगा तब आनन्द की अनुभूति होना प्रारम्भ हो जायेगी। तो हैं ही नहीं, आपका ज्ञेय शकल है- शकल का अर्थ आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि चोर वह है जो है टुकड़े, शकल का अर्थ है ऊपर का आकार इतना 'पर' वस्तु का ग्रहण करने का संकल्प करता है, चाहे | ही आप जानते हैं। आपका ज्ञान इतना सीमित है कि उसका संकल्प पूर्ण हो या न हो, उसके विचार साकार | मात्र शकल को देख सकता हैहों या न हों, वह वस्तुस्थिति को समझ नहीं रहा, इसलिये 'सकल ज्ञेय ज्ञायक तदपि, धनानन्द रस लीन' उसके विचार साकर नहीं होंगे कि- मैं इसको ग्रहण आप दूसरे पदार्थ में लीन हैं और समझ रहे हैं कि करूँ मैं उसको ग्रहण करूँ। प्रत्येक पदार्थ का अस्तित्व | बहुत सुखी हो गये हैं, 'हम बहुत सन्तुष्ट हैं', बिल्कुल भिन्न-भिन्न है और उस अस्तित्व के ऊपर हमारा कोई | रामराज्य चल रहा है, भले ही अन्दर रावण का ताण्डव अधिकार नहीं जम सकता, संसारीप्राणी के लिये यह | नृत्य हो रहा हो, पर बाहर से तो राम-राज्य चल रहा है। जून-जुलाई 2008 जिनभाषित 7 www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.524329
Book TitleJinabhashita 2008 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2008
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size6 MB
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