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________________ कुन्दकुन्द की दृष्टि में असद्भूत-व्यवहारनय प्रो० रतनचन्द्र जैन अज्ञानियों में अनादिकाल से परद्रव्यों का कर्ता-। का अवयव है। आचार्य अमृतचन्द्र ने स्पष्ट शब्दों में हर्ता आदि होने का जो अध्यवसान (मिथ्या अभिप्राय)| 'जीव कर्मों से बद्ध है' ऐसा कथन करनेवाले असद्भूत है उसे आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार की | व्यवहारनय को 'श्रुतज्ञानावयवभूतयोर्व्यवहारनिश्चयनय एवं ववहारणओ पडिसिद्धो जाण णिच्छयणयेण। पक्षयोः' इन शब्दों में श्रुतज्ञान का अवयव बतलाया है। णिच्छयणयासिदा पुण मुणिणो पावंति णिव्वाणं॥| कारण यह है कि असद्भूत-व्यवहारनय निमित्त नैमित्तिकादि इस २७२वीं गाथा में व्यवहारनय संज्ञा दी है और निश्चय- | यथार्थ सम्बन्धों पर आश्रित होता है। इन सम्बन्धों के । नय के उपदेश द्वारा उसका प्रतिषेध किया है। इसलिए | आधार पर ही उसमें एक वस्तु पर दूसरी वस्तु के धर्म । कुछ आधुनिक विद्वानों ने असद्भूत व्यवहारनय को का प्रयोजनवश आरोप किया जाता है। इसलिए उसकी अज्ञानियों का अनादिरूढ़ व्यवहार मान लिया है और | भाषा कैसी भी हो, जिस धर्म की अपेक्षा उसका कथन उसे प्रमाण का अवयव मानने से इनकार कर दिया है। होता है. उस धर्म का ही प्रतिपादन उसका प्रयोजन होता वे प्रतिपादित करते हैं कि असद्भूत-व्यवहारनय वस्तुधर्म | है और उसी धर्म की अपेक्षा से वह सत्य होता है। का निरूपण नहीं करता, मात्र एक वस्तु पर दूसरी वस्तु | जैसे कोई ज्ञानी पुरुष जीव को पुद्गल कर्मों का कर्ता के धर्म का आरोप करता है। उनकी यह मान्यता | कहता है, तो निमित्तभाव की दृष्टि से कहता है, 'जयपुरतत्त्वचर्चा' (भाग २/पृ.४३६) में निम्नलिखित | उपादानभाव की दृष्टि से नहीं। अतः निमित्तभाव की वक्तव्य से स्पष्ट होती है। दृष्टि से यह कथन सत्य है। नय में प्रयुक्तभाषा का "अब रहा असद्भूत व्यवहारनय, सो उसका विषय | आशय तद्गत अपेक्षा पर ध्यान देने से स्पष्ट होता है। मात्र उपचार है। समयसार गाथा ८४ में पहले आत्मा | दूसरी बात यह है कि ज्ञानियों का अभिप्राय ही को व्यवहारनय से पुद्गल कर्मों का कर्ता और भोक्ता | नय कहलाता है, अज्ञानियों का नहीं, क्योंकि ज्ञानियों के बतलाया गया है, किन्तु यह व्यवहार असद्भूत है, क्योंकि | ही अभिप्राय में कथंचित्त्व रहता है, अज्ञानियों के अभिप्राय अज्ञानियों का अनादि संसार से ऐसा प्रसिद्ध व्यवहार है, | में नहीं। इसलिए अज्ञानियों के अभिप्राय को असद्भूत इसलिए गाथा ८५ में दूषण देते हुए निश्चयनय का व्यवहारनय नहीं कह सकते। अज्ञानियों का परद्रव्यों के अवलम्बन लेकर उसका निषेध किया गया है।" | कर्ता-हर्ता होने का अभिप्राय निश्चय-निरपेक्ष होता है, किन्तु यह मान्यता समीचीन नहीं है। सत्य यह | इसलिए उनका यह अभिप्राय असद्भूत-व्यवहारनय नहीं है कि आचार्य कुन्दकुन्द ने व्यवहारनय संज्ञा देकर परद्रव्यों कहला सकता, ज्ञानियों का निश्चय-सापेक्ष होता है, के कर्तृत्वहर्तृत्वादि अभिप्राय को कथंचित् सत्य सिद्ध | इसलिए असद्भूत-व्यवहारनय संज्ञा पाता है। किया है, क्योंकि 'नय' शब्द कथंचित्त्व का द्योतक है। असद्भूत-व्यवहारनय की परिभाषा ही विवेकगर्भित उक्त अभिप्राय में कथंचित् अर्थात् निमित्तनैमित्तिक भाव | है। परिभाषा के अनुसार निमित्त और प्रयोजन होने पर की अपेक्षा सत्यता है, किन्तु अज्ञानी उसे सर्वथा सत्य | अन्यत्र प्रसिद्ध धर्म का अन्यत्र समारोप असद्भतमानते हैं, इसलिए उनके सन्दर्भ में वह मिथ्या अभिप्राय व्यवहारनय कहलाता है-"अन्यत्र प्रसिद्धस्य धर्मस्यान्यत्र है, किन्तु ज्ञानी उसे सर्वथा सत्य न मानकर कथंचित् सत्य | समारोपणमसद्भूतव्यवहारः। असद्भूतव्यवहार एव मानते हैं, इसलिए उनके सन्दर्भ में वह व्यवहारनय है।। उपचारः।" (आलापपद्धति/सूत्र २०७-२०८)।"मुख्याभावे 'नय' शब्द मिथ्या अभिप्राय या मिथ्या कथन का सति प्रयोजने निमित्ते चोपचार: प्रवर्तते।" (वही / सूत्र वाचक नहीं है, अपितु सापेक्ष कथन का वाचक है। शशशृंग | २१२)।" अतः निमित्त और प्रयोजन दृष्टि में रखकर के समान सर्वथा असत् वस्तु नय का विषय नहीं बन | ही अन्यत्र प्रसिद्ध धर्म का अन्यत्र समारोप करना असद्भूत सकती। नय तो प्रमाण का अंश है, अप्रमाण का नहीं। व्यवहारनय है। विमूढ़तापूर्वक ऐसा करना असद्भूत व्यवहारनय भी अज्ञान का अंश नहीं है, अपितु श्रुतज्ञान ! व्यवहारनय नहीं है। वह अज्ञानियों का ही अनादिरूढ़ 26 जून-जुलाई 2008 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524329
Book TitleJinabhashita 2008 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2008
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size6 MB
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